समकालीन जनमत
कविता

कठिन भरपाइयों की कोशिश हैं अमर की कविताएँ

विनोद विट्ठल


मनुष्य ने सामुदायिकता और साझा करने के विरल मूल्यों से जो कुछ हासिल किया था उस सबको कोरोना-काल में बुरी तरह से खो दिया है । पिछले पाँच हज़ार साल के उल्लेखनीय विकास के माइल स्टोन धराशाई हो गए हैं ।

जिस दुनिया ने आविष्कारों को पूरी उदारता के साथ साझा करते हुए एक साझा दुनिया बनाई थी वह अचानक वाइपआउट होती-सी लग रही है । कोरोना को लेकर कोई वैश्विक और साझा प्रयास नहीं दिख रहा है ।ऐसा लग रहा है जैसे दुनिया नेतृत्वविहीन हो गई है । न अमेरिका लीड कर पा रहा है और न ही रूस । चीन तो अभियुक्त बना खड़ा है ।

इस बीमारी ने आदमी और समुदायों को ही नहीं बल्कि देशों तक को अकेला कर दिया है । सभी देश अकेले जूझ रहे हैं । ऐसी महामारी में जो ग्लोबल मैनेजमेंट होना चाहिए था वो नहीं दिख रहा है ।

अपनी सीमाओं को सील करके घर में बैठने और दूरी बना लेने का मूल्य मुल्कों से लेकर व्यक्तियों तक में दिखाई दे रहा है । अपने देश में जिस तरह का रिवर्स-माईग्रेशन दिखा वह शर्मसार करने वाला था ।

जिन पीढ़ियों ने विभाजन का विस्थापन नहीं देखा उन्होंने कोरोना के विस्थापन से सीधा अनुभव लिया । अश्लीलता तो इतनी तक रही कि एक बड़ा वर्ग पैनिक बाइंग करने उतर गया तो दूसरे वर्ग ने मास्क समेत दूसरी कई चीज़ों की कालाबाज़ारी भी शुरू कर दी ।

जिस विकास का हल्ला पिछले छः साल से सुन रहे थे उसको भी पूरी तरह नंगा देख लिया । तमाम पोलें खुल गई । हक़ीक़त के हमाम में सत्ता, व्यवस्था और समाज सभी कुछ नंगे हो गए । देश तक हो गए । तमाम अंतरराष्ट्रीय मंच और मोर्चे अप्रासंगिक हो कर निराश कर गए । जो साझा रणनीति और सहकार होना चाहिए था वो ग़ायब ही है ।

कुल मिलाकर घनघोर अंधकार है । लेकिन ऐसे अंधेरे समय में ही कलाओं की सर्वाधिक ज़रूरत होती है । कितना सुखद है यह कि इस अंधेरे समय में मैं कविता के बेहद संभावनशील हस्ताक्षर को आपके बीच रख रहा हूँ । ये हैं युवा कवि – अमर दलपुरा ।

युवा और ताज़ा कवि अमर दलपुरा की कविताओं में सत्ता के प्रतीकीकरण से लेकर शोषण की उपमाएँ बेहद असरदार हैं । लगता है जैसे अमर गाँव की कविता को हकालते हुए वापस ले आएँ हैं जैसे कोई चरवाहा अपनी खोई भेड़ को ले आता है या फिर मनुष्य की संचित स्मृति से रची कोई आदिवासी लड़की हज़ारों साल पुराने पानी की पख़ाल को उठाकर ले आए और गुम हो चुकी किसी भाषा में उसके बारे में आपको बताना शुरू कर दे ।

इस दौर में कई कवि जिस तरह की फ़ैशनेबल कविताएँ लिख रहे हैं उस चकाचौंध से अमर की कविता दूर है । वे अपने जीवन के सादेपन और सादेपन के परिवेश को उसके अपने जटिल यथार्थ के साथ लिख रहे हैं ।

पटवारी शीर्षक की कविता हमारे उस छूटे हुए ग्रामीण परिवेश और उसकी छोटी बड़ी क्रूरताओं बारे में परिचित करवाती है जिससे एक बड़ा वर्ग और आबादी अपरिचित है । शोषण की उपमाएँ ईजाद करते हुए अमर लोकस्वीकृत न्यू-नॉर्मल को जिन शब्दों में रखते हैं वह कमाल है :

सरकार का पटवारी गाँव आता
खीर-पुए खाता
अनपढ़ किसानों की ज़मीनों को
अपने थैले में रखे होने की धमकियाँ देता
जैसे की उसने वश में कर लिया हो
गाँव का सारा भूगोल !

