कृष्ण समिद्ध
नये और बनते हुए कवि पर लिखना बीज में बंद पेड़ के फल के स्वाद पर लिखने जैसा है । फिर भी यह मूर्खता मुकुट के लिए की जा सकती है क्योंकि शशांक मुकुट शेखर उस तरह के नये कवि हो सकते हैं, जिसमें नया करने का कोई होड़ नहीं है ।
यह कवि कविता के लिए किसी नयी ज़मीन की तलाश नहीं कर रहा , बल्कि अपनी ज़मीन में अपना जड़ तलाश रहा है। मुकुट की कविता की यह बड़ी उपलब्धि भी हो सकती है और संकुचित सीमा भी। खैर भविष्यवाणी के बजाए कवि की आज की कविता पर बात ज़रुरी है।
आज की कविताओं मेरे पसंद की कविता “जो रह गया ” है, –
मैं छोड़ जाऊंगा सारी किताबें साहित्य की
और सिगरेट की पूरी भरी पैकेट
कभी आना तो एक सिगरेट जला कुछ कविताएँ पढ़ना
कवि किताब और किताबी ज्ञान को छोड़ सकता है, जो उसे ज्ञान के आतंक से बाहर रखता है।
इतिहास को ऊँगली के एक क्लिक से बदलने में लगा कुनबा
ज्ञान को आतंक साबित करने की जुगत में (मेहनतकश की लाठी)
आज के समय की बड़ी चुनौतिओं में प्राथमिक चुनौती अपनी निजता या निज पहचान की रक्षा करना है। आज अर्थव्यवस्था के समानांतर ज्ञानव्यवस्था का सुपर स्ट्रक्चर खड़ा है, जो भूमंडलीकरण से स्थानीयता को निगलने के बाद निज पहचान को निगलने को तत्पर है। निज पहचान का अभाव वास्तविकता को धूमिल करता है और मंदिर और मस्जिद का प्रश्न आदमी बनने के प्रश्न से प्रमुख हो जाता है।
यह शहर अब वो शहर नहीं रहा
जहाँ आयतें और श्लोक साथ पढ़े जाते थे
या
राम का ‘र’ और रहीम का ‘र’
दो अलग-अलग वर्णमाला के ‘र’ हैं शायद
(रुकसाना )
यह धूमिलता विचारों से बढ़कर भाषा के प्रभाव को भी धूमिल कर रहा है। जो “राम-राम” लोक व्यवहार में सस्नेह स्वागत अभिवादन था, वह “जय श्री राम” के युद्ध घोष में बदल गया है। भाषा भी शक्ति संरचना से मुक्त नहीं है ।
हम भाषा के माध्यम से यथार्थ ग्रहण करते हैं और प्रायोजित यथार्थ भाषा को रुप देती है। इस चक्रिय प्रभाव में आज भाषा का प्रश्न नाजूक है , वो भी तब जब संवैधानिक परंपराओं को भी बलात विकृत किया जा रहा है। इस दशा में कला ही वह माध्यम है , जो सत्ताधीन सुपर स्ट्रकचर को लांघ कर वास्तविक यथार्थ की पहचान कर सकता है और वैकल्पिक यथार्थ का सृजन भी और मुकुट की भी कविताएं कई आँखोंवाली कविता है , जो यथार्थ के करीब ले जाती है-
उन्हें बता दो कि
जनता को भूख
भगवान से ज्यादा महसूस हो रही है(मेहनतकश की लाठी)
कवि की कविता आगे की आँख प्रेम देखती है , तो पीछे की आँख से राजनीत। इसलिए प्राय: कवि की प्रेम कविता राजनीतिक कविता हो जाती है और राजनीतिक कविता प्रेमकविता हो जाती है-
वे जो बोलते हैं मारे जाते हैं
वे जो प्रेम करते हैं मारे जाते हैं (इन्हें उम्मीद दो)
मुकुट को उसकी कविता से और उसकी कविता के बाहर की जगह से देखा जा सकता है। मुकुट के साथ कई सहूलियत हैं , वे कई अच्छी तस्वीर लेने में सक्षम फोटोग्राफर हैं और परिवर्तन के लिए सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता। कई चित्र वे अपनी कविता में भी उतार देते हैं-
नए बन रहे फुटपाथ पर पैरों के दो जोड़े की छाप और
……….
