समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

लेखक को अपने समय की पड़ताल करनी चाहिए- ज्ञानरंजन

(प्रख्यात कथाकार व हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में से एक ‘पहल’ के सम्पादक ज्ञानरंजन द्वारा बाँदा में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान के मौके पर दिया गया वक्तव्य )

प्रेमचंद स्मृति सम्मान के सदस्यों, मंच पर आसीन मित्रों और साथियों :

प्रेमचंद के बारे में कुछ तितरी बितरी, तिनका तिनका बातें शुरूआत में रखूँगा, इसलिए भी कि मेरे सम्मान के साथ इस महान कथाकार का नाम जुड़ा है।

सबसे पहले आपका ध्यान आकर्षित करूँगा कि मुंशी जी 1936 में दिवंगत हुए और संयोग से 1936 मेरा जन्म हुआ। हमारे पूर्वज बनारस के थे और मेरे स्व. पिता श्री रामनाथ सुमन की जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद से निकटता थी। मेरे पिता ने प्रेमचंद पर यत्र तत्र लिखा है, अपने संस्मरण में। जब मैं किशोर हुआ तो पिता की लाइब्रेरी में भटकते हुए मुझे उसमें प्रेमचंद का उपन्यास रंगभूमि मिला, जिसके भीतरी पृष्ठ पर लाल सियाही से प्रेमचंद का हस्ताक्षर था। बाद में शिवानी देवी की किताब पढ़ने को मिली।

अभी लगभग तीन चार वर्ष पूर्व जापान से मेरे सहपाठी और अभिन्न मित्र का फ़ोन आया और उन्होंने अपने पास कवि रत्न मीर की (मेरे पिता द्वारा लिखी) एक अंतिम दुर्लभ प्रति होने की सूचना दी, जो मेरे पास नहीं थी और जिसे उन्होंने मुझे डाक से भेज दी। यह पुस्तक, पुस्तक-भण्डार लहेरिया सराय, बिहार से प्रकाशित थी, जो काफ़ी दिनों पहले बंद हो चुका है। दुर्भाग्य से हमारे इस संवाद के बाद लक्ष्मीधर का जापान में निधन हुआ। इस सजिल्द पुस्तक की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी है और लगभग 75 वर्ष बाद कवि रत्न मीर का नया संस्करण ज्ञानपीठ ने छापा।

सोवियत लैण्ड पुरस्कार से जुड़ी सोवियत रूस की यात्रा में मुझसे कई बार यह सवाल पूछा गया कि आप की कहानियाँ किस तरह प्रेमचंद की परम्परा से जु़ड़ी हैं। मैंने इसका विस्तार से जवाब दिया है।

प्रेमचंद हमारे जीवन में कितने भीतर तक प्रवेश कर चुके हैं इसका एक रोचक किस्सा सुनिये। मेरी दादी सुखदेवी ने प्रेमचंद को समग्र कई कई बार पढ़ा था। उन्होंने किसी स्कूल या विद्यापीठ में पढ़ाई नहीं की थी पर प्रेमचंद की रचनाओं से वे दिलचस्प उद्धरण देती थीं। वे मेरी प्रिय थीं और हमारा परस्पर विनोदपूर्ण रिश्ता था। मैं उन्हें बूढ़ी काकी कहता था। वे भूख लगने पर तड़प उठती थीं, अपनी बहू यानी मेरी माँ पर शब्दबाण फेंकने लगती थीं। मेरे बाबा भोजपुरी बोलते थे और फारसी गणित के ज्ञाता थे। वे घर के बाहरी हिस्से में रहते थे और केवल भोजन के लिए आते थे। उनका जीवन ‘पूस की रात’ के हल्कू जैसा था। एक दिन वे ठिठुर ठिठुर के जाड़ों की रात में जलते हुए दिवंगत हो गये। वे सूखे पत्तों को इकट्ठा करके तापते थे।