इस कविता को अमर बूँद से समुद्र उस समय बना लेते हैं जब वे लिखते हैं :
बेटा, सौ रुपए के नोट को / दो आने की चीज़ के लिए खुल्ला महीन करवाते / उस सौ रुपए के नोट को / ज़मीन बचाने के एवज़ में / ले गया पटवारी ।

अमर कम शब्दों के कवि हैं । वे इतनी किफ़ायत से शब्दों का इस्तेमाल करते हैं कि लगता है एक बड़ी तमीज़ जिसे साधने में कवियों को बीसियों साल लग जाते हैं, अमर ने शुरू में ही साध ली है । इसीलिए जब वे लिखते हैं :
प्रेम एकनिष्ठ होता है
पीड़ाएँ बहुवचन होती हैं ।

तब पाठक इन दो पंक्तियों के बीच चलने वाले किसी सिनेमा को महसूस करता है और अपनी दुनिया में खो जाता है । लिखे के बाहर ले जाकर पाठक को अपनी दुनिया में गुम कर लेना ही तो कविता की ताक़त है । अमर प्रेम को इतना सघन लिखते हैं उनके बराबर का उदाहरण आज की पीढ़ी में नहीं दिखता है बावजूद इस तथ्य के कि सबसे ज़्यादा प्रेम कविताएं लिखी जा रही हैं । बानगी देखें :
प्रेम इस तरह होता है
जैसे वाक्य को उलटा पढ़ा जाता है ।
इतना ही नहीं वे प्रेम को सीधे लोकशाही के विमर्शों तक ले जाते हैं :
प्रेमी उसी तरह मरते हैं
जैसे सवाल, उत्तरों की उम्मीद में
रोज़ मरते हैं ।
यानी अमर के पास प्रेम ही नहीं, एक सुचिंतित व्यवस्था-दर्शन भी है जो किसी भी कवि को उसके समकाल से जोड़ता है ।

पुरखों की आस्था शीर्षक की कविता में अमर एक बार फिर अपने तरीक़े से समझाते हैं कि मनुष्य प्रकृति के साथ के अपने रिश्ते को सिरे से समझे और संशोधन करे । हमने पानी के अर्थ में पानी को
हवा के अर्थ में हवा को नहीं समझा
हमारे पूर्वजों की आस्था पेड़ों में थी
वे नहीं जानते थे ईश्वरों को
लेकिन वे जानते थे हवा और पानी को
इसलिए बाबा पेड़ लगाते
दादी पीपल पूजती रही !

अनुवाद कविता में अमर लिखते हैं :
प्रेम हमेशा मौन का अनुवाद करता है
जैसे आँख का अनुवाद आँख करती है
स्पर्श का अनुवाद स्पर्श करता है ।
एक आदिवासी लड़की
पानी, पेड़ और जंगल की भाषा में
स्पर्श, गंध और फूल का अनुवाद करती है ।

ये अनुवाद ही तो गुम हुआ है विकास के नाम पर मुनाफ़े की आँधी में जिसकी भरपाई दिन-ब-दिन नामुमकिन सी लग रही है  लेकिन कठिन भरपाइयों की कोशिशों या उससे पैदा बेचैनियों की तरफ़ इशारे का नाम ही तो कविता है ।

गाँव केवल अमर की पृष्ठभूमि नहीं है बल्कि लोक के शब्द, प्रतीक और परम्पराएँ भी उनमें शामिल हैं । यहाँ कहना चाहूँगा देशज शब्दों का इस्तेमाल अमर पूरे संयम और सादगी से करते हैं । इनके देशज शब्द न डराते हैं और न ही किसी अर्थ को खोजने की विवशता में धकेलते हैं । राजस्थान के कई लेखक जिस तरह से फ़ैशनेबल होने की होड़ में देशज शब्दों का इस्तेमाल करते हैं उससे अमर बचे हुए हैं ।

