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जाति, धर्म और व्यवस्था की कोख से पैदा हो रही मॉब लिंचिंग जैसी बर्बर संस्कृति

लखनऊ में हर हफ्ते रविवार को होने वाली ‘ शीरोज बतकही ’ की चौथी कड़ी में 15 जुलाई को मॉब लिंचिंग पर बातचीत हुई. बातचीत में शामिल लोगों ने जाति, धर्म और व्यवस्था की कोख से पैदा हो रही मॉब लिंचिंग जैसी आत्मघाती और बर्बर संस्कृति के उभार पर चिंता जाहिर की।

बातचीत की शुरुआत करते हुए अजय कुमार शर्मा ने विकृत समाज की ओर बढ़ने की वर्तमान रुझान पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि विगत कुछ सालों के अंदर ही ऐसी घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है। इन घटनाओं में गरीब समाज, जिनमें अधिकांश दलित और मुस्लिम हैं, शिकार हुए हैं। ऐसा लगता है कि मॉब लिंचिंग में शामिल लोग बेरोजगारी से कुंठित और आक्रोशित हैं। उनका आक्रोश, ताकतवर के प्रति नहीं निकल सकता। वे देख रहे हैं कि जो ताकतवर हैं, अपराधी हैं, वे ही सम्माननीय हैं। वे गरीबों के हाथ काटने या चौराहे पर मारने जैसी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं।

ज्योति राय ने मीडिया की भाषा पर सवाल उठाया। उन्होंने ‘ महा संग्राम ’, ‘ रौंदा ’, ‘ मुंहतोड़ जवाब ’  जैसे शब्दों के प्रयोग आक्रमकता को बढ़ावा देने बाला बताया।   उन्होंने कहा कि कहीं न कहीं न्यायिक प्रक्रिया कमजोर हुई है और ऐसे अपराधियों को लगने लगा है कि न्यायपालिका उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि उनके पीछे राजनीतिक बचाव कार्य करेगा। उन्होंने कहा कि मॉब लिंचिंग की संस्कृति एक प्रकार से सामाजिक मान्यता के तौर पर देखी जाने लगी है, यह चिंता का कारण है.

रिजवान खान ने कहा कि न्यायिक असफलता और राजनैतिक संरक्षण से हमारे अंदर निर्दयता का विस्फोट हुआ है । वैसे तो हमारे अंदर पहले से ही निर्दयता रही है। अब गरीब और कमजोर पर जुल्म करने की प्रवृत्ति का फैलाव इसलिए बढ़ा है कि न्यायिक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर रही है। उनका कहना था कि जब तक अत्याचारी आगे बढते जायेंगे और सीधा-सादा समाज पीछे ढकेला जायेगा, यह प्रवृति रुकेगी नहीं। जब हम लिंचिंग करने वालों को मिठाई खिलायेंगे तब समाज में हिंसा स्वीकार्य होती जायेगी।

प्रभात त्रिपाठी ने इस समस्या की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मॉब लिंचिंग में शामिल लोगों को शायद यह विश्वास हो चला है कि व्यवस्था उन्हें दंडित नहीं करेगी। वे केवल आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोगों को ही शिकार बना रहे हों, ऐसी बात नहीं है। वे मध्यम वर्ग को भी निशाने पर ले रहे हैं। अल्पसंख्यकों और दलितों को निशाने पर लेने के राजनीतिक कारण दिखते हैं जबकि बच्चा चोर का अफवाह फैलाने में व्हाट्सएपग्रुप यानी सोशल मीडिया का प्रयोग ज्यादा असरदार दिखता है। यद्यपि मॉब लिंचिंग की घटनाएं पहले भी होती थीं मगर अब समाज में एक वर्ग ऐसा पैदा हो गया है जो इसे बहुत खराब घटना नहीं मान रहा, चिंता का यह भी कारण है। समाज के मन में घृणा पैदा की जा रही है।

