समकालीन जनमत
रेखा चित्र-राकेश कुमार दिवाकर
कविता

‘मजदूर थे वो जब तक सबके ही काम आए/मजबूर हो गए तो सबको ही खल रहे हैं’

लखनऊ। लोग कोरोना की चपेट में ही नहीं हैं बल्कि लाॅक डाउन से पैदा हुई अव्यवस्था के भी शिकार हुए हैं, हो रहे हैं। लोगों में विकलता और बेचैनी है। जब भी जीवन में आसामान्य हालात पैदा हुए, उसने सृजन के लिए भूमि तैयार की है। इमरजेन्सी हो या गुजरात 2002 का जनसंहार, ढेर सारी कविताएं लिखी गयीं। आज भी बड़े पैमाने पर कविताएं लिखीं जा रही हैं। जब पत्र-पत्रिकाओं का निकलना संभव नहीं हो पा रहा है, ऐसे में सोशल मीडिया इनका मंच बना है।

ऐसी ही कविताओं का पाठ ‘कविता संवाद’ के माध्यम से फेसबुक पर लगातार किया जा रहा है। 17 मई 2020 का अंक सातवां अंक था जिसके तहत नौ कवियों की कविताएं सुनाई गयीं।

कार्यक्रम का संयोजन और संचालन जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष व कवि कौशल किशोर द्वारा किया गया।

शुरुआत डाॅ. मालविका हरिओम (लखनऊ) की ग़ज़ल से हुई। इसमें वे मजदूरों के दुख-दर्द को बयां करने के साथ उनको लेकर बरती जा रही उपेक्षा को सामने लाती हैं ‘छाले दरक रहे हैं और पाँव गल रहे हैं/वो भूख-प्यास लेकर सड़कों पे चल रहे हैं’ और ‘मजदूर थे वो जब तक सबके ही काम आए/मजबूर हो गए तो सबको ही खल रहे हैं’।

इस मौके पर तीन युवा कवियों की कविताओं का पाठ हुआ। महामारी के दौर में आम आदमी विवश है, ऐसा कर दिया गया है। उसके अरमान रोटी पाने में सिमट गये हैं। उसकी हालत उस चिड़िया की हो गयी है जिसे बाज अपना शिकार बना रहा है। कविता ‘पांच ट्रिलियन डालर वाली अर्थव्यवस्था’ के दंभ और खोखले दावे पर चोट करती है जिसमें आम आदमी जीने के लिए नहीं मरने के लिए बाध्य है।

प्रद्युम्न कुमार सिंह (बांदा) कहते हैं ‘अब मैं कभी भी नहीं कह पाऊँगा/रोटियों को चाँद सा गोल/क्योंकि रोटियां चाँद नहीं होती हैं/वे तो एक बेबश माँ का अरमान होती हैं ’

अनिल अविश्रांत (झांसी) यूं व्यक्त करते हैं ‘मैं तो बस इतना जानता हूँ/यह हमें पहले बदलती है चिड़िया में/और फिर झपट्टा मारती है बाज की तरह/मैं भूख और मौत के बीच/जीवन को बचाये उड़ रहा हूँ/और तुम तब्दील हो रहे हो/बाज में’।

शिव कुशवाहा (फिरोजाबाद) का क्षोभ कविता में कुछ इस तरह व्यक्त होता है ‘विश्व की ‘पांच ट्रिलियन’ अर्थव्यवस्था को सहेजे/इस महादेश में/मजदूर होना ही उनका दुर्भाग्य था/और दुर्भाग्य था उनका/नंगे पांव अपने घर पहुँचना’।

सुशील कुमार (रांची) की काव्य डायरी के तीन अंश का पाठ हुआ। इसमें वे दर्ज करते हैं ‘विश्वविजित वैज्ञानिकों के अहंकार का/ताश के पत्तों की तरह बिखर जाना’। वे कहते हैं कि इसे एफआईआर की तरह लिखा जाना चाहिए ‘असंख्य बदहाल मजदूरों की/दबी हुई पदचाप और दारुण मौत की तफसीलें/दुनियाभर के साज-बाज और बाजारों की लम्बी तालेबन्दी के बीच/‘सेंसेक्स’ के बेतहाशा लुढ़क जाने/और अरबपतियों के कर्जमाफी के किस्से’। वे कोरोना काल में पर्यावरण में आये सकारात्मक परिवर्तन, घर-परिवार में बहुत दिनों बाद साथ होने-रहने की उमंग, कवियों और लेखकों की बढ़ती महत्वकांक्षा आदि को भी अपनी इस डायरी में लाते हैं।

विमल किशोर (लखनऊ) मध्यवर्ग की स्वार्थपरता तथा उसके विरोधाभास को सामने लाती हैं। जब लोग भूख से मर रहे हों, ऐसे में फेसबुक पर व्यंजनों को परोसना उन्हें अश्लील सा लगता है। वे कहती हैं ‘भूखे हो तुम, भूखी है तुम्हारी अतड़ियां/और हम फेसबुक पर परोस रहे हैं/नये-नये और विविध व्यंजन/जो भूख और भूखे का मजाक उड़ा रही हैं ’।

इस अवसर पर एक ऐसे व्यक्ति की कविता का पाठ हुआ जो अपने को कवि नहीं मानते पर आज के हालात में अपनी विकलता को जिस तरह व्यक्त किया, उसकी मार्मिकता कहीं गहरे संवेदित करती हैं। ये हैं ध्रुवसिंह यादव। वे कहते हैं ‘जिंदा रहे तो फिर आएंगे/तुम्हारे शहरों को आबाद करने/वहीं मिलेंगे…प्लास्टिक की तिरपाल से ढंकी अपनी झुग्गियों में/चैराहों पर अपने औजारों के साथ/होटलों और ढाबो पर खाना बनाते, बर्तन धोते/हर गली हर नुक्कड़ पर फेरियों में/रिक्शा खींचते ऑटो चलाते/बस इस बार, एक बार घर पहुंचा दो/आयेंगे फिर जिंदा रहे तो’।

कविता संवाद का कार्यक्रम दो वरिष्ठ कवियों की कविताओं से सम्पन्न हुआ। ये थे वासुकी प्रसाद उन्मत्त (छत्तीसगढ़) और जनेश्वर (रतलाम, मप्र)। इनकी दो-दो कविताओं का पाठ हुआ।

उन्मत्त कहते हैं ‘यह कोई विदेशी महामारी नहीं थी/यह प्रधान सेवक के द्वारा थोपी गई मौतें थीं/प्रधान सेवक धृतराष्ट्र है/गांधारी है सत्ता/इनने मजदूरों को कर दिया निहत्था/विचार से, संगठन से, सुरक्षा से’। जहां उन्मत्त मजदूर वर्ग की अन्दरुनी कमजोरियों पर अंगुली रख उन्हें आगाह करते हैं, वहीं जनेश्वर को इस वर्ग की अदम्य शक्ति व साहस पर भरोसा है। वे कहते हैं ‘महामारियों से तो निपटते रहे हैं/और निपटेंगे भी/इसे पलायन, विस्थापन या लौटना जो कहो/यह एक नई वसुधा को देगा जन्म/और तब इस नई दुनिया के/सिरजनहार भी हम होंगे/और भोक्ता भी हम ही’ ।

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