समकालीन जनमत
कविता

अंकिता रासुरी की कविताएँ विषय विविधता से पूर्ण अदम्य साहस की अभिव्यक्ति हैं

पुरु मालव


अंकिता रासुरी की कविताओं में वो विषय-क्षेत्र भी सहजता से प्रविष्ट हो जाते हैं जिनकी ओर प्रायः कवि दृष्टिपात करने से भी बचते हैं। किंतु ये विषय किसी सनसनी या ध्यानाकर्षण की भाँति नहीं आते अपितु समाज और बाजार की कटु सच्चाई के रूप में आते हैं। ‘अनवांटेड 72’ ऐसी ही एक कविता है-

सेक्स करना भी कितना ख़तरनाक साबित हो चुका है
मेरे लिए
एक पीढ़ी जो मुझे डराती रही इज़्ज़त के ख़याल से
दूसरी पीढ़ी मुझे देती रही नसीहतें
और मैं हर सेक्स के बाद
लेती रही ‘अनवांटेड 72’
प्रेम के नाम पर

अंकिता की कविताएँ सीमित विषयों पर केंद्रित नहीं हैं। उनमें विषय-वैविध्य है। उनमें ग्रामीण जीवन की सहजता और समरसता है तो महानगरीय जीवन का एकांत और संताप भी हैं।

उनकी स्मृतियाों में बचपन की मधुरता हैं तो वर्तमान की कड़वाहट भी है। कविताओं का वितान दूर तक फैला है।
प्रेम प्रत्येक कवि का प्रिय विषय रहा है। प्रत्येक कालखंड में प्रेम विषयक कविताएँ रची गई। समय चाहे जैसा भी रहा हो प्रेम अपनी उपस्थिति अवश्य दर्ज़ करता रहा है। कठिन समय रचना-प्रक्रिया के लिए उर्वरक का कार्य करता है। अंकिता की एक बहुत ही छोटी लेकिन बहुत ही महत्वपूर्ण कविता है-
सबसे बुरे दौर में
लिखी जा सकती हैं
सबसे महान प्रेम कविताएँ
और मैं वो वक़्त होना चाहती हूँ

पारस्परिक प्रेम ही स्त्री- पुरुष सम्बन्धों का आधार है। किंतु स्त्री-प्रेम और पुरुष-प्रेम में सूक्ष्म विभेद है। पुरुष जहाँ देह से आगे नहीं जा पाता वहीं स्त्री देह से परे भी चली जाती है। एक छोटी कविता में कवि ने इसी सूक्ष्म भेद को उजागर किया है।
लम्बे अरसे बाद मिलते हो
और मेरे होंठों की ओर
तुम्हारे होंठ नहीं
बढ़ता है तुम्हारा लिंग
और मैं देह से कुछ ओर में
हो जाती हूँ तब्दील

कुछ शब्द रिश्तों के साथ ऐसे बंध जाते हैं कि वो अपना पारम्परिक अर्थ कभी छोड़ नहीं पाते और समाज उस निहित अर्थ के अतिरिक्त किसी अन्य अर्थ की कल्पना भी नहीं करना चाहता। इस सींखचे को तोड़ने में एक व्यक्ति अपना सारा जीवन होम कर देता है किन्तु अंत तक वो शब्द लाँछन की तरह उससे चिपके रहते हैं। ‘सौतेली माँ’ कविता में कवि ने इसी पीड़ा को स्वर दिया है। ‘मेरा‌ माँ होना’ एक लम्बी कविता है। पुरुष मानसिकता जिसे मातृत्व सुख का नाम देती है। उस कथित मातृत्व सुख को प्राप्त करने में एक स्त्री को किन-किन पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है इसका अनुमान पुरुष नहीं लगा सकता है क्योंकि वह स्त्री देह नहीं हो सकता।
उन सब में शायद तुम कभी देख ही नहीं पाते
मेरे भीतर चिल्लाहटें
क्योंकि तुम कभी हो ही नहीं सकते एक स्त्री देह।

