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मीडिया और बाज़ार

कोरस के फेसबुक लाइव की शृंखला में बीते रविवार 4 अक्टूबर को स्वतंत्र पत्रकार नेहा दीक्षित से ‘मीडिया और बाज़ार ‘ जैसे महत्वपूर्ण विषय पर रुचि ने बातचीत की ।नेहा लगातार जनसरोकार से जुड़े मुद्दों पर पत्रकारिता कर रही हैं। इन्होंने पत्रकारिता में अपने कैरियर की शुरुआत तहलका और इंडिया टुडे जैसे न्यूज़ ऑर्गनाइजेशन्स से की और बाद में स्वतंत्र पत्रकारिता को अपने कैरियर के रूप में चुना । नेहा लगातार राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों पर लिखती आई हैं और अब तक कई सारे पुरस्कारों से भी नवाजी़ जा चुकी हैं। नेहा को ‘यंग जर्नलिस्ट अवॉर्ड ‘ ‘चमेली देवी जैन अवॉर्ड फॉर आउटस्टैंडिंग वूमेन जर्नलिस्ट’ और 2019 का सी पी जे ‘इंटरनेशनल प्रेस फ्रीडम अवार्ड’ मिल चुका है।

नेहा से पहला सवाल था कि महिला होने के नाते स्वतंत्र पत्रकारिता को चुनना कितना कठिनाई भरा और चुनौतीपूर्ण हो सकता है? आप स्वतंत्र पत्रकारिता करती हैं, तो आपका क्या अनुभव रहा है? इसका जवाब देते हुए नेहा कहती हैं कि लड़कियों को किसी भी कैरियर को चुनने के लिए लड़ना पड़ता है और मुझे भी शुरुआत में इस मुश्किल से गुजरना पड़ा क्योंकि मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से थी जहां कैरियर को लेकर ज्यादा जानकारियां नहीं थी । ऐसे में पत्रकारिकता को अपना कैरियर बनाना मेरे परिवार के लिए भी सहज नहीं था, लेकिन जब तहलका में मेरी नौकरी लगी तो घर पर भी इस चीज़ को लेकर स्वीकार्यता हो गई। इस दौर में बहुत सी बातें भी सुननी पड़ी और जब लड़कियों की खरीद फरोख्त पर मेरी रिपोर्ट्स छपी तो ये कहा गया कि इसे बाकी रिश्तेदार या घरवाले न देखें क्योंकि अच्छी लड़कियां ये सब नहीं करती, लेकिन दिल्ली में रहते हुए मुझे बहुत सारी महिलाओं का सपोर्ट मिला, उनसे अपने काम करते रहने की प्रेरणा मिली।

रुचि द्वारा पूछे गए दूसरे सवाल कि स्वतंत्र पत्रकारिता की क्या चुनौतियां हैं तथा स्वतंत्र पत्रकारिता में महिलाओं के आने का क्या प्रभाव पड़ा? का जवाब देते हुए नेहा कहती हैं कि मेनस्ट्रीम मीडिया में बाजार और राजनीति की सांठगांठ बनी हुई है । उनका काम प्रॉफिट बनाना हो गया है और जब प्रॉफिट बनाना ही प्राथमिकता हो तो सत्ता पर ज्यादा हमला नहीं किया जा सकता । जब मैं न्यूज़ ऑर्गेनाइजेशंस में काम करती थी तो वहां ब्रीफिंग सिखाई जाती थी कि हमें ऑडियंस कैसे बनाना है। यह कहा जाता था कि हमें शहरी अमीर लोगों के लिए न्यूज़ बनानी है जिससे उसी के अनुसार विज्ञापन मिल सके और प्रोडक्ट प्लेसमेंट हो सके। अगर आप मारुति के मजदूरों पर काम करेंगे तो वह रिपोर्ट नहीं दिखाई जाएगी क्योंकि मारुति से ही उन्हें विज्ञापन मिल रहे हैं। वह कहती हैं कि हर न्यूज़ चैनल ने अपना टारगेट ऑडिएंस आईडेंटिफाई किया होता है। किसी भी हाशिए पर पड़े समुदाय चाहे वह दलित हो, मजदूर हो, अल्पसंख्यक हो, किसान हो या महिला किसी की भी खबर इस रूप में अखबारों या न्यूज़ चैनलों में नहीं आ पाती । कहा जाता है कि हम पोस्ट ट्रुथ वर्ल्ड में रहते हैं जहां सच के आगे एक दुनिया है, जहां सच की कोई मान्यता नहीं, सच पुरानी बातें हो गई। इस दुनिया में सिर्फ एक ही चीज का महत्व रह गया है, वह है सबकी अपनी अपनी राय। हमें सिखाया जाता है कि एक पत्रकार के रूप में जब कभी भी कोई न्यूज़ दे रहे हैं तो वह तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए लेकिन आज इस तरह की पत्रकारिता खत्म हो गई है। अगर आप देखें न्यूज़ चैनल पर जिस तरह के डिबेट चलते हैं वे सिर्फ ओपिनियन बेस्ड ही होते हैं जहां तथ्य नदारद हैं। इस समय में ग्राउंड पर जाकर रिपोर्ट बनाने का सिलसिला ख़तम होता जा रहा है उसकी जगह पर स्टूडियो में बैठकर ऐसे लोगों से बहसें कराई जाती हैं जो कभी उस जगह पर गए नहीं।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहती हैं कि पिछले 15- 20 सालों में मीडिया में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढा़ है लेकिन निर्णय लेने की स्थिति में महिलाएं अब तक नहीं पहुंची हैं। ज्यादातर रिपोर्टिंग तो महिलाएं ही करती हैं लेकिन वे उन पदों से अभी दूर है जहां से किसी चैनल की नीतियाँ और नियम तय किए जाते हैं ।