पटना के उत्तरी छोर पर पानी पर तैरते तुम्हारे रंगीन दुपट्टे और (जो रह गया )
बिहार के सीमांचल के एक छोटे से गाँव -शहर से संक्रमित अर्द्ध मेट्रो शहर पटना के निवासी मुकुट की कविताओं पर हर जगह की खरोंच है ।
इन सहूलियत और खरोंच से संपन्न मुकुट की कविता का भविष्य चुनौतीपूर्ण रहेगा , जो उनसे अच्छी कविताओं की संभवानाओं को जीवित रखेगा।
शशांक मुकुट शेखर की कविताएँ
1.मेहनतकश की लाठी
जब वे सड़क पर लहुलुहान हो रहे हैं
राजा अहिंसा और अंतिम आदमी की बहस को
जुमलों के आवरण में ढकने की पुरजोर कोशिश में लगा है
सेनापति झूठ और नफरत के कैनवास पर हत्याएं गढ़ रहा है
और प्यादे राजा को देश साबित करने में तल्लीन है
देश जिसे मेहनतकश पसीने और खून की आखिरी बूंद तक सलामत रखते हैं
सड़क पर लगातार बुलंद हो रही हक़ की आवाजों को अनसुना कर
राजा हर समारोह से पहले कपड़े बदलने में व्यस्त है
अधिकार के नारों को बंदूकों से रौंदने की कोशिशों के बीच
मेहनतकश की लाठी इंकलाब लिख रही है
उन कतारों में मैं भी शामिल होना चाहता हूँ
जो राजधानी की तरफ जा रही है
जिसके शरीर पर सिर्फ नमक
और आँखों में सूरज के सबसे नजदीक होने जितनी आग है
उन सड़कों पर जो उनके नाख़ून में फंसे मिट्टी भर खाली छोड़ी गई है
जो उनके तलवे से थोड़ा कम सख्त है
चाय और सिगरेट की जुगलबंदी में जीवन की गर्माहट ढूंढते लोगों के बीच
आज हुई हत्या की नृशंसता पर बहस
आपसी टकराव तक पहुँच गई है
मुमकिन है अगली हत्या के कारणों पर बहस करने वे जीवित ना रहें
इतिहास को ऊँगली के एक क्लिक से बदलने में लगा कुनबा
ज्ञान को आतंक साबित करने की जुगत में
अर्थव्यवस्था की गर्दन पकड़कर झूल रहा है
उन्होंने अन्न के लिए बाट जोहते चेहरों को सिर्फ नफरत दी है
उन्हें बता दो कि
जनता को भूख
भगवान से ज्यादा महसूस हो रही है
और मेहनतकशों के चूल्हों में आग की आखिरी चिंगारी अभी बची हुई है.
2.रुकसाना
1. फ़ज़र की पहली अज़ान के साथ
तुम याद आती हो रुकसाना
अब मेरी नींद सुबह जल्दी नहीं खुलती
तुम्हारे घर से आने वाली चाय की महक
मुझतक पहुँच ही नहीं पाती
जैसे रुक जाती है श्लोक की ध्वनि
मस्जिद के दरवाजे तक जाते-जाते
और जैसे पहुँच ही नहीं पाती कभी
अजान की आवाजें मंदिर के कपाट तक
पहले हर सुबह तुम पढ़ती थी कलमा
और बज उठती थी मेरे कमरे के कोने में बनी मंदिर की घंटियाँ
गुजरात के रास्ते तुम ना जाने कहाँ गुम हो गई?
और मैंने तुम्हारा नाम पिरो रखा है अपने श्लोक में
जिसे जपता हूँ
काबा की सीढियों पर लिखे आयत की तरह
2. पता नहीं तुम कहाँ हो रुकसाना ?
