समकालीन जनमत
कविता

स्त्री जीवन के अनचीन्हे सच को दर्ज करतीं रजनी अनुरागी की कविताएँ

संजीव कौशल


रजनी अनुरागी की कविताओं से गुज़रना, शरीर के ताप को सीधे महसूस करना है वह ताप जिसमें धीरे धीरे एक स्त्री का जीवन तपता रहता है। यहाँ कोरी कल्पनाएँ नहीं है यहाँ शब्द सच के धरातल से उठते हैं जिन्हें दर्द सहारा देकर उठाता है। दर्द जिसे हमारी सामाजिक संरचना ने स्त्री जीवन का स्थाई भाव बना दिया है। जब कविता वास्तविकताओं के जाल से निकलकर आगे बढ़ती है तब सही ही है कि वह थोड़ा टूट फूट जाती है उसका स्वर उतना मिठास लिए नहीं रह पाता लेकिन उसमें सच का रंग गाढ़ा होकर चिपका रहता है।

तुम कल्पना पर होकर सवार
लिखते हो कविता
और हमारी कविता
रोटी बनाते समय जल जाती है अक्सर
कपड़े धोते हुए
पानी में बह जाती कितनी ही बार

हर काम के लिए वक्त चाहिए फुर्सत चाहिए जो स्त्रियों के पास कभी नहीं होती। घर सुबह से रात तक उन्हें घेरे रहता है और अंत में धोए हुए कपड़े की तरह अपने मजबूत हाथों से निचोड़ देता है। जो बचता है सूखा और गीला, वही कविता में उतरता है जिस पर ऐंठे जाने की झुर्रियां साफ देखी जा सकती हैं। यह एक ऐसा सच है जो ऐतिहासिक रूप से समय, स्थान और सभ्यताओं के पार स्त्री जीवन से चिपका हुआ है जहां स्त्रियों को फुर्सत के नाम पर किरचें ही मिलती हैं और इन्हीं पर वे अपनी कहानियाँ उकेरती रहती हैं।

रजनी अनुरागी एक सचेत और समझदार कवयित्री हैं जिन्हें अपनी चेतना बोध के साथ-साथ अपनी जिम्मेदारी का भी पूरा एहसास है। इसलिए उनकी कविता आम स्त्री के संघर्षों की कहानी बनकर उभरती है जो अपनी खोई हुई जगह पाने के लिए लगातार जूझ रही है।

रजनी उन कवियों में हैं जो आम जीवन में उलझे रहते हुए सार्वभौमिक सच को पकड़ने, उसे सहजता से पेश करने में माहिर हैं। उनके शब्दों से रोशनी झांकती रहती है जो कविता में छुपी, कही बातों को जगमगा देती है। मगर यह रोशनी स्त्री संघर्षों की रोशनी है पीड़ाओं की रोशनी है जो शब्द दर शब्द किसी पत्थर की तरह हमारे दिलों में पैवस्त होते चले जाते हैं और हमें रुकने, रुक कर उन पीड़ाओं को समझने के लिए विवश करती है जिन्हें पुरुष देखना नहीं चाहते।

घर में
हर कहीं बिखरी होती है औरत
लेकिन उसका कोई घर नहीं होता
वह घर होती है दूसरों के लिए
दूसरे रहते हैं उसमें
मगर वह खुद में नहीं रहती

स्त्री जीवन बेगारों से भरा है जिसे प्यार और बलिदान जैसे शब्दों से नवाज़ा गया है। एक स्त्री से जीवन भर दूसरों का साथ देने की अपेक्षा रहती है लेकिन उसका अपना कोई साथी नहीं होता कोई उसे अपनी तरह नहीं समझता।

रोजमर्रा के जिन प्रश्नों को रजनी अपनी कविताओं में लाती हैं उन्हें देखकर लगता है कि हमारी निग़ाह से इतना कुछ देखने से कैसे छूट गया। यही एक कवि का काम है कि वह हमें अदेखे को देखने के लिए विवश करे।

