समकालीन जनमत
कविता

मृगतृष्णा की कविताएँ मुक्ति की आकांक्षा हैं

निरंजन श्रोत्रिय


 

युवा कवि मृगतृष्णा की ये कविताएँ मुक्ति की आकांक्षा की कविताएँ हैं। यह मुक्ति परम्परा से विद्रोह के रूप में भी है और नए के अन्वेषण के रूप में भी। इस दुधारी तलवार पर सधे हुए कदमों से चलकर वे अपनी कविता पाती हैं। बने-बनाए ढर्रे या कहें कि रूढ़ियों को तोड़ने की एक अदम्य बेचैनी मृगतृष्णा की कविताओं की मूल प्रतिज्ञा है। घर संवारने वाली कोई घरेलू स्त्री मार्का पत्रिका और सस्ते में मिल रहा कोई यात्रा-वृत्तांत के बीच का चुनाव कवयित्री के इस संघर्ष का पता देता है।

जीवन में चीनी का स्वाद प्राथमिकता है या नमक की ज़रूरत! वह अपने पारम्परिक अस्तित्व को तोड़कर अपने लिए एक उन्मुक्त संसार गढ़ना चाहती है-‘ पत्नी सीख रही है आजकल सिर्फ प्रेमिका होना/ और स्त्री को जूड़े में लपेट पीछेे/ फेंक देती है बेपरवाह’ (पत्नी)

‘एक अघोरी सुबह’ कविता में वे असम्भवों की फैण्टेसी रचती हैं। यह फैण्टेसी उनके अपने लिए है क्योंकि तमाम विरोधों का असमंजस बिठाते उनका आग्रह-वृत्त अपने ही ईर्द-गिर्द रहता है। इस कविता में वे अनूठे बिम्बों का आत्मीय स्पर्श करती हैं-‘सप्तऋषि तारामण्डल के पड़ोस में/ अपनी चाहनाओं का एक जुगनू जला देना’ या किसी पहाड़ी नाले में/ उम्मीद की शकुन्तला को बहा देना’ या ‘अपनी चमड़ी से महबूब के लिए एक लिबास बुनना’।

यहाँ कवयित्री ने प्रेम और समर्पण को अपनी समर्थ काव्य-भाषा और शिल्प से नए आयाम दिए हैं वह भी प्रेम की तमाम अभ्यस्त और रूढ़ हो चले आस्वाद के खिलाफ। ‘यार पिता’ शृंखला की कविताएँ एक बेटी के रहस्यमयी संसार को नए सिरे से खोलती हैं-उसकी पूरी जटिलता में लेेकिन दृढ़ विचार के साथ! पिता-माँ और बेटी के विभिन्न कोणों पर मिलते-टकराते रिश्तों की अनूठी बानगी है ये कविताएँ। इन कविताओं में भी कवयित्री अद्भुत इमेजरी रचती हैं-‘जैसे पुश्तैनी मकानी की/ इकलौती दीवार घड़ी/ भाँय-भाँय वाले सन्नाटे के साथ/ परिधि की सीमा में/ करती रहती है दो-दो हाथ अकेले।’

पिता और माँ के साथ अपने रिश्तों की टोह लेते समय मृगतृष्णा वस्तुनिष्ठ और दो टूक साहस की समर्थ भाषा का निर्माण करती है। बेटी का बाप पर जाना और बेटी के भीतर माँ का बचे रहना जैसे काव्य-पद स्त्री-संवेदनों की जटिलता को अत्यंत मार्मिक और प्रभावी रूप से उकेरते हैं। यह तभी संभव होता है जब आपके भीतर नाजुक संवेदनों के साथ समर्थ भाषा की जुगलबंदी भी चल रही हो।

‘अप्रेम नायिका’ कविता स्त्री-विमर्श को नए सिरे से देखने, उसे परिभाषित करने और विमर्श के भीतर एक समांतर विमर्श रचती है। कवयित्री की ये नायिकाएँ सब कुछ लिखे को मिटाकर हर्फ पर एक नया ककहरा लिखना चाहती हैं। ये टूटकर प्रेम करने को आतुर हैं और आकाश के समतल पर अपनी शतरंज बिसात बिछाकर एक ‘गेम’ जीतने के लिए कटिबद्ध हैं। वे मरघट के सन्नाटे के जरिये उस जीवन-दर्शन को भी पा लेना चाहती हैं जो किसी नियति-यात्रा का समापन होता है।

