समकालीन जनमत
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शिवम तोमर की कविताएँ समय की निर्मम रेखाओं को उनकी गतिशीलता के साथ दर्ज करती हैं

नितिन यादव


शिवम तोमर की ये कविताएँ अनुपस्थिति में उपस्थिति की अनुगूंज की कविताएँ हैं; गहरे अकेलेपन और यंत्रणा की अभिव्यक्ति हैं। पिता पर शिवम की तीन कविताओं की शृंखला, जिसका शीर्षक है ‘मेरे जीवन में कितना हस्तक्षेप है तुम्हारी मृत्य का’ में पिता की स्मृतियाँ अलग-अलग स्वरूप में आती है। पहली कविता में पंक्तियाँ हैं —

“मुझे अब तक नही आया ठीक से शोक मनाना
कोरे पन्नों को छूता हूँ
तो कफ़न का छूना याद आता है…”

‘ठीक से शोक न मनाने’ की त्रासदी वर्तमान समय के दर्दनाक पहलू को दर्शाती है। पिता की मृत्यु के क्षण को मार्मिकता से दर्ज करती पंक्तियाँ हैं —

“उस ईश्वर के सामने गिड़गिड़ाए भी होगे
कि मुझे लाकर खड़ा कर दे सामने”

मृत्यु अनेक रिक्त स्थान छोड़ जाती है जिनकी परछाई निकटतम लोगों को अनेक स्तरों पर प्रभावित करती है। कविता इन रिक्त स्थानों को संबोधित करती है —

“कितनी बातें थी
जो हवा में ठहरी रह जाती थी
माँ और आपके बीच”

जिस तरह एक व्यक्ति की मृत्यु के बाद बहुत-सी स्मृतियां और समय की रेखाएं उसके साथ चली जाती हैं, उसी तरह किसी आदमी की मृत्यु उसके आत्मीय व्यक्तियों के भी एक हिस्से को मार देती है। पिता की अनुपस्थिति को जीवन के विशाल फलक पर देखता हुआ कवि कहता है —

“मेरे जीवन में
कितना हस्तक्षेप है
तुम्हारी मृत्य का।

‘किसी-किसी संगीत के लिए वर्तमान वैक्यूम होता है’ कविता विराट कल्पना और सम्मोहन के बीच निरंतर तैरते निरर्थकता बोध की चुनौती को लघु की अपनी स्वायत्त सार्थकता से पार पाने की यात्रा है —

“सालों बाद मैं आज करता हूँ याद वह क्षण
और सुन पाता हूँ उस संगीत को बजते हुए
बाज को उड़ते हुए
पौधों को लहलहाते हुए
धुँए को नाचते हुए”

‘रोटी की गुणवत्ता’ कविता बदलते हुए गतिशील यथार्थ को सूक्ष्मता से पकड़ती है। पीढियो में आए अंतर के बीच बदलती सोच और रवैये को गाय के पास आती सख्त और मुलायम रोटियों की तासीर व संख्या से रूपक के माध्यम से सशक्त तरीके से अभिव्यक्त किया गया है। ‘ट्रैफिक जाम में एम्बुलेंस’ संवेदना और असहायता की वेदना को मार्मिकता से पाठक के सामने रखती है। ‘मोबाइल टावर पर कबूतर’ कविता अंतरंगता के निजी क्षणों के बीच घुस आए किसी आत्मीय की चुहल को खूबसूरती से रखती हैं।

‘एंटी-डिप्रेसेंट (तीन कविताएँ)’ सरोकार, प्रतिबद्धता बनाम निजी और आत्मगत सुख के बीच के द्वंद को रेखांकित करती है—

“नीद तुम्हारी स्वायत्तता कहाँ है?
क्या तुम्हें नही आता तरस
हाशिए पर खड़े जीवन पर?
किसके लिए है तुम्हारी प्रतिबद्धता?”

