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“आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र फ़ासीवाद में बदल सकता है ”

अर्पिता

अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान “हम देखेंगे’ द्वारा 14 अप्रैल को बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की 131 वीं जयंती के अवसर पर ‘भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियां और डॉ. आंबेडकर’ विषयक संगोष्ठी आयोजित की गई।
साझा संगठनों (दलेस, जसम, प्रलेस, जलेस, जनम, इप्टा, संगवारी, अभादलम, प्रतिरोध का सिनेमा, लिखावट, एनएसआई तथा इस अभियान से जुड़े लेखक व संस्कृतिकर्मी) के प्रयास से दिल्ली के बीटीआर भवन में प्रगतिशील-प्रतिबद्ध रचनाकारों, बुद्धिजीवियों जागरुक नागरिकों सहित जिज्ञासु छात्र शाम 4:30 बजे एकत्रित हुए।

अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान के ऑनलाइन कार्यक्रमों की श्रृंखला के बाद यह पहला कार्यक्रम ऑफलाइन मोड में आयोजित किया गया।

इस साझा कार्यक्रम का संचालन हीरालाल राजस्थानी ने किया। उन्होंने संचालन करते हुए कहा कि जब संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हो, तब ऐसे समय में हम जागरूक नागरिकों को देश में अलोकतांत्रिक ताक़तों का सामना न्यायोचित तरीकों से मिलकर करना चाहिए।

चर्चा का आग़ाज़ अशोक निर्वाण के वक्तव्य से हुआ। वे पहली दफा ‘ हम देखेंगे ‘ के कार्यक्रम में शामिल हुए। अपने वक्तव्य के दौरान उन्होंने अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभवों को साझा करते हुए इस बात पर ज़ोर डाला कि आज डॉ. आंबेडकर के विचारों को गहराई से समझने की आवश्यकता है। आंबेडकर मात्र दलित जाति के नेता नहीं थे, उन्हें किसी विशिष्ट जाति के नेतृत्व से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।

अशोक निर्वाण ने आंबेडकर और बौद्ध धर्म पर भी विस्तृत बात रखी। उन्होंने इस बात को भी उजागर किया कि लोगों ने बौद्ध धर्म तो ग्रहण किया परंतु हिंदू धर्म की रीति-नीति का साथ नहीं छोड़ा। अतः उनके मत में आंबेडकर के विचारों को व्यावहारिकता से लागू किया जाना चाहिए। अशोक निर्वाण ने आंबेडकर के साथ-साथ उनके सहयोगी क़ौमी मुसाफिर बाबा प्रभाती के आत्मीय संस्मरणों को भी साझा किया।

डॉ. राजकुमारी ने संविधान की प्रस्तावना का वाचन किया। इस पर सभी वक्ताओं व श्रोताओं ने अपने स्थान पर खड़े होकर प्रस्तावना वाचन को सुनते हुए संविधान के उद्देश्यों को याद किया।

आशुतोष कुमार ने अपने वक्तव्य की शुरुआत एक अहम सवाल से की कि आज आंबेडकर के लोकतंत्र की परिकल्पना कहां तक पूरी हो पाई है ? क्या यह लोकतंत्र अब बहुसंख्यकों का शासन बनकर रह गया है ?

आंबेडकर को याद करते हुए वक्ता ने आनंद तेलतुंबडे को भी याद किया जो आंबेडकर के परिवार से ही हैं और जिन्हें दो बरस पहले आज ही के दिन झूठे हिंसात्मक मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्होंने इस बात की तरफ भी इशारा किया कि आज असहमति अपराध का पर्याय बन चुकी है। स्प्ष्ट है कि हमारा लोकतंत्र गहरे संकट में है।

इसी के साथ वक्ता आशुतोष कुमार ने बताया कि आंबेडकर ने स्पष्ट चेतावनी दी थी कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र का विफल होना अपरिहार्य है।

प्रो. आशुतोष ने बाबा साहब के इस विचार को विशेष रूप से रेखांकित किया कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र निष्प्राण हो जाएगा और राजनीतिक लोकतंत्र पर सामाजिक और आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली वर्ग का पूर्ण नियंत्रण कायम हो जाएगा।

प्रो. आशुतोष ने बाबा साहब के राजकीय समाजवाद को बखूबी व्याख्यातित किया। उन्होंने कहा कि बाबा साहब ने राजकीय समाजवाद के लिए निम्नांकित बिंदुओं पर विशेष बल दिया

1. भारी उद्योगों पर पूर्णतः राज्य का नियंत्रण हो।
2. बुनियादी उद्योग पूर्णतः राज्य के नियंत्रण में हो।
3. भूमि सुधार ठीक से लागू किया जाए।
4. बीमा पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में हो।
5. रोज़गार और शिक्षा का अधिकार मौलिक हो और सबको प्राप्त हो।