ये अंकिता रासुरी की कविताओं का समग्र मूल्यांकन नहीं हैं। इन्हें एक त्वरित पाठकीय टिप्पणी ही समझा जाए। एक कवि के द्वारा दूसरे कवि की कविताओं को पढ़कर जो समझ विकसित होती उसे ही ‌यहाँ लिखा गया है। अंकिता की कविताएँ विभिन्न प्रकाशन माध्यमों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। अब उनके कविता संग्रह की प्रतीक्षा सभी सुधी पाठकों को है।

 

अंकिता रासुरी की कविताएँ

1. सौतेली माँ
रात बिरात जब भी नींद खुलती है
मुझे याद आता है एक चेहरा
हारी हुई मां का
एक आवाज जो कहती रही हमेशा
रानी बिटिया ले जायेगी दूर कहीं घर से
पर कहाँ नहीं पता
उसने जाना है
एक माँ, एक स्त्री हमेशा नहीं करती है प्रेम घर से
उसके लिये अक्सर निर्जन जंगल होते हैं अधिक सुरक्षित
जो मां पशु पक्षियों में भी ढ़ूंढ लेती है अपने साथी
उसके लिये छब्बीस साल पुराना वह खंडहर
आज भी जिंदा है
जिसमें वह आयी थी दुल्हन नहीं, एक माँ बनकर
एक सौतेली माँ बनकर
जो अब भी डराता है उसे
प्रेत बनकर नहीं बल्कि एक इंसान बनकर
जो अक्सर घिरे रहे उसके चारों ओर
आज भी सिसक उठती हैं
भूख और मार की कई दिन और रातें
उसकी अपनी वे रातें
जब पति के लिये वो उसी दिन से सौतेली हो गयी
जब वह आयी थी
किस्सों कहानियों में बसने वाली सोतेली माँ बनकर
और वह आज भी वह अभिशप्त है
सौतेली पत्नी, सौतेली बहू, सौतेली माँ बनकर
अब थक हारकर
वह खोज रही है एक नया संसार
अपनी बेटी के साथ मिलकर।

 

2. मेरा माँ होना

1.
हमारे साझा प्रेम से उपजे
मेरे पेट के भ्रूण को संभालना या उसे नष्ट करना
निर्भर करता है
मेरे होने या ना होने की स्थितियों पर
मेरे पेट में बढ़ते भ्रूण का होना
ना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करेगा
ना ही यह तुम्हारी निर्मूल आशंकाओं के अनुरूप
तुम्हें जिंदगी भर बांधे रखने की साजिश है
ना ही ये कोई माँ की कोख के होने से उपजा प्रेम है
मेरा माँ बनना इस पर निर्भर नहीं करता कि
तुम पिता की जिम्मेदारी लोगे या नहीं
ये निर्भर करता है
अपने शरीर के हिस्से को बचाये रखने की मेरी इच्छा पर
ओ मेरे दोस्त, ओ मेरे प्रेमी
मैं एक नया जीवन जीने की ओर अग्रसर हूँ
हमेशा की तरह
क्योंकि मेरा जीवन किसी और का अधूरा हिस्सा नहीं।
2.
पेट में उठ रहे दर्द के बीच
मैं सोच रही हूं
कितना प्रेम करती हूँ तुमसे
तुम्हारी हर एक मुस्कान से
तुम सच में बहुत अच्छे हो
लेकिन हो तो आखिर पुरुष ही ना
कैसे नहीं सोचूँ
मेरे पेट में हमारा बच्चा है
हाँ हमारा
जितना मेरा ठीक उतना ही तुम्हारा भी
और मैं दर्द से तड़प रही हूँ
तुम शायद करते होगे मुझसे प्रेम
बहुत रोमांचित होगे होने वाले बच्चे की खातिर
लेकिन मेरे हिस्से के दर्द का क्या कुछ कर पाओगे तुम
क्या बाँट पाओगे तुम मेरे शरीर का भारीपन
मेरे हिस्से का खौफ
जानते हो ना
ना जाने कितनी ही औरतें मर जाती हैं
बच्चा जनते वक्त
लेकिन तुम ये सब सोच ही नहीं सकते
खिलखिलाते हुए बच्चे तुम्हें बहुत पसंद हैं
उन सब में शायद तुम कभी देख ही नहीं पाते
मेरे भीतर चिल्लाहटें
क्योंकि तुम कभी हो ही नहीं सकते एक स्त्री देह।