एक नए मुहावरे के साथ कवि व्यंग्य करता है—

“जम्हाई बनती जा रही है एक नई भाषा
जिसमें हैं दो ही शब्द
‘नीद’ और ‘निढ़ाल’ “

अपने दर्द और संघर्ष को अकेलेपन की खोल में रखकर दूसरे को वेदना और दुख से बचाने की चिंता को इस कविता का तीसरा हिस्सा सूक्ष्मता से व्यक्त करता है, जहां कवि कहता है—

“मैं छुपाए हुए हूँ माँ से जो बात
वह माँ की दवाइयाँ अगर जान गईं
तो घोल देंगी माँ के रक्त में
अपने असर के साथ मेरा अवसाद।”

व्यक्ति का जीवन जिस तेजी से वर्तमान में बदल रहा है, वह एक जीवन में कई जीवन जी लेता है। कुछ समय पहले की बात उसे सदियों पुरानी लगती है । ‘झूला’ कविता की पंक्ति है—

“झूले पर जाकर बैठ जाना
मेरा नया जन्म हो सकता है।”

असली-नकली के इस धुंध, धूमिल समय में ‘लाल क़िले की चिड़ियाँ’ कविता कृत्रिमता और नैसर्गिकता के बीच के फर्क के साथ-साथ आजादी और कैद की लड़ाई को भी भविष्य के बहुस्तरीय यथार्थ के साथ सफलतापूर्वक पाठक के सामने रखती है। वहीं व्यक्ति के व्यक्तित्व का अपने आसपास के परिवेश में विलीन होने को ‘उँगलियों के निशान’ सशक्त तरीके से सामने लाती है।
शिवम तोमर की कविताएँ जीवन के उन अंधेरे कोनों को गहराई से तलाशती हैं, जहाँ समय की निर्मम रेखाएं अपनी गतिशीलता के साथ विद्यमान है।

 

शिवम तोमर की कविताएँ

1. मेरे जीवन में कितना हस्तक्षेप है तुम्हारी मृत्यु का (तीन कविताएँ)

(i)
मृत्यु के द्वार पर खड़े होकर
की होगी मेरी प्रतीक्षा
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में बिखरने को आतुर
अपनी चेतना को समेट कर
एक आख़िरी बार
बंद होती पलकों के धुंधलके से
झाँक कर देखा होगा
और मेरी जगह पाया होगा
मेरा न होना
जिसे तुम इतना मानते थे
उस ईश्वर के सामने गिड़गिड़ाए भी होगे
कि मुझे लाकर खड़ा कर दे सामने
कोई तो बात होगी
जो मुझसे कहना चाहते होगे
कितनी बातें थीं
जो हवा में ठहरी रह जाती थीं
माँ और आपके बीच
मेरे सामने आ जाने भर से
बच्चा कब इतना बड़ा होता है
कि उसे यह बताया जा सके
कि उसका पिता एक ऐसी बीमारी से
जूझ रहा है
जिसे विजेता घोषित किया जा चुका है
पहले ही

मैं बड़ा हो गया
अपना और माँ का पेट काट कर जिसे पढ़ाया लिखाया
बताओ किस काम की थी वह पढ़ाई
मुझे अब तक नहीं आया ठीक से शोक मनाना
कोरे पन्नों को छूता हूँ
तो कफ़न का छूना याद आता है
मेरी कलम छोड़ो
मेरा हाथ छोड़ दो पिता

(ii)
फूल
अगरबत्तियाँ
घी का डिब्बा

आँगन में मसख़री करता धुआँ
पंडित के मंत्रोच्चारण करते होंठ
कैसी सुगंधों का मिश्रण था वह
कैसे, कैसे दृश्य
ऐसी प्रबल मृत्यु
कि माँ, बहन और मैं
हम सब मर गए
पिता के साथ
थोड़ा-थोड़ा।

(iii)
गली मोहल्लों में हुई मौतों में
हर लाश में तुम्हारा चेहरा होता है
हुजूम को देख कर
लगता है डर
माँ की फूटी चूड़ियों के टुकड़े
मेरे छाती में गड़े हैं
दया की दृष्टि से देखती सैंकड़ों आँखें
मेरे शरीर में चस्पां हैं
मेरे जीवन में
कितना हस्तक्षेप है
तुम्हारी मृत्यु का।

 

2. किसी-किसी संगीत के लिए वर्तमान वैक्यूम होता है

एक तरह का संगीत था
मैंने सुना था फ़िल्मों में
ख़ास क्षणों में बजता था

जब भी बजता
सब धीमा सा हो जाता

समुद्र तट पर नायक के बाँहें फैलाते ही
फूट पड़ता था वह संगीत
लहरों की गति धीमी पड़ जाती थी