कवयित्री का समूचा आग्रह इस संघर्ष और जद्दोजहद के जरिये खुद को ‘नेचर’ में तब्दील कर देने का है। ‘भागी हुई लड़कियाँ’ के माध्यम से मृगतृष्णा ने विद्रोह के चरम दृश्य रचे हैं। इन कविताओं में एक ज़बर्दस्त प्रतिपक्षीय भूमिका है जो कथित समाज या खाप की बेड़ियों को चुटकी बजाते तोड़ देती है।

दरअसल एक आंतरिक सर्जनात्मक खिलंदड़ापन इन कविताओं की जान है क्योंकि कवयित्री मानो सिगरेट के धुएँ के छल्लों की तरह उन्हें एक उपहासास्पद भाव से उड़ा देना चाहती है। यह भी संघर्ष का एक तेवर होता है-‘वे सिर्फ मुस्कुराती नहीं/ बल्कि बत्तीस दाँतों की ऐसी निर्लज्ज हँसी हँसती हैं/ कि खाप के कान फट जाते हैं’ या ‘भागी हुई लड़कियाँ छत्तीस बत्तीस के फिगर में नहीं होतीं/ कि भागी हुई लड़कियों का अपना व्यक्तित्व होता है।’

युवा कवयित्री ने प्रेम,प्रेयस और पति को लेकर जो छोटी कविताएँ लिखी हैं वे एक ओर प्रेम के उदात्त स्वरूप को रेखांकित करती हैं दूसरी ओर रिश्तों की बारीकियों की भी एक अलग तरह से पड़ताल करती हैं। इनमें स्त्रीमन का संताप भी है –‘पूज्य पात्र भूल बैठे/ भविष्य में लिखी जाएगी/ गुनाहों का देवता के जवाब में/ रेत की मछली’ और मंगलकामनाएँ भी -‘भादों के बादलों को चाहिए बस उतनी मोहलत दें/ किसी शहर को भीगने से बचने की/ कि जितने में सब चीटियाँ/ दाना इकट्ठा कर लें खाने का।’

युवा कवयित्री मृगतृष्णा मुझे हिन्दी कविता का एक संभावनाशील नाम नज़र आता है जिसके पास न सिर्फ नाजुक अहसासों का खजाना है बल्कि उनकी अभिव्यक्ति के लिए समर्थ भाषा-शिल्प का काव्य-व्यक्तित्व भी।

 

मृगतृृष्णा की कविताएँ

1. पत्नी

आजकल उजाला होने से ठीक पहले
पत्नी की आँखें देखने लगती हैं
पके सावन और हरे जेठ के सपने
कि उसका राजकुमार भटक रहा है नंगे पाँव
किसी आबनूस के जंगल में
जंगली फूलों की झोली गले में लटकाये
देवदार की कमर को छूता है हथेलियों से
और बांध देता है अपनी उम्र वाली रेखा
बांसुरी की टहनियों से पूछता है कि आखिर
कितनी पुरानी हो सकती इश्क कार्बन डेटिंग
पत्नी देखती है कि उसका राजकुमार
सीने पर उगा रहा है जंगली बेल
और लांघती जाती है पहाड़ दर पहाड़
नदी करवट बदलती है उसकी पीठ पर और
रेत घड़ी से सरकती रहती है पिछली रात
वो मरुन परदे से छानती है चटख धूप
फिर कुछ यूँ पीती है उसे एक साँस में जैसे
छुपकर हलक से उतारा गया हो टकीला शॉट
पत्नी आजकल हड़बड़ाकर नहीं उठती
भूल जाती है अक्सर कि दो कप चाय में
चुटकी भर चीनी चाहिए या चम्मच भर नमक
वो हिसाब लगाती है कि नमक ज्यादा जरूरी है
पीनी चाहिए चाय या
घूँट भर उसकी भाप
राशन की दुकान के बजाय
क्यों न चला जाए इलायची के उस बाग
नदी मिलती है समंदर में या
समंदर होने को चाहिए, नदी का साथ
पत्नी महसूसने लगी है आजकल
लाल और सफेद से इतर दूसरे रंगों का आत्मविश्वास
आईने ने सामने खड़ी हो
पहनती है नंगी देह पर हर रंग का लिबास
वो हिसाब लगाती है
कि सिर पर ज्यादा जरूरी है छतरी का होना
या भादों की बरसात
सीधे पल्लू का आँचल या
निर्वस्त्र नितांत अकेले
रातभर किसी धौलाधारी झील का साथ
बैठ जाना सबसे ऊंचे पहाड़ पर
और फैला देना बाँहों का आकाश
आखिर क्या ज्यादतम जरूरी हो सकता है
घर संवारने वाली कोई पत्रिका
या फिर आधे दामों में बिकता कोई सेकेण्ड हैण्ड ट्रैवलॉग
घर को महकाए पवित्र धूप और किसी मंत्र से
या रात तितलियों की मौत पर छेड़ दे होतभोर रुदाली राग
पत्नी सकपका जाती है जब
जागती आखों वाले सपने में
बिना चेहरे का कोई कमउम्र पुरुष
उससे करता है रोमांस
और पूछता है प्रेम जताने का कोई नया पाठ
पत्नी सीख रही है आजकल सिर्फ प्रेमिका होना
और स्त्री को जूड़े में लपेट पीछे
फेंक देती है बेपरवाह