 

3. अनवांटेड 72
सेक्स करना भी कितना ख़तरनाक साबित हो चुका है मेरे लिए
एक पीढ़ी जो मुझे डराती रही इज़्ज़त के ख़याल से
दूसरी पीढ़ी मुझे देती रही नसीहतें
और मैं हर सेक्स के बाद लेती रही
‘अनवांटेड 72’ प्रेम के नाम पर

रात दिन सड़ती-गलती मेरी ज़िंदगी
मेरा शरीर ख़तरनाक स्थिति तक टूटता रहा
कंपनियाँ कभी नहीं कहतीं कि यह दवा नहीं एक धीमा ज़हर है
और आज मैं एक हॉस्पिटल के बेड पर हूँ

आईसीयू में जाते हुए मैं बस सोचती रही हमारे बारे में
और तुम थे कि ख़ुद को ही गुनहगार समझ रहे थे
हमारे सामने कितना कुछ था चुनौती के रूप में
एक परंपरा जो मुझे माँ के रूप में नहीं करती स्वीकार
इन अस्पताल वालों को नहीं फ़र्क़ पड़ता हमारे प्रेम से
जहाँ ज़िंदगी और मौत का फ़ासला
महज़ पचास हज़ार के एडवांस पर टिका था
न इन कंपनियों को
जो बहत्तर घंटे के ज़हर के साथ बेचती हैं प्रेम के सपने

मेरे शरीर में न जाने कितने इंजेक्शन लगे पड़े थे
तुम्हारी प्यार भरी और बेबस आँखों के सामने
और अंत क्या हो सकता है
सब कुछ तो ख़तरनाक बना दिया गया है—
एक स्त्री शरीर के लिए।

 

 

4.बस मैं हूँ घूमती हुई पृथ्वी पर बिल्कुल अकेली

हर रोज उठाती हूँ रजाई का खोल
ताकती रह जाती हूँ तुम्हें
एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक
कहीं कुछ भी तो नहीं है
एक, दो, तीन, चार छवियां गडमडाती हुई एक हो जाती हैं
मैं जानती हूँ
ऑफिस जाने और ऑफिस से आने के बीच का एक लंबा समय
अजीब होता है
एक लंबा पहाड़ी रास्ता कर रहा होता है इंतजार
एक खुला आसमान और चाँद
कर देते हैं और उदास
पता है पराल का पेड़ों और खेतों पर पड़े रहना
बुलाता है असूज के महीने
पर अब तो हर दिन लगने लगता है कि
असूज है कि नहीं
जब भी देखती हूँ हथेलियां
खिजाने लगती है इनकी कोमलता
ताकती हूँ क्या अब भी पड़े हैं छाले पांवों के तलवों में
ठीक असूज के महीने के मंडाई के वक्त का खाना याद आता है
चाचियों की के साथ खेतों की मेड़ पर
और आज बंद ऑफिस की एक कैंटीन में
तोड़ रहीं हूँ रोटी के कौर
क्या सच में कुछ भी नहीं लौट सकता
झाडियों में घुसकर खाना
हिसर, किनगोड़
बमोरों के लिए ताकना
डांडों से आई माँ के पल्लू को
कुछ ही दूरी पर तो है मिट्टी से भरे हुए खेत
और खेतों से गुजरता है एक बचपन
पसारती हूँ हाथ
कहीं कुछ भी तो नहीं हैं
तुम भी नहीं
बस मैं हूँ घूमती हुई पृथ्वी पर बिल्कुल अकेली।

