समकालीन जनमत
विज्ञान

ज्ञान की ज़मीन

(10 दिसंबर 1957 को कोलकाता में जन्मे लाल्टू विज्ञान, कविता, कहानी, पत्रकारिता, अनुवाद, नाटक, बाल साहित्य, नवसाक्षर साहित्य आदि विधाओं में समान गति से सक्रिय हैं।
उनके हिंदी, पंजाबी और अंग्रेजी में कई अखबारों और पत्रिकाओं में समसामयिक विषयों और विज्ञान पर सौ से अधिक आलेख और पुस्तक समीक्षाएँ प्रकाशित हुए हैं और शिक्षा आदि विषयों पर कई शोध-आलेख पुस्तकों में शामिल किए गए हैं।

किसी भी गतिशील, आधुनिक और चेतनसम्पन्न समाज के निर्माण में वैज्ञानिक चेतना का विकास आवश्यक है। हमारे समाज में वैज्ञानिक चेतना का अभाव एक कटु यथार्थ है। समकालीन जनमत अपने पाठकों के लिए ‘समाज , विज्ञान और टेक्नोलोजी ‘ विषय पर लाल्टू के लेखों की शृंखला शुरू कर रहा है, जो प्रत्येक शुक्रवार को प्रकाशित होगा । चार लेखों की  इस  शृंखला में   ज्ञान, विज्ञान, टेक्नोलोजी और दर्शन के बारे में विस्तृत विमर्श होगा। प्रस्तुत है इस शृंखलाकी पहली कड़ी जिसका शीर्षक है ‘ज्ञान की ज़मीन ‘. सं.)


 

बचपन से हमें यह बात बतलाई जाती है कि यह विज्ञान का युग है। आम तौर पर इसे समझाने के लिए टेक्नोलोजी में तरक्की के मिसाल सामने रखे जाते हैं, जैसे इंटरनेट, आधुनिक दवाएँ, नाभिकीय बम, आदि। तो क्या विज्ञान और टेक्नोलोजी एक ही बात है?

आखिर विज्ञान है क्या? स्कूली किताबों में  विज्ञान को सिलसिलेवार ज्ञान पाने का तरीका कहा जाता है। कोई इसे तर्क की बुनियाद पर मिला ज्ञान कहता है। क्या प्रयोगशाला से बाहर भी विज्ञान हो सकता है? विज्ञान के पास हर सवाल का जवाब नहीं होता, तो क्या विज्ञान को इतना महत्व देना चाहिए? क्या टेक्नोलोजी महज इंसान के काम आने लायक विज्ञान का इस्तेमाल है? विज्ञान और धर्म के बीच कोई संबंध हो सकता है? क्या मार्क्सवाद विज्ञान है? क्या विज्ञान और टेक्नोलोजी का मतलब हर इंसान के लिए एक जैसा है? समाज और परंपराओं में फ़र्क हो तो क्या विज्ञान और टेक्नोलोजी में भी फ़र्क होता है? विज्ञान वरदान है या अभिशाप? या कि अभिशाप होना सिर्फ टेक्नोलोजी के मत्थे आता है?

इन सवालों का सही जवाब ढूँढना विज्ञान और टेक्नोलोजी पर शोध और अध्ययन करनेवालों का काम है। हम इस शृंखला के लेखों में संक्षेप में इस विषय पर जानकारी साझा करेंगे।

पहले हम विज्ञान पर बात करेंगे। फिर टेक्नोलोजी को समझने की कोशिश करेंगे। हम देखेंगे कि विज्ञान और टेक्नोलोजी के बीच रिश्ता इतना सीधा नहीं है जैसा कि हम अमूमन मान लेते हैं। यह तो जाहिर है कि विज्ञान  ज्ञान पाने का एक तरीका है। अपने बारे में, प्रकृति के बारे में और हमारे और कुदरत के बीच रिश्ते को बारे में जानकारी हमें विज्ञान से मिलती है। इसलिए विज्ञान क्या है – इस सवाल को सामने रख कर पहले हम यह समझने की कोशिश करें कि ज्ञान क्या है।[1]

ज्ञान की ज़मीन यानी हमें ज्ञान कहाँ से और कैसे मिलता है, और जो कुछ हम जानते हैं, जिसे हम सच मानते हैं वह किस हद तक ठोस सचाई है, ये दरअसल हमारी सामूहिक चिंताएँ हैं। आम तौर पर तरक्की पसंद तबकों में यह समझ होती है कि प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर, तर्कशील ढंग से ही हम सच जान पाते हैं, और यह संभव है कि हर कोई इस तरह से ही इल्म हासिल करे। जो कुछ प्रत्यक्ष दिखता है, जो दिख रहा है, वह सच ही होगा, ऐसा मान लेना स्वाभाविक है। पर साथ में क्या कुछ दिखने से छूट गया, अगर वह दिख जाए तो जो पहले दिख रहा था, उस बारे में हमारा निर्णय क्या होगा, ऐसा हम कम ही सोचते हैं। हमें क्या दिखे, इस पर कोई नियंत्रण भी हो, इसकी कल्पना सहज नहीं है, पर गहराई से सोचने पर शंकाएँ ज़रूर होती हैं।

 

ज्ञान: शंकाएँ

सत्य क्या है? ज्ञान की प्रकृति क्या है? क्या तर्कशीलता और विज्ञान में जिन पद्धतियों का इस्तेमाल होता है, वही हमें सत्य तक ले जाने के काबिल हैं? मानव विज्ञान और मानविकी का क्या महत्व है? उनमें और प्राकृतिक विज्ञान में क्या फ़र्क हैं? ज्ञान-विज्ञान से जुड़े लोगों के बारे में आम धारणा यह होती है कि वे बड़े काबिल लोग हैं और रोजाना के सामान्य सवालों से अलग कुदरत और दुनिया के गंभीर सवालों पर गहराई से उलझने वाले लोग हैं। सच यह है कि बड़े से बड़ा ज्ञानी भी अंतत: एक साधारण इंसान ही होता है और अधिकतर ज्ञानीजन सामान्य सवालों पर काम करते हुए ही अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं।

थामस हक्सले उन्नीसवीं सदी के आखिरी दौर के बड़े जीव विज्ञानी और चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रस्तावित जैविक विकास के सिद्धांतों के कट्टर हिमायती थे। उन्हें ‘डार्विन का बुलडॉग’ कहा जाता था। उनका कहना है : विज्ञान ‘संयोजित सामान्य समझ’ है। आगे वे कहते हैं, – ‘हम सब आदतन हर वक्त बेपरवाही से जिस तरीके का इस्तेमाल करते हैं, महज सटीक और सतर्कता के साथ विज्ञान कर्मी उसी का इस्तेमाल करते हैं।’

तो क्या सामान्य समझ ही ज्ञान की बुनियाद है?सचमुच ऐसा होता तो कितना अच्छा होता। सामान्य समझ अपने आप में बड़ी ना-साफ सी बात है, यह देश-काल पर निर्भर होती है और अक्सर विरोधाभासों से भरी होती है। जैसे ‘जो दूर गया सो भूल गया’ एक सामान्य समझ की बात है, पर साथ ही कई लोकप्रिय फिल्मी गीत इसी बात पर आधारित हैं कि छूट चुका प्रियजन भूला नहीं जाता।

मिसाल के तौर पर दुनिया का राजनैतिक नक्शा – इसे मर्केटर अंकन कहते हैं– देखें।  हमने पाँचवीं-छठी जमात में इसे देखा-पढ़ा है। इस तरह यह हमारे सामान्य बोध का हिस्सा बन चुका है।

 

