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सिनेमा

सिनेमा : शिक्षा का एक नया आयाम

अतुल कुमार


‘सिनेमा इन स्कूल’ अभियान लगातार अपना कार्य क्षेत्र बढ़ा रहा है. इस अभियान की शुरुआत नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के साथ शुरू हुई थी लेकिन अब सिनेमा को स्कूली शिक्षा से जोड़ने का यह प्रयोग अन्य स्कूलों में भी पहुंच रहा है. अब यह अभियान रामनगर के शाइनिंग स्टार स्कूल में भी शुरू हो रहा है.

पिछले महीने स्कूल के प्रबंधक डी.एस. नेगी जी ने हमारी टीम से बात करते हुए अपने स्कूल में भी सिनेमा अभियान की शुरुआत करने को लेकर अपनी रुचि दिखाई. चर्चा इस बात पर समाप्त हुई कि ‘सिनेमा इन स्कूल’ की तरफ से शिक्षकों के लिए एक वर्कशॉप और छात्रों के लिए फ़िल्म स्क्रीइनिंग आयोजित की जाए ताकि स्कूल में लगातार सिनेमा से जुड़ी गतिविधियाँ होती रहे. वर्कशॉप का आईडिया यह था कि शिक्षक सिनेमा माध्यम को समझते हुए इसे अपने पाठ्यक्रम में शामिल करें और कक्षाओं में भी सिनेमा स्क्रीनिंग के जरिये सिनेमा देखने, समझने और उस पर बात करने की एक नई परम्परा शुरू हो.

पहले दिन शिक्षकों के साथ वर्कशॉप में इन विषयों पर चर्चा हुई कि सिनेमा एक ऑडियो – विजुअल माध्यम है जिसका प्रभाव दर्शकों पर तत्काल होता है इसलिए छात्रों को इस माध्यम का महत्त्व से कैसे परिचित कराया जाए ? सिनेमा को पाठ्यक्रम से कैसे जोड़ें ? पाठ्यक्रम के विषय को सिनेमा के जरिये कैसे पढ़ाएं ? छात्रों के साथ सिनेमा के जरिए चर्चा कैसे शुरू करें ? सिनेमा दिखाने के लिए सामग्री का चयन कैसे करें ? सिनेमा से जुड़ी अन्य गतिविधियां कौन सी हो सकती हैं ? और छात्र इस प्रयास से जो सीखेंगे उसका दस्तावेजीकरण कैसे हो ? इन सभी सवालों पर बात करते हुए हमारा एक ही लक्ष्य था कि छात्र सिर्फ किताबों तक सीमित न रहें बल्कि किताबों से आगे बढ़कर दुनिया भर का सिनेमा भी देखें और इसके जरिये उनमें तार्किक व आलोचनात्मक समझ विकसित हो.

चर्चा के दौरान शिक्षकों ने कक्षा में आने वाली नई चुनौतियों पर भी अपनी बात रखी. सबसे बड़ी चुनौती यह है कि शिक्षक को रोजाना अपना विषय पढ़ाना है और छात्रों को परीक्षाओं के लिए भी तैयार करना है. शिक्षक को अपने विषय के लिए सिर्फ चालीस मिनट का ही समय दिया जाता है. इसी अंतराल में सिनेमा दिखाना, उसे पाठ्यक्रम से जोड़ना व छात्रों के बीच चर्चा शुरू करना कैसे सम्भव हो सकता है ? यहां एक चुनौती यह भी है कि शिक्षक सिनेमा के विशेषज्ञ नहीं हैं और न ही उन्होंने इसकी पढ़ाई की है तो वह सिनेमा माध्यम से साथ छात्रों के बीच कितना न्याय कर पाएंगे ? साथ ही उन्हें अपने विषय को पढ़ाने के लिए भी तैयारी करनी पड़ती है तो सिनेमा और स्कूली पाठ्यक्रम की तैयारी एक साथ कर पाना कितना सम्भव हो पायेगा ?