मैं अब भी यहीं हूँ, इसी शहर में
अब सबकुछ वैसा तो नहीं है, पर सबकुछ वही है
मेरा यकीन करो
सबकुछ वही है, वहीँ है
वही शहर, वही लोग
बस तुम नहीं हो
हाँ.. और कुछ भी नहीं है
मेरी चाय में अब मिठास नहीं है
शहर की हवा में तुम्हारे कलमें की आवाजें नहीं गूंजती
रातें अब भी काली ही होती है
पर दिन भी अब काला-काला होने लगा है
नफरत और तल्खियों के साए में लिपटा डरवाना काला दिन
करीम मियां और रमुवा अब गले नहीं मिलते
मोहसिना और महेंद्र अब साथ नहीं पढ़ते
मजहब ने ज्ञान के भी अब हिस्से कर दिए हैं यहाँ
शहर की मस्जिदों में आज भी रोज अज़ान होता है
आज भी जलते हैं दिए यहाँ के मंदिरों में
पर हां,
पंडित भोलाराम और मौलवी रहमान अब दोस्त नहीं रहे
तुम्हारे जाने के बाद पता चला
कि मजहबें जोडती नहीं अलगाव पैदा करती है
यह शहर अब वो शहर नहीं रहा
जहाँ आयतें और श्लोक साथ पढ़े जाते थे
3. पता है रुकसाना,
शायद हम गलत थे
हमें समझना चाहिए था
कि ना राम से तुम्हारा कोई वास्ता
ना अल्लाह पर मेरा कोई अधिकार
ये धर्म ये कौम ये मजहबी सियासतें
इनसब ने बना रख्खे हैं
तमाम रुकसानाओं और रह्मानों और रोहितों और राहुलों के लिए एक अलग-अलग तीर्थ स्थल
जहाँ प्रवेश करने लिए बनानी पड़ती है
दोनों हाथों से भिन्न-भिन्न मुद्राएँ
हम क्यों नहीं समझ पाए
कि मंदिर के ‘म” और मस्जिद के ‘म’ में बहुत फर्क है
और
राम का ‘र’ और रहीम का ‘र’
दो अलग-अलग वर्णमाला के ‘र’ हैं शायद
मुझे पक्का यकीन है कि
तुम्हारा नवरात्रा का व्रत रखना गलत था
या मुझे रमजान में रोजा नहीं रखना चाहिए था
4. कभी-कभी सोचता हूँ
आकर लेट जाऊं तुम्हारे बगल में किसी दिन
पर वो भी संभव नहीं
क्योंकि
मेरा ईश्वर मुझे लेटने का अधिकार नहीं देता
और तुम्हारा खुदा…. खैर छोड़ो
पर हम मिलेंगे
हम जरुर मिलेंगे
सुना है जन्नत और स्वर्ग एक ही जगह का नाम है
या शायद वो भी अलग-अलग.. पता नहीं
पर इस ब्रह्मांड के परे
कोई तो जगह होगी
कोई तो ऐसा शहर होगा
जहाँ अल्लाह और राम साथ रहते होंगे
हम वहां मिलेंगे
पर हम मिलेंगे जरुर
तुम इंतजार करना.
3. वास्तविकता
आजकल मेरे सपने में कुछ चेहरे आते हैं
और कुछ आकृतियां भी
साफ़-साफ़ दिखता नहीं
सब धुंधला होता है
पर इतना तो यकीन से कह सकता हूं कि
वे चेहरे और आकृतियां औरतों की होती है
क्योंकि वे आकृतियां सहमी होती है
और उन चेहरे पर डर का भाव होता है
एक आधा जला चेहरा होता है
और एक अधकटे होठों वाला
एक आग से झुलसी आकृति होती है
एक खून से लथपथ अधनंगी आकृति
और एक की दांयी हाथ जली है
एक पूरी नंगी आकृति जिसके सर मुंडे हैं
एक आकृति जिसके गले में उसी के दुपट्टे का फंदा है
और भी कई
अधूरी आकृतियां और विकृत चेहरे होते हैं
उन सबमें एक बात सामान्य है
सबकी आंखो में आंसू हैं
मैं उनसे बातें करता हूं
पूछने पर सबकी अपनी-अपनी कहानी है
उस जले चेहरे वाले आकृति ने बताया कि
उसपर एक मनचले ने तेज़ाब फेंका है
क्योंकि उसने उसका प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था
अधकटे होठों वाली ने बताया कि
उसे उसके पति ने पीटा फिर पंखे से लटका दिया
उस आग से झुलसी आकृति ने बताया कि
उसे उसके ससुराल वालों ने ही जलाया है
क्योंकि वो खाली हाथ आई थी
वो जो खून से लथपथ आकृति है ना
अभी-अभी सात-आठ लफंगों ने मिलकर
उसका बलात्कार किया है
और वो जो पूरी नंगी गंजी आकृति है
उसने बताया कि पुरे गांव ने मिलकर
उसका ये हाल किया है
बाकियों के भी अपने-अपने किस्से हैं
अचानक वे सब दिखने बंद हो जाते हैं
कुछ दिनों बाद फिर से दिखने लगते हैं
पर इस बार सबके जबाब बदले हुए हैं
एकदम विपरीत
सब अपनी हालत के जिम्मेदार खुद को ही बता रहे हैं
ये सब आकृतियां और चेहरे
मेरे सपनों में ही क्यों आती हैं?