अगर कोई पूछे कि नक्शे में क्या ग़लत है तो आप तकनीकी बातों की ओर ध्यान दिला सकते हैं, कि हो सकता है पुराना नक्शा हो या अक्षांश-देशांतर की रेखाएँ सही न हों, आदि। पर असल समस्या, जो तकनीकी है, यह है कि तीन आयामों को सपाट सतह पर आँका गया है। इस प्रक्रिया में कुछ भूभाग अपने आकार से बड़े और कुछ छोटे दिखते हैं। चूँकि आधुनिक नक्शाकारी का इल्म यूरोप से आया है, इस वजह से यूरोप केंद्र में है; यूरोप का भूभाग भारत से तक़रीबन ढाई-तीन गुना ज्यादा दिखता है, ग्रीनलैंड और ऐंटार्कटिका अपने सही आकार से कहीं ज्यादा बड़े दिखते हैं। महज तकनीकी कारणों से यूरोप का भूभाग अपने सही आकार से कहीं ज्यादा दिखता है। पर क्या यह चयन सचमुच महज तकनीकी है? क्या इसके पीछे कोई बौद्धिक आग्रह नहीं है? क्या यहीं से यूरोकेंद्रिक सोच की शुरुआत होती है?
नक्शा बनाने का एक और तरीका होता है, जिसे होबो-डायर अंकन कहते हैं। इसमें हर भूभाग को उसके सही क्षेत्रफल के अनुपात में दिखाया जाता है। इसे देखें तो इसमें अफ्रीका सबसे बड़ा भूभाग दिखेगा। भारत और यूरोप क्षेत्रफल में तक़रीबन बराबर दिखने लगेंगे।

 

नक्शाकारी में और भी कई सवाल हैं। धरती महाकाश में एक ग्रह है। इसे ऊपर नीचे कहीं से भी देख सकते हैं। इसलिए यह तय करना कि कौन सी दिशा ऊपर की ओर होगी, कौन सी नीचे की ओर, यह सब भी हमारे पूर्वग्रहों पर निर्भर करता है। ‘ऊपर’ और ‘नीचे’ ऐसे शब्द हैं, जो हमारे मूल्य-बोध से अछूते नहीं हैं, जैसे ईश्वर की जगह हमेशा ऊपर होती है और दानवों या नराधमों की जगह नीचे। कुछ साल पहले एक राजनीति-शास्त्र का अध्यापक ने भारत के नक्शे को उलट कर यह सवाल किया कि भारत माता की तस्वीर अब इसमें कैसे फिट करें तो काफी बवाल मचा था।नक्शाकारी की सीमा : ‘चूँकि नक्शा हूबहू नकल नहीं होता, बल्कि मूल भूभाग का एक बौनी प्रतिकृति मात्र होता है, इसलिए वह हमारे काम आता है।’ यह संभव नहीं है कि हम धरती को जानने के लिए उसकी एक हूबहू नकल सामने रखें। हमें छोटे से नक्शे से ही काम चलाना पड़ता है।
ज्ञान पर चर्चा करते हुए हमें यह नारा ध्यान में रखना चाहिए : नक्शा असल भूभाग नहीं होता। यह बात केवल भूगोल के लिए ही नहीं, बल्कि ज्ञान के किसी भी क्षेत्र के लिए लागू होती है। हम जो कुछ जानते हैं, वह दरअसल ज़हन में सच्चाई का महज एक नक्शा होता है। कोई ज़रूरी नहीं कि यह हमेशा बिल्कुल वही हो, जो सच्चाई है। इतिहास पर तो यह बात गंभीर विवादों तक चली जाती है। इसलिए सरकार बदलते ही फिर से इतिहास लिखे जाने की कोशिश दिखलाई पड़ती है। जाहिर है कि इतिहास पर हर अलग नज़रिया सही नहीं हो सकता। हावर्ड ज़िन ने अपनी प्रसिद्ध किताब, ‘पीपल्स हिस्ट्री ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स’ के पहले अध्याय में इस पर विस्तार से लिखा है – “यह सच है कि हर इतिहास लेखक को कुछ तथ्यों को नज़रअंदाज़ करना पड़ता है, जैसे एक नक्शाकार को पृथ्वी की आकृति को कागज़ पर चपटा दिखलाना पड़ता है और फिर उस चपटे चित्र से आवश्यक भौगोलिक सूचनाएँ चुननी पड़ती हैं … चयन या सरलीकरण … पर वज़न डालना गलत नहीं है। पर नक्शाकार को एक तकनीकी सीमा की वजह से नक्शे को विकृत करना पड़ता है और इसे सभी नक्शा देखने वाले समझते हैं। इतिहास लेखकों द्वारा किया गया तोड़-मरोड़ तकनीकी कारणों से नहीं, सैद्धांतिक कारणों से होता है। ऐसी दुनिया में, जहाँ अलग-अलग ताकतें काम कर रही हों, यह तोड़-मरोड़ चाहे-अनचाहे किसी एक स्वार्थ का, आर्थिक या राजनैतिक या जाति-विशेष या लिंग-विशेष, का समर्थन करता है। …ये सैद्धांतिक स्वार्थ, इतने खुले रूप में सामने नहीं आते, जैसे कि नक्शाकार का नक्शे को अलग ढंग से दिखलाने का तकनीकी कारण स्वतः स्पष्ट हो जाता है…।”
बीसवीं सदी की शुरुआत में बेल्जियम के सर्रीयल चित्रकार रेने मार्गरीट ने एक तस्वीर बनाई, जिसमें वह पाइप दिखता है, जिसे हमारे सम्माननीय मैनेजर पांडे जी हमेशा सुलगाते रहते हैं, और उसके नीचे फ्रांसीसी भाषा में लिख दिया – यह पाइप नहीं है। तो सोचिए कि वह क्या है?

सही जवाब यह है कि वह पाइप नहीं, बल्कि पाइप की तस्वीर है। इस तस्वीर का शीर्षक था – ‘तस्वीरों का धोखा’।

निश्चितता : प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल (जिनका दर्शन के अलावा गणित और साहित्य में भी बहुत काम है, उनको 1950 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था) ने कहा है – ‘दरअसल हमलोग ज्ञान नहीं, निश्चितता चाहते हैं।’ निश्चित ज्ञान क्या है? दो और दो का चार होना निश्चित ज्ञान है। पर एक हाथ और दूसरा हाथ मिलकर ताली बजाते हैं। क्या एक हाथ आधी ताली बजा सकता है? वैसे कई अर्थों में दो और दो चार नहीं भी हो सकते हैं। मसलन भूखे पेट दो रोटी खाकर जो सुकून मिलता है, पेट भरा हो तो दो और रोटी खाने पर दुगुना सुकून मिले, ऐसा नहीं होता।
आम तौर पर हम किसी विषय में कुछ लोगों को माहिर मान लेते हैं और उस विषय पर उनके मत को ही निश्चित ज्ञान मानते हैं। बीसवीं सदी के महान वैज्ञनिकों में से एक रिचर्ड फाइनमैन (नोबेल विजेता 1965) का कहना है – ‘एक्सपर्ट लोगों की अज्ञानता को मानना ही विज्ञान है।’ एक्सपर्ट यानी माहिर कौन है? जो ज्ञानी है। तो एक्सपर्ट की अज्ञानता कैसे हो सकती है? सोचने की बात है। जब फाइनमैन जैसा बड़ा वैज्ञानिक यह बात कहता है तो हमें सोचना पड़ेगा कि ज्ञानी होना या किसी को ज्ञानी मानना समस्याएँ पैदा करता है। फाइनमैन शायद विज्ञान में सवाल उठाते रहने की ताकत की ओर संकेत कर रहे थे। पर बात आम तौर पर रोचक है। अंग्रेज़ी के प्रख्यात नाटक लेखक पीटर उस्तीनोव का रोचक कथन है – ‘जब दुनिया तबाह हो रही हो तो आखिरी आवाज किसी एक्सपर्ट की सुनाई देगी कि ऐसा असंभव है।’

दरअसल हम जिसे सत्य ज्ञान मानते हैं, वह अक्सर हमारी आस्था मात्र होता है।

सामान्य मान्यताएँ : अपने ज्ञान को हम तीन तरह से देख सकते हैं –
– मैं जानता हूँ;
– मैं मानता हूँ;
– मैं तर्क और प्रमाण के जरिए बातें समझ कर मानता हूँ।

