समकालीन जनमत
कविता

विजय विशाल की कविताएँ शासक वर्ग के चेहरे को कठोरता से बेनक़ाब करती हैं

गणेश गनी


स्मृतियों के सहारे चलते हुए जीवन कभी-कभी खूबसूरत और कभी-कभी यातनामय भी लगने लगता है। यह निर्भर करता है कि बीते समय की यादें हैं कैसी। हालांकि वर्तमान में रहते हुए हालातों से समझौता करते हुए जीवन अधिक सरल और तनावमुक्त जीया जा सकता यह लेकिन कविता और कवि मुश्किल राह को चुनते हैं।

उन दिनों घर के निर्माण के समय, पालतू पशुओं, यहां तक कि मधुमक्खियों और चिड़ियों तक का ख़्याल रखा जाता था। भेड़ – बकरियों के बाड़े की दीवारों में मधुमक्खियों के घर ज़रूर बनाए जाते। आज की निर्माण शैली में यह सब सोचा भी नहीं जाता। नई पीढ़ी तो यह सब जान भी नहीं पाएगी। यह सब अब हमारी स्मृतियों में रहेगा। मंडी, चैलचौक के कवि हैं विजय विशाल। उनकी एक कविता है मधुमक्खियों के प्राकृतिक छत्तों पर जो बहुत कुछ कहती है। वे हार नहीं मानतीं-

मधुमक्खियों को/मालूम है
हर बार की तरह/शीघ्र ही ढहा दिया जाएगा
उनका किला/चुरा ली जाएगी/उनकी मेहनत
फिर बेघर हो/भटकना होगा उन्हें
नए ठिकाने के लिये
जैसे/एक निर्माण कार्य पूर्ण होते ही
भटकने लगते हैं मजदूर/नए काम की तलाश में।

विजय विशाल बहुत लंबे अर्से से लिख रहे हैं। विचारधारा के मामले में एक स्पष्ट दृष्टिकोण इनकी कविता में दिखता है। नक़ाब के पीछे छिपी शासक वर्ग की क्रूर सच्चाईयों की बरीक़ समझ को इन कविताओं में पढ़ा जा सकता है। प्रकृति और शोषित वर्ग की तरफ उनकी कविताओं की निगाह बड़ी आत्मीयता से उठती है।

जिस प्रकार मधुमक्खियाँ सोती ही नहीं, उसी प्रकार मजदूर भी जीवन पर कहाँ चैन की नींद सो पाता होगा। भवन निर्माण करने वाला यह मेहनतकश अपने लिए इस पृथ्वी पर स्थायी घर तक नहीं बना सकता। कवि की एक कविता सबसे सुंदर घोंसला की पंक्तियों में घर के बारे बड़ी गहरी बात की गई है। बया हमेशा लिए अपना घर नहीं बनाती-

तुम /जो संसार की
सबसे सुंदर इमारतों की/सूची बना रहे हो
इसमें शामिल कर लो/एक अदद घोंसला।

बया के घोंसलों का/पेड़ों पर लटकना
महज किसी पक्षी के आश्रय का/निर्माण भर नहीं है
यह किसानों के लिए/सूचना भी है कि
बरसात आ पहुँच है सिर पर।

बया हमेशा के लिए/काबिज नहीं रहती
अपने इन घोंसलों पर।

विजय विशाल कहते हैं कि बया बरसात की सूचना भी देती है।बरसात की सूचना तब भी मिल जाती है जब चिड़िया धूल में नहाती है और चींटियाँ अपने अण्डे सुरक्षित स्थानों की ओर ढोना आरम्भ करती हैं। कवि ने अपनी कविताओं में रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं का क़ायदे से ज़िक्र किया है। विजय विशाल की कविताओं की भाषा पाठकों को आकर्षित करती है।

 

विजय विशाल की कविताएँ

1. युद्ध समाप्ति पर

अनंत काल तक
नहीं लड़ा जाता
कोई भी युद्ध
अंततः एक न एक दिन
इसे खत्म होना ही है

कोई फर्क नहीं पड़ता
युद्ध कितना लम्बा चला
अठारह दिन, अठारह माह या अठारह साल

कितने मरे
सैंकड़ों, हजारों या लाखों
बच्चे, बूढ़े, औरतें या नई उगी मूंछों वाले नौजवान

भले ही
आणविक हथियारों से
धरती हुई हो बंजर, हवा विषाक्त और समुद्र जहरीले
फर्क तो क्या
शिकन तक नहीं पड़ती
पत्थर हो चुके
युद्ध पिपासुओं के माथे पर

युद्ध निपटने पर
दम्भ से भर उठता है विजेता
मन मसोसकर रह जाता है पराजित

हत हुए सैनिकों के परिवारों में
बंटते हैं वीरता के तमगे
और
विजेता के महल में सजती है
नृत्य संगीत की महफ़िल

थका हारा घर लौटा सैनिक
निश्चिंत सो नहीं पाता कई-कई रात
अस्फुट बड़बड़ाता रहता
अंनत काल कि

 