प्रेमचंद प्रसंग अभी समाप्त नहीं है। कई दिलचस्प संयोग हैं। इसलिए भी कि हम सभी प्रेमचंद की रचनाकार संतानें हैं। प्रेमचंद ने कहानियाँ लिखीं; हमने भी उनकी परम्परा में कुछ कहानियों को जोड़ा। प्रेमचंद ने प्रगतिशील संगठन की मशाल जलाई, हमने कई दशक तक प्रलेसं के पदाधिकारी के रूप में संगठन को मजबूत बनाने का काम किया। प्रेमचंद ने सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘हंस’ का अविस्मरणीय संपादन किया; हमने भी ‘पहल’ को चालीस वर्ष सम्पादित किया। जब ज्ञानपीठ ने मुझे हरिशंकर परसाई की रचनाओं का संकलन संपादन करने का दायित्व सौंपा तो मैंने उसका शीर्षक ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ दिया। उसके अनेक संस्करण हुए हैं।

साथियों, उपरोक्त उदाहरण इसलिए ध्यान आकर्षित करने के योग्य हैं कि मैं एक लुम्पेन किशोर था। अपनी नौजवानी तक। और मैंने ‘तारामण्डल के नीचे एक आवारागर्द’ संस्मरण में इस बात को लिखा भी है। पर विचारधारा ने मुझे एक छोटे मोटे पर विश्वसनीय लेखक के रूप में स्वीकृति दी। पुरस्कार, सम्मान के मौक़े हमें यदा कदा छोटे मोटे जश्न करने की अनुमति देते हैं। मैं बांदा में अपने साथियों के इस जश्न में शामिल होकर ख़ुश हूँ। पश्चिमी भाषाओं की तरह हिन्दी में अपने लेखकों को सेलिब्रेट करने की प्रथा कुछ कम है। केवल पुरस्कारों से नहीं, हम दूसरे बहुत अन्य शानदार तरीक़ों से यह आयोजन अपने दूसरे अप्रतिम युवा लेखकों के लिए कर सकते हैं। यह मेरा सुझाव है।

मेरी यह समझ है कि लेखक या किसी भी अन्य व्यक्ति के लिए उसका पिछला समय, उसका वर्तमान समय और उसका भावी समय बहुत अहमियत रखता है। इसमें हमारा परिवार, फिर शहर, फिर देश, फिर विश्व का समय शामिल है। समय की कोख से ही हमारी रचनाएँ जन्म लेती हैं। समय ही हमारी रचनात्मक बेचैनियों का सबब है। वह कभी हमें प्रफुल्ल करता है, कभी अधमरा। कभी वह हमारी ख़रीद फ़रोख़्त भी करता है। आज हमारा समय ख़रीद फ़रोख़्त से भरा है। इसी को हम बाज़ार भी कहते हैं। दुर्योग से मेरा प्रसव काल ख़त्म हो गया है, पर मैं समय का पीछा तो कर ही रहा हूँ। सरसरी तौर पर इसकी चर्चा करता हूँ। यह निरक्षरता का समय है। अगर रोग मानें तो इसे डिमेन्शिया और अलज़ाइमर का विस्फोटक समय भी कह सकते हैं।

मोटी मोटी बातें देखिये। देखिये कि रोज़ जो लिखा जा रहा है, बोला जा रहा है, उसमें झूठ का प्रतिशत कितना है। असंख्य झूठ आपके देखते-देखते सच्चाइयों में तब्दील हो रहे हैं, या हो चुके हैं। सबसे ख़तरनाक दो शब्द लगते हैं – नया और विकास। ये शब्द धूर्तता से भरे हैं। निरंतर धूल झोंकी जा रही है। नया शब्दकोश, नये संग्रहालय, नया पाठ्यक्रम, नई शिक्षा, नई सड़कें, नये शहर, नया यातायात। यह सूची अनंत है। पहले ज़मीनों पर कब्ज़ा होता था अब धर्म पर कब्ज़ा है। अतीतवादी लोग ही अतीत पर प्रहार कर रहे हैं। आलोचना देशद्रोह है। कड़वी चीज़ें बर्दाश्त नहीं। लड्डू और दीये हमारे सबसे बड़े चित्र हैं। कथा कहानी के घीसू माधव विकराल रूप में पुनर्जीवित हो गये हैं। जनता सियारों के झुण्ड में बदल चुकी है। कुछ अलग आवाज़ें अगर हैं तो यू ट्यूब में घुसड़ गई हैं या फ़ेस बुक में। फिराक़ साहब का मशहूर शेर जीवित हो गया है – ‘हमीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात’। मज़ा ये है कि हम इसमें ख़ुश हैं, सफ़ल हैं। मध्यवर्ग ने वास्तविक जनता को अदृश्य बना दिया है। जबकि मोटा मोटी यह समय की एक आउटर लाइन मात्र है। उसका कैरीकेचर। यह बालकृष्ण मुख का ब्रह्माण्ड नहीं है। मित्रों, इसीलिए मैं आग्रह करता हूँ आप सबसे, जो लिखते हैं, या पढ़ते हैं, या कुछ भी नहीं करते; उन्हें अपने समय के उजले-अंधेरे झरोखों में झाँकना चाहिए। इससे परिवर्तन हो या न हो तसल्ली मिलती है और आत्मरक्षा होती है। अगर हमारा समय हमें होशियार, चौकन्ना, बनावटी और काइयाँ बना रहा है तो हमें सावधान हो जाना चाहिए।