इन सभी सवालों और चुनौतियों पर चर्चा करते हुए मैंने शिक्षकों को सिनेमा इन स्कूल की सिनेमा के जरिये पढ़ाने को लेकर एक रूपरेखा साझा की जिसे मैंने नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में पढ़ाते हुए अपने अनुभव से तैयार किया है. इस रूपरेखा में मैंने किसी भी विषय को समझने के लिए उसे छः दिनों में विभाजित कर दिया है. सप्ताह में सोमवार से शनिवार तक छात्र स्कूल आते हैं. उदाहरण के लिए हम कक्षा छठी से सामाजिक अध्ययन का पहला अध्याय ‘विविधता की समझ’ को ले लेते हैं.

सोमवार – विविधता क्या है ? यह छात्रों को परिचित करवाना.[बिना किताब का इस्तेमाल किये उनके दैनिक जीवन, परिवार-रिश्तेदार, दोस्त, स्कूल, घर, पड़ोस, मोहल्ला, शहर, देश, रहन-सहन, खान-पान, तीज-त्यौहार, और अपने अनुभव के उदाहरणों से विषय पर बात करें]

मंगलवार  – अध्याय को पढ़ायें. पिछली कक्षा में की गयी चर्चा और उदाहरणों को बातचीत में शामिल करें.

बुधवार – विविधता से सम्बन्धित कोई डॉक्यूमेंट्री, फिल्म व तस्वीरें दिखाएं. अब छात्रों से सवाल करें कि उन्होंने स्क्रीन में क्या – क्या देखा ? फिल्म देखते हुए दृश्यों, चरित्रों व संवादों ने उनके मन में क्या सवाल पैदा किये ? अगर मन सवाल नहीं बने तो क्या आप इसे अपने दैनिक जीवन, आस-पड़ोस और समाज से जोड़ पाए ? छात्रों को कहिये कि स्क्रीन पर जो कुछ भी दिखा उसके बारे में बात करें. यहाँ फिर शिक्षक को छात्रों की बातचीत का सहारा लेते हुए अपने मूल विषय एक चर्चा शुरू कर देनी है. आखिर में छात्रों को यह टास्क दें कि वह फिल्म और हुई चर्चा के बारे में आस-पास व घर के लोगों से भी बात करें जिसे हम अगली कक्षा में सुनेंगे.

वीरवार  – पिछली कक्षा में दिए गए टास्क को देखें और किताब के जरिये अध्याय के सभी बिन्दुओं पर विस्तार से बात करें. फिल्म से जोड़ते हुए छात्रों से सवाल भी करें और पूछें कि फिल्म और अध्याय से उनके मन में क्या समझ बनी? आखिर में छात्रों को टास्क दें किताब, फिल्म व सभी चर्चाओं का सन्दर्भ लेते हुए अध्याय के प्रश्न-उत्तर को हल करने का प्रयास करें. यहाँ छात्रों को पूरी छूट दें कि वह किसी भी उदाहरण का इस्तेमाल करते हुए उत्तर लिखें. यहाँ यह भी किया जा सकता है कि छात्रों को इस पूरे अभ्यास के बारे में अपना फीडबैक लिखने को कहें.

शुक्रवार –  इस दिन विविधता पर ही कोई गेम, एक्टिविटी या ड्राइंग- क्राफ्ट डिजाइन करें. इसका एक्टिविटी का उद्देश्य यह होना चाहिए कि छात्र विविधता को समझें.

शनिवार – आखिरी दिन छात्रों की कॉपी देखें कि उन्होंने क्या लिखा है और उनको अपना फीडबैक दें.

नोट –  इस दौरान यह ध्यान रखना है कि सभी छात्र रोजाना की जा रही गतिविधि के में कुछ न कुछ जरूर लिखें. बिना कोई रूपरेखा तय किये छात्रों को स्वतंत्र रूप से अपनी समझ को लिखने के लिए प्रेरित करें. इससे छात्र बिना किसी डर के लिखना भी शुरू करेंगे.