2. सृष्टि का होना

कुछ लोग
दूसरों की पीठ पर सवार होकर
काट देते हैं
तमाम उम्र

और कुछ
बिना आराम किये
खटते रहते हैं
उम्र भर।

ये जो
बिना आराम किये
खटते रहते हैं
उम्र भर

यही रचते हैं संसार
इनका होना
सृष्टि का होना है।

 

3. मैं नहीं जानता

मैं नहीं जानता
इतिहास में
उस कालखंड को
क्या नाम दिया जाएगा
जब किसी तरह का
कोई घोषित
आपातकाल नहीं था,
मगर जनता की निगरानी को
चारों तरफ तैनात थे
प्रशिक्षित शिकारी कुत्ते।

यूँ तो किसी के बोलने पर
कोई पाबंदी नहीं थी
मगर कुत्तों की चौकसी के चलते
लोग-बाग बोलने से पहले
दस बार सोचते
या फिर आपस में कानाफूसी से ही
काम चला लेते।

कलमकार अभिधा से बचते
उपमाओं से काम चला रहे थे
उन्हें भान था कि शिकारी कुत्तों की
सूंघने की ग्राह्यता तीव्र और
साहित्यिक सौंदर्यबोध शून्य होता है।

वैसे उस कालखंड में
प्रश्न पूछने पर कोई मनाही नहीं थी
मगर शिकार को व्यग्र
कुत्तों के गुर्राने से ही
प्रश्नकर्ता के हल्क सूख जाते थे।

कुत्ते इतने प्रशिक्षित थे कि
बोली या पहनावे से ही
अपने- पराये का भेद जान लेते
उम्र को दरकिनार कर
बिना लिंग-भेद
सरे राह
किसी के भी कपड़े तार-तार कर देते।

बहुत कुशल रहे होंगे
इन शिकारी कुत्तों के प्रशिक्षक
और इनके मालिकों की
तारीफ में क्या कहें ?
जो इस कालखंड को
इतिहास का स्वर्णिम काल घोषित कर बैठे हैं।

सचमुच, मैं नहीं जानता
इतिहास में
उस कालखंड को
क्या नाम दिया जाएगा।

 

4. दिवास्वप्न

उन्होंने
स्वप्न देखे
ऐसे
विकास के दिवास्वप्न
जहां पेड़-पौधों की जगह
उगाए जाने लगे
कंक्रीट के जंगल।

उनके सपनों में
पक्षियों की जगह
उड़ने लगे
विशालकाय डैने फैलाये
आसमान में चिंघाड़ते
बड़े-बड़े वायुयान
या छोटे-छोट ड्रोन

बड़े अद्भुत थे उनके
सृष्टि के विकास के सपने।
उनके सपनों में शामिल था
कल-कल बहती
नदियों की गति को रोकना
गर्वोन्मत पर्वतों की चोटियों को
अपने आगे नतमस्तक करना।

वैसे नदियों ने कब चाहा
कि वे सूख जाएं
या रोक ली जाए
उनकी रफ्तार।

पर्वतों ने कहां
कल्पना की थी
कि एक दिन
कुरेद दी जाएगी
उनकी छाती।

यह सब
उस दिन सम्भव हुआ
जब वे सफल रहे
जनता की आँखों में
विकास के दुर्लभ बीज बोने में।

इन दुर्लभ बीजों के बल पर
नदियां बांध दी गईं
पक्षी आसमान से निर्वासित किये गए
पर्वतों को रौंदा जाने लगा
इस तरह विकास की
एक नई परिभाषा
पृथ्वी की छाती पर गढ़ी जाने लगी।
ऐसे विकास की परिभाषा
जिसमें उनके दिवास्वप्न
भावी पीढ़ी के लिए
दुःस्वप्न बनकर तैरने लगे।

 

5. युद्ध का औचित्य

कितना भी तार्किक क्यों न हो
युद्ध का औचित्य
और
युद्ध की अनिवार्यता
वस्तुतः युद्ध
ठीक वैसे ही
मानवता विरोधी होता है
जैसे
न्याय सम्मत
मृत्यु दंड
होता है
हत्या का आदेश।

 

6. अप्रासंगिक की प्रासंगिकता

वह गए थे
बुद्ध से मिलने
उसकी जन्मस्थली
अपने पूरे लावलश्कर के साथ।

यह जानते हुए भी
कि बुद्ध अब वहां नहीं रहते
उन्होंने बुद्ध से मिलने का
सफल अभिनय किया।

बुद्ध की करुणा और अहिंसा से
वे इत्तेफाक नहीं रखते
इसलिए
बुद्ध के प्रति
वैसी ही आस्था जताई
जैसी मोहनदास करमचंद गांधी के प्रति
समय-समय पर जताते हैं।

व्यवहार में कब के
अप्रासंगिक किये जा चुके
बुद्ध और गांधी
आज भी भाषणों में
प्रासंगिक घोषित किये जाते हैं।

 