 

 

5. दो-देहें
हम तुम इस दुनिया में दो देहें
अपनी-अपनी जिंदगी जीते हुए
अपना-अपना सुख भोगेते हुए
सुबह हो जाने के बाद
बस एक मुस्कान बची रह जाती है।

 

6. दूध पिलाती स्त्रियाँ
बच्चे को खुलेआम दूध पिलाती स्त्रियाँ
सिर्फ संसद में नहीं होतीं
बच्चे को दूध पिलाती स्त्रियाँ
पत्रिकाओं के विज्ञापनों में भी पहली बार नहीं देखी गईं
बच्चे को दूध पिलाती स्त्रियाँ
ट्रेन के जनरल डिब्बो में मिल जाती हैं
खेतों से बेहाल लौटकर आई मां भी
कुछ सुस्ता कर उसी हाल में पिला लेती हैं बच्चे को दूध
पर वो खबरों में कहीं नहीं होतीं।

 

7. दुख
जहां-जहां मुझे होना था तुम्हारे साथ
वहां मैंने किसी और को देखा
तो दुख हुआ
आज सोचती हूँ
जीवन सिर्फ दिखने भर का तो नहीं
उसे साथ जीना पड़ता है
जो शायद असंभव था।

 

8. दुखों को बोझ
अपने दुखों का बोझ
किसी और के कंधों पर डालना,
इतनी भी अच्छी बात नहीं
ठीक है, असंख्य हैं पीड़ाएं
लेकिन किसी से यह सब कुछ कह देना
उसके हिस्से ऐसे दुख बांध देना है
जो उसके हैं ही नहीं।

 

9. मुश्किल
एक स्त्री के लिए प्रेम
जख्म भरे वजूद से ज्यादा कुछ भी नहीं
और प्रेम में मरा भी नहीं जाता
क्योंकि मरना
हर हाल में जीने से ज्यादा मुश्किल है।

 

10. पुरानी टिहरी यादों में

1.
बाँध के पानी में तलाशती मेरी आंखे
कब के डूब चुके घंटाघर और
राजमहल की सीढ़ियों से फिसलते पैरों के निशानों को
धुंधली पड़ चुकी स्मृतियों की दुनिया से
फिर भी चला आता है कोई चुपचाप कहता हुआ
यहीं कहीं ढेरों खिलौनों की दुकानें पडी हैं
सिंगोरी मिठाई के पत्ते यहीं कहीं होंगे बिखरे हुए
रंगबिरंगी फ्रॉक के कुछ चिथड़े जरूर नजर आ रहे हैं तैरते हुए
बाँध के चमकीले पानी में
एक बचपन और जवानी को जोड़ते हुए।

2
पानी को देखती हूँ
और मेरी कल्पनाएं पसारने लगती हैं पांव
एक खूबसूरती तैर जाती हैं आंखों के कोरों पर
चलती सूमो से नीचे की ओर निहारती मेरी नजरें
डूब जाना चाहती हैं
पानी में टिमटिमाते तारों से प्रकाश में
ओह यह कितना बड़ा छलावा है
एक पूरी सभ्यता को डुबो चुके इस पानी में भी
दिखने लगता है जीवन