इस पैटर्न के लेकर शिक्षकों का सुझाव यह था कि इसे कक्षा में लागू करने के लिए लगातार ‘सिनेमा इन स्कूल’ के मार्गदर्शन की जरूरत पड़ेगी. जिसमें फिल्मों के चयन व अन्य गतिविधियाँ के विषय में शिक्षकों की मदद होती रहे.

आखिर में अगले दिन छात्रों के साथ फिल्म स्क्रीनिंग की योजना पर बात हुई. शिक्षकों ने कहा कि सुबह नौ बजे कक्षा नवीं के साथ एक ‘लोकतंत्र’ के विषय पर और लंच के बाद कक्षा छठी और सातवीं के छात्रों के साथ विविधता व भेदभाव के विषय पर स्क्रीनिंग की जाये. इस तरह सभी पहलुओं पर बातचीत करते हुए पहले दिन शिक्षकों के साथ एक सार्थक वर्कशॉप समाप्त हुई.

दूसरे दिन सुबह 8:30 बजे स्कूल के क्लब रूम में कक्षा नवीं से सभी छात्रों को बुला लिया गया. सेशन की शुरुआत मैं मैंने सर्वप्रथम अपना परिचय दिया फिर सभी से थोड़ी बातचीत का सिलसिला शुरू किया. सबसे पहले मैंने सभी छात्रों से सिनेमा को लेकर उनकी रुचि के बारे में बात की.  सभी ने कहा कि उनकों सिनेमा देखना पसंद है. वे अपने टेलीविजन, लैपटॉप और मोबाइल स्क्रीन पर फिल्म और वेबसीरीज देखते हैं. साथ ही स्कूल में भी उन्हें कुछ फ़िल्में दिखाई गयी हैं लेकिन आज हम जैसे सिनेमा के जरिये पढ़ने वाले हैं इस तरह से हमने सिनेमा नहीं देखा.

बच्चों से थोड़ा घुलने-मिलने के बाद मैंने नॉर्मन मैक्लेरन की शार्ट फिल्म ‘द चेयरी टेल’ दिखाई. छात्रों ने यह फिल्म देखते हुए खूब ठहाके लगाये. पूरा कमरा हंसी की आवाज से गूँज रहा था. इसके बाद मैंने छात्रों को फिल्म में ऑडियो और विजुअल्स क्यों जरूरी है ? व इससे फिल्म में क्या अर्थ निकलता है ? इस पर बात की. इसी फिल्म को हमने अब एक बार फिर बिना आवाज के देखना शुरू किया. फिल्म एक मिनट ही आगे बढ़ी थी कि एक छात्र ने कहा कि सर अब मजा नहीं आ रहा है. मैंने पूछा मजा क्यों नहीं आ रहा ? जवाब में छात्र ने कहा कि बिना आवाज़ के मजा कैसे आयेगा ऐसा लग रहा है कि कोई मूक [साइलेंट] फिल्म देख रहे हैं. फिर मैंने फिल्म की आवाज़ चालू कर दी और स्क्रीन की विडियो हटा दी. अब स्क्रीन पर कुछ नहीं दिख रहा था बस आवाज़ आ रही थी. मैंने पुछा अब मजा आ रहा है क्योंकि मैंने आवाज़ चालू कर दी. छात्र ने कहा कि नहीं सर ! कैसे मजा आयेगा अब तो कुछ दिख ही नहीं रहा है. जब कुछ दिखेगा ही नहीं तो हम समझेंगे कैसे कि फिल्म में क्या घट रहा है ? छात्र की इस प्रतिक्रिया के बाद मैंने सभी को बताया कि हमने ऑडियो और विजुअल्स के महत्व को समझने के लिए किया.