जन्मदिन और याद  जैसी कविताएँ पाठक की स्मृति में बरसों हरी रहेंगी । बहनों के गीत  कविता हिंदी पट्टी की महिला-विमर्शकारों के लिए एक प्रतिमान की तरह रहेगी तो फ़ोरो और गोरों जैसी कविता उसे हमेशा ऊँचा करती रहेगी । स्त्री-विमर्श का अमर का मुहावरा इतना कोरा है कि काजल आँजने का मन करता है कि नज़र ना लगे ।

प्रतीक, भाषा और उपमाओं के नएपन के साथ उम्मीद जगाती कविताएँ आज आपके सामने हैं। अमर उस राजस्थान से आते हैं जहाँ इस समय सवाईसिंह शेखावत और विनोद पदरज कविता-परम्परा के तौर पर लिख रहे हैं । ये इन्हें विस्तार देते हैं । अमर भाषा और कविता दोनों को समृद्ध करेंगे , यही उम्मीद है ।

 

अमर दलपुरा की कविताएँ

 

1. पटवारी

सरकार का पटवारी गाँव आता
खीर-पुएँ खाता,
अनपढ़ किसानों की ज़मीनों को
अपने थैले में रखे होने की धमकियाँ देता
जैसे कि उसने वश में कर लिया हो
गाँव का सारा भूगोल।

पिताजी अक्सर कहा करते थे,
तू पटवारी बन जाता तो, अच्छा होता
बची रहती हमारी पुश्तैनी ज़मीन
बची रहती हमारे पुरखों की लाज।

बेटा, सौ रुपये के नोट को
दो आने की चीज़ के लिए खुल्ला नहीं करवाते।
उस सौ रुपये के नोट को
ज़मीन बचाने के एवज़ में
ले गया पटवारी।
इस बचाने के चक्कर में,
खो दिया हमने सब कुछ
बचने के नाम पर बचे रह गये है सिर्फ़ आँसू
जिनसे भीगती रहती है।
हमारी आत्मा की ज़मीन।

2. प्रेम एकनिष्ठ होता है, पीड़ाएँ बहुवचन होती है

प्रेम एकनिष्ठ होता है।
पीड़ाएँ बहुवचन होती हैं।

हल्का-सा स्पर्श
छूने की परिभाषा को बदल जाता है।
प्रेम की भाषा नहीं होती
इज़हार के शब्द नहीं होते हैं।
प्रेम इस तरह होता है।
जैसे वाक्य को उल्टा पढ़ा जाता है।

दुख की रेखाएँ
होठों पर उगकर
हाथ ही हाथ में हरी हो जाती हैं।

चूमने की इच्छा
होठों से रिसकर
आत्मा में बहती रहती है।

नींद में आँखें सोती हैं।
हदय रंगीन सपनों की
चौकीदारी करता है।

बात इस तरह करते हैं।
जैसे वो कविता लिखते हैं।
आवाज़ों का हुनर, अर्थ को पता है।
मौन की पीड़ा, शब्द जानते हैं।

तुम बोलते क्यों नहीं हो?
तुम सुनती क्यों नहीं हो?
याद जाती क्यों नहीं है?

प्रेमी उसी तरह मरते हैं।
जैसे सवाल, उत्तरों की उम्मीद में
रोज़ मरते हैं!

3. पुरखों की आस्था

हम ने पानी के अर्थ में पानी को,
हवा के अर्थ में हवा को नहीं समझा
हमारे पूर्वजों की आस्था पेड़ों में थी
वे नहीं जानते थे ईश्वरों को
लेकिन जानते थे हवा और पानी को
इसलिए बाबा पेड़ लगाते
दादी पीपल पूजती रही

हम ने मृत्यु के अर्थ में मृत्यु को,
जीवन के अर्थ में जीवन को नहीं समझा
हमारे पूर्वजों की आस्था पंछियों में थी
वे नहीं जानते थे हत्या को
लेकिन जानते थे उन्मुक्त उड़ानों को
इसलिए पिता अन्न उगाते रहे
माँ दाना डालती रही

हम ने कविता के अर्थ में कविता को,
हम ने गीतों के अर्थ में गीतों को नहीं समझा
‘मैंने बाग लगायो तब नैई आयो रसिया
मैंने ताल खुदायो तब नैई आयो रसिया”
हमारे पुरखों की आस्था प्रेम में थी
इसलिए वे एक-दूसरे के लिए
पेड़ और पानी का जिक्र करते रहे

इस कविता में “मैंने बाग लगायो” पूर्वी राजस्थान में प्रचलित एक लोकगीत की पंक्ति है.