नेहा  से अगला सवाल था कि आपने खोजी पत्रकारिता को नया तेवर दिया है, आप इसे कैसे कर पा रही हैं और आज इसकी कितनी जरूरत है? जिसका जवाब देते हुए नेहा कहती हैं कि बहुत छोटी-छोटी जगहों पर कुछ पत्रकार हैं जो खोजी पत्रकारिता कर रहे हैं और करना चाहते हैं लेकिन न्यूज़ ऑर्गेनाइजेशन से उन्हें उस तरह का सपोर्ट नहीं मिल पाता जिसकी वजह से बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। योगी सरकार के 6 महीने पूरे होते होते योगी ने अपनी उपलब्धि के रूप में बताया था कि हमारे राज में 1200 एनकाउंटर हुए, जिस पर मैंने एक रिपोर्ट तैयार की थी। एक साल के मैंने कुछ केसेस देखे कि पुलिस ने कितनों को एनकाउंटर में मारा है ,उनमें कुछ परिवारों से मै मिली भी। एनकाउंटर की ये खबरें लगातार अखबारों में आ रही थीं लेकिन ताज्जुब की बात है कि किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं की कि मरे कौन लोग हैं।इस बारे में वहां के लोकल पत्रकारों से बात करने पर पता चला कि इस बारे में छानबीन करने पर तुरंत लोकल पुलिस से दबाव बनाया जाने लगता है, धमकियां मिलने लगती हैं। इसके साथ ही इधर कुछ समय से पत्रकारों पर हमला बढ़ता जा रहा है। तो ऐसे माहौल में जब अपनी ज़िन्दगी का खतरा है और किसी प्रकार का सपोर्ट नहीं है, खोजी पत्रकारिता कर पाना लग्जरी जैसा ही है।

सोशल मीडिया के आने से मेन स्ट्रीम मीडिया पर पड़े प्रभाव को लेकर नेहा कहती हैं कि सोशल मीडिया के आने से अपनी बात रख पाना ज्यादा लोकतांत्रिक हो गया है और किसी मुद्दे के सोशल मीडिया पर वायरल होने के कारण मुख्य धारा की मीडिया उन मुद्दों को इग्नोर नहीं कर सकती। लेकिन सोशल मीडिया का स्वरूप भी अब तथ्यों की जगह राय देने वाला प्लेटफॉर्म ही अधिक हो गया है।
अगले सवाल क्या सोशल मीडिया को भी सत्ता और बाजार ने अपने हित में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है ?के जवाब में नेहा कहती हैं कि हां बिल्कुल ऐसा हो रहा है, जिस तरह से फेसबुक की हिस्ट्री रही है फेसबुक ने अलग-अलग चुनावों में सरकारों को लोगों का डाटा दिया है। दूसरी बात बड़ी-बड़ी कंपनियों जैसे फेसबुक और गूगल के हाथ में इतना नियंत्रण है कि वो लगातार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से नियंत्रित करते रहते हैं कि हम क्या देख रहे हैं और क्या नहीं । देश की सत्ता का एक ऑर्गेनाइज्ड आईटी सेल है और वे लोग बहुत ही ऑर्गेनाइज तरीके से काम करते हैं। यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि वहां लोगों को 7-8 हजार रु. तक की नौकरी पर रखा गया है जो दिन भर या तो ट्रोल करते हैं या अलग-अलग मैसेजेस बनाते हैं और चुनावों में इसका प्रयोग होता है। अभी बिहार का चुनाव आने वाला है और इसमें यह चीज खुद ही देखी जा सकती है।