इसके बाद हमने लोकतंत्र को समझने के लिए भारतीय संविधान के बारे में एक छोटी सी यूट्यूब वीडियो ‘संविधान का निर्माण’ देखी. इस वीडियो के जरिये हमने यह संविधान क्यों जरूरी है ? लोकतंत्र क्या होता है ? संविधान किसी भी देश को लोकतान्त्रिक बनाने में क्या योगदान देता है ? इन सवालों पर बातचीत की. वीडियो देखने के बाद छात्रों ने अपनी – अपनी बात भी रखी. एक छात्रा ने कहा कि संविधान हमें अधिकार देता है कि हम वोट देकर अपना नेता चुन सकते हैं. इसी प्रक्रिया से हम अपने देश को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए अपने – अपने क्षेत्र, राज्य व देश के लीडर का चुनाव करते हैं.  जनता द्वारा देश की सत्ता की बागडोर तय की जाति है कि देश कौन चलाएगा ? यही लोकतंत्र है जिसमें लोगों के लिए लोगों द्वारा ही वोट की ताकत से सब तय किया जा रहा है. एक अन्य छात्र ने कहा कि सर संविधान हमने ऐसी शक्तियां देता है ताकि हमारे साथ कोई भेदभाव न कर सके.

छात्रों की प्रतिक्रिया सुनने के बाद हमने प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी पर आधारित सत्यजीत रे की फिल्म ‘सदगति’ देखी. इस फिल्म में एक पंडित द्वारा तथाकथित चमार जाति के किसान मजदूर के साथ जातिगत भेदभाव दिखाया गया है. इसमें अस्पृश्यता के विषय को भी संजीदगी से दिखाया गया है. मजदूर दुखी अपनी बेटी के विवाह का मुहूर्त निकलवाने के लिए पंडित के घर जाता है लेकिन पंडित उससे अपने घर के वे काम करवाने लगता है जिसके लिए उसे किसी मजदूर को पैसे देने पड़ेंगे. पंडित की पत्नी उसे घर में घुसने के लिए डांटती है, उसे भूख लगने पर भोजन भी नहीं दिया जाता और वह लकड़ी चीरते हुए दम तोड़ देता है. पंडित और उसके गांव के लोग दुखी की लाश को छूते तक नहीं बल्कि उनकी चिंता यह होती है कि अब वह पानी भरने कैसे जायेंगे क्योंकि रास्ते पर तो चमार दुखी की लाश पड़ी है.

इस फिल्म के जरिये हमने लोकतान्त्रिक देश में हो रहे भेदभाव पर बात की. साथ ही अधिकतर छात्रों ने फिल्म के दृश्यों का उदाहरण देते हुए अपनी बात रखी कि इस तरह का भेदभाव गलत है. सभी नागरिकों को समान अधिकार और सम्मान मिलना चाहिए. चर्चा समाप्त करते हुए सभी छात्रों को मैंने सेशन के बारे में अपना फीडबैक और उन्होंने क्या जाना, सीखा और समझा उस बारे में लिखने का टास्क दिया.

लंच के बाद छठी और सातवीं कक्षा को बुलाया गया. इस सेशन में हमने विविधता और एकता को समझने का प्रयास किया. हमने फ़िल्म डिवीजन द्वारा निर्मित एनिमेटेड वीडियो ‘एक अनेक और एकता (1974) देखी.

फ़िल्म देखने से पहले मैंने छात्रों के साथ पांच मिनट ‘विविधता और एकता’ के बारे में छोटा सा परिचय दिया. साथ ही सभी को यह भी बताया गया कि पर्दे पर जो भी दिखेगा उसे आपको ध्यान से देखना, सुनना, समझना, और उस बारे में बोलना है.

इस शार्ट वीडियो में कार्टून के जरिये यह दिखाने की कोशिश की गई है कि हमारा देश कैसे विविधताओं से भरा हुआ है जिसमें, अलग-अलग धर्म और समुदाय के लोग रहते हैं. जब तक इस विविधता में एकता नहीं होगी तब तक हम कमजोर रहेंगे लेकिन इस अनेकता में जब एकता की ताकत मिल जाएगी तो हम कमजोर से मजबूत बन जाएंगे. यह वीडियो बच्चों को समझने और सोचने के लिए कुछ उदाहरण देती है जैसे :

चाँद एक ,सूरज एक लेकिन तारे अनेक, एक गिलहरी-अनेक गिलहरियों, एक चिड़िया-अनेक चिड़िया. यह वीडियो बड़े ही सरल तरीके से परिवार, समाज और देश के संदर्भ में विविधता, एकता और अनेकता को समझाती है.