4. अनुवाद

प्रेम हमेशा मौन का अनुवाद करता है।
जैसे आँख का अनुवाद आँख करती है।
स्पर्श का अनुवाद स्पर्श करता है।

एक आदिवासी लड़की
पानी, पेड़ और जंगल की भाषा में
स्पर्श, गंध और फूल का अनुवाद करती है।

शब्दों के घिनोने चरित्र को
इस तरह घूरती है।
जैसे उसकी भाषा की स्लेट
और भी काली हो गई है।

दुनिया के लिखे गए शब्दों को
सैन्धव लिपि में चुनौती देती है।
मुझे पढ़ो और इस तरह समझो
जैसे पीपल के नीचे बुद्ध
मौन की भाषा में
प्रेम का अनुवाद करता रहा…

 

5. ओढ़नी के फूल

साँस में साँस थी उसकी
इसी ऊर्जा से जीवन चलता रहा
वो नींद और रात को मुलायम बनाकर
बेतरतीब सपनों की सिलाई करती रही
मैं उसकी ओढ़नी के फूलों में
इस तरह लिपटा रहा
जैसे अधखिले फूल पर ओस सोयी है।

हाथ में हाथ था उसका
इसी विश्वास पर पैर चलते रहे।
एक पल तुम जियो
एक पल मैं जीती हूँ।
दो पल की जिन्दगी को साथ जीते हुए
दिन-रात कटते रहे…

 

6. मैं नही चाहता…

मैं नहीं चाहता
घर से निकलूँ
और दुनिया के तमाम रास्तों पर
बंदूकों का पहरा हो।

मैं नहीं चाहता
सूरज निकलते ही दुनिया के शोर में
चिड़ियों की चहक मर जाए।

मैं चाहता हूँ कि
सभी पक्षी
सुबह का स्वागत करे।
औरतें घर-आँगन झाड़ू मारती हुई।
धरती के चेहरे को साफ करती है।

सबसे रोशनी भरी सुबह वह होती है।
जब सूरज किताबों में उगता है।

सबसे भरोसेमंद हाथ वे होते हैं।
जिसकी अँगुली पकड़कर बच्चे
चौराहें पार करते हैं।

 

7. चाँद

शाम के झुरमुट में
पहाड़ की पीठ को चूमता हुआ सूरज
चले जाता है धरती की नींद में

वो आती है।
हरे-भरे खेतों से
जैसे पीली-पीली लुगड़ी से
निकलता है चाँद

मंदरा-मंदरा काज़ल
साँझ को बेचैन करता है।

शब्दहीन मिलन के स्वर में
चाँद की पीठ पर
झरते हैं बबूल के पीले-पीले फूल

वह दुप्पटे की छींट में
छुपा लेती है प्रेम को!

 

8. शांति का उच्चारण

फौजियों के कीलदार बूटों की धुन
दिन-रात शांति मंत्र का जाप करती है।
खिड़की, दीवार और चौराहों से
बच्चे बूढ़े और औरतों के दिलो से
जब भी आवाज़ आती है।
तब एके-47 की नाली से निकलता है।
शांति-शांति का उच्चारण!