विरह की रात में
सड़क पर चलते हुए नायक का
निराशा में गर्दन झुका लेना
बुलावा था उस संगीत का
हल्की-हल्की बरसात का

नीरवता भरे क्षणों में
विरह के भारीपन से लदे दृश्यों में
तमाम महत्वपूर्ण घटनाओं के दौरान
बजता था वह संगीत

धुन अलग-अलग, वाद्य-यंत्र अलग-अलग
लेकिन जिस गति से मुझे भेदता
वह समान
उसका स्पंदन जिस तरह ताल मिलाता
मेरी हृदयगति से
वह भी समान

मैं अपने जीवन का नायक
मैं स्वयं को देखता था उन जगहों पर
जहाँ हर घटना संगीतमय होती थी
जहाँ अब तक नहीं गया था मैं

समुद्र तट और ऊँची-ऊँची पहाड़ियों पर
उन सब जगहों पर
जहाँ फ़िल्में घटित होती हैं
पहुँच कर महसूस किया मैंने
एक अधूरापन
वही दृश्य था, सब कुछ वही
पर मेरे बाँहें फैलाने के बावज़ूद
जो संगीत बजना चाहिए था
नहीं बजा

मेरा बाहें फैलाना निरर्थक
मेरा आकाश में देखना निरर्थक
मेरा निराशा में ज़मीन की ओर देखना निरर्थक

लेकिन जिस तरह धीमे से मस्ती में उड़ रहा था बाज
लहलहा रहे थे पेड़-पौधे
बूढ़े दुकानदार की बीड़ी से निकल रहा था नाचता हुआ धुआँ
मैं कैसे मान लेता कि यह सब
किसी संगीत के ताल पर नहीं हो रहा था

सालों बाद मैं आज करता हूँ याद वह क्षण
और सुन पाता हूँ उस संगीत को बजते हुए
बाज को उड़ते हुए
पौधों को लहलहाते हुए
धुँए को नाचते हुए

कुछ संगीत सिर्फ़ स्मृति में ही सुने जा सकते हैं।

 

3. रोटी की गुणवत्ता

जिस गाय को अम्मा
खिलाती रहीं रोटियाँ
और उसका माथा छूकर
माँगती रहीं स्वर्ग में जगह
अब घर के सामने आकर
रंभाती रहती है
अम्मा ने तो खटिया पकड़ ली है
अब गाय को ऊपर से ही
डाल देती हैं रोटी
बहुएँ
रोटी तीसरे माले से फेंकी जाती है
फट्ट की आवाज़ से
सड़क पर गिरती है
गाय ऊपर देखती है
तो कोई नही दिखता
गाय को लगता है
अम्मा स्वर्ग को चली गयीं
और अम्मा ही फेंक रही हैं
रोटियाँ स्वर्ग से

पहले अम्मा जो रोटियाँ देती रहीं
एकदम सूखी
मुँह में धरते ही चटर-चटर होतीं
यह रोटी तो
एकदम मुलायम
लेकिन बस एक ही
अम्मा चार रोटियाँ देती थीं

एक रोटी फेंक दिए जाने पर भी
गाय उसे खाना शुरू नहीं करती
वह ऊपर देखती रहती है
दूसरी, तीसरी और चौथी रोटी की बाट जोहती

गाय को लगता है
स्वर्ग में अम्मा का पाचन तंत्र और दाँत
दोनों सही हो गए हैं
अम्मा उसके हिस्से की रोटियाँ भी
खा ले रहीं हैं
ख़ैर, रोटी भी तो कितनी मुलायम है
नीयत बिगड़ गयी होगी बुढ़िया की!