7. खूँटी और चादर

खूँटी
थोड़ा ऊँची थी
पर टाँगने की ज़िद्द
उससे भी ज्यादा बलवती रही होगी।

हालांकि
चादर छोटी थी
पर पाँव पसारने की इच्छा का दमन
उनके शब्दकोश में नहीं था।

अपने
अनथक प्रयास से
उन्होंने
आत्मा को खूँटी पर टांगा
पाँव चादर से बाहर पसारे
और
देश को हांकने लगे।

 

8. राजगद्दी के सबक

राजगद्दी ने
उन्हें समझाया-
भीड़
भेड़ का पर्याय
हो सकती है

वे पहचानने लगे
भीड़ और भेड़ का
अंतर
जल्दी ही
वे सीख गये
भीड़ को
भेड़ में बदलने का
मंतर

उन्होंने भीड़ के कान में
मंतर फूंका
और भेड़ को मनमाफिक
हेड़ने लगे।

 

9. नदी नहीं जानती

नदी नहीं जानती
उसके तटबन्धों पर हुए अतिक्रमण
सभ्यता के विकास की अवधारणा में
शामिल किए जा चुके हैं

नदी नहीं जानती
किसी के ड्रीम प्रोजेक्ट
उसी के प्रवाह में
उगाए जाने हैं

नदी कभी नहीं सोचती
उसके वेग से
कोई विपत्ति में आये

वह तो बादलों के गुस्से को
अपने भीतर समेट
भागते हुए
कहीं दूर जाना चाहती है

इस बदहवास भागमभाग में
किसका खेत उजड़ा
किसका घर गिरा
किसका ड्रीम प्रोजेक्ट
आ गया उसकी जद में
नदी नहीं जानती।

 

10. आपदा के बाद

एक दिन
भर जाएंगे सारे जख्म
एक दिन
लहलहा उठेंगे उजड़े चमन
एक दिन
लौट आएंगे खूब सारे सैलानी
एक दिन
शांत – स्वच्छ होकर
बहने लगेगा
नदियों में निर्मल पानी
बाग-बागीचों में
पंछी चहकते हुए
लौट आएंगे एक दिन
पहाड़ की चोटियां
फिर बर्फ़ से भर उठेंगी
प्रेमी युग्म
फिर चांद निहारते मिल जाएंगे
एक दिन

मगर मलबे में दबे जिस्म
जड़ों से उखड़े विशालकाय पेड़
फिर खड़े नहीं हो पाएंगे
न ही लौट कर आएगी
वह माटी
जिसकी धूल में खेलते
बड़े हुए हैं हम।

 


 

कवि  विजय विशाल, हिमाचल प्रदेश के मण्डी शहर में जन्म।हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से हिन्दी व इतिहास विषय में एम.ए., हि. प्र. विश्वविद्यालय से ही हिन्दी में एम.फिल. व पीएच-डी. की डिग्री। विभिन्न सरकारी विभागों में सेवाएं देते हुए प्राध्यापक के पद से सेवानिवृत।

जन-विज्ञान आन्दोलन में कई वर्षों तक जमीनी स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक सक्रिय भूमिका, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की अनेक कार्यशालाओं व सेमीनारों में प्रतिभागिता, सांस्कृतिक अध्ययन हेतु कई दुर्गम व बीहड़ क्षेत्रों की पद यात्राएँ।
हिन्दी साहित्य की प्रमुख व प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित, कविता में मूल अभिरुचि होने के साथ-साथ कहानी व आलोचना में भी हस्तक्षेप, समसामायिक मुद्दों पर वैचारिक लेखन के अतिरिक्त गोष्ठियों के आयोजन से लेकर विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी। साम्प्रदायिक सद्भाव और हिन्दी उपन्यास  व सत्ता, साहित्य और समाज नामक दो आलोचनात्मक पुस्तकें तथा ‘चींटियाँ शोर नहीं करतीं’ कविता संग्रह प्रकाशित।
बहरहाल शहरी क्षेत्र को छोड़ ग्रामीण परिवेश में स्थाई आवास।

सम्पर्क: +919418123571
ईमेलः- vjyvishal@gmail.कॉम

 

 

टिप्पणीकार टिप्पणीकार गणेश गनी का जन्म: 23 फरवरी 1972 को पांगी घाटी (चम्बा) हिमाचल प्रदेश में।
शिक्षाः पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए., एम.बी.ए., पी.जी.जे.एम.सी. (इग्नू), जम्मू विश्वविद्यालय से बी. एड.
सृजनः हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, साहित्य – संवाद की एक पुस्तक ‘किस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर’ 2018 में प्रकाशित और हिंदी साहित्य जगत में चर्चित। कविता की पुस्तक ‘वह सांप-सीढ़ी नहीं खेलता’ 2019 में प्रकाशित और पाठकों में चर्चित।
सम्प्रतिः कुल्लू के ग्रामीण क्षेत्र में एक निजी पाठशाला ‘ग्लोबल विलेज स्कूल’ का संचालन।
सम्पर्कः एम.सी. भारद्वाज हाऊस, भुट्टी कॉलोनी, डाकघर शमशी, कुल्लू -175 126 (हिमाचल प्रदेश)
मोबाइलः 09736500069
ई-मेलः gurukulngo@gmail.com

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