बर्ट्रेंड रसेल ने कहा है, ‘इन्सान यक़ीन करने के लिए तड़पता है, किसी बात को मान लेने के सही तर्क न हों तो वह ग़लत तर्क ढूँढ लेता है।’

विश्वास/मान्यता, सत्य-ज्ञान और हम :

 

महज मान्यता और सत्य-ज्ञान के बीच सतत निरंतर दूरी है। हम अपने आप को इसी दरमियान में कहीं खड़ा पाते हैं। एक छोर पर यह सत्य ज्ञान है कि कोई बात बिल्कुल ग़लत है, जैसे दो और दो मिलकर तीन – यह जानना कि यह ग़लत है, यह भी एक सत्य-ज्ञान है। दूसरे छोर पर बिल्कुल सही बात पर आधारित सत्य ज्ञान है। जैसे मैं और आप इंसान हैं, यह सच है। दो और दो मिलकर चार हो सकते हैं, यह सच है। ठीक बीच में ज्ञानहीनता की स्थिति है। अगर हर मान्यता को ज्ञान कहा जाए तो तीन तरह के ज्ञान हो सकते हैं –
– खयाली ज्ञान
– सबूतों पर आधारित ज्ञान
– ऐसा ज्ञान, जिसमें लेशमात्र भी संदेह की गुंजाइश नहीं हो। मसलन सज़ा-ए-मौत देते हुए काज़ी को यह कहना पड़ता है कि इसमें जरा भी शक नहीं है कि अपराधी ने जघन्यतम अपराध किया है।

चूँकि यह तक़रीबन नामुमकिन है कि हम इस हद तक पहुँच सकें कि जरा भी शक की गुंजाइश न रहे, इसलिए दुनिया के ज्यादातर मुल्कों में मौत की सजा नहीं दी जाती है। अमेरिका में मौत की सजा के इतिहास को देखें तो हम पाएँगे कि ज्यादातर काले लोग जिनको मृत्युदंड मिला, वे निर्दोष थे। बहुत बाद में ऐसे निर्दोष लोगों पर किताबें लिखी गईं, फिल्में बनीं। भारत में भी ज्यादातर ग़रीब या राजनैतिक विरोधियों को मौत की सजा मिली है।
एक और मिसाल के लिए 2016 में घोषित नोटबंदी की सरकारी नीति को ही लें। इसके बारे में हम क्या जानते हैं? क्या यह सही निर्णय है या ग़लत? अगर कोई कहता है कि इस नीति से सारा काला धन वापस आ जाएगा, तो यह खयाली पुलाव है। हाँ, यह बात सबूतों पर आधारित है कि लोगों ने बैंकों में पुराने नोट जमा किए हैं। यह भी सही है कि ए टी एम के सामने लंबी लाइनें लगी थीं। कई लोग मारे गए, सौ से ज्यादा मौतें लाइनों में खड़े लोगों की हुईं। जब हम देश की अर्थनीति पर इसके असर की बात करते हैं तो हमें सावधानी बरतनी पड़ेगी। हमें पक्ष या विपक्ष में सबूत पेश करने होंगे। यानी कि लेशमात्र भी शक की गुंजाइश नहीं है, ऐसा इस नीति के बारे में नहीं कहा जा सकता है।

 

ज्ञान के स्रोत : ज्ञान बनाम सूचना

ज्ञान के प्राथमिक स्रोत: हम ज्ञान कैसे पाते हैं :
– मेरी सामान्य समझ जो कहती है;
– जो कुछ मैं भाषा के माध्यम से जान पाता हूँ;
– जो मैं ऐंद्रिक एहसासों से (या मशीनों) से जान पाता हूँ;
– जिसे मैं तर्क शक्ति के जरिए जानता हूँ;
– जो भावनात्मक रूप से मेरी सोच में जुड़ता है।

हम ज्ञान के प्रथमिक स्रोतों के बारे में कम ही सोचते हैं, क्योंकि हमें बचपन से इनकी आदत पड़ चुकी होती है। पर इनसे अलग सूचना के बृहत्तर स्रोत हमें ज्ञान के स्रोत होने का ग़लत एहसास देते हैं। सूचना-मात्र ज्ञान नहीं होता। हमें कई स्रोतों से बृहत्तर सूचनाएँ मिलती हैं, जैसे –
– किसी और से ज्ञान का मिलना (ज्ञानी-विज्ञानी, बाबा, गुरू आदि)
– परंपरा
– स्कूल
– इंटरनेट, मीडिया आदि

इन सभी स्रोतों की सीमाएँ हैं। इंटरनेट की वजह से ग़लत सूचनाओं के जरिए दंगे फैलाए गए हैं। मीडिया को उभरते फासीवाद ने जिस तरह झूठ फैलाने का औजार बना लिया है, वह सब जानते हैं।
अब ज्ञान पाने के प्राथमिक साधनों के बारे में गहराई से सोचा जाए।

1. भाषा
• अमेरिकी बुद्धिजीवी नील पोस्टमैन मानते हैं कि– ‘जिसे तालीम कहते हैं, वह तक़रीबन पूरी तरह से ज़ुबान की तालीम होती है।’
• प्रख्यात मनोवाज्ञानिक लेव-वाइगोतस्की ने जीवन भर शोध कर यह निष्कर्ष निकाला कि – ‘विचार महज अल्फाज़ में सजाई बातें नही हैं, वह उन्हीं (अल्फाज़) के जरिए ही आ पाते हैं।’ और अल्फाज़ हमें अपनी ज़ुबान से मिलते हैं, जो हमारे घर परिवार में बोली जाती है।
• अमेरिकी भाषाविद एडवर्ड सापिर और बेंजामिन ह्वोर्प्फ के नाम पर जानी जाती सापिर-ह्वोर्प्फ प्रस्तावना है – ‘ज़ुबान ही सचाई से हमारा परिचय करवाती है। हम वही देख या सोच सकते हैं जो हमारी ज़ुबान हमें दिखा या सिखा पाती है।’ यानी भाषा का महत्व आँका नहीं जा सकता है। हमारी बदकिस्मती है कि मुल्क के इल्मदाँ लोग इस बात पर खूब बहस-मशविरा करते हैं, पर अंग्रेज़ी में।
• बीसवीं सदी के महानतम दार्शनिकों में एक लुडविग़ विटगेनश्टाइन का मानना था कि दर्शन के सभी बुनियादा सवाल दरअसल भाषा के सवाल हैं।
भाषा जटिल परिघटना है – नियमों में बँधी; अर्थ समेटे; क्रिएटिव और खुली। अक्सर आम भाषा में कही बातें
अस्पष्ट और अनेकार्थी होती हैं – क्या अस्पष्टता समस्या है या विशिष्टता है?
मिसाल के तौर पर ‘सपना’ शब्द को लें। इसके कई अर्थ हो सकते हैं –
-नींद की हालत में अलग-अलग स्थितियों में बिना किसी रोक के दिमाग में आती तस्वीरें, खयाल, एहसास आदि
-दिवास्वप्न; कल्पना में खो जाना
-अमूर्त मनस्थिति; विक्षिप्तता
-खयाली उड़ान या उम्मीद
-सफलता का लक्ष्य; आकांक्षा
-सुकून देने वाला, खूबसूरत, लाजवाब

अब हम सोचें कि कवियों ने ‘सपना’ शब्द का कैसा इस्तेमाल किया है। गोरख पांडे की ‘सपन मनभावन’, पाश की ‘सबसे खतरनाक’ और  कुमार विकल की ‘स्वप्न घर’ कविताओं में इस शब्द का उपयोग देखें। लैंग्स्टन ह्यूज़ की प्रसिद्ध कविता ‘हार्लेम’ में हर पंक्ति में सपना अलग अर्थ लिए आता है। ऐसा कहा जा सकता है कि अस्पष्ट और अनेकार्थी होने की वजह से ही हम इन कविताओं में से उन सभी सामाजिक राजनैतिक-ऐतिहासिक बातों को जान पाते हैं, जिनके लिए ये कविताएँ जानी जाती हैं। अगर कोई एक विशेष अर्थ लिए ही हर लफ्ज़ का इस्तेमाल हो तो मानव विज्ञान और मानविकी में बहुत सारी बातें गायब हो जाएँगी। इसलिए मानविकी में ये अस्पष्टताएँ ज़रूरी हैं।