दिनेश तिवारी ने धर्म को मुख्य कारक मानते हुए कहा कि समाज इस कारण भी आक्रोशित होता जा रहा है कि अमुक ने हमारे धर्म के खिलाफ क्यों बोल दिया ? उन्होंने कहा कि मॉब लिंचिंग के दूसरे कारण भी हैं जैसे कि कभी-कभी क्षेत्र विशेष के लोगों पर भी भीड़ आक्रमण कर देती है। नार्थ -ईस्ट के लड़कों को बंगलोर में और हिन्दी भाषियों पर असम में किया गया आक्रमण इसका उदाहरण है। सोशल मीडिया पर भ्रामक, मनगढंत अफवाहों को फैलाने को भी एक महत्वपूर्ण कारण मानते हुए तिवारी ने कहा कि इससे समाज की मानसिकता हिंसक बन रही है।

नम्रता पाल ने भी सोशल मीडिया के दुरुपयोग की बात को उठाते हुए मानसिक सुधार पर जोर देने की आवश्यकता पर बल दिया।

प्रसिद्ध रंगकर्मी राजेश कुमार ने पेशवा काल में अछूतों के प्रति जारी तमाम अमानवीय निर्देशों को मॉब लिंचिंग जैसी विकृति बताया । उन्होंने कहा कि मॉब लिंचिंग में ज्यादातर स्त्री, दलित और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है। बिहार में अंखफोड़वा के आतंक की चर्चा करते हुए भी उन्होंने इस बात पर बल दिया कि उसमें ज्यादातर गरीबों, दलितों और पिछड़ों को निशाना बनाया गया था। उनका मानना था कि डायन बता कर मारी जाने वाली स्त्रियों में ज्यादतर आदिवासी और दलित वर्ग की महिलाएं रही हैं। अखबारों का नजरिया गरीब और दलित विरोधी रहा है। उन्होंने कहा कि जैसा अन्य देशों में काले और यहूदियों के प्रति अमानवीय व्यवहार किया गया है वैसा ही मॉब लिंचिंग जैसी हिंसक प्रवृतियों ने अपने यहां हाशिये के समाज के प्रति अमानवीय व्यवहार किया है।

आशा कुशवाहा ने सोशल मीडिया पर डाली जा रही फर्जी वीडियो और अफवाह फैलाने वाली खबरों को भड़काने वाला बताया और कहा कि इससे समाज का मस्तिष्क विकृत हो रहा है। समाज सही और गलत का फैसला करने की मानसिकता में नहीं है वह हिंसक होता जा रहा है।

प्रो. प्रमोद श्रीवास्तव ने मॉब लिंचिंग को दलित या मुस्लिम के प्रति हिंसा मानने से इनकार किया । उनका कहना था कि शिक्षा को योजनाबद्ध तरीके से खत्म किया गया है। आज व्यवस्था प्रभावी नहीं है। राज्य की जिम्मेदारी बनती थी कि वह मनुष्य के अंदर की हिंसा को रोके। जहां राज्य प्रभावी होता है वहां हिंसा नहीं फैलती है। राज्य प्रभावी नहीं होगा, तभी हिंसा फैलेगी। मनुष्य के अंदर की हिंसा अच्छे या बुरे, दोनों प्रकार के कारकों के लिए फूट सकती है। लिंचिंग करने वाले ज्यादातर बेरोजगार, अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे युवक हैं। बेरोजगारी ने उनके अंदर असुरक्षा का भाव पैदा किया है। वे हिंसक हो रहे हैं। हमारी व्यवस्था फेल हो रही है। प्रो. प्रमोद ने जाति और धर्म से अलग, इस समस्या को देखने की आवश्यकता पर बल दिया।

पूजा शुक्ला ने मॉब लिंचिंग को राजनीति से प्रेरित बताते हुए कहा कि जब हम खाप पंचायतों का महिमा मण्डन करेंगे तो जाहिर है समाज विकृत होगा। जब किसी जाति विशेष के खिलाफ हिंसा की जायेगी तो समाज में ऐसी घटनाएं बढ़ती जायेंगी। बतकही का संचालन सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने किया।

‘ शीरोज बतकही ’ के पहले दो आयोजन में आरक्षण पर और तीसरे आयोजन में  अंधविश्वास का फैलता जाल पर चर्चा हुई थी. यह आयोजन हर हफ्ते रविवार को लखनऊ के गोमती नगर में आम्बेडकर परिवर्तन स्थल के सामने स्थित शीरोज हैंगआउट में आयोजित किया जाता है.

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