छुट्टी के दिन

वे अक्सर खाना खाना भूल जाती हैं
पर घर की साप्ताहिक दुरुस्ती नहीं भूलतीं
कई बार वे हवाई चप्पलों में ही

पहुंच जाती हैं ऑफिस

जबकि वो अक्सर दोबारा जाकर देखती हैं
कि ताला ठीक से लगा है कि नहीं

रजनी के पास हमारे समय के बड़े सच को पकड़ने और उन्हें सहजता से कह देने की अद्भुत शक्ति है। ऐसा करते हुए वे यहाँ वहाँ नहीं ताकती‌ं सीधे और साफ कहती हैं पूरी ईमानदारी और निडरता के साथ।

मज़दूरों की बस्ती नहीं होती
वे जहाँ रुक जाते हैं
बस जाती है वहीं उनकी बस्ती

सच चाहे कितना ही मुश्किल क्यों न हो और उससे जुड़ी सत्ता कितनी ही मजबूत और ताकतवर रजनी अपना पक्ष रखने से नहीं चूकतीं। इसका शानदार मुजायरा उनकी कविता ‘बुद्ध अगर तुम औरत होते’ में देखा जा सकता है जहां एक स्त्री बुद्ध को अपनी नजर से देखती है और वह यह पाती है कि बुद्ध जैसा विशाल व्यक्तित्व भी वह सब इसलिए कर पाया क्योंकि वह पुरुष थे। अगर वह स्त्री होते तब क्या अपने दुधमुहे बच्चे को छोड़कर जा सकते थे, घने जंगलों में वह कैसे रहते, क्या लोग उन्हें रहने देते, क्या पुरुष उनके शरीर उनकी आत्मा तक को नोंच नहीं डालते, क्या समाज एक घर छोड़कर जंगल जंगल घूमती स्त्री को स्वीकार करता और क्या उनकी बातों को वह महत्व मिलता? ऐसे तमाम सवाल यह कविता उठाती है जिनके जवाब किसी के पास आज तक नहीं हैं।

चौहद्दियों से परे जाने पर
क्या तुम्हें निरपराध होने की गवाहियां मिल जातीं
कितने ही ऋषि मुनियों की तपस्या भंग करने का लगता अभियोग
बांध कर उसी बोधिवृक्ष के साथ  कर दिया जाता जीते जी दाह संस्कार
एक गाली बन कर रह जाता तुम्हारा नाम
भयावह क्रूरता के आगे ठगा सा रह जाता सम्यक ज्ञान
हवा हो गया होता बोधिवृक्ष और बुद्ध का नाम
और न कहीं होता  ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’

रजनी की चिंताओं का दायरा बहुत बड़ा है। दुनिया के दूसरे छोरों पर हो रही हलचलें उनकी दृष्टि में हैं और उन घटनाओं से वे अपने निष्कर्षों पर भी पहुंचती हैं जो हमारे समाज पर भी लागू होते हैं। हिंसा, अत्याचार और आधिपत्य का सीधा नकार रजनी की कविताओं में देखने को मिलता है।

तहरीर चौक की जन क्रांति देती है सदेश
कि लोकतंत्र के नाम पर जो भी बन बैठेगा तनाशाह
ये मजबूत जनता उसे ऐसे ही कर देगी
नेस्तनाबूद

रजनी की कविताओं पर लिखते हुए लगातार लिखते रहने का मन हो रहा है। कविताएँ इतना कुछ कह रही हैं कि संवाद तोड़ना मुश्किल हो रहा है, लेकिन सब कहना ठीक नहीं कुछ मन में भी रखना चाहिए मन की बातों के लिए। आप भी यही महसूस करेंगे मेरा ऐसा विश्वास है। यह संवाद इसी तरह बना रहे इसके लिए प्रिय कवि रजनी अनुरागी को ढेरों शुभकामनाएँ।

 

रजनी अनुरागी की कविताएँ

1.हमारी कविता

तुम कल्पना पर होकर सवार
लिखते हो कविता
और हमारी कविता
रोटी बनाते समय जल जाती है अक्सर
कपड़े धोते हुए
पानी में बह जाती कितनी ही बार