विज्ञान की भाषा में स्पष्टता का होना लाजिम माना जाता है। वैज्ञानिक सिद्धांतों और परिमाणीकरण की भाषा गणित है। गणित में अस्पष्टता की गुंजाइश नहीं होती है।

सामान्य भाषा में जटिल वाक्यों को समझने में परेशानी होती है, जैसे ‘मेज पर कल जावेद के देख लेने पर हरप्रीत का छोड़ा हुआ पिछले दिन बाज़ार से लाया लड्डू मैंने बिना खाए रख दिया था ‘ वाक्य को सुनकर इसका मतलब समझने के लिए देर तक सोचना पड़ता है, पर मिडिल स्कूल में अलजेब्रा सीखे किसी भी बच्चे के लिए ‘[B +{M +(G +I .E)S}L] I’ +T’ जैसी राशि का समाधान आसान बात है।

वैज्ञानिक पद्धति और औजारों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकी शब्दावली में सब कुछ स्पष्ट होना ज़रूरी माना जाता है।

2. ऐंद्रिक एहसास: पाँच इंद्रियों से भौतिक जगत की जानकारी

अक्सर हमें ऐसे आईने मिलते हैं, जहाँ लिखा होता है कि आईने में दिखती चीज़ों का सही आकार से कोई संबंध नहीं है। यह बात हमारे किसी भी तरह के एहसास पर लागू हो सकती है।

       • दृष्टिहीन और कानों से सुनने में अक्षम हेलेन केलर ने, जिसने कमाल की काबिलियत दिखलाई और कॉलेज की डिग्री हासिल की, कहा है – ‘दृष्टिहीन होना सबसे बड़ी विड़ंबना नहीं है, बल्कि सबसे बड़ी विड़ंबना यह है कि आँखें होते हुए भी हम सचाई नहीं देख पाते हैं।’ मतलब यह कि जो हम देखते हैं, उसमें बहुत कुछ अनदेखा रह जाता है।

यह कैसे है कि देखने पर भी चीज़ें अनदेखी रह जाएँ? इसके लिए छोटा सा प्रयोग करें। अपने किसी साथी के साथ किसी बंद खिड़की पर जाएँ। खिड़की खोलकर एक मिनट में जो पाँच चीज़ें दिखती हैं, दोनों उन्हें कागज़ पर लिख डालें। आप यह देखर अचरज में पड़ जाएँगे कि आपके और आपके साथी ती देखी हुई सभी पाँच चीज़ें एक-सी नहीं हैं। खास कर अगर आप दोनों की पृष्ठभूमि में वर्ग, जाति, जेंडर, उम्र का फ़र्क हो तो दर्ज़ सूची में काफी ज्यादा फ़र्क दिख सकता है।

        • संज्ञान पर शोध करने वाले जाने माने विज्ञानी स्टीवेन पिंकर के अनुसार – ‘मनोविज्ञान में माना जाता है कि ऐंद्रिक एहसास हमें जैविक विकास के जरिए अनुकूलन से मिले हैं – ताकि कुदरती चयन में हम खारिज न हो जाएँ।’ यानी हमारी प्रजाति के बने रहने के लिए हमें खास तरह के एहसास मिले हैं। दूसरे जानवरों में भी खास एहसास होते हैं, जैसे चमगादड़ इन्फ्रा रेड किरणों का इस्तेमाल कर अँधेरे में देख सकते हैं।

आनुभूतिक भ्रम (perceptual illusions) : मैंने आईने का जिक्र किया, पर सिर्फ आँखें ही नहीं, हमारी हर इंद्रिय हमें धोखा दे सकती है। माध्यमिक स्तर की विज्ञान शिक्षा में ताप या ऊष्मा और तापमान को समझाने के लिए एक प्रयोग किया जाता है। तीन बर्तन लें। बाएँ बर्तन में गर्म, दाएँ में ठंडा और बीच के बर्तन में सामान्य तापमान का पानी है। अपना बाएँ हाथ को बाएँ बर्तन में डालें, फिर वहाँ से निकाल कर बीच वाले बर्तन में डालें, पानी हमें गर्म लगता है। इसी तरह दाएँ बर्तन में दायाँ हाथ डालें और फिर निकाल कर बीच वाले बर्तन में डालें, पानी हमें ठंडा लगता है। यानी एक ही तापमान पर पानी हमें गर्म या ठंडा लग सकता है, यह निर्भर करता है कि हम कहाँ से आ रहे हैं।

पृष्ठभूमि तय करती है कि एहसास कैसा होगा।

पहली सदी ईस्वी पूर्व रोमन चिंतक मार्कस ऑरेलियस का कहना है – ‘जो कुछ भी हम सुनते हैं, वे महज खयाल हैं, जो भी हम देखते हैं, वह महज एक परिप्रेक्ष्य है, सत्य नहीं।’

 

प्रत्यक्ष ऐंद्रिक एहसास से मिले ज्ञान के बारे में कुछ सामान्य बातें हम कह सकते हैं:

– जगत हमें अनुभूतियाँ देता है;
– हमारे दिमाग उनकी व्याख्या करते हैं;
– हर समझ का अपना प्रसंग होता है;
– हमारी अपेक्षाएँ समझ को प्रभावित करती हैं;
– हमारा अवचेतन हमारी समझ को प्रभावित करता है;
– उपलब्ध जानकारियों में से चयन की प्रक्रियाओं के जरिए हम समझ बनाते हैं;

‘जो देखा उसे माना’, यह प्रत्यक्ष ज्ञान का आधार है, पर अक्सर इस की जगह ‘जो माना वही देखा’ हम पर हावी हो जाता है। ‘अवचेतन’ और ‘अपेक्षाएँ’ ये दो बातें यहाँ गौरतलब हैं। दोनों ही हमारी पृष्ठभूमि और पूर्वग्रहों पर निर्भर हैं।
जिन बातों को हम प्रत्यक्ष ऐंद्रिक एहसास से नहीं जान पाते हैं, उन्हें हम यंत्रों के सहारे जानते हैं। जैसे हम सीमित तरंग दैर्घ्य (वेव्ह लेंथ) के बीच ही प्रकाश देख पाते हैं। लाल रंग की किरणों से अधिक वेव्ह लेंथ (इन्फ्रा-रेड) और बैंगनी किरणों से कम वेव्ह लेंथ (पराबैंगनी) किरणों को हम नहीं देख सकते, पर यंत्र हमें इन किरणों को देख पाने में मदद करते हैं। इसी तरह सुनी जाने वाली ध्वनि की आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) की भी सीमाएँ हैं, पर सोनार जैसे यंत्र हमें इसके पार ले जाते हैं। पर ऐसे कई उदाहरण हैं, जब यंत्रों ने भी धोखा दिया है। मसलन, 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में वैज्ञानिकों ने सूरज और बुध के बीच एक और ग्रह ‘वल्कन’ ढूँढ लिया। तीस साल तक इसे मानते रहने के बाद यह साबित हुआ कि यह भ्रम था। विज्ञान के इतिहास में ऐसी मिसालें भरी हुई हैं।

3. तर्क-शक्ति : ज्ञान के प्राथमिक स्रोतों में तीसरा तर्क-शक्ति है। खास तौर पर तरक्कीपसंद सोच में तर्कशीलता का बड़ा महत्व है। पिछली सदी की शुरुआत में वैज्ञानिक सोच और तर्कशीलता को एकमेव मानते हुए तर्क या युक्ति पर बहुत जोर दिया गया। पर सदी के अंत तक तर्कशीलता एक गंदा लफ्ज़ बन चुका था। मसलन हिरोशिमा-नागासाकी पर बम गिराना एक तार्किक सोच थी। दूसरी ओर यह भी माना जाने लगा था कि तर्कशीलता हमें किसी एक निष्कर्ष तक ले जाए, यह ज़रूरी नहीं। कई तरह की तर्कशीलताएँ हो सकती हैं।