ऊपर देखते-देखते
जब गाय की गर्दन दुखने लगती है
तो वह नीचे पड़ी
मुलायम रोटी
बेमन से चबाने लगती है

भूखी गाय को रोटी की गुणवत्ता से
कोई फर्क़ नहीं पड़ता है
भूखी गाय को तो कम-से-कम
चार रोटियाँ चाहिये
चाहे स्वर्ग से गिरें
चाहे तीसरे माले से।

 

4. ट्रैफ़िक जाम में एम्बुलेंस

ट्रैफ़िक जाम में फँसी
लगातार आवाज़ करती एम्बुलेंस
जिसे मैंने देखा, तुमने देखा
जाम में फँसे हर आदमी ने देखा

सबने चाहा कि उसमें पंख लग जाएँ
और वह उड़ कर पहुँच जाए अस्पताल

पर ऐसा न हो सकता था
बेकसी में चिल्लाती रही एम्बुलेंस

और फिर एकदम
तुम्हारी, मेरी और हम सब की गाड़ी की सीट
जैसे हो गयी असहायता का एक शिखर
जहाँ हाथ पर हाथ धरे बैठे हम सब लोग
जितनी भी बार देखते उस एम्बुलेंस को
दिल में धक्क सा हो जाता

जैसे हमारी एक धड़कन
जा कर लग जाती हो हर बार
एम्बुलेंस में मृत्यु से लड़ते
उस मूर्छित मरीज़ को।

 

5. मोबाइल टॉवर पर कबूतर

मोबाइल टॉवरों के ऊपर
बैठे रहते हैं कबूतर

अदृश्य सिग्नलों और तरंगों में
चोंच मारते हैं
कान लगा कर
हमारी बातें सुनते हैं

हमारी निजता की गुप्त दुनिया में
रोशनदान बनाते हैं।

मेरी तुम्हारी फ़ोन पर बात हो रही है
और मैं उस कबूतर को देख रहा हूँ
जो टॉवर पर बैठा हुआ है

मैं तुमसे बाय कहूँगा
और वह उड़कर मेरी कमरे की खिड़की पर आ पहुँचेगा

गर्दन हिला, हिला कर
मसखरी भरे गुटरगूँ करेगा
जैसे भाभी हँसती हैं मंद-मंद
मुझे तुमसे बात करते हुए
देख लेने पर।

 

6. एंटी-डिप्रेसेंट (तीन कविताएँ)

(i)
छोटी-छोटी सफ़ेद गोलियाँ
असँख्य विचारों के विचरण को करतीं निस्तेज
बन जाती हैं विशालकाय आलोकित हाथ
और खींच लेती हैं डूबते चित्त को
अंधेर सागर से

छोटी-छोटी सफ़ेद गोलियाँ
छुड़ा, छुड़ा कर फेंकती हैं
परजीवी कुंठाओं को

शिराओं में उद्वेलित ज्वार
एक समंदर
एक गोली के घुलने मात्र से
हो गया है शांत झील

एक अंधेरी दुनिया का पटाक्षेप

मृतप्राय नींद जीवित हो उठती है
जैसे मरुस्थल में खिलता एक फूल

लेकिन क्या हो सकेगा कल
यह सब पुनरावर्तित?
या इन गोलियों को बोना होगा हर बार
इस नींद से बंजर चित्त में
नींद, क्या ये गोलियाँ तुम्हारा नैवेद्य हैं?

नींद तुम्हारी स्वायत्तता कहाँ है?
क्या तुम्हें नही आता तरस
हाशिए पर खड़े जीवन पर?
किसके लिए है तुम्हारी प्रतिबद्धता?

जवाब देने की बजाय
अपने नागपाश में जकड़ रही हो मुझे

बेशर्म।

(ii)

भारी भरकम है नींद
जैसे पलकों पर रख दिया गया पहाड़
हज़ार नींदे एक साथ आईं हैं
जिन्हें हज़ार रातों खोजा था खुली आँखों से

जम्हाई बनती जा रही है एक नई भाषा
जिस में हैं दो ही शब्द
‘नींद’ और ‘निढ़ाल’

मेरे मानस
तुम जो दुनिया भर की ग़ैर ज़रूरी चीज़ों पर
तुरुप के पत्ते की तरह फेंकते थे मेरी नींद
आज क्यों पड़े हो, पस्त?