देवीप्रसाद मिश्र की एक ताज़ा कविता का नया जुमला है :  कि दो गुजराती देश को बेच रहे हैं और दो गुजराती देश को ख़रीद रहे हैं। दोस्तों यह केवल दो चार व्यक्तियों का प्रसंग नहीं है, इसके निहितार्थ गहरे और भयानक हैं। इसे व्यंग्य भी न समझें।

दोस्तों, मैं बार-बार ‘समय’ शब्द को रिपीट कर रहा हूँ। इसलिए कि समय विशाल, विकराल और जटिल है। मैं उसे एक दो उदाहरणों से कैसै परिभाषित करूँ…? पर, मुझे समय की शिला को चूर चूर करना है। जो भी चाहे शिला-लेख बना लेता है और उसे बदल देता है। इसलिए पहले मैं उसके टुकड़े करूँगा और फिर आगे बढ़ूँगा। एक टुकड़ा उदाहरण है हमारे समय का, जिसे राष्ट्रीयकरण बनाम निजीकरण कहते हैं। यह मामूली जुमला नहीं है। इसी में सारी दुनिया उलट-पलट हो रही है। यह संगीन यात्रा समय है। आप से आग्रह है मेरी यात्रा कहानी पढ़ें। आज का दृश्य देखें – गेट मीटिंग हो रही है… काली पट्टी पहनी जा रही है… पुराने नारों को शोर है…, क्रमशः ये शस्त्र बेकार हो चुके हैं। ये पाषाण-कालीन लगते हैं। पर मूर्ख राजनीति  इसकी व्यर्थता को बता नहीं पा रही है। यही समय है; दुभाग्यपूर्ण समय; सुनहरा समय नहीं। हरिशंकर परसाई की शैली में अगर मैं कहानी बनाऊँ वे वह ऐसी होगी :

आप कहते हैं कि हमारा यह सामान, हमारी यह सम्पत्ति ले लेंगे। वो कहते हैं कि नहीं लेंगे। ख़रीदने की उनकी शर्तें हैं। उनका कहना है कि पहले ढाँचे को उन्नत करो, या पुराना ढाँचा गिराओ और नया बनाओ। नई मशीनें लगाओ, बाहर से बुलाओ। श्रमिकों की छटनी करो; इनकी जनसंख्या ज़रूरत से अधिक है। ज़मीनें अधिग्रहीत करो। प्लेटफॉर्म बढ़ाओ, पटरियाँ बिछाओ, रेलगाड़ी के डब्बों को सुखद और शानदार करो, हर ओर वंदे वंदे चलाओ, ड्रेस कोड सुन्दर करो, प्लेटफॉर्म पर लिफ्ट और एक्सलेरेटर लगाओ, उसे मॉल की तरह सजाओ, जहाँ यात्री आराम से परफ्यूम, पेस्ट्री, फ़ोटोफ्रेम और मदिरा ख़रीद सकें। सामान के बोझ के लिए ट्रालियाँ लगाओ, कुलियों को हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे सभ्यता पर बदनुमा दाग़ हैं। उसके बाद हमारे संतुष्ट होने पर हस्तांतरण होगा।