इस प्रसंग में आइन्स्टाइन के बारे में एक रोचक वाकया है। बीसवीं सदी की शुरुआत में विज्ञान में आए बड़े इंकलाबों में से एक क्वांटम गतिकी का सिद्धांत है। आइन्स्टाइन ने अपने सिद्धांतों में क्वांटम के सिद्धांत का इस्तेमाल किया, पर वे क्वांटम गतिकी को नहीं मानते थे। क्वांटम गतिकी में एक बुनियादी बात यह है कि हम कणों की स्थिति के बारे में संभाविता तो बतला सकते हैं, पर मापन के पहले उनकी सही स्थिति नहीं बतला सकते हैं। आइन्स्टाइन का कहना था कि खुदा जुआरी नहीं हो सकता है, वह जुआ नहीं खेलता है, इसलिए भौतिक जगत संभाविता पर आधारित नहीं हो सकता है। बीसवीं सदी के बीच के दशकों तक आइन्स्टाइन क्वांटम गतिकी के पक्ष में खड़े नील्स बोर और दूसरे वैज्ञानिकों के साथ सैद्धांतिक लड़ाई लड़ते रहे। वे नए-नए सवाल (‘गेदांकेन’ – खयाली पहेलियाँ) बनाकर उनको भेजते थे, जिन्हें क्वांटम गतिकी के नियमों से हल करना मुश्किल था। बोर और उनके सहयोगी इन सवालों का समाधान कर उन्हें भेजते रहे। कभी-कभार ख़तूत में आपसी नोंकझोंक चिढ़ की हद तक दिखती थी।

नील्स बोर ने आइन्स्टाइन को एक ख़त में लिखा – ‘आप सोच नहीं रहे, आप महज तर्क गढ़ रहे हैं।’ यह बड़ी अजीब टिप्पणी है। क्या हम तर्क गढ़ते हुए सोचते नहीं हैं? जाहिर है, बोर आइन्स्टाइन को कहना चाह रहे थे कि तर्कशीलता की सीमाएँ होती हैं।
अंग्रेज़ दार्शनिक और लेखक जी. के. चेस्टरटन का बयान है – ‘युक्ति खो बैठने पर कोई पागल नहीं हो जाता। पागल वह होता है जिसके पास युक्ति के अलावा कुछ बचा ही नहीं होता।’ यानी सिर्फ तर्कशीलता हमें वांछित सत्य निष्कर्षों से दूर भी ले जा सकती है। प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट बिल वाटरसन के ‘कैलविन ऐंड हॉब्स’ कार्टून शृंखला में एक का जिक्र यहाँ मौजू है। कैलविन स्मार्ट बच्चा है, जो अपने पिता को अजीबोग़रीब सवालों से परेशान रखता है। पिता उसे कुछ भी जवाब देकर भगा देता है, तो वह अपने बिलाड़ दोस्त हॉब्स के साथ अपनी हताशा साझी करता है। ऐसे ही एक कार्टून में कैलविन और उसके पिता में गुफ़्तगू  देखिए –

‘डैड, पुराने फोटोग्राफ हमेशा काले-सफेद ही क्यों होते हैं? क्या उन दिनों रंगीन फिल्म नहीं मिलती थी?’
‘ज़रूर मिलती थी. असल में, वे पुराने फोटोग्राफ रंगीन ही हैं। ऐसा है कि उन दिनों दुनिया ही काली-सफेद होती थी। ‘
‘सचमुच?’
‘हाँ, 1930 के आसपास ही दुनिया के रंग बदले। और शुरुआत में तो रंगों में काफी खुरदुरापन भी था।’
‘अजीब बात है।’
‘बिल्कुल, सच कल्पना से ज्यादा अजीब होता है।’
‘पर पुराने चित्रकारों ने फिर रंगों में तस्वीरें कैसे बनाईं? अगर दुनिया काली-सफेद थी, तो चित्रकारों ने वैसी ही तस्वीरें नहीं बनाई होतीं?’
कोई ज़रूरी नहीं, कई बड़े चितेरे पागल थे।’
‘पर फिर भी उन्होंने रंगीन तस्वीरें कैसे बनाईं? उन के पास रंग भी तो वैसे ही काले-सफेद के मिलेजुले होते?’
‘बिल्कुल, पर वे रंग भी बाकी हर चीज़ के साथ तीस के दशक में बदल गए ना!’
‘तो काले-सफेद फोटोग्राफ बदलकर रंगीन क्यों नहीं हो गए?’
‘क्योंकि वो तो काले-सफेद रंगों में बनी तस्वीरें हैं ना!’
इसके बाद कैलविन हॉब्स को आकर कहता है कि ‘दुनिया बड़ी जटिल पहेली है,’ और हॉब्स का जवाब है कि ‘जब भी मुझे ऐसा लगता है, मैं दरख्त पर चढ़कर सो जाता हूँ और डिनर का इंतज़ार करता हूँ।’

कार्टून का जिक्र मैंने इसलिए किया कि हम समझ सकें कि कैसे किसी भी तरह के तर्क दिए जा सकते हैं। कोई किस्मत कहता है, कोई विधि या नियति, कोई कहता है कि चीज़ें बस यूँ ही यादृच्छ (रैंडम) होती चली हैं, आदि।
ऐसा माना जाता है कि तर्क और आस्था कुदरती दुश्मन होते हैं। कई लोग इसे नहीं मानते और वे लगतार यह समझाते रहते हैं कि आस्था वैज्ञानिक हो सकती है। यह ग़लत है। आस्था की जीवन में अपनी जगह है, पर उसका विज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। विज्ञान में खास तरीके की तर्कशीलता को नींव माना जाता है।
क्या तर्क हमें निश्चित ज्ञान की ओर ले जाते हैं?
अक्सर हम मानते हैं कि युक्ति का मतलब ज़मीनी तथ्य से निष्कर्ष तक जाना है – यानी तर्क हमें निश्चितता की ओर ले जाते हैं। इसको परखा जाए।

तीन प्रकार की युक्तियाँ होती हैं:
• deduction – डीडक्शन या निगमन (आम मान्य सत्य से शुरूआत कर खास जानकारी तक पहुँचना);
• induction – इंडक्शन या अनुगमन (खास जानकारियों को इकट्ठा कर आम तौर पर लागू सत्य तक पहुँचना);
• अनौपचारिक या सामान्य तर्क।

सत्य और प्रामाणीकरण: –सामान्य दर्शन में तर्क का एक सहज ढाँचा होता है, जिसे अंग्रेज़ी में सिलोजिज़्म कहते हैं। इसके तीन हिस्से हैं – पहला अवलोकन या सामान्य समझ है। दूसरा तर्क या दलीलें और तीसरा निष्कर्ष है। एक सहज उदाहरण से हम देख सकते हैं कि इस ढाँचे की समस्या क्या है। जैसे यह सामान्य बात है कि कौवे काले होते हैं और वे हर दूसरे पंछी की तरह उड़ते हैं। भैंसें भी काली होती हैं। अगर हम यह दलील बनाएँ कि काले कौवों का उड़ना दिखलाता है कि काले जंतु उड़ सकते हैं तो निष्कर्ष यह होगा कि भैंसे भी उड़ सकती हैं। यानी हम किसी भी प्रत्यक्ष ज्ञान को तर्क के द्वारा सामान्यकरण के बौद्धिक भ्रम में फँस सकते हैं।

हमारी दलीलों का सही या ग़लत होना इस पर निर्भर नहीं करता कि ठोस तथ्य मानी गई बातें सचमुच तथ्य हैं भी या नहीं।
– तथ्य कहकर पेश की गई बातों के ग़लत होने और निकाले गए निष्कर्षों के ग़लत या सही होने के बावजूद दलील सही हो सकती है;
– बस एक ही बात नामुमकिन है कि सही अवलोकन हों और सही दलीलें दी गई हों और निष्कर्ष ग़लत निकल आएँ।

