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उपन्यास अगम बहै दरियाव पर राहुल सांकृत्यायन सृजन पीठ में गोष्ठी संपन्न

18 मार्च, मऊ

जन संस्कृति मंच के तत्वाधान में राहुल सांकृत्यायन सृजन पीठ के सभागार में वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति के प्रकाशित उपन्यास अगम बहै दरियाव पर एक गोष्ठी का आयोजन पूर्व प्रशासनिक अधिकारी व उपन्यासकार विभूति नारायण राय जी की अध्यक्षता में किया गया। कथाकार शिवमूर्ति ने अपने उपन्यास की रचना प्रक्रिया से गुजरते हुए बताया कि सामान्य तौर पर कहा जाए तो पूरे उपन्यास की कथा पांच दशक से होकर गुजरती है। हालांकि यदि सूक्ष्म रूप से बात की जाए तो यह उपन्यास लगभग एक शतक के समय की कहानी समेटे हुए है । उपन्यास के फ्लैशबैक के अंश को शामिल किया जाए तो इसकी कहानी 1920 से शुरू होती है और यह उपन्यास 2021 से लिखकर समाप्त होता है। इसमें सम्मिलित लोकगीत हमारे बीच की महिलाओं द्वारा गाए गए हैं। नौकरी के दौरान हमने इसे संकलित किया है। समकालीन सोच के संपादक राम नगीना ने उपन्यास को पढ़ते हुए विषय पर बात करते हुए कहा कि उपन्यास के पात्र संतोषी की लड़ाई किसानों की कभी खत्म न होने वाली लड़ाई लगती है, यह सोचनीय है। गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिंदी के सहायक आचार्य डॉ रामनरेश राम ने कहा कि उपन्यास के पात्रों में अपने अधिकार की लड़ाई को लेकर रिरियाने की प्रवृत्ति नहीं है। इसके पात्र प्रतिरोध करते दिखाई देते हैं। प्रोफेसर राजेश मल्ल ने कहा कि ज्योतिबा फुले की एक रचना किसान का कोड़ा के पाठ की अगली कड़ी है शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव। कर्ज और मौसम की मार यानी सब कुछ की मार किसान को ही सहना पड़ता है। वक्तव्य के क्रम में युवा आलोचक डॉ संजय राय ने कहा कि उपन्यास दो खंडो में बंटा हुआ है। जहां पहला खंड श्रम का घोतक वहीं दूसरा खंड पूंजीवादी सभ्यता के दुष्चक्र का घोतक है। एक तरफ पहले अंश में बैल और हल तो दूसरे तरफ ट्रैक्टर का चित्रण किया गया है, जो किसान की जीवन यात्रा को भी जोड़ता है। डॉ देवेंद्र सिंह ने कहा कि प्रेमचंद का गोदान, फणीश्वर नाथ रेणु का मैला आँचल, जगदीश चंद्र माथुर का धरती धन न अपना, नरक कुंड मे वास के बाद किसान जीवन पर लिखा शिवामूर्ति का यह उपन्यास अगम बहै दरियाव मील का पत्थर है। यह गांव के उजड़ने की कहानी है। मतलब किसानों के उजड़ने की कहानी है।

वरिष्ठ कथाकार व तद्भव के संपादक अखिलेश ने अपने वक्तव्य में कहा कि इस उपन्यास का शीर्षक अगम बहै दरियाव एक सार्थक शीर्षक है जो उपन्यास के विभिन्न पाठकों की संभावनाओं की तरह इंगित करता है । यह उपन्यास समकालीन उपन्यास के रचना संसार में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करता है। इसमें समूची ग्राम्य संस्कृति का चित्रण किया गया है, विशेषकर अवध क्षेत्र का। यदि इस उपन्यास की तुलना संजीव के उपन्यास फांस से की जाए तो यह मिलता है कि फांस के बरक्स अगम बहै दरियाव की रचना फलक कही ज्यादा विस्तृत है। इस उपन्यास की प्रासंगिक कथाएं मिलकर एक महा वृत्तांत का निर्माण करती हैं। यह उपन्यास एक रास्ते को पाने की छटपटाहट पैदा करता है।

संगोष्ठी के मुख्य वक्ता वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव ने अपने वक्तव्य में कहा कि शिवमूर्ति जी का यह उपन्यास हिंदी मे किसानी उपन्यासों के रचना विद्वानों की कमी को पूरा करता है। भारत के गांव में रहने वाले लोगों के संबंधों के बनने व बिगड़ने का चित्रण इस उपन्यास में किया गया है। उपन्यास का पात्र छत्रधारी सिंह बहुत धूर्त पात्र है। जो अपने लाभ के लिए किसी को भी अपने जाल में फसाने में कोई संकोच नहीं करता है। मत्स्य पालन की प्रक्रिया से न्याय का नियम इस उपन्यास में दर्शाया गया है। इस उपन्यास में वंचित पात्र प्रतिरोधी चेतना सम्पन्न है और यह चेतना सामाजिक परिस्थितियों से उपजी है। यह उपन्यास गांव के समाजशास्त्र के साथ साथ अर्थशास्त्र को समझने मे सहायता प्रदान करता है।

प्रख्यात उपन्यासकार विभूतिनारायण राय ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि आज के समाज मे दो बड़ी समस्याएं एक वर्ण है तो दूसरा जेंडर। तकनीक के विकास ने सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बहुत हद तक प्रौद्योगिकी के विकास ने हमारी जिंदगी को आसान बनाया। इसे दुर्भाग्य नहीं समझना चाहिए बल्कि अपने देखने का नजरिया बदलना चाहिए ।

कार्यकर्म का संचालन जय प्रकाश धूमकेतु और बसंत कुमार ने धन्यवाद ज्ञापित किया। द्वितीय सत्र मे

सुल्तानपुर से डॉ बृजेश यादव व उनकी टीम ने उपन्यास में आए अवधि लोकगीत रंगारंग प्रस्तुति की।

इस मौके पर डा.सरफराज अहमद, डॉ राम विलास भारती, अनुभव दास, बाबूराम पाल, डॉ रवि शंकर सोनकर, अरविंद मूर्ति ,मनोज सिंह रामजी सिंह ,वीरेंद्र कुमार ,राम सकल राय प्रमोद राय, संतोषी तिवारी, शैलेश , फकरे आलम ,धनंजय, योगेंद्र, चंद्रशेखर चौहान विद्याधर, शिव मूरत गुप्ता, बृकेश यादव आदि उपस्थित रहे।

जन संस्कृति मंच के लिए बसंत कुमार द्वारा जारी

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