समकालीन जनमत
कविता

श्याम अविनाश की कविता: अदृश्य से जन्मता है दृश्य

आनंद बहादुर


 

…दूर नीम का एक पेड़ भींग रहा है या नहीं दूर से दिखता नहीं है किसी का भींगना… मांदल की आवाज के आदिम स्वप्न में आग को घेरे हैं नृत्यरत परछाईयां… बैशाख दिनों की दोपहर में भटकती धूल की तरह कच्चे रास्ते से होकर निकल जाएं चुपचाप, उस नदी में नहाने जो कहीं नहीं है अब… दिन डूबने के करीब पहुंच गया है सबकी अपनी यातना है निष्फलता एक सच है जो शाम को हमारे पास आती है… अनजान नक्षत्रों की अनहोनी डोरियों से बंधे डोलते चराचर…

….कहीं दूर से कोई आवाज आती सुनाई देगी। अचानक लगेगा कि कहीं कुछ हलचल हुई है। कहीं से चाँद-सितारे आपसे बात करने की कोशिश कर रहे हैं। अंदर से एक आदिम उफान उठ रहा है। हम अचानक भाग रहे हैं मगर कहीं पहुंच नहीं रहे। एक दम्म से किसी के आंसू आ गए है। एक आदमी आया है, मगर जैसे ही वह नजदीक पहुंचा है, उसका नाम बदल गया है। धरती लहलहा रही है। फिर कांप रहा है किसी नदी का मन। अजीब अनुगूंजें आनी शुरू होती हैं, फिर सबकुछ शांत हो गया होता है। आकाश में बादल नहीं है मगर बारिश हो रही है। बारिश नहीं हो रही है, मगर हर कोई भींग रहा है। सपना बूढ़ा होता जा रहा है मगर मरता नहीं, आकर अचानक पूछ बैठता है- तुम कैसे हो? मौत मर रही है क्योंकि रूप परिवर्तन के बीच आदमी असंख्य बार जी जी उठ रहा है। फूल भी आदमी है, तितली भी आदमी है, रंग भी आदमी है, महक भी आदमी है। सहेली मर गई है, एक बांझ औरत उसके जितनी खाली जगह साथ लिये क्रशर के काम से घर लैटेगी और अपनी मरी सहेली के बच्चों का लालन पालन करेगी। एक आदिम कामना फन उठाएगी और फनफनाएगी, मांदल के मंद्र स्वरों के साथ संताल नृत्य करेंगे। एक कवि प्रेम कविता लिखेगा, एक दूसरा स्त्री के पछतावे को दर्ज करता है। एक टोकरी भर खुशी को कोने से उठाकर कविता में चुपचाप रख देता है। एक आया था एक स्त्री के खाली हाथ को भरने जिसे उसके पति ने पकड़ रखा है मगर वह खाली ही रह गया है। एक कवि शाल के पत्ते ढोती स्त्री के साथ जंगल से लौट रहा है, टोकरी भर छांव को बांटता। एक कवि जीवन संघर्ष को सीधे-सीधे रचता है, एक उलटबांसियों में ही जीता है। श्याम अविनाश की कविता चल रही है…

मेरा घर श्याम अविनाश के घर के बाजू वाला है… यहीं से मैंने यह सब नज़ारा देखा है। मैंने गोली चलती सुनी है, यह गोली श्याम की कविता की एक लड़की को लगी है जिसे पता था कि सारी साजिशें उसकी सिलाई मशीन के ही खिलाफ हो रही थीं। हो रही थीं और वह बता भी रही थी, मगर उसे हमने नहीं बचाया। नहीं बचाया तो क्यों नहीं बचाया? इसी एक प्रश्न के जवाब में समूची सभ्यता की भूख-प्यास का हल मौजूद था। हम हार गए क्योंकि हम हारने के लिए ही हुए थे। धर्म नाम का अधर्म जीत गया, कुटिलता जीत गई, कलुष जीत गया, छल-प्रपंच जीत गया। लेकिन फिर भी आदमी है कि हारा नहीं, वह भी कहीं कहीं जीत जा रहा है। कविता में वह जरूर से जरूर जीत जा रहा है। तभी तो इतने लोग पढ़ रहे हैं कविता। तभी तो श्याम लिख रहे हैं इसको उसको छान मार के। एक पागल हवा का झोंका आया है, एक और पागल हवा का झोंका आया है।