एक भव्य समारोह में, एक देश प्रमुख और तमाम सी.ई.ओ. की हाज़िरी में  सजे हुए मंच पर आपके घर की एक विशाल काल्पनिक चाभी उन्हें सौंपी जायेगी और आपको घर के बाहर कर दिया जायेगा। आपका काम है ताली बजाना और ठुमरी गाना। यही है साथियों, राष्ट्रीयकरण और निजीकरण का समय।

बहुत सारे विविध उदाहरण दिये जा सकते हैं, मेरे साथियों; पर ऐसा करते जाने से समय असमय हो जायेगा।

हमारे समय की सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि हमने अस्वीकार करना बंद कर दिया है। हमारी गोद स्वीकृतियों, उपहारों, फूल-फलों से भरी है। अभी मैं आपको कुछ उदाहरण दूँगा, लेखकों का, जिन्होंने अस्वीकृतियों के प्रतिमान बनाए।

अमेरिका के बारे में लोर्का कहते हैं  कि यह डरावना और शैतान है। यहाँ खो जाना लाज़िम है। यह देश संसार का सबसे बड़ा झूठ है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने लिखा है – साहित्यिक न्यूयार्क टेपवर्म से भरी बोतल है  जिसमें वे एक-दूसरे को खाते रहते हैं। मार्क ट्वेन लिखते हैं कि बोस्टन में पूछा जाता है – आप कितने ज्ञानवान हैं? न्यूयार्क में पूछा जाता है कि – आपकी कूबत, क़ीमत क्या है ?

एक अमरीकी लेखक लिखता है कि 6 करोड़ लोगों का यह शहर न्यूयार्क कौतूहल और संदिग्धता से भरा हुआ; यहाँ कोई लैण्डस्केप नहीं; सभी लैण्डमार्क हैं। इस शहर में कोई बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े भी जवान हैं। यहाँ विपन्न को अतीत के डस्टबिन में डाल दिया जाता है।

एनरैण्ड के फाउंटेन हेड में मैंने जो पढ़ा था, आपको यथावत् कोट कर रहा हूँ : –

‘‘न्यूयार्क के डिटेल्स एकत्र करना असंभव है। वे इतने गडमड हैं कि उन्हें एकबारगी स्वतंत्र नहीं देखा जा सकता। न्यूयार्क की विवरणिका नहीं बनाई जा सकती। यह दुनिया भगवान से टकरा रही है। न्यूयार्क के आसमान पर मनुष्य निर्मित इच्छाएँ हैं। हमें और किस धर्म की ज़रूरत है।’’

मैंने लगभग एक दर्जन बड़े लेखकों के वाक्यों को एकत्र किया है जो शहरों के बारे में हैं। प्रसिद्ध शिल्पी जिसने चंडीगढ़ की परिकल्पना की थी, ने कहा कि स्काई क्रीपर्स धनोपार्जन की मशीनें हैं।

क्या हमारे यहाँ रचनाकारों, शिल्पियों और वास्तुकारों ने छोटे-बड़े, नये-पुराने किसी ने भी शहरों के बारे में – यानी विकास के ऐसे छायाचित्र और नक्शों के बारे में टिप्पणी की है? हमने घीसू-माधव द्वारा भेजी गई स्मार्ट योजनाओं का जम कर स्वागत किया और ठुमरी गाई। अब सब बदरंग हो चुका है और भ्रष्टाचार का सबब है। इसने वास्तविक जनता को देश से दूर ठेल दिया है। शहरीकरण की आंधी में कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्राकृतिक सौन्दर्य के असंख्य चित्र लुप्त हो गये हैं। यह पहले से हो रहा था; मद्धम…मद्धम…! पर अब यह बुलेट की तेज़ी से हो रहा है।