फ़िल्म देखने के बाद सभी बच्चों ने एक – एक करके अपनी बात रखी. डायलॉग, तस्वीरों और कहानी पर गौर करते हुए बच्चों ने कहा कि हमारे समाज में अलग-अलग लोग रहते हैं जैसे : परिवार, दोस्त, शिक्षक, पुलिस, दुकान वाला, अमीर-गरीब, अलग-अलग भाषा, धर्म, जात और रंग रूप वाले लोग. हमें मिल जुल कर रहना चाहिए इनसे ही हमारा देश बनता है और मजबूत होता है. एकता में ताकत है इसलिए लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए.

इसकी अगली कड़ी में आज हमने विविधता को समझने के लिए अमित त्रिवेदी द्वारा कंपोज्ड म्यूजिक वीडियो ‘साउंड ऑफ़ नेशन’ देखा. यह म्यूजिक वीडियो रेडियो मिर्ची अवार्ड्स 2017 में रिकॉर्ड किया गया था. इस वीडियो में अमित त्रिवेदी ने अलग-अलग राज्यों की संस्कृति को गीतों के माध्यम से पेश किया है. यह गीत राज्यों की भाषा के माध्यम से हमारी विविधता को दर्शाती है. जैसे राजस्थानी, पंजाबी, गुजरती, बंगाली, हिंदी और दक्षिण भारतीय. वीडियो में सभी गीतकारों के अलग-अलग भाषा, वेशभूषा और म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट के जरिये हमने विविधता को समझने का प्रयास किया.

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए हमने छात्रों को अपने आस-पास के उदाहरणों से विविधता को समझाया. साथ ही विविधता का हमारे जीवन को बेहतर बनाने में क्या योगदान है ? इस सवाल पर भी सामूहिक चर्चा की. जैसे विभिन्न तरह के भोजन, वेशभूषा, भाषा, त्यौहार और विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले लोग.

अंत में मैंने छात्रों को दीवार फिल्म का एक दृश्य दिखाया जिसमें शूट-बूट  पहने दो अमीर व्यक्ति एक छोटी उम्र के लड़के से जूता पोलिस करवा रहे होते हैं. जूता पोलिस करवाने के बाद अमीर व्यक्ति लड़के को जमीन पर फेंककर पैसे देता है. लड़का गुस्सा होकर कहता है कि ‘साहब हम मेहनत से कमाते हैं कोई भीख नहीं मांग रहे इसलिए पैसे उठाकर हाथ में दो. इस दृश्य के जरिये मैंने बच्चों को वर्ग के आधार पर असमानता के बारे में समझाया और सभी छात्रों को अपना फीडबैक लिखने को कहा गया. इस तरह से यह दो दिनों की यह वर्कशॉप और फिल्म स्क्रीनिंग का सेशन समाप्त हुआ.

मैं एक वर्ष से सिनेमा और स्कूली पाठ्यक्रम पर अध्ययन कर रहा हूँ. छठी से लेकर बारहवीं कक्षा की किताबों का बारीकी से अध्ययन किया है. अपने शोध के दौरान छात्रों को पढ़ाने का अनुभव भी किया है. कक्षा में पढ़ाते हुए मैंने यह जाना कि छात्रों को अधिकतर किताबों के माध्यम से ही पढ़ाया जाता है क्योंकि शिक्षकों और छात्रों के लिए यही मुख्य स्रोत है. शुरुआती दिनों में मैंने भी ऐसे ही पढ़ाया क्योंकि मुझे यह समझना था कि एक स्कूल कैसे काम करता है ? छात्रों को पढ़ाया कैसे जाता है ? और छात्र कितना समझ और लिख पा रहे हैं ?