मुझे अस्तित्व की कई राहें दिखती हैं। फिर भी समूचा अस्तित्व नहीं दिखता। चारों तरफ से आवागमन है। कहीं न जाना है न पहुंचना। जहां गति है ठीक वहीं ठहराव भी है। चीता-बाघ की भूख मांदल के नीचे से सरसरा रही है। स्त्री सोती हुई कुछ सोचकर करवट बदलती हुई हंसती है। वह भूख है कि सच? प्यार का हस्र क्या है और युद्ध का शरीर कैसे छलनी हुआ? आपके बिना मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता कहता है कठफोड़वा। कवि छंद रचे कि शब्द चुने कि महुआ बीने कि कपास चुने कि अर्थ सजाए कि क्या कर के रख दे कि कुछ आए। कोई रस्ता निकले। मगर फिर भी मन की पीड़ नहीं मिटेगी। कोई सांत्वना तुम्हें नहीं मिलेगी श्याम अविनाश चाहे तुम कितनी अमर परिभाषाएं गढ़ो रचो। तुम जाते जाते जाओ और आते आते खो जाओ। तुम तुम ही न रहो तब भी चलेगा काम। एक कविता बेध्यान में ध्यान की तरह आती है। एक टूटा खिलौना जिनका हाथ उखड़ गया, पांव ऐंठा हुआ है, घर के बाहर जो छोड़ दिया गया है, क्योंकि घर के अंदर के बच्चे को लगता है कि उसके अंदर का सारा खिलौना खत्म हो गया, लेकिन जिनमें इतना खिलौना अभी भी बचा हुआ है कि कोयले बीनने वाला बच्चा उसे उठाकर अपने घर ले जाता है। एक औरत है जिसका बेटा कहीं दूर कमाने लगा है, पति जानबूझकर उससे दूर जाकर रह रहा है। औरत की देह में कमजोरियां घर बना रही हैं। वह एक ट्रेन में बैठी है जिसमें से एक-एक कर लोग उतर रहे हैं, चढ़ कोई नहीं रहा है। जब उसका स्टेशन आएगा तो वह घर जाकर चॉकलेट खाएगी जी को संभालेगी देखेगी देह से उठती थकन की भाफ। किसी ने मोबाइल में रवींद्र संगीत बजा दिया है वह उसके साथ साथ गाती है सिर हिलाती है हल्के से मुस्कुराती है। एक स्त्री सब्जी बेचकर घर लौटती है उसकी टोकरी अब खाली है, उसमें अब सब्जियां नहीं है। हालांकि वह खाली है, लेकिन वह खुशियों से भरी है, उसके अंदर रखी सब्जियां आज सही दाम पर बिक गई हैं। खुशियों की टोकरी को कोने में रखकर वह अपने आप में हँसने लगती है। उसका पति किसान है, अब वह खेत से लौट रहा होगा, यह सोचकर वह अपने आप में फिर हँसती है। एक स्त्री रेलगाड़ी में बैठी हुई है। किसी ने मोबाइल पर रवींद्र संगीत बजाया है। उसका स्टेशन आने ही वाला है। उसका जीवन निचाट खाली है, लेकिन वह एक बार मुस्कुराती है। एक मां है, जो बीमार है और अस्पताल के बरामदे में लेटी है क्योंकि उसे बिस्तर नहीं मिला। उसे स्लाइन की बोतल लगी हुई है। उसका लड़का स्लाइन की बोतल हाथ में लिए खड़ा है और नर्स स्टैंड लेने गई है। अचानक समय बदल गया है और लड़का अब अस्पताल के बरामदे में लेटा है, और उस लड़के का लड़का स्लाइन की बोतल हाथ में लिए खड़ा है, और नर्स स्टैंड लेने गई है। हम मौत को हराते हैं, बिल्कुल सच्ची और अच्छी तरह। उन चेहरों को देख लेते हैं, जिन्हें मरने के बाद आदमी चुपके से छोड़ जाता है जो शाम की धुंधलके में जब रंग भी कम बातें करते हैं अचानक झांकते हैं किसी घर के गाने की कांपती आवाज में…