2. एक अघोरी सुबह

रात सोने से पहले आँखों में
काजल धौलाधार लगाना
किसी धौलाधारी झील वाले सपने से हड़बड़ाकर
रात की चिता पर उठ बैठना
नजर बादल होना
मौत की दिशा वाली खिड़की का आसमान होना
सप्तऋषि तारामंडल के पड़ोस में
अपनी चाहनाओं एक जुगनू जला देना
रात के जंगल में काले पेड़ों पर हरा खोजना
किसी पहाड़ी नाले में
उम्मीद की शकुंतला को बहा देना
(चूँकि वर्तमान को गुजरे वक्त की भूख लगती आई है इसलिए)
पलटकर कमरे में फिर लौटना
और महबूब का बासी खत चबाना
गोल्डन पर्दों के बीच
मिल्की वाईट फिश हो जाना
भुरुकवा को हीरा समझ पूरब से नोंच खा जाना
सांस वाली गर्दन को पहाड़ी नदी से सहलाना
दुनियादारी के जूते पैरों में पहनकर
(हाइवे नंबर चैबीस के जमाने याद करना)
ग्लॉसी पेपर की उम्रदराज मैगजींस में
दिल के दंगों पर बुक मार्क लगाना
फिर हड़बड़ाना और हडबडाकर
खाकी झोले की हर किताब बदहवास सा सूंघना
प्रीतम की नज्म से ट्रुथ एंड डेयर खेलना
जवाब में तीन की जगह ग्यारह डॉट्स लगा देना
रात की दोपहर में राग पीलू शाम सुनना
बरसता है ये जमाना बहुत
एक अघोरी सुबह में
अपनी चमड़ी से महबूब के लिए एक लिबास बुनना

3. यार पिता

पिता को लिखे खत में
न चाहते हुए भी मैंने…
पितावश …सम्बोधित किया था
‘प्रिय पिता’
पिता हमेशा से ही जटिल बने रहते हैं
मेरे शब्दों में
जैसे भावनात्मक चक्रव्यूह में
में होते हैं
जब मेहमान के आधी रात आगमन पर
माँ असमंजस में पड़ जाती है
कि दाल में नमक बढ़ाऊँ कि पानी
वे जटिल बने रहते हैं
उतने ही
कि मैं नहीं पूछ पाती उनसे
लम्बे अंतराल पर मिलते ही
….‘यार पिता और सुनाओ! कैसे हो?’

————-
जैसे माँ की छातियों से
चिपका रहता है वात्सल्य
पिता संग परछाईं सा लगा रहता है
पितापना
आजकल… पिता तनकर
नहीं खड़े होते
बस स्मृतियों के कोने से
लुढ़कते चले आते हैं
ऊन के गोले की तरह बिना बताये
और उनके पीछे -पीछे घिसटती चली आती है
एक पूरी सर्द उम्र …..