किताबों से पढ़ाते यह समझ आया कि सभी छात्र को पढ़ाया हुआ पूरी तरह से समझ नहीं आ रहा था. कुछ छात्र बहुत जल्दी समझ जाते है और कुछ छात्रों को समझने में वक्त लगता है. साथ ही कुछ छात्र ऐसे भी हैं जिन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. बहुत से छात्र विषय न समझ आने पर सवाल पूछ लेते हैं लेकिन सभी छात्र ऐसा नहीं करते. मैंने सभी छात्रों से व्यक्तिगत एक-एक करके इस बारे में बात की और पूछा कि जो सवाल-जवाब नहीं करते उन्हें क्या परेशानी आती है ? कक्षा आठवीं का एक छात्र कहता है कि उसे सवाल पूछने में डर लगता है. वह सवाल पूछना तो चाहता है लेकिन उस समय उसके मन में बार – बार यह विचार आता है कि कहीं उसका सवाल गलत न हो ? कहीं सभी बच्चे उस पर हंसने न लगे ? अगर उसे डांट पड़ गयी तो ? इस तरह का डर छात्र को सवाल पूछने से रोक देता है. किताब से जुड़ा एक कारण यह भी है कि शिक्षक किताब को सिर्फ पढ़ाने तक ही सीमित रखते हैं. विषय को इस तरह से नहीं पढ़ाते जिसमें छात्र को मजा आये और उसकी रुचि भी पैदा हो. गतिविधि के नाम पर किताब में दिए निर्देशों के बारे में ही बात की जाती है. जब तक छात्र में रुचि और विषय को लेकर उत्सुकता पैदा नहीं होगी तक सम्भव है कि छात्र किताब से दूरी बना ले. मैं यह दावा नहीं कर रहा कि सभी छात्र इस समस्या से गुजर रहे हैं या यहीं एक गंभीर समस्या है लेकिन मेरा अनुभव कहता है कि हर कक्षा में कुछ छात्र जरूर होंगे जो इस समस्या से जूझ रहे हैं. एक तरह से ऐसा लगा सकता है कि इसमें छात्र की ही गलती है कि वह पढ़ नहीं रहा लेकिन ऐसा नहीं है. यहाँ पाठ्यक्रम और शिक्षक दोनों के तौर तरीकों में बदलाव की जरूरत है. जब तक शिक्षा सिर्फ कक्षा तक ही सीमित र हेगी तब तक यह समस्या बनी रहेगी. छात्र की गलती मानकर इसे नजरंदाज करना सही नहीं है.

एनसीइआरटी की सभी किताबों के अमुख में ही लिखा है कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) सुझाती है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ा जाना चाहिए. इसमें हर विषय को एक मजबूत दीवार से घेर देने और जानकारी को रटा देने की प्रवृत्ति गलत है. शिक्षा नीति कहती है कि स्कूलों के अध्यापकों को छात्रों को कल्पनाशील गतिविधियों और सवालों की मदद से सीखने और सीखने के दौरान अपने अनुभव पर विचार करने का अवसर देना चाहिए. हमें यह मानना होगा कि यदि जगह, समय और आजादी दी जाए तो छात्र बड़ों द्वारा सौंपी गई सूचना-सामग्री से जुड़कर और जूझकर नये ज्ञान का सृजन कर सकते हैं.

दरअसल शिक्षा के विविध साधनों व स्रोतों की अनदेखी किये जाने का प्रमुख कारण पाठ्यपुस्तक को परीक्षा का एकमात्र आधार बनाने की प्रवृत्ति है. सर्जना और पहल को विकसित करने के लिये ज़रूरी है कि हम छात्रों को सीखने की प्रक्रिया में पूरा भागीदार मानें और बनाएँ, उन्हें ज्ञान की निर्धारित खुराक का ग्राहक मानना छोड़ दें.