झाड़ू लगाते हुए
साफ हो जाती है मन से
पौंछा लगाते हुए
गँदले पानी में निचुड़ जाती है

साफ़ करते हुए घर के जाले
कहीं उलझ जाती अपने ही भीतर
और जाले बना लेती है अनगिनत
धूल झाड़ते हुए दीवार से
सूखी पपड़ी सी उतर जाती है
टावल टाँगते समय
टँग जाती है खूँटी पर

सूई में धागा पिरोते-पिरोते
हो जाती है आँख से ओझल

छेद-छेद हो जाती है
तुम्हारी कमीज़ में बटन टाँगते
बच्चों की चिल्ल-पों में खो जाती है
मिट्टी हो जाती है
गमलों में देते हुए खाद

घर-बाहर सँभालते सहेजते
तुम्हारे दंभ में दब जाती है
और निकलती है किसी आह सी
जैसै घरों की चिमनियों से
निकलता है धुँआ

अगर पढ़ सको तो पढ़ो
हमको ही
हमारी कविता की तरह
हम औरतें भी
एक कविता ही तो हैं

 

2. औरत

घर में
हर कहीं बिखरी होती है औरत
लेकिन उसका कोई घर नहीं होता
वह घर होती है दूसरों के लिए
दूसरे रहते हैं उसमें
मगर वह खुद में नहीं रहती
सबको संभालती है
पोसती है पालती है
सबके लिए वक्त निकालती है
पर अपने लिए नहीं होता
उसके पास वक्त

टंगी रहती है औरत पर्दे की तरह
आड़ देती हुई घर की तमाम कमजोरियों को
पर सड़क पर ला दिया जाता है
उसका सम्मान कभी भी

सीवन करती है वह तमाम उधड़नों की
और खुद ही उधड़-उधड़ जाती है
हाड़ तोड़ बेगार करती है तमाम उम्र
और तमाम उम्र खाली हाथ रहती है
महसूस करती है वह सबका दर्द
और उसका दर्द कोई महसूस नहीं करता

तरह-तरह की भूमिकाएं हैं
औरत के लिए
मगर औरत की अपनी कोई भूमिका नहीं

औरों की तरह
औरत भी अपना सफ़र करती है
मगर औरत की ज़िंदगी में
पिता के घर से पति के घर तक
और पति के घर से मृत्यु के घर तक
कोई हमसफर नहीं होता

3. तुम्हारा कोट

तुम्हारे कोट को छुआ तो यूँ लगा
कि जैसे तुम हो उसके भीतर
उसके रोम-रोम में समाये
तुम्हारी ही गंध व्यापी थी उसमें
जो उसे छूते ही समा गई मुझमें
यूँ लगा कि जैसे तुमने छुआ हो मुझे
अचानक कहीं से आकर

मैं तो समझी थी
कि तुम भूल गए हो मुझको
दिखा जब अंदर की जेब में लगा हरा पेन
एक मीठा सा अहसास हुआ
ये वही हरा पेन था
जो लिया था तुमने पहले मुझसे कभी

मगर अब वो पेन महज़ पेन नहीं रहा
वहाँ उग आया था एक हरा पत्ता
जो सीधे तुम्हारे दिल से जाके जुड़ता था
तुम्हारा दिल अभी भी मुझसे जुड़ा है
मैं अब भी हरे पत्ते-सी हरियाती हूँ
तुम्हारे मन में
ये जानकर अच्छा लगा

ये जानकर अच्छा लगा
कि तुमने लगा के रखा है
मुझको अभी भी सीने से
मैं अब भी वहाँ बसती हूँ
सघन हो गया प्रेम
आँख से आँसू बह निकले
तुमने सोख लिया फिर से मेरा दुख
सारा विषाद बह गया