सब कुछ धुंधलके में डूबे होने को है, यहां सब कुछ अस्पष्ट है पेड़ पौधे, पत्थर, चाँद तारे, बिजली, बारिश, धूप। बारिश है तो भी, बारिश में कौन भीग रहा है, इसका पता ठिकाना नहीं। पेड़ भी भींग रहा है पत्थर भी भींग रहा है मगर जो भींग रहा है, उसके भींगने की भाषा क्या है? यहां सब खामोश हैं, कवि का हृदय भी खामोश है, कविता भी खामोश है। लेकिन जो ख़ामोशी है, उसकी भाषा क्या है? रंग, चाहे वह बिल्कुल सफेद ही हो, वह बिल्कुल गाढ़ा सफेद होगा। एक सपाट और लयहीन सफेद रंग भी आपको अचानक प्रगाढ़ आलिंगन में ले ले सकता है, कोई बहुत हल्की चीज दुनियाभर से भारी हो जा सकती है। एक ठोस ठंडक आप तक पहले पहुंचती है कविता पीछे पीछे आती है। वह ठंडक के ठोसपन को थोड़ा हिलाती है, उसके हिलने से मन के अंदर कुछ गलने लगता है फिर पिघल कर बाहर कुछ बहने लगता है।

और अब्ब… समय बदल गया है लेकिन अंतहीन यातना नहीं बदली। बीच में कभी कभी कोई स्त्री, कोई पुरुष मुस्कुराकर नियति के छल को धोखा देने की कोशिश करते हैं। कामू का एब्सर्ड नायक है चरम कि परम सत्य। सिसिफस को सजा मिली है कि एक बहुत बड़ी चट्टान को कंधे पर लादकर पहाड़ की चोटी तक पहुंचाए। जैसे ही वह पहाड़ की चोटी पर पहुंचता है कि चट्टान फिसल कर नीचे आ जाती है, और सिसिफस को उसे फिर कंधे पर लादकर ऊपर ले जाना होता है। अनंत काल से अनंत काल तक जारी रहने वाली यह सिसिफस की यातना है। कामू का नायक अपनी अनंत यातना से छूट नहीं सकता, लेकिन वह एक बार चट्टान को वापस लाने उतरता हुआ मुड़कर अपनी नियति पर मुस्कुरा तो सकता है। उस यातना का मजाक उड़ा कर वह नियति के रूप को बदल दे सकता है। हमारे आम स्त्री-पुरुष की नियति सिसिफस से भी बुरी है। उनको अपनी यातना के कारण का भी नहीं पता, और यह भी नहीं पता कि वह अंतहीन है। वे नियति के एक अबूझ चक्र में रात दिन फंसे हुए हैं लेकिन वे भी चाहें तो सिसिफस की तरह एक बार हँस सकते हैं, एक बार मुस्कुरा कर नियति के पूरे खेल को नकार सकते हैं। इसीलिए शायद स्त्रियां इतना हँसती हैं। हँसती हँसती वे श्याम अविनाश की कविता में आती हैं और उससे बाहर निकल जाती हैं। मिजोरम से एक नर्स आई है जो हिंदी नहीं बोल सकती इसीलिए कम बोलती है। उसे वापस उसके गांव भेज सके, ऐसे समाज का ख्वाब लिए, न नींद में न जाग में, कवि सो रहा है। ऐसी महीन प्रतिबद्धता है। कुछ शब्द अर्थ के एक निश्चित दायरे में सफर करते रहते हैं, और अपने समय से बात करते, समय भी उनसे गुफ्तगू करता रहता है, रेस्पांस देता रहता है। कुछ कंटेंट की कैद से मुक्त रहते है, हालांकि वह वहां होता है, एक संतुलित भूमिका में। ऐसा शब्द समय से भी आजाद होता है, हालांकि वह भी वहां होता है। कविता शब्द के अर्थ को किसी भी सीमा तक खींच सकती है। यह कवि पर है कि कहां तक खींचे और समय की सीमा को अतिक्रमित करते हुए एक आदिम ध्वनि की अनुगूंज सुनाए… हम तैरते तैरते उड़ने लगें, और कब न ठोस धरती पर उतर जाएं! हम मछली की भी हों और तितली की भी। और हमीं एक पल में जमीन पर भटक कर दाना तलाशती भूख की कविता भी। लोहे और पानी के फर्क को जानने वाली कविता, मगर एक दिन यह लोहा भी पानी की तरह बह जाता है। और एक बारिश ऐसी भी हो सकती है जिसमें कौन भींग रहा है बताना मुश्किल हो, और सूखे पत्ते भर प्यास तड़पती रह जाए, यह भी जानने वाले… कविता से हम ऐसे गुजरे…