निगमन : आम मान्य सत्य खास जानकारी की ओर : अधिक निश्चितता
मसलन माध्यमिक गणित में ज्यामिति पढ़ते हुए हमें इउक्लिड के स्वयंसिद्ध नियम (एक्सियम) बतलाए जाते हैं, जैसे समांतर रेखाएँ कभी आपस में नहीं मिलती हैं; इनके आधार पर ज्यामिति के प्रमेय सिद्ध किए जाते हैं। या मान लीजिए कि हमें बतलाया गया है कि ताप से धातुओं का आकार बढ़ता है। अगर कोई नया धातु हमें मिलता है तो हम कहेंगे कि पूर्व निश्चित ज्ञान के आधार पर हमें मालूम है कि नए धातु में भी ताप से आकार बढ़ेगा।

और अनुगमन: खास जानकारी से आम सत्य की ओर; अधिक जानकारी – यहाँ पहले से स्वयंसिद्ध नियम नहीं होते हैं। जैसे किसी एक धातु, लोहे पर प्रयोग कर देखा गया कि वह ताप से आकार में फैलता है। फिर एक और धातु चाँदी के साथ ऐसा ही पाया गया। इसी तरह सोने के साथ भी देखा गया, तो हम कहेंगे कि अब सामान्य निष्कर्ष हुआ कि ताप से धातुओं का आकार बढ़ता है।
हमारी परंपरा में तर्कशीलता पर जोर दिया गया है और न्याय दर्शन आदि में यह है। चार्वाकों (चार्वाक और उसके अनुयायी) की सोच पूरी तरह से तर्कशीलता पर आधारित थी। पर चूँकि हमारे यहाँ ज्ञान-मीमांसा पर चर्चा कुछ जातियों या वर्गों तक सीमित रही, इसलिए इस पर पर्याप्त जानकारी मुश्किल से मिलती है। पर पश्चिम में खास तौर पर हाल की सदियों में खूब बहसें हुई हैं कि निश्चित ज्ञान के लिए तर्कशीलता या प्रत्यक्षता (इंपिरिसिज़्म) ज्यादा बड़ी बात है।
तर्कशीलता के प्रवर्तकों में देकार्त, स्पिनोज़ा, लीबनित्ज़ मुख्य हैं और – प्रत्यक्षता के प्रवर्तकों में लॉक, बर्कली, ह्यूम हैं। उन्नीसवीं सदी में बंगाल के नवजागरण और भारत के अन्य हिस्सों में भी चिंतकों पर इन बहसों का गहरा प्रभाव पड़ा है। बीसवीं सदी में पश्चिम के दार्शनिकों में इंपीरीकल पॉज़िटिविज़्म यानी प्रत्यक्षता को पहले और तर्क को बाद में रखने की प्रवृत्ति बढ़ी। इसका विरोध भी होता रहा है।

डीडक्शन और इंडक्शन, दोनों तरह की युक्तियों की अपनी सीमाएँ हैं। स्वयंसिद्ध नियम कभी ग़लत प्रमाणित हो सकते हैं, इसी तरह दस बार एक ही तरह का निष्कर्ष पाने के बाद भी कोई गारंटी नहीं कि हमें ग्यारहवीं बार भी वैसा ही निष्कर्ष मिलेगा। तो फिर अपनी मान्यताओं को कैसे सही ठहराएँ?
मान्यताओं के सामान्यीकरण को सही ठहराने के लिए इन बातों की सावधानी बरतनी चाहिए :
(अवलोकनों की) पर्याप्त तादाद – किसी भी सामान्य निष्कर्ष तक पहुँचने के पहले यह देखना चाहिए कि क्या हमने पर्याप्त तादाद में अवलोकन किए हैं। जैसे कई लोग मानते हैं कि लड़कियाँ गणित में लड़कों जैसी कुशल नहीं होती हैं। अगर हम बड़ी संख्या में लड़कियों की कुशलता की जाँच करें तो हमें यह पूर्वाग्रह ग़लत दिख सकता है।
(अवलोकनों में) पर्याप्त विविधता – पिछले उदाहरण को ही लें। लड़कियों की गणित में कुशलता की जाँच करते हुए हमें भिन्न स्थितियों में रहने वाले समाज के भिन्न तबकों की लड़कियों को देखना होगा। जहाँ लड़कों और लड़कियों में भेदभाव के बिना सबको गणित सीखने का एक जैसा प्रोत्साहन मिला हो, वहाँ हम अपने पूर्वाग्रह को ग़लत पाएँगे।
अपवाद की खोज – सत्य की खोज में लगे जिज्ञासु को सचेत रूप से मान्यता से टक्कर लेते अपवाद की खोज करनी चाहिए।
सामंजस्य या सुसंगति – जिस बात को मानने को हम तुले हुए हैं, उसके बारे में हमें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि क्या वह दुनिया के बारे में बाक़ी जानकारियों के साथ मेल रखता है या नहीं। जैसे स्त्री या पुरुष में प्रजनन संबंधी फ़र्क को हम सब जानते हैं। यह भी हम जानते हैं कि दिमाग के अलग हिस्सों की अलग-अलग तरह की संज्ञानात्मक खासियत होती है। पर लड़के और लड़कियों के दिमाग में जन्म से ही इन हिस्सों में कोई फ़र्क हो, ऐसी कोई जानकारी नहीं है। यानी गणित की कुशलता पर दोनों में फ़र्क मानने का जो पूर्वाग्रह है, वह बाक़ी जैविक जानकारी से संगति नहीं रखता है।
– महारत – जानकारी का विषय ऐसा हो जिसमें या तो अपनी महारत हो या माहिर लोगों तक हमारी पहुँच हो। हममें से हर कोई अक्सर कोई विचार सत्य मानकर उस पर अड़ा रहता है। पर इससे जुड़े सवालों पर न तो हमारा अपना कोई प्रशिक्षण होता है और न ही हमने शोधकर्ताओं के निष्कर्षों को देखा होता है। मसलन आरक्षण या नोटबंदी का मुद्दा लें। अधिकतर लोग ऐसे विषयों पर ऐसे बात करते हैं, जैसे कि उन्होंने इन पर बहुत सोचा समझा है। सच यह है कि कम ही लोगों को यह जानकारी होती है इन सवालों पर कौन से विद्वान वर्षों से काम कर रहे हैं और उनके निष्कर्ष क्या हैं।

4. भावनात्मकता : आम तौर पर हम मानते हैं कि ईमोशन या भावनात्मकता सच तक पहुँच पाने में बाधा ही देता है।
यह भी सही है कि सिद्धांत के स्तर पर विज्ञान में भावनात्मकता की कोई जगह नहीं है। पर संज्ञानात्मक विज्ञान में इन बातों पर शोध जारी है कि हम कैसे किसी जानकारी को सही या ग़लत ठहराते हैं और इसमें भावनात्मकता का कितना महत्व है। पिछली आधी सदी में यह समझ बढ़ी है कि भावनात्मकता भी ज्ञान पाने का एक प्रथमिक स्रोत है। यह सही है कि इससे ज्ञान पाने में बाधाएँ भी आती हैं, पर जैसा हमने देखा है कि यह बात हर प्राथमिक स्रोत, यानी भाषा, एहसास और तर्कशक्ति के बारें कही जा सकती है।
सामान्य समझ यह है कि भावनात्मक होना गुस्सा, मोह आदि से जुड़ा है और युक्ति की मिसाल गणित में कुशलता है। क्या यह सही है?
अमेरिकी नौसेना के कमांडर रह चुके बिल बुलर्ड का कहना है – ‘इंसान को जो इल्म होता है, उसका सबसे घटिया दिखावा अपने खयाल या राय को सही कह देने में होता है। राय बनाने में कोई जवाबदेही नहीं होती, इसके लिए किसी समझ की ज़रूरत नहीं होती। इल्म की सबसे ऊँची किस्म संवेदना या परानुभूति है। इसके लिए यह ज़रूरी है कि हम अपने अहं को त्याग सकें और किसी और की दुनिया में जा पाएँ। इसमें खुदगर्ज़ी से अलग कहीं बड़े मकसद की ज़रूरत होती है।’ एक फौजी ऐसी बात कह रहा है, इससे अचरज हो सकता है। पर ज़िंदगी के तज़ुर्बों और ईमानदारी से सोचते हुए कोई भी इस बात को समझ सकता है।