पढ़ाने का तरीका ऐसा होना चाहिए जिससे हम यह भी मूल्यांकन कर सकें कि कक्षा छात्रों के जीवन को मानसिक दबाव तथा बोरियत की जगह ख़ुशी का अनुभव बनाने में मदद कर पा रही है या नहीं ?

कक्षा में पढ़ाते हुए मैंने भी यह अनुभव किया है कि अगर छात्र अपनी कक्षा में बोरियत महसूस कर रहा है तो वह कुछ भी नहीं सीख सकता. इस स्थिति में छात्र का पूरा ध्यान शिक्षक की बात पर नहीं टिकेगा. अगर कक्षा में लगातार ऐसी स्थिति बनती है तो भविष्य में छात्र पर काम का बोझ बढेगा और मानसिक दबाव भी बनेगा. यहाँ शिक्षक की जिम्मेदारी बनती है कि कक्षा को रचनात्मक और रोमांचित बनाया जाए जिससे छात्र में विषय के बारे कुछ नया जानने की उत्सुकता पैदा हो.

 

अब ऐसे माहौल में कक्षा को रचनात्मक और रोमांचित बनाने के लिए हमने सिनेमा का इस्तेमाल किया और यह प्रयोग सफल भी साबित हुआ. सिनेमा के जरिये छात्र का ध्यान भी एक जगह केन्द्रित हुआ और विषय को लेकर उत्सुकता भी जगी. साथ ही छात्र सवाल जवाब भी करने लगे. शिक्षा नीति (2005) में भी यह सिफारिश की गई है कि हर स्तर पर कला को विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए. जिसमें गायन, नृत्य, दृश्य कलाएं और नाटक शामिल हैं. साथ ही यह भी कहा गया है कि शिक्षक को अपनी कक्षा में श्रव्य-दृश्य [ऑडियो – विजुअल] सामग्री को प्रमुखता से शामिल करना चाहिए क्योंकि यह ज्ञानात्मक और सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण होगा.

सिनेमा एक श्रव्य-दृश्य [ऑडियो – विजुअल] माध्यम है. जब हम कोई वीडियो या फिल्म देख रहे होते हैं तो हम एक ही समय पर उसे देख, सुन, और समझ रहे होते हैं. साथ ही जो देखा उसके बारे में उत्साहित होकर सोचते भी रहते हैं इससे दर्शक की जिज्ञासा बढ़ बढ़ती है. लेकिन किताब के साथ यह सुविधा नहीं है इसलिए सिनेमा और ज्यादा प्रभावी सामग्री है. हमारी कोशिश है कि इतने सशक्त माध्यम को स्कूली शिक्षा से जोड़ा जाये ताकि छात्र शिक्षा के इस नए आयाम के जरिये भी सीखें.

सिनेमा को अभी तक स्कूली शिक्षा से जोड़ना तो दूर की बात है बल्कि शिक्षा से जोड़ा ही नहीं जाता. समाज में सिनेमा [फिल्म] को लेकर एक आम धारणा यह बनी हुई है कि यह सिर्फ एक मनोरंजन का साधन है. जब हम थके-हारे हों या मन-शरीर को अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या से थोड़ा आराम देना हो तो मनोरंजन के लिए कोई फिल्म देखी जा सकती है. यह बात ठीक भी है कि फिल्म देखकर हमारा मनोरंजन होता है. लेकिन सिनेमा में हम जो भी देख रहे हैं वह हमारे समाज से ही लिया गया है, चरित्र, घटना या कोई राजनीतिक-सामाजिक विषय सब समाज से ही लिया गया है. कहते हैं न कि सिनेमा हमारे समाज का ही एक दर्पण है. अगर यह बात सही है तो इस सामाजिक दर्पण को देखने के साथ ही साथ सुना, पढ़ा, समझा और इसका अध्ययन भी किया जा सकता है जैसे हम किसी किताब की मदद से करते हैं.