…यहां कविता की कोई पैरवी नहीं है, क्योंकि जैसा दरीदा कहते हैं, सबका टेक्स्ट अलग है, और जो अंतहीन तरीके से अपने अंतिम अर्थ को स्थगित करता जाता है, इसलिए खुद की भी पकड़ से छूटता जाता है। और इस बात से यह लेखक इत्तेफाक रखता है। तो अधिक से अधिक यह नाचीज, जिसकी कविता की समझ काफी कमजोर मानी जा सकती है, यह करे कि अपने पाठ के हिसाब से श्याम अविनाश की कविता के अपने आस्वाद को समझाए, श्याम अविनाश की कविता के बारे में मैंने इस तरह लिखा क्योंकि इसी शिल्प में उनकी कविता मुझ तक पहुंची…

तो अब आप पढ़िये श्याम को…

 

 

श्याम अविनाश की कविताएँ

1. अचिन

वह उन्मादित पुरालिपि हमारे लहू की
जाग जाते हैं जिसके अक्षर
वनैली खुशबू के स्पर्श से
नक्षत्र रातों में

अरण्य में दरख़्तों के पीछे
उगता है चाँद
अपने अस्तित्व में फंसा
हरीतकी के पेड़ पर बैठा
अचिन पाखी उड़ जाता है
कुछ देर तक हवा में
उड़ती रहती है उसके उड़ने की आवाज

नदी के उस पार हिरण का जोड़ा
पानी पीता है, जल पर कांपती है
उनकी परछाई, वे चले जाते हैं
परछाई ठहरी रहती है

एक आदमी कहां रहता है
जब वह खो जाता है।

 

2. छांह

आकाशमणि के झुरमुट के पीछे से
वह आ रही है विषाद रंग के
रास्ते पर चलते हुए

दैन्य घर कर चुका है देह में
बिलख बच्ची-सी चल रही है साथ
शब्दहीन वैधव्य जलता
सूखे प्रांतर में

कसा हुआ है उसका चेहरा
पीछे कहीं घर है
आधा टूटा, गिरती हुई ख़ामोशी
में धीरे-धीरे झरता

अब एक सूखी नदी पार कर रही है वह
उस पार शाल का जंगल है, गई थी
पत्ते बीनने, भरी टोकरी की जरा-सी छांव में
वह लौट रही है कई दिन का जलावन
साथ लिए।

 