दरअसल वे सब मेरी कुछ-ना-कुछ लगती है
एक मेरी माँ है
एक मेरी बहन
एक मेरी पत्नी
एक मेरी दोस्त
और बांकी सब भी मेरी परिचित ही हैं
और सब मुझे मेरे
वास्तविकता से परिचित करवाती हैं
वे सब मुझसे
इंसाफ की गुहार लगाती है
पर मैं कुछ भी नहीं कर सकता
क्योंकि वे सब भी मेरे कुछ-ना-कुछ लगते हैं
जिसने इनका ये हाल किया है
एक मेरे पिता हैं
एक मेरा भाई
कुछ मेरे रिश्तेदार
कुछ मेरे दोस्त
और उनमें एक मैं भी हूँ
मैं कैसे कुछ कर सकता हूँ
आखिर मैं भी
इस पुरुष प्रधान समाज का एक मर्द ही हूं
ये सब लगातार रोये जा रही हैं
और मैं अपने सारे मर्द रिश्तेदारों के साथ
अपनी मर्दानगी का जश्न मनाता फिरता हूँ
ऐसा नहीं है कि मैं कुछ करता नहीं
कभी-कभार इनपर कविताएं लिख
कवि सम्मेलनों में पढता रहता हूं
कभी-कभी नेशनल टेलीविजन पर
इन मुद्दों पर बहस करता हूं
और ज्यादा होता है तो हाथों में कैंडल लेकर
राजधानी के मुख्य चौराहे की और निकल पड़ता हूं
पर जैसे ही औरत दिखती है
किसी नदी में आए बाढ़ की तरह
मर्दानगी उफान मारने लगती है
पर एक दिन
ये सब मेरे सपने से बाहर निकल आएंगी
और अपना इंसाफ खुद करेंगी
और उस दिन समाप्त हो जाएगा मर्दों का वर्चस्व
पर फिर भी ये सब देंगी
उन तमाम नामर्द मर्दों को बराबरी का दर्जा
क्योंकि इन्हें खूब मालूम है बराबरी का मतलब
आखिर ये औरत हैं ना।
4. उसी गली में
दरभंगा घाट बैठे उत्तर की ओर गंगा गुलाबी लगती है
उतना ही खाली
जितना उछाल दिया था तुमने मेरे चेहरे पर
तुम्हारी बांयी हथेली अब भी गीली है क्या?
तुम्हारी आँखें अब भी नीली है क्या?
गली के मुहाने खड़ा लैम्पपोस्ट
जलता है क्या दुधिया रौशनी?
कोई नन्हा दार्शनिक
दिखता है क्या तुम्हारी बालकनी से साफ़?
कर देती हो आज भी
होठों पर अर्धवृत बना सबको माफ़?
आधी छूटी चाय गर्म है
मेरी हथेली आज भी नर्म है
सड़क के उस ओर खड़ा है क्या कोई
लिए हाथ में खाली टिफ़िन?
क्या आज भी लगाती हो बाल में
फूलों वाला पिन?
अघोरीनाथ मंदिर
सामने पड़ा है घूसर बेलपत्र पर तुम्हारे अलता का दाग
माँ ने संजो रखे हैं अबतक सुई लगा पाग
सोमवारी के व्रत में किसे मांगती हो अब?