जिन जगहों पर फ़ौज ज्यादा होती है।
हमेशा शांतिनुमा भय बना रहता है।
इतिहास के सबसे डरावने चौराहे वे होते हैं।
जहाँ सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम होते हैं।

 

9. जन्मदिन

जुलाई में होती है बारिश
जुलाई में बोए हैं बीज
जुलाई में खुलते हैं स्कूल
जुलाई में जन्मे हैं गाँव के सारे लड़के
और कुछ लड़कियाँ भी जुलाई में जन्मी हैं।

जो स्कूल नहीं गये
उनके जन्म का अता-पता करना मुश्किल है।

फ़सल की तरह जन्मा हूँ मैं
सात भाई-बहनों को याद करते हुए कहते हैं पिता
मेरे जन्म की तारीख़
ज्वार-बाजरा और सरसो के
आधार पर तय की गयी।

अगले संवत में जोर की सरसों हुई
पिछले संवत में तालाब फूटा था
माट्साब, या छोरो तो अकाल की साल में पैदा हुआ
अब आप ही लिख दो तारीख़…

मौसम की तरह आया हूँ मैं
साढ़-जेठ-पौस के महिने को याद करती हुई कहती है माँ
भुरया से दो साल छोटा, लोहड़ी से नौ महिनें बड़ा है तू

जन्म की उम्र सिर्फ मृत्यु जानती है।
मृत्यु का अर्थ सिर्फ़ जीवन समझता है।
मैं जन्मदिन को कैसे जानता?

10. बहनों के गीत

माँ के गीतों में गंगा बहती है।
“गंगाजी के घाट पै.
एक कन्या जन्मी, हो राम…
कन्या जन्मी मौज की
एक भाई भी जन्मा, हो राम..”

बहन के गीतों में भाई रहता है।
वह फाल्गुन के महीने में,
होली के खेलों में
अपनी सहेलियों के साथ गाया करती है
भाई की ख़ुशी के लिए जीवन के गीत

जैसे कि भाई की नौकरी
उसकी ही तरक्की है।
भाई का संपना, उसका एकमात्र सपना है।
परिचय के इतिहास में
खुद को इस तरह खत्म कर लेती है।
मैं उसकी बहन हूँ, बेटी हूँ, पत्नी हूँ
और उस बेटे की माँ हूँ
जो इस साल कलेक्टर बना है।

भाई का कोई गीत नहीं होता
बहनों का कोई घर नहीं होता
जैसे एक भाई, बहन की विदाई के समय,
दहेज का दुखड़ा रो रहा था।

 

11. याद

हँसी और रुलाई
इतनी ही पास हैं।
जितनी होठ की दूरी आँख से है।

हम दोनों साथ रहते हैं।
याद करने के लिए दूरी की ज़रूरत है।

अक्सर चाय में चीनी डालना भूल जाती है।
किसी को याद करने का नायाब तरीका है।

याद और रात सगी बहने हैं।
जब भी आती है साथ आती है।

12. मैं चलना सीख रही थी

मैं चलना सीख रही थी
जैसे चाँद चलता है
बादल के साथ

मैं चलना चाहती थी
जैसे परछाई चलती है
पानी के साथ

एक स्पर्श
कब मेरी देह से मर गया
जब ब्याह दी गयी अनचाहे लड़के साथ

अब एक बारिश
जो मेरी आँखों में है
जीवन भर साथ चलती है

और दुःख
इतने गहरे और लाल हो चुके है
अब इनसे रोटियाँ सेकती हूँ दिन-रात

 

13. फोरो और गोरो

बच्चे परछाई देखकर अनुमान लगाते है समय का
आकाश को नीला करते हुए
आसमानी बुरसैट में स्कूल जाते है
जो स्कूल नही जा पाते
वो देखते है स्कूल जाते हुए बच्चों को

बहुत-सी माँए स्कूल नही गयी
अपनी लड़की को स्कूल जाते देखकर
जमाना बदलने की बात कहती है
वो भूल जाती है अपने दुःखो को
अपनी इच्छाओं को बेटी की खुशी में
इस तरह शामिल करती है
जैसे दुःख और इच्छा में कोई अंतर नही होता!

फोरो और गोरो दो बहनें है
तैयार करती है छोटे भाई को
निजी स्कूल के लिए
फिर दो चोटी बनाकर
दोनों चली जाती है सरकारी स्कूल में!
और बात इस तरह करती है
जैसे भाई की किताब में लिखा है उनका भविष्य!

 

14. किरण की तरह आती है औरत

घर के बाहर
हरिजन बस्ती से
किरण की तरह
आती है औरत
मारती है झाड़ू
गाँव को रोशन करती है
झाड़ू और शब्दों से
सबसे करती है राम-राम
बेटा राम-राम
भाई राम-राम
बहन राम-राम
भाया राम-राम .