हमारी राजधानी दिल्ली जो दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नगरी है, राजसत्ता की मनमानी रोशनियों से धधक रही है। मुझे याद आता है मिर्ज़ा ग़ालिब और रामधारीसिंह दिनकर की कविता ने ही दिल्ली पर सवाल उठाए; पर यह सूची बहुत संक्षिप्त है। ग़ालिब के अशआर अभी भी धूमिल नहीं हुए और दिनकर की लम्बी कविता दिल्ली को लोग भूल गये। ये सब मैं आपको इसलिए बता रहा हूँ  क्योंकि ये हमारे समय के सवाल हैं। और शुरू में मैंने कहा था कि एक लेखक को अपने समय की पड़ताल करनी चाहिए। अपने गुज़श्ता, वर्तमान और भावी समय की पहचान करनी चाहिए। यह हमारे लेखन का एक अनिवार्य हिस्सा है। क्या हम चौकन्नापन, काइयाँपन और कृत्रिमताओं को देख रहे हैं। शास्ता के मुक़ाबिले शासित जनता ज़ादा अपराधी है।

पुरस्कृत व्यक्ति थोड़ा वाचाल हो जाता है; इसलिए मैंने कुछ अधिक कहा। मैं इतना बड़ा लेखक नहीं हूँ कि पुरस्कार को आलू का बोरा कह कर इतिश्री कर सकूँ।

बहरहाल, जो व्यक्ति  जिन शीर्षकों के अन्तर्गत पुरस्कृत हुआ है  उसे आलोचक या अध्यापक की तरह नहीं बोलना चाहिए। उसका क्षेत्रफल ही अलग है। वह अपनी कहानियों से उत्पन्न दुनिया, जिसमें आप सब शामिल हैं, नये अन्वेषण करेगा। वह अपनी कहानियों में बार-बार लौट सकता है। क्योंकि कहानियाँ मरती या समाप्त नहीं हो जातीं। वे नये गलियारे बना सकती हैं। मुझे आपको एक उदाहरण देना है। इलाहाबाद कॉफ़ी हाउस में उन दिनों हमारा अड्डा था। अलग टेबुल पर बैठने वाले आलोचक विजयदेव नारायण साही याद आते हैं। संयोग से यह उनका जन्मशती वर्ष भी है। साही जी जबलपुर परसाई जी से मिलने आये थे। बारिश हो रही थी। हम एक रिक्शे पर बैठ कर बतिया रहे थे। कॉफ़ी हाउस में हम दोनों ने कभी एक टेबुल शेयर नहीं किया, पर यहाँ हम एक रिक्शे पर थे। साही जी ने कहा – ज्ञान तुम्हारी कहानी ‘बहिर्गमन’ अभी बची है, ख़त्म नहीं हुई है। मेरा सुझाव है कि जहाँ ‘बहिर्गमन’ समाप्त होती है, उसके आगे उसका दूसरा भाग लिखो। ‘मनोहर’ का परदेस में क्या हुआ, वह लौटा या मर गया। कुल मिला कर उसके बकाया जीवन का क्या हुआ। दूसरा भाग इस अंधकार को फाड़ने वाली कहानी हो सकती है। ‘बहिगर्मन’ का दूसरा हिस्सा मैंने लिखने की कोशिश की, पर बात बनी नहीं। मेरे पास मृत संजीवनी सुरा नहीं थी या हनुमान जी वाली बूटी, जो कहानी को फिर से जीवित कर पाती। मैं काहिल भी हूँ, संभवतः आलस्य इस काम में बाधा बना हो। जो भी हो अब मैं आपके सामने हूँ।

लम्बे वक्तव्य से बचते हुए अंत में, दोस्तों, मेरा मानना है कि आपने मुझे पुरस्कृत किया, इससे साबित होता है कि आपको पुरानी दुनिया नापसंद नहीं है। संभव है कि आप यह भी मानते हों कि विकास की वर्तमान अवधारणा एक छद्म अवधारणा है। वाल्टर बैंजामिन भी अपनी समीक्षा में लगभग यही निष्कर्ष निकालते हैं। हमने पश्चिम की नक़ल करते हुए उसका आवरण सनातन बनाने का प्रयास किया है। अगर पुरानी दुनिया से हमें आगामी दुनिया में आना ही है  तो हमारे स्वप्न, हमारे आग्रह, हमारी कामनाएँ भिन्न होंगी। पुराने से हमारा तात्पर्य यह नहीं है कि हम लालटेन की वापसी चाहते हैं।

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