————-

मेरे आकार लेते व्यक्तित्व में
पिता डेरा डाले रहते हैं
अधिकार सहित
जैसे पुश्तैनी मकान की
एकलौती दीवार घड़ी
भाँय-भाँय वाले सन्नाटे के साथ
परिधि की सीमा में
करती रहती है दो दो हाथ अकेले
————-
पिता को चढ़ गया था एक बार मीठा पान
उन्हें बेसलीका लगती थीं
ठट्ठाकर हँसने वाली लड़कियाँ
ये जानते हुए भी
मुझे कई बार पड़ते हैं बेतहाशा हँसी के दौरे
दुनिया को कई दफा मैंने
अस्सी घाट की सीढ़ियों पर बैठ
उड़ाया है बैक टु बैक क्लासिक रेगुलर में
यार पिता ! ये बताओ
मध्यम वर्गीय लड़कियाँ क्यों नहीं कर पाती
प्रेयस को टूटकर प्यार
————-

माँ देखो तुम भौंचक्की मत हो जाना
मेरी इस ढीठ स्वीकारोक्ति से
कि तुलनात्मक रूप से मुझे
पिता की बेटी कहलाना अधिक पसंद है
दोष तुम्हारे उस ताने का भी उतना ही है
‘कि बिलकुल अपने बाप पर गई है’

——————

अचानक कुछ भी नहीं होता
जैसे तय होता है
बच्चे का रोना सुनकर
माँ को जागना होता है
पहले
जैसे पहलौठी का बच्चा
बाप पर थोड़ा ज्यादा पड़ता है
और बुढ़ापे में
उम्र कराहती है घुटनों से
संपत्ति के बंटवारे के बाद
जैसे मान लिया जाता है
पिता ऊँचा सुनेंगे
अचानक कुछ भी नहीं होता
तय होता है सब पहले से ….
माँ से मिलने होते हैं
सांप कि केंचुल से उतरते
महीने के वो पाँच दिन
जो आप नहीं दे सकते
पिता मुआफ करना कि
मुझमें बची हुयी है थोड़ी माँ

4. अप्रेम नायिका

जब सब कुछ कहा जा चुका होगा
जब सब सुना जा चुका होगा
कविताओं में स्त्रियों पर
जब पूरी की जा चुकी होगी सारी लिखत-पढ़त
तब मेरी कविता की अप्रेम नायिका
आसमान के समतल पर बिछायेगी अपनी
शतरंज की गोटियां
———
आजकल खबरें कहती हैं कि
स्त्रियों में बढ़ रहा हैं
वर्जिनिटी ट्रांसप्लांट का चलन
मेरी कविता की अप्रेम नायिका
शनिच्चर ग्रह का एक छल्ला बाईं कलाई में पहन
सूरज की तीन लपटों का रक्षासूत्र कमर लपेटती हैं कमर में
दाईं जेब में दिल ……खंजर दायें जानिब रखकर
तैयार हैं हर बार
टूटकर प्रेम करने को
———-
मेरी कविता की अप्रेम नायिका
दीवानी हैं मरघट के सन्नाटे की
वो गुनगुनाती हैं नए जन्म के गीत वहाँ
क्योंकि ….
अपने जन्मे को नियति की चिता पर देखना भी
एक यात्रा के पूरे होने की संतुष्टि हैं
———–

धौलाधार की सबसे ऊँंची चोटी पर
निर्वस्त्र बैठ
किसी सूर्य को जलाना
कुंती के लोक लाज के किस्से
चारों दिशाओं में बिखरा देना
किसी अनजान टापू की हवाएँ
एक सांस में पी जाती हैं
वो चाहती हैं जब समंदर की लहरें
खेल रही हों उसके नितम्बों से
तब उसकी पीठ पीछे कोई जोड़ा कर रहा प्रेम
मेरी कविता की अप्रेम नायिका
सीख रही हैं प्रकृति होना

5.

ऐलोपैथी के असर-सी तेरी याद और
मास चैत-सा मेरी देह का तापमान
गो कि तेरी कलाई पर बंधा वक्त गला कुछ यूँ दबाए है मेरा
जो जीने भी न दे और साँस लेने की मनाही सख्त
…..और नुसरत समझाए जाते हैं नीम बेहोशी में
कि आज कह दे यार तृष्णा! …तेरा नाम लूँ जुबाँ से
(एक गोली इश्क की और पैरासिटामॉल भर बुखार)

(डायरी बुखार और विरहन चैत की )

 