इसी कड़ी में हमारा यह प्रयास सिनेमा के जरिये स्कूली छात्रों को सीखने-समझने के नए आयाम से जोड़ना है. सिनेमा इन स्कूल संस्था का मकसद स्कूलों में सिनेमा के जरिए बच्चों के भीतर एक ऐसी मजेदार गतिविधि को शुरू करना है जो उन्हें देश – विदेश के सिनेमा से परिचित कराते हुए एक बेहतर मनुष्य बनाने के काम को भी संजीदगी के साथ पूरा करे. इस पहल का मकसद फ़िल्म स्क्रीनिंग के जरिए छात्रों के अंदर लोकतंत्र, विविधता और बहुलतावाद जैसी अमूर्त अवधारणाओं की क्रिटिकल समझ विकसित करना भी है. इस संस्था में मुख्य रूप से चार लोग कार्यरत हैं जो संस्था के संस्थापक भी हैं. संस्थापक सदस्यों में फ़िल्म एक्टिविस्ट संजय जोशी, शोधकर्ता, पूर्व प्रोफेसर व फ़िल्मकार डॉ. फ़ातिमा नज़रुद्दीन, स्वतंत्र पत्रकार व फ़िल्मकार सौरभ और सिनेमा अध्ययनकर्ता अतुल कुमार शामिल हैं.

स्कूल में छात्रों को कई विषय पढाएं जाते हैं जैसे हिंदी, अंग्रेजी, गणित, संस्कृत, और सामाजिक विज्ञान. सामाजिक विज्ञान में राजनीतिक शास्त्र, इतिहास और भूगोल शामिल है. सिनेमा को स्कूली शिक्षा से जोड़ने के इस प्रयास में हम अभी सिर्फ कक्षा छठी से बारहवीं के छात्रों के साथ कार्य कर रहे हैं और विषय के रूप में सामाजिक अध्ययन को चुना है.

शिक्षा नीति 2005 में सामाजिक विज्ञान के बारे में बताया गया है कि इस विषय के शिक्षण में ऐसी विधियों का उपयोग किया जाना चाहिए जो रचनात्मकता, सौंदर्यबोध तथा आलोचनात्मक समझ बढ़ाएँ और बच्चों को अतीत तथा वर्तमान के बीच संबंध बनाने एवं समाज में होने वाले परिवर्तनों को समझने में सक्षम करें. कक्षा में केवल सूचना देने के स्थान पर वाद-विवाद और चर्चाएँ की जाए. साथ ही सीखने का तरीका ऐसा होना चाहिए जो शिक्षक एवं शिक्षार्थी को सामाजिक वास्तविकताओं के प्रति सजग करे. सिनेमा के जरिये हम इन सभी सुझावों पर काम कर सकते हैं. किताबों के जरिये हम अपने अतीत तथा वर्तमान के बारे में सिर्फ पढ़ सकते हैं लेकिन सिनेमा के जरिये उसे देख भी सकते हैं. सिनेमा क्षेत्र ने तकनीकी स्तर पर खुद का इतना विकास कर लिया है कि आज हम अपने इतिहास की कल्पना करके उस पर फिल्म बना रहे हैं. यह फ़िल्में हमें सूचना भी दे रही है और समाज में लोगों के बीच बहसें भी शुरू करती है. साथ ही समाज की वास्तविकता का प्रतिरूपक भी बनती है इसलिए आज सिनेमा को अध्ययन में शामिल करना छात्रों को शिक्षा के नए आयाम से जोड़ने जैसा है.

 

अतुल कुमार

संपर्क : atulcinemainschool@gmail.com

आंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली से फ़िल्म अध्ययन में मास्टर्स की पढ़ाई कर चुके अतुल कुमार पिछले एक वर्ष से ‘सिनेमा इन स्कूल’ अभियान के तहत नानकमत्ता में रहते हुए नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के लिए सिनेमाई पाठ्यक्रम बनाने की कोशिश में जुटे हैं.

 

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