रह गया तुम्हारा-मेरा प्रेम
हरे पत्ते सा तुम्हारे कोट में

4. जन ज्वार

मिश्र के जन सैलाब के आगे
झुक गया हुस्नी मुबारक

चुप्पी बेबसी नहीं होती
नहीं होती चुप्पी बेबसी
उसके पीछे चलता है गहरा विचार मंथन
दिमाग की हांडी में पक जाते हैं जब विचार
बेख़ौफ़ उतरने लगती है
जनता तब सड़कों पर
एक से लाख होने में देर नहीं लगती

आँखों से गुलामी का अंधेरा छँट जाता है
तनने लगती हैं मुट्ठियाँ और उठने लगते हैं हाथ
जनता जूझती है निराहार, निरस्त्र
सशस्त्र सैनाओं से

एक कठिन दौर से गुज़रते लोग
जल्दी ही जान जाते हैं
कि टालने से टलती नहीं चीजें
और बिगड़ जाती हैं

कितने ही हुस्नी मुबारक बैठे हैं
अल्जीरिया, सीरिया और लीबिया में
और हमारे आस-पास भी
हमारे दिलो-दिमाग़ पर कब्ज़ा किए
हमारे सब्र का इम्तेहान लेते
देखें कब ये बाँध टूटता है।

तहरीर चौक की जन क्रांति देती है सदेश
कि लोकतंत्र के नाम पर जो भी बन बैठेगा तनाशाह
ये मजबूत जनता उसे ऐसे ही कर देगी
नेस्तनाबूद

 

5. साहस का नेपथ्य

औरत डरती है बात करने से
कहीं वाचाल न समझ ली जाए

औरत डरती है चुप रहने से
कहीं मूर्ख न समझ ली जाए

औरत डरती है हर अपने से
कहीं दुश्मन न निकल जाए

औरत डरती है हर बेगाने से
कहीं ‘अपना’ न कह दिया जाए

औरत डरती है हंसने से
कहीं बेहया न समझ ली जाए

औरत डरती है चीखने से
कहीं बदज़बान न समझ ली जाए

औरत डरती है
क्योंकि उसे मालूम नहीं है
कि ये सब उसे चुप कराने के तरीके हैं
और जिस घड़ी उसे ये बात समझ आती है
उसके साहस की शुरुआत हो जाती है

 

6. मज़दूरों की बस्ती

मज़दूरों की बस्ती नहीं होती
वे जहाँ रुक जाते हैं
बस जाती है वहीं उनकी बस्ती

वहीं सुलगने लगता है उनका चूल्हा
वहीं उठने लगती है सौंधी सुगंध
और वहीं पकने लगती है उनकी रोटी
वहीं खेलने लगते हैं उनके बच्चे
और वहीं पलने लगते हैं उनकी आंखों में सपने

और बस इतने से सुख से ही खुश होकर
वे उठा देते हैं ऊँचे-ऊँचे भवन और इमारतें
बसा देते हैं बड़ी-बड़ी बस्तियाँ
और निकाल देते हैं
दुर्गम पहाड़ों और बीहड़ जंगलों बीच से रास्ते

सिर्फ़ इतने से ही सुख से खुश होकर
वे बसा सकते हैं
एक बिल्कुल ही नई दुनिया।

 

7. ताले और चाबियाँ

ताले बहुत हैं
मगर चाबियाँ कहाँ हैं
जिनसे उन्हें खोला जा सके
पुरुष ने बनाए बहुत से ताले
औरत के लिए
और चाबियां छुपा दी

कितनी ही सदियां गुज़र गई हैं
औरत को चाबियां खोजते
और पुरुष को उस पर हंसते

मगर औरत भी कम नहीं है
जिस ताले की मिली नहीं उसे चाबी
वह खुद उसकी चाबी बन गई
और इस तरह पुरुष के हर ताले को
औरत खोलती आई है सदियों से
अपनी ही तरह से

लाज़िम है उस दिन का आना
जब दुनिया के हर ताले की चाबी
औरत के पास होगी
मगर तब नहीं रहेगी जरुरत
दुनिया में किसी भी ताले की

 

8. महानगरीय सड़क

साँझ होते ही जब पसर जाता है अंधेरा
भय की आगोश में खो जाती हैं सड़कें
तो ऐसे में खूँखार चमचमाती आँखें
लपलपाती जीभें
और नोचने को आतुर पंजे लिए
घूमते हैं गिद्ध सड़कों पर।