कुछ साल पहले हुए नेहरु-आंबेडकर कार्टून पर विवाद का मिसाल लें। 1949 में शंकर ने यह कार्टून बनाकर यह दिखलाया था कि देश की जनता अधीर होकर इंतज़ार कर रही है कि आज़ाद मुल्क के नए संविधान की जल्दी घोषणा हो। संविधान तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष बाबा साहब आंबेडकर के लिए यह भारी चुनौती थी, क्योंकि समिति के सदस्यों में तक़रीबन सभी सामंती सोोच वाले दलक जातियों के पुरुष थे। कार्टून में संविधान सभा को घोंघे की चाल

 

से चलता दिखलाया गया है, जिसे नेहरू चाबुक चला कर आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। पंद्रह साल पहले इसे एन सी ईआर टी की बारहवीं की राजनीति-शास्त्र की किताब में संविधान पर अध्याय में शामिल किया गया था। 2012 में इस पर भारी विवाद छिड़ा और बुद्धिजीवियों में जम कर बहस हुई। इस बात को भूल जाएँ कि हम किसे सही पक्ष मानते थे और यह सोचें कि विवाद के दो अलग पक्षों में सत्य-ज्ञान कैसे ढूँढा जाए? हम पाएँगे कि हम भावनात्मक रूप से इस मसले के साथ कैसे जुड़ते हैं, यह तय करता है कि हम इसमें से किस पक्ष को सच मानते हैं। अगर हम तालीमी पहलुओं के साथ जुड़ते हैं तो हमें वह कार्टून संविधान लिखने के इतिहास की समझ देता है, अगर हम जाति समीकरणों से उपजी समस्याओं और इस दिशा की ओर ले जाती चेतना के साथ जुड़ पाते हैं, तो हमें यह कार्टून पाठ में सही नहीं लगता है।

हावर्ड ज़िन ने अपनी किताब में एक कहावत का जिक्र किया है – ‘ग़रीब की आह हमेशा सच हो, ऐसा नहीं है, पर अगर हम उसे न सुनें तो हम जान ही नहीं पाएँगे कि इंसाफ क्या है।’
तो क्या हर सत्य सापेक्षता लिए होता है? फिर तो हम कभी कुछ नहीं जान पाएँगे।

सापेक्ष सत्य का विरोधाभास : अगर ‘हर सच सापेक्षता लिए हुए है’ तो यही बात अपने आप में पूरी तरह सच नहीं हो सकती। किसी के लिए सही और किसी और के लिए ग़लत होगी। यह अजीब पहेली है। इसलिए दरअसल हमें खुद ही तय करना पड़ता है कि हम सच और झूठ के बीच कहाँ खड़े हैं। इसके लिए हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रमाणों, युक्ति और बाकी दुनिया के बारे में समझ के साथ संगति रखते हुए तय करना पड़ता है कि हम किस ओर खड़े हों। जब 1987 में राजस्थान के झुँझनू में रूपकँवर सती हुई तो यह बहस चली कि इस पर तर्कशील और तरक्कीपसंद कहे जाने वाले लोगों को कुछ कहने का हक है या नहीं। अगर सब कुछ संस्कृति सापेक्ष हो तो सार्वभौमिक तर्कशीलता नामक कोई धारणा नहीं बचती है। पर जहाँ संस्कृति के नाम पर किसी की हत्या हो रही हो, वहाँ हर सचेत इंसान को कुछ तो कहना पड़ेगा।

बौद्धिक भ्रम: यह ज़रूरी है कि हम जानें कि हम अक्सर बौद्धिक भ्रम (fallacies – हेत्वाभास) में फँस जाते हैं। ऐसे कुछ उदाहरण हैं –
आद इग्नोरांतिउम (जहाँ हम पहुँच नहीं सकते, उस बारे में कुछ कह नहीं सकते)। जैसे कोई कहे कि चाँद पर खुदा है, और हम कहें कि इंसान चाँद पर पहुँच चुका है, हम जानते हैं कि वहाँ कोई खुदा नहीं है और हमसे कहा जाए कि चूँकि हम वहाँ नहीं गए हैं, इसलिए हमें यह पता नहीं है, तो यह भ्रमात्मक तर्क होगा। प्रत्यक्ष जानकारी के लिए कोशिश ज़रूर करें, पर जहाँ यह नहीं है, वहाँ दीगर और तरीकों से सत्य के बारे में सोचना तो पड़ेगा।