तब सोचता हूँ
ये राम कौन है?
क्या इसका बेटा है?
जो करती है इतना प्रेम!

वो बासी रोटी की खातिर
झूठन की खातिर
मरे हुए पशुओं की खाल की खातिर
मारती है झाड़ू

बहुत दिनों तक वो नही आयी
मैंने सोचा कि राम नही आया
उसकी बहू आती
चुपचाप झाड़ू मारती
बासी रोटी लेकर चली जाती

एक दिन बिना झाड़ू के
सूरज लाल(रक्त) होकर उगा
घर की भीत पर.

अब बरसों गुजर गए
राम को आए हुए
अचानक उसका बेटा आया
दस हजार की खातिर
बोला नुक्ता करना है
जीजी मर गयी!
मैंने सोचा की राम मर गया!
जो जीवनभर घुस न सकी
राम के मंदिर में,
वो चली गयी राम के पास.

15. जीवन का दृश्य

गाँव में चाँद
नीम के ऊपर से
पीपल के पत्ते जैसा
पहाड़ो के पार चमकता है
बच्चें गेंद जैसी आँखों से
चाँद का गोल होना देखते है
और दादी की कहानी में
एक बुढ़िया चाँद पर सूत कातती है

गाँव की औरतों को चाँद के
हज़ारो गीत याद है
जवान लड़के प्रेमिकाओं को
“चंदा” कहते है
हालांकि वे कवि नही थे
कवियों के पुराने उपमानों को दोहराते.
खुले आसमान के नीचे
चाँद को प्रेम की कहानियाँ सुनाते

अब वे पूर्णतयः खाली और बेरोज़गार
नौकरी और काम की तलाश में
शहरों की ओर दौड़े

वहाँ उनको न काम मिला, न नौकरी
शहर के जीवन से इतने ऊब चुके थे
न कोई उनको आवाज देता
न कोई सुनता
न कोई रुकता
न कोई बात करता
न चन्दा थी , न चाँद

वे जीवन और ईश्वर से
इतने तंग आ चुके थे
आत्महत्या के लिए
कुतुबमीनार जैसी इमारतों पर चढ़ गए
अचानक दिखता है “चन्दा”
और याद आता है
चाँद के नीचे बैठा सारा गाँव……………!

वे जीवन के दृश्य को देखकर
फिर-फिर जीने लगते है.

 

 

कवि अमर दलपुरा 2 जुलाई 85 में जन्में, इनकी स्कूली शिक्षा इनके अपने पैतृक गाँव दलपुरा, करौली में हुई। बी ए और एम ए की पढ़ाई राजस्थान विश्वविद्यालय से हुई। कुछ समय CRPF में नौकरी के बाद फ़िलहाल अमर बाँसवाड़ा जिले के राजकीय विद्यालय में शिक्षक हैं। कुछ दैनिक समाचार पत्रों के अतिरिक्त वेबसाइट और ब्लॉग आदि में कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। सम्पर्क: 9413749173
मेल – amardalpura@gmail.com

 

टिप्पणीकार विनोद विट्ठल ,अंग्रेज़ी की पत्रकारिता छोड़ पिछले एक दशक से जेएसडबल्यू एनर्जी के कॉरपोरेट अफ़ेयर्स विभाग में सहायक महाप्रबंधक । अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में लेखन । साहित्य के अलावा समाज विज्ञान, संस्कृति, सिनेमा और मीडिया अध्ययन में गहरी रुचि । “भेड़, ऊन और आदमी की सर्दी का गणित”,“लोकशाही का अभिषेक”, “Consecration of Democracy” और “पृथ्वी पर दिखी पाती” समेत आधा दर्ज़न किताबें । 2018 में बनास जन द्वारा प्रकाशित “पृथ्वी पर दिखी पाती” के लिए युवा शिखर साहित्य सम्मान से समादृत । नौकरी के सिलसिले में इन दिनों हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में रहते हैं।
सम्पर्क: vinod.vithall@gmail.com
Mobile – 8094005345

 

 

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