और ऐसी सड़कों से
भयंकर डैने फैलाए
गिद्ध जब ले उड़ते हैं किसी लड़की को
तो उसके बाद कोई लड़की
लड़की नहीं रहती
सड़क हो जाती है
सपाट, स्याह और बेजान

 

9. संबंध

मैंने उससे कहा
आओ मेरा मन ले लो
उसे मेरा तन चाहिए था

मैंने फिर उससे कहा
आओ मेरा मन ले लो
उसे मेरा धन चाहिए था

उसने मेरा तन लिया
उसने मेरा धन लिया
मन तक तो वो आया ही नहीं

अब मैं सोचती हूँ
कि मैंने उसके साथ
इतना लम्बा जीवन कैसे जिया

पर जीवन जो बीत गया
जीवन जो रीत गया
वह जिया गया कहाँ

 

10. भूलना

वे अक्सर भूलने लग जाती हैं
एक उम्र तक पहुंचते पहुंचते

वे भूल जाती हैं कि उन्होंने चूल्हा बंद किया है या नहीं
जब देखने आती हैं तो अक्सर बंद मिलता है बर्नर
कई बार फ़्रिज़ तक आते आते
भूल जाती हैं कि सामान लेने आई हैं या रखने
जब हाथ में सामान वापस आता है
तब याद आता है कि धनिया लेना था
और बचा  आटा रखना था

मोबाइल ले जाना भी भूल जाती हैं कभी कभार
और भूल जाती हैं ज़ल्दबाज़ी में अपना लंच ले जाना
पर फोन पर लंच खाने को कहना नहीं भूलती हैं
स्कूल से लौटे अपने बच्चों को

भूल में जब जल जाता है पतीली में दूध
तो वे पैंदे को रगड़ रगड़ कर चमकाना नहीं भूलती
अगर जल जाती है कोई रोटी
तो वे उसे खाना नहीं भूलती

छुट्टी के दिन वे अक्सर खाना खाना भूल जाती हैं
पर घर की साप्ताहिक दुरुस्ती नहीं भूलतीं
कई बार वे हवाई चप्पलों में ही पहुंच जाती हैं ऑफिस
जबकि वो अक्सर दोबारा जाकर देखती हैं
कि ताला ठीक से लगा है कि नहीं
पर्स में रखी चाबी को ढ़ूंढती हैं कई बार
जब खंगालती हैं बैग तो उसमें मिल जाती है
कोई पुरानी क्लिप कोई सेफ्टी पिन
शाम को लिए जाने वाले सामान की लिस्ट
रख कर भुला दी गई कोई पिल

औरतें सर्द सुबहों में जुराबें पहनना भूल जाती हैं
पर नहीं भूलतीं रात को उठकर ढंकना
अपनी छोटी से बड़ी औलाद को
औरतें धीरे धीरे भूल जाती हैं हंसना मुस्कुराना
पर नहीं भूलतीं ग़म छिपाना, बेवजह खिलखिलाना

औरतें  भूल जाती हैं मां की डांट फटकार
पर नहीं भूल पाती हैं विदाई में मां के कलेजे की हूक
और पिता की बिन बरसी भरी ज़र्द आंखें
वे भूल जाती हैं इस घर के दिए दुख दर्द
पर नहीं भूल पातीं वो पहले पहले स्नेहिल स्पर्श

वे अक्सर लिखती हैं कविताएं दर्द की
लेकिन संघर्षों की डगर नहीं भूलतीं
धीरे धीरे वे भूल जाती हैं इंसान की तरह जीना
पर वे कभी नहीं भूलतीं इंसानों के लिए जीना

 