3. मर्म

अनिद्रा के सीमांत पर
जाग रहे हैं
शांत बहती नदी के किनारे
अनजान आहटों वाले बांस के झुरमुट
जाग रहे हैं पेड़ों के स्वप्न में
रिमझिम मेघ
फूल से उड़कर आते
गंध के पखेरू
नीली रातों में जागती है जैसे
चाँद की रजत नाभि
कांपता है अनहोनी माया का अंतस्थल
प्रकाश प्रेम का ताम्बई चेहरा लिए

 

 

4. आदिम गूंज

रात की सांवली ओक में
उड़ता जल
कांपता ठहरा

चाँद की गूंज
चट्टानों पर लोटती
अबीती आदिमता में
बिधे लम्हे
गाढ़ श्यामलता में खिलता
आग का बुझा-सा फूल

लौटता दिखता दर्द का
खानाबदोश चेहरा
स्याह जंगल सा
खुद में भटकता।

 

 

5. संथाल नृत्य

शिशिर से भीगती रात
बिखरी जहरचढ़ी नीली ज्योत्सना
पाषाणकालीन गुहाचित्र के बनैले छंद में
देह समूह से उठ रहा है आदिम राग

चट्टानों से फफक कर
बाहर आता है सांवला झरना
डोलता है सर्प-युग्म सा
मांदल और बांसुरी के स्वर में गुंथा

पहाड़ियों की स्थिर अंधेरी छाया में
फैलती है नील सुलगती लय
आदिम बीहड़ जंगल में
भटकता है रात भर भूखा चीता-बाघ।

6. एशणा

नग्न स्नायु वाले वृक्षों का वृत्तांत
मंत्र की तरह उच्चरित
मणिधर सांप सा सम्मोहक
बुझ रहा है सांध्य दंश से
पतझड़ में घुला पीला जंगल निस्तब्ध

जागती है रात की पथरीली नंगी देह
कांपती है हवा आधे चांद की सिसकियों में

क्षत-विक्षत इस पत्थर जन्म से
बाहर आ क्या देख नहीं पाएंगे कभी
निस्सीम की असंख्य अपारता
उसकी निर्जन सांत्वना उसका निराकार अर्थालोक।

7. ऋतुएं

उम्मीद एक छोटा-सा शहर है
आगामी किसी स्वप्न नदी के किनारे
झिलमिलाता

शहर पर छाए बादल दिनों के
बावलेपन में तुम रखती हो चीजें
इधर-उधर, इसी बीच आ जाता है
शीत का मौसम, पिंडलियों सी
चमकती है धूप, कहीं कोई काम नहीं है
फिर भी कितना काम पड़ा है

बैशाख दिनों की दोपहर में
भटकती धूल की तरह
कच्चे रास्ते से होकर निकल जाएं
चुपचाप, उस नदी में नहाने
जो कहीं नहीं है अब।

 

8. ख़ैरियत

रात धीरे-धीरे झुक आती धरती पर
जागते रहता धीमा नीलापन
धुंधली शर्ट पहने अपनी डगमगाहट को
संभालता, कोई लौट रहा है
पुराने स्याह मकानों के बीच से
बिखरी है चांदनी की बुझी-सी झांइयाँ

दबी-सी किसी गली से
निकल कर आती है एक स्त्री
चलने लगती है साथ
पूछती है उससे- कैसे हो
यह वही स्त्री है बहुत वर्षों पहले
अटूट दर्द में अटूट धीरे-धीरे
हो गई थी अस्त

याद आता है वह तो सबसे ही
पूछ लिया करती थी
पेड़ से, बिलौटे से, रात से
खाली घरों से
-कैसे हो

कोई नहीं पूछता है ऐसे समय में
वह आकर पूछती है
कभी-कभार
कैसे हो।

9. अज्ञात

कविता की पुरानी, शीर्ण, थकी सीढ़ियों पर
कोई बैठा रहता है बहुत रात गए
सांवले जल में कांपती
किसी परछाई से बातें करता