6. भागी हुई लड़कियाँ

1

भागी हुई लड़कियों के पाँव

पीछे की ओर नहीं होते
उनकी बातें तैरती है हवाओं में
पीछे पीछे
ठीक उसी तरह जैसे
बारिश में छुपकर नहायी
किसी लड़की की देह महकती है पूरे कस्बे में
वे सिर्फ मुस्कुराती नहीं
बल्कि बत्तीस दातों की ऐसी निर्लज्ज हँसी हँसती हैं
कि खाप के कान फट पड़ते है
उड़ाती है दुपट्टा सरे राह यूँ
कि इज्जत की नाक कट जाये
भागी हुई लड़कियों इतनी बेफिक्र चलती हैं कि
चाहनाओं की नींद खुल जाती है
उनकी सवालिया आँखों के
जवाब ढूंढें नहीं मिलते
उनके पाँव पीछे की ओर नहीं होते
भागी हुई लड़कियों का अपना वर्तमान नहीं होता
कि भागी हुई लड़कियाँ बेशक ‘भूत’ होती हैं

2
भागी हुई लड़कियाँ अपने पीछे तस्वीरें नहीं छोड़तीं
वे छोड़ आती हैं अपने पहलेपन की उम्र
दीवार की एक बंद खिड़की
रात की दोपहर के बाद की सुगबुगाहटें
पड़ोसन की चालीसवीं कमर पर
स्याह छल्ले
चुप्पी का सन्नाटा
कैलेण्डर की पीठ पर
खास लम्हों के लाल गोले
वे छोड़ आती हैं विदा की एक घड़ी
और सब्र का एक टूटा हुआ घड़ा
भागी हुई लड़कियाँ साथ ले आती है अपना सोलहवाँ
और इज्जत की नाक
कि भागी हुई लड़कियाँ कोई किस्सा-कहानी नहीं होती

3
भागी हुई लड़कियों के सपने में
घर की छतें आती हैं
मचान पर बैठी बर्बादी के तोते उड़ाती
सिरमतिया आती है
छोटी बहन को समझाती है कि जमाना खराब है
पर सबसे ज्यादा खराब होती हैं
कई बार घर की दीवारें भी
अपना खयाल और पिता का रखना ध्यान
तुलसी को सूख जाने देना
कैक्टस को देते रहना समय पर पानी-खाद
उन्हें माँ अक्सर याद आती है
और पिता से करती हैं वे सबसे ज्यादा प्रेम
भागी हुई लड़कियां ‘बदचलन’ का इन्द्रधनुष पीठ पर लादे भटकती हैं
कि भागी हुई लड़कियों के जनमदाग नहीं होते

4
भागी हुई लड़कियों की आँखें अँधेरे में भय नहीं देखती
सूरज की लपटों को लपेटती हैं वे कमर में
कदम सधी हुई चाल नहीं चलते
ताजी सनी मीठी सी देह लिए
उसे गूँथती हैं तीनों पहर के सांचे में
भागी हुई लड़कियां छत्तीस बत्तीस के फिगर में नहीं होतीं
कि भागी हुई लड़कियों का अपना व्यक्तित्व होता है

5
भागी हुई लड़कियों के जीभ नहीं होती
उन्हें रसोई में रास आने लगता है
चीटियों की जगह नमक
चखने लगती हैं हर मौसम का स्वाद
पतझड़ में चढ़ता है उन पर हरापन
और सावन में बचाये रखती हैं अपना पत्तापना
प्रेम के महीने में ढूंढ लाती है एकांत
पुरखों के महीने में कव्वों को खिलाती हैं
मिली हुई नसीहतें
समंदर जीत लेने की धुन लिए
वे नदी कहलाना अधिक पसंद करती हैं
सु ‘शील’ जैसा कुछ ढूंढे नहीं मिलता
गो कि उनमें जिद होती है
छुटपन में जैसे सबसे पहले बोली थी पिता
उसी नाम के सिगरेट के छल्ले बनाना
सीखती है सबसे पहले
प्रेम के जवाब में, भागी हुई लड़कियों के पास होती है अपनी किताब
कि हर बार भागी हुई लड़कियों के प्रेमी नहीं होते