जल्दबाजी में किया सामान्यीकरण; मसलन, कौवे काले होते हैं, भैंस भी काली होती है; यह देखा जाता है कि काले प्राणी, कौवे, उड़ते हैं; इसलिए भैंस भी उड़ सकती है। अगर किसी संप्रदाय के दो लोग आतंकवादी हैं तो यह उस संप्रदाय की खासियत है – ऐसे भ्रमात्मक सामन्यीकरण आम हैं और सियासी नेता इनका पूरा इस्तेमाल करते हैं।
– पोस्ट हॉक एर्गो प्रॉक्टर हॉक (एक के बाद दूसरी घटना हो रही है तो दूसरी का कारण पहली घटना है); चूँकि कभी-कभी एक के बाद एक हो रही घटनाएँ आपस में जुड़ी होती हैं, (जैसे तंबाकू के नियमित सेवन से कई बीमरियाँ होती हैं), इसका मतलब यह नहीं कि हमेशा ऐसा ही होता है। जैसे पश्चिमी मुल्कों में लोगों में धार्मिक कर्मकांडों में रुचि कम हुई है, और समाज में हिंसा बढ़ी है – इससे यह निष्कर्ष निकालना कि धार्मिकता में कमी और हिंसा में संबंध है, भ्रमात्मक है। भारतीय समाज पर इसे लागू करें तो यह बात साफ हो जाती है, क्योंकि हमारे यहाँ धार्मिकता में कोई कमी नहीं आई है और साथ ही समाज में, खास तौर पर स्त्रियों और बच्चों के साथ हिंसा में बढ़ोतरी हुई है।
आद होमिनेम (व्यक्ति भला या बुरा है तो उसके काम या कथन भी उतने ही सही या ग़लत होंगे); इस सोच का शिकार हम सब लोग होते हैं। मैं हिटलर या मोदी जैसे लोगों के बारे में कोई भली बात नहीं मान पाता हूँ।
चक्कर में फँसी सोच (पहले से दूसरा हुआ, दूसरे से पहला हुआ) ; इसकी एक मिसाल यह सोच है – समाज के उन तबकों को जिनको उच्च शिक्षा नहीं मिली है, सत्ता में निर्णायक और सुविधा-संपन्न पद नहीं दिए जाने चाहिए। जाहिर है कि निर्णायक और सुविधाओं वाले पदों पर आसीन लोग ही तय करते हैं कि ऊँची तालीम तक किन तबकों की पहुँच हो सकती है। इसीलिए तो आज़ादी के सत्तर सालों के बाद भी समाज के निचले तबके आज भी ऊँची तालीम तक नहीं पहुँच पाए हैं। एक और सामान्य मिसाल यह कथन है कि देवी-देवता पैगंबर चूँकि ईश्वर के रूप हैं, उनकी बातें झूठ नहीं हो सकती हैं। जाहिर है कि ईश्वर का रूप मान लें तो फिर बहस क्या होगी।
खास रियायत के लिए अपील; कई बार हम यह जानते हुए भी कि हमारी माँग ग़लत है, दूसरे को अपनी बात मनाने की कोशिश करते हैं। मिसाल के तौर पर यह जानते हुए कि इंसान की जान कीमती है और एक भी इंसान की बेवक्त मौत नहीं होनी चाहिए, कुछ लोग नोटबंदी की वजह से हो रही मौतों को इसलिए नज़रअंदाज़ करते हैं कि उनकी नज़र में यह राष्ट्रीय महत्व का कदम है।
शब्दों का अनेकार्थी प्रयोग; मसलन ‘अच्छे स्वास्थ्य से अच्छा कुछ भी नहीं होता है।’ यहाँ ‘कुछ भी नहीं’ का मतलब शून्य नहीं है।
मिथ्या समरूपताएँ; दो चीज़ें एक जैसी हों तो कोई ज़रूरी नहीं कि उनके गुणधर्म एक ही जैसे होंगे। अगर कोई एक आतंकवादी विशेष संप्रदाय का हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि उस संप्रदाय के सभी आतंकवादी होंगे। या एक पंजाबी और एक तमिल शक्ल में एक जैसे हों तो कोई ज़रूरी नहीं कि उनके स्वभाव में हर बात एक जैसी होगी।
मिथ्या शंका – सिर्फ काला-सफेद दो ही विकल्प – इसकी सबसे अच्छी मिसाल भारत और पाकिस्तान का एक दूसरे को चिरंतन दुश्मन मानना है (जैसे कुछ साल पहले हमारे एक रक्षा मंत्री ने हाल में ही बेवकूफाना ढंग से कहा था कि पाकिस्तान नर्क के समान है)। पिछली कुछ सदियों में फ्रांस और जर्मनी ने भयंकर जंगें लड़ी हैं और करोड़ों लोगों ने इन जंगों में जानें दी हैं, पर आज उनके बीच सरहदें खुली हैं। इसलिए पूर्वाग्रह पर आधारित विकल्पों से अलग और भी विकल्प होते हैं। किसी और देश और समुदाय को दुश्मन मानकर राष्ट्रीय बजट का बड़ा हिस्सा फौज-तंत्र को बढ़ाने में लगा देना देश के साथ गद्दारी है। तक़रीबन सभी हुकूमतें अपने लोगों के साथ यह धोखा करती हैं। खास तौर पर मानव विकास आँकड़ों में नीचे की और मौजूद भारत-पाकिस्तान जैसे मुल्कों के लिए यह शर्मनाक हाल है।
पूर्वग्रहों से बोझिल सवाल; इसके कई मिसाल समाज वैज्ञानिक शोध में मिलते हैं। जैसे चुनावों के बाद लोगों की राय पूछते हुए अगर हम अपने पूर्वग्रह जाहिर कर दें और जवाब देेने वाले को पता चल जाए कि हमारे अपने राजनैतिक विचार कैसे हैं तो वह कभी अपने सही विचार हमें नहीं बतलाएगा।
आदतन हम उन बातों को नहीं जानना चाहते जो हमारी मान्यताओं से संगति नहीं रखती हैं। इसे दर्शन में ‘कन्फर्मेशन बायस’ या पुष्टिकरण पूर्वाग्रह कहते हैं। हमारी हर जानकारी के साथ हमारी पृष्ठभूमि और पूर्वग्रह जुड़े होते हैं। मिसाल के लिए गुजरात और मानव विकास का आँकड़ा लें। भाजपा के चुनाव प्रचार के लिए लगभग एक दशक से यह झूठ फैलाया गया कि गुजरात देश का सबसे विकसित राज्य है। तथ्य यह है कि मानव विकास के आँकड़ों मे गुजरात पिछले तीन दशकों से ग्यारह नंबर पर रुका हुआ है। भक्तों को यह जानकारी नहीं चाहिए, इसलिए वे इसे कभी नहीं देखते हैं।
अब तक यह जाहिर हो गया होगा कि ज्ञान पाना या सच जान पाना आसान नहीं है। या तो हम हर बात पर यकीन रखें या फिर हर बात पर शक करें। ऐसी स्थिति में हम कूपमंडुकता का खतरा और शक करते रहने के दो छोरों के बीच फँसे रहेंगे। आखिर कभी हमें सही निर्णय का कदम उठाना पड़ता है। इसमें हमें इन बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है :-

युक्तिसंगत जानकारी: प्रमाण, सामंजस्य
अप्रिय सत्य और सुकून देते झूठ : अप्रिय सच हमेशा कड़वे लगते हैं और अक्सर ऐसे झूठ को हम सच मान लेते हैं, जिससे हमें सुकून मिलता है। मसलन कल्पना करें कि जानकारियों की दो खिड़कियाँ हैं। एक से अप्रिय सच बाँटें जा रहे हैं और दूसरे से हमें सुकून देते झूठ मिल रहे हैं। होता ऐसा है कि सुकून देते झूठ की खिड़कियों पर लंबी लाइन लग जाती है, जबकि अप्रिय सच कोई नहीं जानना चाहता है। हम सब बचपन में यह जानते ही बड़े हुए हैं कि हमारा अपना देश धरती पर सबसे अच्छा है। कभी हमें इस सच से रूबरू होना पड़ता है कि हर मुल्क अपने तईं अच्छा होता है। हर जगह इंसान एक जैसा भला-बुरा है। इस तरह सच को मान लेना अक्सर काफी तकलीफ देता है। यह भी एक वजह है कि हम कश्मीर या ऐसी अन्य समस्याओं पर कई विकल्पों को जल्दी स्वीकार नहीं कर सकते हैं। पर कभी तो हमें जो सच है, उसे सच कहना पड़ेगा।
तर्कसंगत सत्य-मान्यताएँ : बीसवीं सदी के बीच तक ज्यादातर दार्शनिकों ने मान लिया कि हम कोशिश कर ज्ञान के ऐसे स्तर तक पहुँच सकते हैं, जिन्हें जस्टीफाइड-ट्रू-बिलीफ या तर्कसंगत सत्य-मान्यताएँ कहा जाता है। हालाँकि कइयों को इस पर इतराज है, और कुछ दार्शनिकों ने ऐसे उदाहरण पेश किए हैं, जहाँ इस पर शक की गुंजाइश दिखती है, पर कुछ दशकों पहले तक इसे ज्ञान की जटिलता का सबसे बेहतर समाधान माना जाता था। इसके मुताबिक यह माना जाता है कि यह कहने में कि हमें किसी विषय का ज्ञान है, हममें यह आस्था होनी चाहिए कि हम वाकई इस विषय पर जानकारी रखते हैं, यह जानकारी सही होनी चाहिए, और इसे सही ठहराने के लिए हमारे पास पर्याप्त प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष प्रमाण होने चाहिए।

ज्ञान और इसे पाने के बारे में दुनिया भर में दार्शनिकों ने खूब माथापच्ची की है। भारतीय परंपरा में इसे आम तौर पर ज्ञान -मीमांसा और अंग्रेज़ी में एपिस्टीमोलोजी कहा जाता है। ज्ञान पाने के किसी तरीके और इससे मिले ज्ञान-भंडार को एपिस्टीम कहते हैं। इतना तो साफ है कि ज्ञान का मामला पेचीदा है और हमें हमेशा अपनी जानकारी पर शक की गुंजाइश रखनी चाहिए।

अगले लेख में हम विज्ञान क्या है, यह समझने की कोशिश करेंगे।

 

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[1]   शृंखला के इस पहले लेख में कई बातें मैंने रिख़ार्द फान-दे-लागेमाट (Richard van de Lagemaat) की लिखी हाई स्कूल की एक किताब से ली हैं, जिसका शीर्षक ‘थीओरी ऑफ नॉलेज’ है। मैंने गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, में  ‘ पांचवें कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान (20 नवंबर 2016)’ में ये बातें रखी थीं। यह और शृंखला के दूसरे लेख का बड़ा हिस्सा एकलव्य, भोपाल द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘संदर्भ’ के नवंबर-दिसंबर 2019 और जनवरी-फरवरी 2020 अंकों में आ चुका है। तस्वीरें इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।

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