3.
पुरानी टिहरी से गुजरती गाड़ी
कुछ बनती बिगड़ती मशीनें
मिट्टी का ढेर
फिर रास्तों का बदलना
झील में स्टीमर से चलना
कितना कुछ चलता रहा
अब जाना
वो बस आवाजाही करते हुए दिख जाने वाला रूटीन नहीं था
वहां कुछ लोग उजड़ रहे थे
बाकी लोग बस मुसाफिर बन गुजर रहे थे।
11.साहस
बहुत आसान है
पहाड़ की वादियों मे थिरकती किसी सुंदरी को
गढ़ना अपनी कल्पनाओं में
पेंटिंग्स या कविताओं में रचते हुये
उसमें स्वयं को बिसरा देना
पर क्या कोई रच पाया है अपने एहसासों में
मुझ जैसी स्त्रियों को
जिनकी देह लगती है किसी सूखे पेड़ का अवशेष
हफ्तों बिना कंघी तेल के बाल लगते हैं
मानो कभी सुलझे ही ना हों
जिनके हाथों का खुरदुरापन लगता है किसी सूखे खेत का प्रतिरूप
और खेतों की धूल मिट्टी जिनके हाथों को ही मटमैला कर गयी है
घास लकड़ी का गट्ठर लिये घंटों चली करती हैं अक्सर
नंगे पांव भी झुलसते हुये सिसकते हुये
इतनी भी फुर्सत नहीं कि सहला सकें अपने जख्मों को बैठकर
और व्यस्त है ऐसे कार्यों में जिनका कोई सम्मान भी नहीं करता
ये सब हमने अपने लिये नहीं
उनके लिये किया है जिनको दिखती है
हमारी देह की कुरूपता
हमारी तपस्या नहीं
क्या तुम में अब भी साहस है कर सको एक ऐसी स्त्री से प्रेम
जो अब तुम्हारे सामने है इस बदले हुये रूप के साथ।

 

12. मंडी हाउस में एक शाम

1.
वह सोचता रहा, उसने तो कहा था
गिटार बजाते हुए लड़के
उसे आ जाया करते हैं पसंद अक्सर
झनझनाते रहे तार और वह गाता रहा
एक हसीना थी….
किसी गुजरी हुई शाम की याद में।

2
वह खींचती रही आड़ी तिरछी रेखाएं
फाइल के पन्नों में कुछ इधर उधर देखते हुए
ठंडी हो चुकी चाय के प्याले में अटका रह गया कोई
तस्वीर में उतरने से कुछ पहले ही
वह ताकती रह गयी दिशाओं को।

3
नाटक-करते करते वह
सच में ही रो पड़ा अभिनय की आड़ में
गूंजती रही तालियां
और वह सोचता रहा
य़ह अभिनय की जीत है या
उसकी हार।

4
और कविता करते हुए
वह कहती रही
बस लिखती रही यूं ही किसी के लिये
तुम्हें सुनाऊं
शब्दों का खयाल अच्छा है।

5
चाय और अंडे बनाती वो और उसका पति
परोसते हुए सोच रहे थे
कच्चे मकान और
ठिठुरती शामें कितनी लम्बी होंगी अब की बार।

6
मंडी हाउस के ऊपर लटका हुआ चाँद
और तुम
एक बार फिर ये शाम अच्छी है।

 


कवयित्री अंकिता रासुरी, 5 मई 1991 टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड में जन्म। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। जनसंचार में एमए एवं एमफिल। ‘देहात’ एग्रीटेक कंपनी में सीनियर कंटेट राइटर के तौर पर कार्यरत। फिलहाल गुरुग्राम में निवास।

सम्पर्क: मोबाइल नं.- 8319320157
ईमेल- ankitarasuri@gmail.com

 

टिप्पणीकार पुरू मालव, जन्मः 5 दिसम्बर 1977, बाराँ (राजस्थान) के ग्राम दीगोद खालसा में। शिक्षाः हिन्दी और उर्दू में स्नातकोत्तर, बी.एड.। सृजनः हिन्दी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। एक ग़ज़ल संग्रह ‘ये दरिया इश्क का गहरा बहुत है’ प्रकाशित।

पुरस्कारः हिन्दीनामा-कविता कोश द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार

सम्प्रतिः अध्यापन

सम्पर्कः कृषि उपज मंडी के पास, अकलेरा रोड, छीपाबड़ौद, जिला बारां (राजस्थान)

पिन-325221

मोबाइलः 9928426490

 

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