11. बुद्ध अगर तुम औरत होते

1
बुद्ध अगर तुम औरत होते
तो इतना आसान नहीं होता गृहत्याग
शाम के ढलते ही तुम्हें हो जाना पड़ता
नजरबंद अपने ही घर और अपने ही भीतर
हजारों की अवांक्षित नजरों  से बचने के लिए
और वैसे भी मां होते अगर तुम
राहुल का मासूम चेहरा तुम्हें रोक लेता
तुम्हारे स्तनों से चुआने लगता दूध
फिर कैसे कर पाते तुम
पार कोई भी वीथी समाज की

2
घने जंगलों में प्रवेश करने
और तपस्या में तुम्हारे बैठने से पहले ही
शीलवान तुम्हें देखते ही स्खलित होने लगते
जंगली पशुओं से ज्यादा सभ्यों से भय खाते तुम
ब्राह्मण तुम्हारी ही योनि में करते अनुष्ठान
और क्षत्रिय शस्त्रास्त्र को भी वहीं मिलता स्थान
वैश्यों ने पण्य की तरह बेच कर बना दिया होता वेश्या तुम्हें
और और ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं है मुझे
कि शूद्रों का भी होते तुम आसान शिकार
औरत के मामले में होते हैं सब पुरुष
अभिशप्त जीवन जीने को जब होते मजबूर
तब बताओ कैसे मिलता बुद्धत्व तुम्हें
और तुम कैसे कहलाते बुद्ध

 

3
अगर रह जाते तुम अछूते
तो तुम्हारी चमड़ी के सूत सूत को देना होता हिसाब
तब भी  क्या तुम्हें सम्मान देता तुम्हार परिवार
तुम्हारे स्वागत के लिए आता  क्या सिद्धार्थ
क्या दौड़ी दौड़ी आती महामाया तुम्हें गले लगाने
शुद्दोधन मान लेते क्या तुम्हें परम ज्ञानी बिटिया
राहुल कर पाता गर्व तुम्हारा पुत्र होने पर

 

4.
चौहद्दियों से परे जाने पर
क्या तुम्हें निरपराध होने की गवाहियां मिल जातीं
कितने ही ऋषि मुनियों की तपस्या भंग करने का लगता अभियोग
बांध कर उसी बोधिवृक्ष के साथ कर दिया जाता जीते जी दाह संस्कार
एक गाली बन कर रह जाता तुम्हारा नाम
भयावह क्रूरता के आगे ठगा सा रह जाता सम्यक ज्ञान
हवा हो गया होता बोधिवृक्ष और बुद्ध का नाम
और न कहीं होता ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’

बोलो बुद्ध अगर तुम औरत होते
तो क्या इतनी आसानी से मिल जाता
तुम्हें निर्वाण का अधिकार

 

(कवयित्री रजनी अनुरागी
अपने पहले कविता संग्रह ‘बिना किसी भूमिका के’ के साथ हिन्दी साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान बना चुकीं रजनी अनुरागी दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से हिन्दी साहित्य में पीएच. डी हैं और जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज , दिल्ली में पढ़ाती हैं। उनकी कविताएं देश के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। उन्हें प्रथम दिलीप अश्क स्मृति सम्मान–2011 और शीला सिद्धांतकर सम्मान -2011 से सम्मानित किया गया है। ‘वर्जनाओं के पार खिलता फूल’ साहित्य आलोचना की उनकी पहली पुस्तक है और वह कई पुस्तकों का सम्पादन कर चुकी हैं। मगहर पत्रिका के अम्बेडकरवादी आलोचक डॉ तेज सिंह विशेषांक की अतिथि सम्पादक भी रही हैं।
ईमेल : rajanianuragi@gmail.com

 

वर्ष 2017 में कविता के लिए दिए जाने वाले प्रतिष्ठित मलखान सिंह सिसोदिया पुरस्कार से सम्मानित टिप्पणीकार संजीव कौशल, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में पी.एच.डी. 1998 से लगातार कविता लेखन। ‘उँगलियों में परछाइयाँ’ शीर्षक से पहला कविता संग्रह साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित।
देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविताएं, लेख तथा समीक्षाएं प्रकाशित। भारतीय और विश्व साहित्य के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित। संपर्क : sanjeev.kaushal@yahoo.co.in)

 

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