(iii)
माँ की ब्लड़-प्रेशर की गोलियाँ
रखीं हैं फ्रिज़ के ऊपर खुले में
और मेरी सफ़ेद गोलियाँ
मैंने छुपा दी हैं
किसी आत्मीय प्रेम-पत्र की तरह
ड्रावर में
बैंक के काग़ज़ों के नीचे

कभी यूँ नहीं हुआ कि
मेडिकल से एक साथ ख़रीदी हों मैंने
माँ की और अपनी दवाइयाँ
अच्छा ही है
माँ की दवाइयों को नहीं मालूम पड़ना चाहिए
इन सफ़ेद गोलियों के बारे में
मैं छुपाए हुए हूँ माँ से जो बात
वह माँ की दवाइयाँ अग़र जान गईं
तो घोल देंगी माँ के रक्त में
अपने असर के साथ मेरा अवसाद।

 

7. झूला

मैं पार्क में बैठा हूँ
मेरे सामने एक खाली झूला हिल रहा है
मेरे और उसके बीच हवा की एक अदृश्य कुर्सी है
जिस पर कोई बात पसरी पड़ी है
उसे फूँक मार कर वह मेरी ओर सरका रहा है

याद नहीं पिछली बार कब झूला था किसी झूले पर
झूला झूलना इस जन्म की बात तो नहीं लगती

झूले का यूँ आहिस्ता हिलना
आग्रह का एक गूढ़ रूप है

अपनी जगह से हल्का आगे और हल्का पीछे जाता
समय की अवधारणाओं में कंपन पैदा करता झूला
शायद किसी दूसरे जन्म से मेरी ओर देख रहा है

झूले पर जाकर बैठ जाना मेरा नया जन्म हो सकता है।

 

8. लाल क़िले की चिड़ियाँ

लाल क़िले के परिसर में
दीवान-ए-आम के पीछे
है संगमरमर की एक दीवार
जिस पर उकेरे गए हैं
सुंदर फूल, पौधे और चिड़ियाँ

ये चिड़ियाँ इतनी असली लगती हैं कि
उनकी ओर बढ़ाये गए
एक कदम पर फुर्र से उड़ जाएँगी

उस परिसर में घूमती-उड़ती चिड़ियों को भी
ऐसा ही लगता है
दीवार पर उभरे हुए फूल-पौधे-चिड़ियाँ
सब असली लगते हैं

वे दीवार पर बनी फूल-पत्तियों
को खाने की कोशिश नहीं करतीं
लेकिन असली-सी दिखने वाली
दीवार वाली चिड़ियों को
चोंच मार कर बाहर निकाल लेना चाहती हैं

लाल क़िले की ज़्यादातर चिड़ियों की
चोंच में दर्द रहता है

एक दिन कुछ चिड़ियों की
चोंच टूट कर गिर जाएगी
और तब शायद
उस दीवार पर रह जाएंगे
सिर्फ फूल-पत्तियाँ
और क़ैद का एक इतिहास

 

9. झींगुर

रातों में आने वाली आवाज़
जिसे बचपन में
मैं झींगुर की आवाज़ समझता था
अब लगता है कि वह सन्नाटे की आवाज़ है
सन्नाटे के दाँत पैने करने की आवाज़

सन्नाटा मुझे खाने को दौड़ेगा
बत्ती बंद करने पर।

10. ख़ाली दीवार

पिता हमें शहर लाए थे
बेहतर जीवन और बेहतर शिक्षा के लिए
हम शहर में रहे स्थाई रूप से
और पिता रहे घर से दूर, घर चलाने के लिए
लेकिन पिता आते-जाते रहे
हफ़्तों-महीनो में आते थे
तरह, तरह की चीज़ें लाते थे

नए घर की खाली दीवारों को देख कर कहते
कि यहाँ कोई तस्वीर लगनी चाहिए सुंदर-सी
कितना सुंदर ख़्याल था यह
लेकिन यह नहीं हो पाया
इतने कम समय के लिए आते थे पिता
कि उनकी प्राथमिकताएँ तय थीं
पहले परिवार के ज़रूरी काम
फिर राशन, बच्चों से लाड़-प्यार
और आख़िर में जाते हुए वे
माँ के हिस्से में आते थे थोड़ा बहुत

एक बार ऐसा हुआ कि पिता हमेशा के लिए चले गए
फिर वे दोबारा नहीं आए
लेकिन इस बार वे अपनी इच्छा पूरी कर गए
अपनी पसंद की दीवार पर
अपनी ही तस्वीर लगा कर गए।

 

11. उँगलियों के निशान

उँगलियों के निशान
छूट गये
दरवाज़ों की घंटियों पर
व्याकुलता बनकर
लिफ़्ट के बटनों पर
थकावट बनकर

