समकालीन जनमत
सिनेमा

वर्णव्यवस्था के विद्रूप को उघाड़ती सद्गति

(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर  टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है हिंदी के मूर्धन्य कथाकार प्रेमचंद की कहानी पर आधारित मशहूर निर्देशक सत्यजित रॉय की सद्गति । समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की बारहवीं क़िस्त ।-सं)


सद्गति (1981) दूरदर्शन द्वारा प्रायोजित छोटे पर्दे के लिए बनाई गई फ़िल्म है। हिंदी जनता के अन्यतम कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित इस फ़िल्म को महान फिल्मकार सत्यजीत रॉय ने निर्देशित किया है। फ़िल्म भारतीय जाति व्यवस्था में सदियों से अकथनीय शोषण का शिकार रहे अछूतों की समस्या पर आधारित है।
‘शतरंज के खिलाड़ी’ के बाद यह दूसरी फिल्म है जिसे रॉय ने मुंशी जी की रचना के आधार पर बनाया। रवींद्रनाथ सत्यजीत रॉय के प्रिय रचनाकार रहे हैं। दोनों में गहन कला-विवेक और मानवतावादी दृष्टिकोण है। किंतु हिंदी सिनेमा के संदर्भ में सत्यजीत रॉय का मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं की तरफ झुकाव उनकी सामाजिक मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता को अधिक स्पष्ट रूप में सामने लाता है।
देश के अलग-अलग हिस्सों में अछूतों की अलग-अलग जातियाँ हैं। फ़िल्म में अछूतों की जिस जाति को चित्रित किया गया वह चमार है। यह कहानी में भी स्पष्ट है। दुखी (ओम पुरी) इसी चमार जाति का है। फ़िल्म में उसे दुखिया ही पुकारा गया है। नाम में इस तरह लगाया जाने वाला ‘या’ प्रत्यय हिकारत की भावना को प्रदर्शित करता है। दुखिया की पत्नी झूरी को भी झुरिया (स्मिता पाटिल) ही पुकारा जाता है।
काल की दृष्टि से फ़िल्म बस एक दिन की कहानी कहती है। कोई उपकथा नहीं है। बहुत संक्षिप्त कलेवर की फ़िल्म में संसार के सर्वाधिक अमानवीय शोषणों में से एक को गहनता से उतार दिया गया है।
दुखिया और झुरिया को अपनी बेटी धनिया (ऋचा मिश्रा) के लगन के लिए साइत विचारने के लिए पंडितजी को घर बुलाना है। फ़िल्म की शुरुआत यहीं से होती है। इस दम्पत्ति की चिंताएँ गौरतलब हैं। पंडितजी को बैठाएंगे कहाँ? चमार की खटिया पे तो बैठेंगे नहीं। झुरिया सुझाव देती है कि ठकुराने से खाट मांग लें। इस पर दुखिया डाँटता है। जहाँ से माँगे आग नहीं मिलती वहाँ से खाट मिलेगी? निदान यह निकाला जाता है कि महुये के पत्तों की आसनी बना ली जाय। यह काम धनिया को सौंपा जाता है।
अगली समस्या दक्षिणा की है। दक्षिणा का इंतजाम कैसे होगा यह बात नहीं है। दिया कैसे जायेगा? यह प्रश्न है। बर्तन कौन सा होगा? इसका भी हल महुये के पत्तों में खोजा गया।फ़िल्म में सीधा की खरीददारी करते झुरिया के साथ एक और औरत दिखाई गई है। कहानी से स्पष्ट होता है कि वह गोंड औरत है। दुखिया की तरफ से झुरिया को हिदायत है कि भूल से भी वह दक्षिणा का कोई सामान न छुए। यह सब उस अछूत समस्या की एक बानगी भर है जिससे मानव जाति का एक बड़ा हिस्सा अनगिनत पीढ़ियों से जूझता आ रहा है।
खाली हाथ जा नहीं सकता इसलिए दुखिया ताजी हरी घास का एक बड़ा गट्ठर काटकर लादकर पंडितजी के घर की तरफ चलता है। वह हाल में ही बीमारी से उठा है। घास उठाते ही उसे चक्कर आता है। उसकी पत्नी उसे रोकती है जाने के लिए। कुछ खाने को कहती है। पर पंडितजी निकल न जाएं कहीं, इस डर से वह कोई बात नहीं मानता।
पंडितजी (मोहन अगाशे) सुबह से ही नहाने-धोने, इत्मीनान से माथे पर चन्दन सजाने और पूजा-पाठ में व्यस्त हैं। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के उस काल में एक वर्ग कैसे बिना कुछ किये-धरे इतिहास के आरंभ से माल काटता आ रहा है, यह सब उसकी एक बानगी भर है।