इन पाँचों बिंदुओं को बाबा साहब मूल संविधान के कोर में शामिल करना चाहते थे।

 

वक्ता आशुतोष कुमार ने वर्ल्ड इनिक्वालिटी रिपोर्ट भी सामने रखी और यह उजागर किया कि भारत इस रिपोर्ट के अनुसार सर्वाधिक विषम राज्यों में कितना आगे है। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पर गंभीरता से विचार करते हुए उन्होंने आंबेडकर के राजकीय समाजवाद की अवधारणा की चर्चा की। उन्होंने ध्यान दिलाया कि अगर बाबासाहेब के राजकीय समाजवाद को अमल में लाया गया होता तो आज़ाद भारत आर्थिक लोकतंत्र की ओर बढ़ सकता था। सामाजिक लोकतंत्र के लिए धर्मशास्त्रों की वैचारिक सत्ता का उन्मूलन करना और स्वतन्त्र विवेकसम्पन्न मस्तिष्क को बढ़ावा देना जरूरी है।

हेमलता महिश्वर ने नामदेव ढसाल को याद करते हुए उनकी एक कविता ‘ स्वतंत्रता किस गधी का नाम है’ का ज़िक्र किया। अपने वक्त्व में उन्होंने स्त्री प्रश्न पर विशेष ज़ोर दिया। बाबा साहेब द्वारा प्रेरित उस स्त्री आंदोलन की विस्तार से चर्चा की, जो स्त्री मात्र की मुक्ति का उद्देश्य लेकर चला था। वह सिर्फ़ दलित स्त्री तक सीमित न था।

दलितों द्वारा सही गई अमानवीयताओं के संवेदनशील किस्सों को भी उन्होंने अपने वक्तव्य का हिस्सा बनाया। इस कार्यक्रम में हेमलता महिश्वर ने ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के बेजोड़ प्रयासों को भी याद किया। अंत में वक्ता ने इस बात की आवश्यकता पर बल दिया कि यह समय डॉ. आंबेडकर के समय की सांगठनिक शक्तियों की ओर लौटने का है।

वरिष्ठ चिंतक रामशरण जोशी ने अपने वक्तव्य में 1973 के माहौल को जीवंत कर दिया और साथ ही दलित पैंथर की प्रभावी भूमिका पर भी प्रकाश डाला। रामशरण जोशी ने नामदेव ढसाल के साथ अपने निजी अनुभवों को भी साझा किया। उस समय पत्रिकाओं में जो ताक़त थी उस पर भी उन्होंने विस्तृत चर्चा की। इसके साथ ही वक्ता रामशरण जोशी का यह कहना था कि समाजवाद का उद्देश्य पुराने साँचों में ढालकर पूरा नहीं हो सकता। रामशरण जोशी ने नमक खाने की राजा-प्रजा वाली सामंती मानसिकता पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि कैसी विडंबना है आज़ादी के 75 साल बाद भी हम नागरिक नहीं बना सके। जिसका नमक खाए हैं उसको वोट देंगे, यह सामंती मानसिकता इस बात का प्रमाण है कि हमारी चेतना का पूर्णतः अपहरण किया जा चुका है और स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्य आज भी अंधेरे कमरे में सिसक रहे हैं।

रामशरण जोशी ने आंबेडकर के विचारों पर हो रही कुव्याख्याओं पर भी खेद प्रकट किया और आंबेडकर के इन शब्दों को सामने रखा, “हिंदुइज्म इज ए चेंबर ऑफ होरर्स”। ऐसे में बाबासाहेब आंबेडकर के लेखन को बारीकी से समझा जाए उसे पूजा कतई न जाए। आज के समय में उभरते नवसवर्णवाद पर चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने ब्राह्मणवाद की साज़िश को ‘डिफ्यूजन आफ कांट्रडिक्शन्स’ का नाम दिया। उन्होंने यह भी कहा कि बहुमत का तात्पर्य बहुतसंख्यकवाद से नहीं है और ऐसे में हमें कॉन्स्टिट्यूशनरी आंबेडकर से ज़्यादा आवश्यकता है प्रतिरोधी आंबेडकर की।

वक्ताओं के बाद श्रोतागणों में चमनलाल नागर सहित अन्य बुद्धिजीवियों ने भी इस विषय पर अपनी-अपनी बात रखी। धन्यवाद ज्ञापन में अभय कुमार ने कहा- आज के दिन की प्रासंगिकता-वृद्धि में पी सी जोशी को याद करें, उनकी भी जयंती है। साथ ही राहुल सांकृत्यायन और अब्राहम लिंकन की पुण्यतिथि भी आज के दिन को सार्थक करती है। धन्यवाद ज्ञापन में अभय कुमार ने सभी वक्ताओं और श्रोताओं का आभार व्यक्त किया जिन्होंने हम देखेंगे के इस ऑफलाइन कार्यक्रम को सफल करने में एक अहम भूमिका निभाई।

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