घिस गये वे
जब एटीएम से निकले नोटों को
गिना मैंने दो-दो बार
और जब उँगलियों ने
रेस्त्रां के मेन्युकार्ड में
छू कर देखे दाम

हाथ से छूटकर
घुस गए अर्थी के बाँस में
फांस बनकर
और हो गये विलीन
पिता के साथ

वे पिस गये
दो हथेलियों के बीच
जब ऊँची सुनने वाले भगवान से
दिन-ब-दिन की मैंने
हाथ जोड़ कर प्रार्थना
जीवन का अर्थ जानने हेतु

माँ के लिए जब सूई में डाला धागा
तो कुछ हो गये धागे के साथ
सूई के उस पार

वे घुल गये आँसुओं में
ख़ुद ही के आँसू पोंछने पर

झड़ गये वे
बालों में हाथ फिराने पर
बालों के साथ

किसी दिन
एक ज़रूरी दस्तावेज पर
मेरे दस्तख़त बन कर
कलम की नोक से
बह जायेंगे
मेरी उँगलियों के बचे-खुचे निशान।

 

12. दरवाज़े

दरवाज़े अब खुलते हुए चरचराते हैं
बाहर से होती दस्तक पर
कब से नहीं खुले अंदर की तरफ़

बाहर जाने के लिए खोले गए अक्सर

कोई हताश आदमी जैसे होठों पर धरता है सिगरेट
वैसे वे चाभियों के लिए खोलते है मुँह
और एक लंबी गहरी साँस लेकर
वे उन लोगों का धुंआ अंदर खींचते है
जो बाहर को गए और वापस नहीं आये
फिर बाहर को फेंक देते हैं चाभियाँ
बचे-खुचे सिगरेट के बट के जैसे
और खुल जाते हैं

दरवाज़े दस्तकों पर खुलना चाहते थे
और जब, जब मुझे यह बात याद रहती है
तब, तब मैं क्षण भर के लिए दरवाज़े के बाहर ही रुक जाता हूँ
अपने घर को किसी और का घर मान लेता हूँ
और दरवाज़े को उल्टे हाथ से खटखटाता हूँ
वे खुशी के मारे खुलना भूल जाते हैं

हर किसी की तरह
एक दिन मैं भी नहीं लौटूँगा
तब दरवाज़ा बाहर को नहीं
भीतर को झाँकेगा
और पायेगा
घर को लौटने के लिए
घर में किसी का होना
कितना ज़रूरी है।

 

13. व्यस्तता

एकाएक ध्यान जाता है
पंखों की घरघराहट पर
और एक असहनीय शोर
अस्तित्व में आ जाता है

पीठ में होते दर्द पर
अचानक से जाता है ध्यान
टेढ़े-मेढ़े बैठे हुए
सीधा बैठने का निश्चय याद आता है

व्यस्तता में कई काम
एक साथ याद आते हैं
ख़ाली समय में सिर्फ़
अधूरी छूटी फिल्में और किताबें

जब कभी पानी पीता हूँ
तब याद आता है
कि कितना कम पानी पीता हूँ आजकल

सोते वक़्त आता है
दीवाल घड़ी में समय देखने का ख़्याल

थोड़ा-थोड़ा सब याद आता रहता है
फिर भी बहुत कुछ रह जाता है
इस उलझी दिनचर्या में

जो रह जाता है
सब सपनों में आता है।

 

 

कवि शिवम तोमर, उम्र : 27 वर्ष
प्राथमिक तौर पर कवि। विश्व सिनेमा की समीक्षा में रूचि।
निवासी: ग्वालियर, मध्य प्रदेश
सम्प्रति: आई-टी कंपनी में कार्यरत एवं हिंदी साहित्य परास्नातक में प्रथम वर्ष का छात्र (डिस्टेंस लर्निंग)
पोयम्स इंडिया मासिक न्यूज़लेटर एवं वेबसाइट के लिए संपादन
ईमेल – shivam9753@gmail.com
फ़ोन – 7447825929

टिप्पणीकार नितिन यादव युवा कहानीकार एवं आलोचक हैं। उनका प्रथम कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। नितिन से nitinyadav044@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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