अपार ऊर्जा की टिमटिमाती रोशनी लिए
सितारे घूमते रहते हैं आसमान में

गहरे दर्द की कोई बूंद पारे-सी
टलमलाती है अज्ञात की हथेली पर

अदृश्य से जन्मता है दृश्य
पोंछता है अपना चेहरा
सूखे अंधेरे से।

10. परदेश

शब्दों के पीछे कुछ दूसरे शब्द
निस्तब्ध हवाओं में चुपचाप बजते

हर उम्मीद एक पीड़ा है
धीमे धीमे सुलगती

गहरी होती है रात धीरे धीरे
कोई बैठा है कहीं किनारे
ठंड उतरती है उसके कंधों से
दाखिल हो जिस्म में हिम होती

उसकी जेब में रखा उसका घर
सो चुका है कुछ देर पहले
उसी के सपने में उसे दाखिल होना है
सर झुकाए खाली हाथ

यह रात अतल पानी में डूबी
अशांत पुकार कोई नौका सी
स्याह जल में रहकर कांपती।

11. विभ्रम

ऊंचे दरख्तों के बीच छोटे से अहाते में
बिछी थी जहां हरी घास, परिंदे कर रहे थे
किचमिच, आकाश था नीला और सफेद बादलों वाला

अंतरतम के इसी इलाके में तुम रहती थी
मुझे भी इसका ठीक पता नहीं था
यह तो तब हुआ जब एक रात जगाया तुमने
धीरे से- यहां मैं हूं तुम्हारे पास
तुममें निहां, तुमसे दूर फिर भी

देखता रहा तुम्हें, ऐसा सोचा भी नहीं था कभी
बहुत जुदा थी हमारी दुनिया
मिलते ही रहे थे हम जैसे दो शहरों के परिचित
मिलते हैं बरसों में कभी कभार

पर तुम तो अगले जन्म का वायदा लेने आई थी
फुसफुसा कर कहा तुमने
हम बने ही हैं एक दूसरे के लिए- इस जन्म
में तो नहीं हुआ संभव, पर जन्म तो एक ही नहीं होता

मैं नहीं मानता और कोई जन्म
सब यहीं तिरोहित होता है

तुम हताश हुई थी, थाम लिया था मेरा चेहरा
झुककर पेशानी को छुआ था ओंठों से, धीरे से कहा
पिछले जन्म में भी तुमने यही कहा था

चुपचाप उतरने लगी तुम सीढ़ियां उसी तहखाने की
उसी अहाते की ओर जाती मेरी अपनी ही गहराई में।

12. कितनी बारिशें

बारिश चुपचाप एक ही स्वर में
बरस रही है रात के अंतस्थल में
घर जाना इसे खो देना है

सड़क पर चलते इस रात लगता है
समय बरस रहा है मंद मंद ठहरा सा
इसी तरह झर जाते हैं बरस
स्मृतियां ख्वाहिशें

सड़कों पर जगह-जगह जम गया है जल
चमक रही है उसमें निरीह रोशनी
पास से गुजर रहा है, सूखा सा
बेबस एक आदमी, बारिश में भीगा हुआ

शांता स्टोर के पाटिये पर
पीकर धुत पड़ा है दशरथ
आज भी वह घर नहीं गया
लाचार देख रहा है उसे पास खड़ा रिक्शा
धीमे-धीमे आंसुओं में झरता।

 

13. सिलाई मशीन

वह लड़की फिर दिखाई देती है सड़क पार करती
आगे जाकर एक पतली गली में दाखिल होगी
उसका नाम ताहिरा है और उसे पूनम जी के घर जाना है

गली में चौथा घर उनका है, वह धीरे से खटखटाती है कुंडी
सुबह वह यहीं आई थी सिले ब्लाउज लेकर
अब उसे ब्लाउज के कपड़े लेने हैं और सुबह की मजूरी
पूनम जी घर पर ही ब्लाउज का व्यवसाय करती हैं
ताहिरा गिन कर लेती है सारा सामान, बटन और हुक भी