दुखिया को देखते ही पंडितजी का शैतानी दिमाग सक्रिय हो जाता है। साथ लाई घास को गाय को डालने के लिए कहते हैं। फिर बताते हैं कि बरामदा गंदा है, बुहार दे। इसके बाद भूसा ढोने के काम पर लगा देते हैं जिसे करने के बाद लकड़ी चीरने काम बता देते हैं। फ़िल्म में तीन अलग-अलग दृश्य एक साथ दिखाए जाते हैं।तीनों में दुखिया, झुरिया और धनिया, सभी पंडितजी की सेवा में ही लगे हैं। उधर पंडितजी नाश्ते के बाद भरपेट खाकर दुपहरी की नींद ले रहे हैं।
लकड़ी चीरते दुखिया को एक गोंड से सहानुभूति और पीने की चिलम मिलती है। चिलम की आग माँगने के लिए दुखिया पंडितजी के घर में जाता है। जिस पर पंडिताइन भला-बुरा बोलती है। वह पंडित से कहती हैं कि आपको धरम-करम की चिंता नहीं। धोबी, चमार जो भी पाता है हिंदू के घर में घुस आता है। इस पर पंडितजी समझाते हैं कि हमारा ही काम कर रहा है। मजूरी दे के कराते तो एक रुपया लगता। पंडितजी पंडिताइन की तुलना में अधिक स्पष्ट हैं कि इस सारे धार्मिक तामझाम का अंतिम उद्देश्य आर्थिक शोषण ही तो है।
भूखा और बीमार दुखिया उस कड़ियल लकड़ी के बोटे को चीरने में विफल हो थककर सो जाते हैं। पंडितजी सो कर उठने के बाद उसे फटकारते हुए कहते हैं:”फिर साइत भी ऐसे ही निकलेगी।मुझे दोष मत देना।” यहाँ धर्म का असली रूप झलक मारता है। आखिर दुखिया लकड़ी चीरते-चीरते मूर्छित हो कर गिर जाता है और मर जाता है।
पंडित और पंडिताइन की मूल चिंता पुलिस की है। वह भी कितनी? पंडितजी कहते हैं: “इस बरसात में कहाँ पुलिस आएगी।” यह औपनिवेशिक भारत में एक अछूत की जान की कीमत है जो आज भी व्यवस्था की निगाह में कितनी बढ़ पाई है!
ख़ैर! गोंड के मना करने और पुलिस के डर से कोई चमार दुखिया की लाश उठाने नहीं आता।झुरिया आकर पंडित के बंद दरवाजे पर रोती बिलखती है। उधर टोले के पंडित की समस्या यह है कि वे पानी कैसे पियें। कुएँ की राह में एक चमार की लाश पड़ी है। जाति व्यवस्था आधारित समाज की पूरी सड़ांध दर्शक के सामने आ जाती है। यह पराकाष्ठा पर तब पहुंचती है जब एक लकड़ी के सहारे अछूत स्पर्श से बचता ब्राह्मण किसी तरह रस्सी से मृत दलित के पाँव को बांधता है। उसे घसीटते हुए गांव से बाहर ऐसी जगह छोड़ आता है जहाँ पशुओं की लाश खुली पड़ी है। यह वह सद्गति है जिसे सामंती और मनुवादी व्यवस्था में एक दलित प्राप्त करता है।
कहानी में मुंशी जी ने वातावरण का चित्रण नहीं किया है। सत्यजीत रॉय ने यह कमी अपनी कल्पनाशीलता से बखूबी पूरी कर दी है। गांव और घर की संरचना, पेड़ और घास, धूप और बरसात सबको कुशलतापूर्वक कैमरे में कैद किया गया है। ओम पुरी और स्मिता पाटिल दोनों ने जिस तरह चाल-ढाल और बोल-चाल में दलित जीवन को उतारा है, वह अचंभित करने वाला है। संवेदनहीन दिखने के लिए मोहन अगाशे को बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ती। पंडिताइन की भूमिका में गीता सिद्धार्थ बेहद सफल रही हैं।ब्राह्मण महिलाओं के भीतर दलितों के प्रति जो नफ़रत वर्ण व्यवस्था ने भर रखी है वह उनके चेहरे पे पहले ही दृश्य से बहुत साफ और प्रभावशाली ढंग से दिखने लगता है।
फ़िल्म का एक रोचक पहलू है ब्राह्मण टोले में दिखने वाली रावण की विशालकाय मूर्ति। कहानी में इसका या इस तरह का कोई जिक्र नहीं आया है। साफ है कि यह सत्यजीत रॉय की अपनी कल्पना का फल है। इसके जरिये सम्भवतः उस ब्राह्मण टोले को लंका के रूप में प्रतीकित करने का प्रयास किया गया है। विदित है कि रावण जाति से ब्राह्मण था। फिल्मकार ने इस तथ्य का उपयोग यह संकेत देने के लिए किया है कि ब्राह्मण और उनके द्वारा संचालित व्यवस्था धर्म नहीं अपितु अधर्म के केंद्र हैं।

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