लाल-पीले स्कार्फ में किसे टांकती हो अब?
अधूरा बिना स्वेटर कब पूरा करोगी?
सोन से उड़ते बाल कब तुम गुहोगी?
जितना वक़्त तुम्हें बटन लगाने में लगा था
उतना ही बचा हूँ गुलाबी शर्ट में टंका
आधी बची अंटी से सीती हो क्या किसी का कमीज?
सिखाती को किसी को रहने का सऊर
बात करने का तमीज?
जरा सी देरी पर
क्या आज भी मोती झरते हैं?
चाँद दीखते ही आँखें क्या मुझे ही खोजते हैं?
दीघा से गायघाट तक लगातार सिकुड़ती जा रही गंगा
अब उतनी ही बची है
जितनी तुम्हारी हथेली में समा गई थी
क्या कोई जगह बची है उस गली में
दो चपल्लों के आयतन जितना भी?
मैं भागलपुरी सिल्क सा समा जाऊंगा
तुम्हारी चौथी अंगुली नाप अंगूठी में
तुम मुझे लगा लेना
पैरों में लगाती थी जैसे महावर त्योहारों में
रुई की फुही से
तुम्हारे बिना मैं उतना ही अकेला हूँ
जितना बिन हाथों की चूड़ी
मुझे पता है
तुम भी मेरे बिना
बिन पैरों की बिछिया भर ही होगी
आओ
आओ
नाखून की लालिमा सी आओ
और उजलेपन की तरह छूट जाओ
आओ
उतना ही आओ
जितना चली गई थी तुम
मैं उतना छूट गया हूँ वहां
जितना छोड़ गई थी तुम उस दिन
एक हलके कदम से आओ
और मुझे विदा करो.
5.इन्हें उम्मीद दो
हमारी चुप्पियों के विस्तार में
हर रोज शाह की बुलंद होती आवाजों के बीच
छोटी होती जाती हमारी जीभ
गुनाहगारों की श्रेणी में भविष्य हमें
सबसे ऊँची श्रेणी में पाएगा
हत्या से चंद मिनट पहले की आँखों में
दिखता है दुनिया का सबसे वीभत्स सच
हत्यारे की आँखों की चमक
जो हमारी चुप्पियों से
और चमकीला होता जाता है
वो एक दिन आसमान में टंगे सूरज को भी निगल जाएगा
और हमारी चुप्पी चीखों में बदल जाएगी
वे आँखें कितनी खूबसूरत थी
जिनमें एक प्रेमी साँस लेता था
उन्हें देखती हुई आँखें पृथ्वी पर सबसे पवित्र थी
एक चमकदार हथियार से हुई हत्या को
मजहबी रंग दे दिया गया
बहसों में वे रंग बेरंग थे
हम चुप रहे
उनकी आँखे और चमकीली होती गई
वे जो बोलते हैं मारे जाते हैं
वे जो प्रेम करते हैं मारे जाते हैं
वे जो ख़ामोश हैं
उन्हें मारने की कोई आवश्यकता ही नहीं
मैं प्रेम करता हूँ और बोलने भी लगा हूँ
मैं कबतक जीवित रहूँगा?
प्रेमी की लाश से रिसते खून से
घुटने टेक तिलक करते हत्यारे
हमारी चुप्पियों का ही परिणाम है
जो एकदिन हमारी अतडियों के महीन रेशों से
हमारी ही गर्दन मरोड़ देंगे
हमारी जीभ मुंह के अंदर ही छटपटाटी रह जाएगी
इन्हें बचाओ
इन बोलने वालों को बचाओ
तमाम प्रेम करने वालों को बचाओ
इन्हें उम्मीद दो
ये हमें हत्यारों की श्रेणी में आने से बचा लेंगे
(कवि शशांक मुकुट शेखर पटना विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के छात्र रहे हैं। युवा कविता का उभरता हुआ नाम हैं। टिप्पणीकार कृष्ण समिद्ध फ़िल्मकार, कवि और समालोचक हैं. वह पटना में रहते हैं.)