अब्बा और अम्मी की असहायता के बीच
चलती रहती है उसकी जिंदगी बगैर किसी शिकवे के

पूनम जी के घर टीवी चल रहा था, और वहां एक
धमाका हुआ था, अफरा-तफरी मची थी, उसने
जल्दी से समेटा था सामान और उन्हें आदाब कर
हड़बड़ी में वह लौट आती है घर, हमेशा वह
बहुत धीरे चलती है, बहुत ही मासूम है उसका चेहरा
कहीं भी कुछ ऐसा नहीं है
जिससे दुनिया को कुछ ठेस लगे

पर जब कहीं कोई धमाका होता है
अंदर तक हिल जाती है वह और उसे लगता है
यह उसकी सिलाई मशीन के खिलाफ हो रहा है।

 

14. खाली हाथ

कितने प्यार के बीच से गुजरना पड़ता है
एक स्त्री को और ओझल करनी होती हैं
कितनी चाहतें

उसे याद आता है घबराया-सा वह लड़का
घर के सामने से एक ही शाम में
कितनी बार गुजरता- सिर्फ एक दफे उसे
देख पाने के लिए

दूर देश में अब भी कहीं रहता होगा
वह युवक, कभी ट्रेन में मिला था
उन्होंने बांट कर खाए थे अंगूर

ढलान पर मिलता है एक प्रौढ़
बेमतलब बातें करता, मन को टटोलता
एक सूखी सी चमक छिटकती है उसकी आंखों से

कितनी चाहतों, कितनी फुहारों के बीच
उसे बचकर जाना होता है एक प्रेमविहीन जीवन लेकर
एक पुरुष का हाथ पकड़े, खाली हाथ।

 

15. मृत्यु

शाम किन्ही हाथों से छूट कर गिर रही थी
फीकी रोशनी के खंडहरों के बीच
कूड़े के ढेर पर
पड़ा था एक ओर फटा पुराना जूता
स्मृति में थे उसके बहुत से रास्ते और सफर
कई नंगे पैर अधेड़ औरत के मन की नाई फटे

उदास था जूता
उदास सपने से जैसे बाहर आया हो
एक पैर से वह जा रहा था तन्हा
अपने होने की सीमा के पार।

 

16. खिलौना

टूटा खिलौना बाहर बारजे में पड़ा है
रात हो गई है खिलौना बाहर पड़ा है
अकेले में और सुनसान में और इस ठंड में

सब घर के अंदर चले गए हैं
वह वहीं है

वह गुड़िया है या जोकर
उमठ गई है उसकी टांग
उधड़ गए हैं उसके कपड़े

वह रात भर वहीं पड़ा रहता है
न उठकर दरवाजा खटखटाता है
न बच्चे की नींद में दाखिल होता है

सुबह कोयला बीनता लड़का
से उठाकर ले जाता है
उसमें शायद अब भी
बचा हुआ है खिलौना ।


वरिष्ठ कवि श्याम अविनाश का जन्म सन 1948 में हुआ। कविता संग्रह: सबके जीवन में, आगामी स्मृतियों की बंदिश, धीमेपन के क़रीब।
कहानी संग्रह: हफ़्ते का दिन, उत्तर कथा।
सम्पर्क: पी. एन. घोष स्ट्रीट, पुरुलिया, पश्चिम बंगाल। मोबाइल: 9932690690

टिप्पणीकार आनंद बहादुर, चार दशक से लगातार लेखन। कविता, कहानी, ग़ज़ल, अनुवाद, संपादन के अलावा शौकिया वायलिन वादन। विभिन्न सिन्फ़े-सुखन के पांच संग्रह प्रकाशित। पेशे से अंग्रेजी के प्राध्यापक। अभी एक विश्वविद्यालय में कार्यरत। मूलतः बिहार के, अभी रायपुर, छत्तीसगढ़ में निवास।
फोन- 81033 72201
ईमेल- anand.bahadur.anand@gmail.com

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