पीयूष कुमार
आज गुलज़ार साहब की 88वीं सालगिरह है। गुलज़ार वे शायर, गीतकार, साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने कहन के तरीके से अदब की रवायतों, रूढ़ियों और कानून से जुदा अपनी विशिष्ट जगह बनाई है। गुलज़ार ने अपने कहन से हिन्दी और उर्दू को एक ही धारा में कर दिखाया है। उनके लफ़्ज़ों की बाजीगरी अद्भुत है। नए उपमानों, बिम्बों और प्रतीकों के साथ लफ़्ज़ों और जज्बातों का ऐसा शिल्प कि कविता हो, शायरी हो या गीत हो, जीवंत – दृश्य रूप में सामने आते हैं, किसी कहानी की तरह। देखें – ‘वो ख़त के पुर्जे उड़ा रहा था, हवाओं का रुख़ दिखा रहा था’। उनके लिखे में गीत और कविता एक साथ दिखाई देते हैं। उनका लिखा पढ़ा भी जा सकता है, और गाया भी जा सकता है। ठीक वैसे ही जैसे कोई चीज खाई और पी जा सकती हो। उनसे कोई भी सब्जेक्ट छूटा नहीं है। बच्चों की दुनिया में भी गुलज़ार के लफ्ज झूले और स्केटिंग की तरह मौजूद हैं। यह हम ‘लकड़ी की काठी…’ हो या ‘चड्ढी पहन के फूल खिला है…’ या फिर ‘सारे के सारे गामा को लेकर गाते चले…’ में देखते आ रहे हैं।
गुलज़ार की भाषा आम आदमी की, बोलचाल की है, शायद इसीलिये साहित्य के लिहाज से उनके अटपटे शब्द भी सहजता से जुबान पर चढ़ जाते हैं। ये गुलज़ार ही हैं जो ‘आँखों से महकती खुशबू’ निकाल सकते हैं, ‘सुरीली अँखियाँ’ भी हो सकती हैं, ‘नैनों में धुंआ’ चल सकता है। गुलज़ार ने व्याकरण को भी लांघा है और नये शब्द जमाने को दिए। ‘पानियों में बह रहे हैं कई किनारे टूटे हुए…’ में पानी का बहुवचन ‘पानियों’ इन्ही का बनाया हुआ है। शब्दों और अर्थों के विरोधाभास के तो माहिर खिलाड़ी हैं गुलज़ार। देखें – ‘दफ़्न कर दो हमें कि सांस मिले…नब्ज़ कुछ देर से जमीं सी है’। यहां दफ़्न करने पर सांस रुक नहीं रही बल्कि सांस मिल रही है। इसी तरह समकालीन वातावरण की और दिमागी कोलाहल पर इस से सटीक टिप्पणी नहीं हो सकती – ‘ गोली मार भेजे में… भेजा शोर करता है।’ अपने तमाम नज़्मों में गुलज़ार जितने आसान लफ्जों में बातें कहते हैं उतने ही गहरे उसके मायने हैं। यह हुनर गुलज़ार साहब को बहुत खूब आता है। बेहद आसान लफ्जों की कारीगरी और बुनावट से वे ऐसा मंजर पेश करते हैं मानो आग की लपटों में पानी लिख रहे हों। यहां देखें – ‘लबों से चूम लो मुझको, आंखों से थाम लो मुझको। तुम्हीं से जनमूं तो शायद मुझे पनाह मिले…’
गुलज़ार साहब भाषा के, कहन के डिक्टेटर हैं। जो कहा, वह नज्म हो गयी, कविता हो गयी। उनके शब्दों के चित्र दूसरे गीतकारों की तरह कल्पनाप्रधान नहीं है बल्कि वास्तविक अधिक हैं। ‘चल बैठें चर्च के पीछे…’ या ‘दिन भर खाली रिक्शे सा चलता है…’ में देखें, कितने वास्तविक चित्र हैं इंसानी जिंदगी के जो सहज ही घटते हैं। इसी तरह हुस्न और इश्क के अन्दरूनी और बाहरी बारीकियों को जिस एफर्टलेस तरीके से गुलज़ार साहब पकड़ते हैं, वह बेमिसाल है। यह ‘चुन्नी लेके सोती थी कमाल लगती थी…’ या ‘चुपके से लग जा गले, रात की चादर तले..’ या ‘गीला मन बिस्तर के पास पड़ा है…’ या फिर ए अजनबी तू भी कभी आवाज दे कहीं से…’ में देख पाते हैं।
‘मोरा गोरा अंग लई ले … ‘ से फिल्मी गीतों की शुरुआत करने वाले गुलज़ार अभी तक अपनी अलहदा पेशकश से दुनिया को गुलज़ार कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा वही कोट किये जाते हैं। गुलज़ार साहब जब अपनी बात रखते हैं, जब अपनी नज़्म पढ़ते हैं या जिस अंदाज में बात कहते हैं, तब गहरी, खलिशभरी, पकी हुई, रवेदार और रेशेदार उनकी आवाज दिल को खुरचती हुई दिखाई पड़ती है। इस खुरचन में एक टीस है, कसक है। उनकी आवाज को मैं इसीलिए ‘दिलखरोंच आवाज’ कहता हूँ। अक्सर सोचता हूँ कि गुलज़ार को सम्पूरन सिंह जो कि उनका असल नाम है, कितना याद आता होगा। क्या कभी इन दोनों नामों वाले लोगों ने कभी आपस मे गुफ्तगू की होगी? इसी ख़याल से गुलज़ार साहब की 82 वीं सालगिरह पर मैंने उन्हीं के अंदाज़ में यह नज्म (उनसे माफी के साथ) लिखने की कोशिश कर उन्हें बधाई दी थी। यह नज्म मेरे कविता संग्रह ‘सेमरसोत में सांझ’ में सम्मिलित है।
ये जो बरसों से मेरे साथ
मुसलसल चला आ रहा है
और जो कुछ कहता भी नहीं
मेरा जुड़वाँ है
हजार राहें मुड़ के देखी
पर उसने कभी कोई सदा न दी
बस चलता चला आता है मेरे पीछे
आज इकासी बरसों बाद
उसने मुझे पहली बार
पुकारा-
‘सम्पूरन सिंह… इतनी तन्हाई है,
कोई बात तो कर यार…!’
(लेखक उच्च शिक्षा विभाग, छत्तीसगढ़ शासन में हिंदी के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)