7. प्रेम

हँसती है जोर से खुल कर
बालों में उँगलियाँ फिराकर इतराकर बताती है
पसंद नयी बात
वो चुप रहता है
मुस्कुराकर चोरी से कर लेता है
फिंगर्स क्रॉस्ड ……
(पति नहीं था यकीनन प्रेयस रहा होगा)
—————-
उसने सबसे पहले
कागज के जहाज बनाने सीखे
फिर उनके पीछे-पीछे भागना …
जब पहली बार किताबों में पढ़ी उसने बरनौली की प्रमेय
तब तक सीख चुका था
प्रेम की पतंगे उड़ाना
(पति नहीं बना वो ,प्रेयस रह गया)
———————-
सफेद रुमाल में तहकर के रखा
होठों का निशान
रखूंगा बायीं जेब में
तुम्हारा दिया दुपट्टा बांध आँखों पर
गुजारूंगा रात किसी वेश्या के साथ
तुम्हारे सवाल जवाब
स्वीकारता हूँ फिर वही बात
प्रेम था
प्रेम है
या फिर रही होगी प्रेम की कोई गुप्त ऊष्मा
तुम करती रहो इंकार
हर बात में ढूंढ लूँगा प्रेम के यथासम्भव पर्यायवाची
(पति नहीं था यकीनन प्रेयस रहा होगा)
—————-
पांचों ने हामी भरी
बाँट लेंगे नितांत एकांत के क्षण भी
तुम अकेली के साथ
चैदह कदम लेकर भले बिताओ
चैदह साल का वनवास
फिर भी मांगूगा अग्नि परीक्षा
पूज्य पात्र भूल बैठे भविष्य में लिखी जायेगी
‘गुनाहों का देवता’ के जवाब में
‘रेत की मछली’
(पति थे सब…कोई प्रेयस नहीं रहा होगा)
—————-

आत्मा की आजादी
साझे की बुक शेल्फ
यदि रख दूं ..
वात्स्यायन की कामसूत्र के जवाब में
अपनी कोई किताब
(आधार है…पति नहीं था प्रेयस ही रहा होगा )
———————-

8. यूं लौटने को बेहद देर कर दोगे
प्रेमिकाएं जो कमजोर नहीं पड़तीं
बड़ी तबियत से बिखरती हैं
तुम पलटते रहना फिर
जिंदगी के वे सब सफहे
जिनपे उन्होंने बुकमार्क लगा रख छोड़े होंगे
पर वे लौटेंगी नहीं उस बेहोशी से
तुम्हारे सब जतन बेकार जाएंगे
जब वे ठीक हो सकती थीं सिर्फ
कान की लवों के पीछे काटी गई एक चिकोटी से तुम ऐसे पलटे थे जैसे
विषदंश के बाद पलटता है सांप
जिन्हें हम प्रेम के दुःख समझ
पीछे की ओर लौटने लगते हैं
दरअसल वे प्रेम की पीठ पर उगे
पांच सितारे हैं

9. उदासी बस इतनी सी है कि
कोई सबसे सुंदर झुमका
खो गया हो बरेली शहर में
और कान की सूनी लवें
ऋषि पत्नी-सी व्याकुल हों
शिशु प्रेमी के चुम्बन को

10. प्रेमियों की आँखें प्रेम में सुंदर दिखती हैं
किन्तु मैंने देखा झांक कर
वे विरह में ऐसी सुंदर संपूर्ण हुई थीं
कि जैसे मादा मृग से बिछुड़े
उसके छौने की

11. जब दुनिया में अविश्वास अमीबा की तरह जन्म ले रहा था
दिसंबर का महीना साल की आंख में
किसी किरकिरी-सा चुभता था
उस दौर में भी
तुमने मेरी आँखों पर भरोसा बनाये रखा
जो अब इनमें किसी बच्चे की आंखों सा चमकता है
देखो

12. प्रेम से कहो
थोड़े दिन के अवकाश पर रहे
और
तुम्हें भ्रम में जीने दे
भ्रम उतने ही खूबसूरत हैं
जितने कि सत्यं शिवम सुंदरम

13. भादों के बादलों को चाहिए बस उतनी मोहलत दें
किसी शहर को भीगने से बचने की
कि जितने में सब चीटियाँ
दाना इकट्ठा कर लें खाने का
(धर्मशाला की बारिश जून के गाल पर चांटे मारती है)

14. मेरे तीसरे नेत्र की अभिलाषा है
कि तुम्हारे अंदर के पुरुष को
हमारे प्रेम में
मुस्कुराते हुए देखे
जैसे बुद्ध मुस्कुराते थे मंद-मंद
ध्यान में।


 

 

 

 

 

 

 

कवयित्री मृगतृष्णा मूल नाम संध्या यादव, जन्म  5 अक्टूबर 1991, लखनऊ। शिक्षाः लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि । केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश जनसंचार में डॉक्टरेट। अभी गाज़ियाबाद के कॉलेज में पत्रकारिता की अध्यापक। सृजनः ब्लाॅग में कुछ कविताएँ प्रकाशित।

ई-मेलः mrigtrishna90@gmail.com

 

 

 

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

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