बात को आगे बढ़ाते हुए नेहा ने किसी भी रपट के प्रकाशित होने में भाषा के सवाल पर अपनी बात रखी। वे कहती हैं कि अँग्रेजी में लिखी हुई रिपोर्ट की पठनीयता हिन्दी की अपेक्षा कम रहती है इसलिए अब मैं अपनी रिपोर्ट हिन्दी के पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश भी करती हूँ | । भारत जैसे देश में जहां साक्षरता बढ़ रही है लोग अपनी लोकल भाषाओं में पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं। बीबीसी ने अभी 7 नई भारतीय भाषाओं में अपना काम शुरू किया है क्योंकि लोकल भाषा में बात ज़मीन पर ज्यादा पहुंच पाती है।

नेहा जी से अगला सवाल था कि फेक न्यूज़ लोकतंत्र के लिए एक बड़े खतरे के रूप में सामने आया है और लोगों को भ्रमित कर रहा है, तो इसका मुकाबला किस तरह से किया जा सकता है? साथ ही फेक न्यूज और पेड न्यूज में किस तरह की समानता आप देखती हैं ? इसका जवाब देते हुए नेहा कहती हैं कि पेड न्यूज़ तो इस वक्त में एक मान्य फीचर बन गया है, जिसका जिक्र अखबार में इन्फोटेनमेंट एंड एडवर्टाइजमेंट फीचर लिखकर ऊपर दिया रहता है लेकिन ज्यादातर आम लोग इस पर ध्यान नहीं देते हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से भी पेड न्यूज़ चलाई जाती है जो बड़े-बड़े बुद्धिजीवी या सेलिब्रिटी होते हैं, जिनकी फॉलोइंग बहुत ज्यादा होती है उनमें भी कुछ ऐसे हैं जो पैसे लेकर ट्वीट करते हैं । इस पर ही कोबरापोस्ट की एक इन्वेस्टिगेशन थी जिसमें ज्यादातर लोग लगभग 96 से 97% लोग पैसे लेकर ट्वीट करने को तैयार हो गए थे। फेक न्यूज़ की एक बहुत बड़ी इंडस्ट्री है मगर फेक न्यूज़ से बचने का एक अच्छा तरीका है की उस पर 6 सवाल किए जाएं कब, कौन, कैसे, क्यों और कहां और किसके या किसका ।

अगला सवाल था कि देश में स्वतंत्र पत्रकारिता करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण हो गया है क्योंकि इसमें हत्या जेल FIR जैसी चीजों का सामना करना पड़ता है। देश में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए ना तो कोई मजबूत कानून है ना कोई ढांचा।फिर इन स्थितियों में स्वतंत्रता और निष्पक्षता के साथ क्या पत्रकारिता संभव है? पत्रकारों की सुरक्षा के लिए क्या किया जाना चाहिए? इसके जवाब में नेहा बताती हैं की लॉकडाउन के समय प्रधानमंत्री मोदी ने बड़े-बड़े मीडिया ऑर्गेनाइजेशंस से मीटिंग की थी और कहा था कि हम मीडिया ऑर्गेनाइजेशंस से चाहते हैं कि जो भी रिपोर्ट हो, वो देश के सकारात्मक पहलुओं को ही दिखाए और इस पर कई लोगों ने हामी भी भरी । जबकि यह मीडिया का काम नहीं है कि वह सरकार को सकारात्मक दिखाए। मीडिया का काम आइना दिखाना है। सत्ता के द्वारा ऐसा माहौल बनाना ही अपने आप में सेल्फ सेंसरशिप का माहौल बनाना है। यह एक तरीके का संदेश है कि अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो वह सरकार के विरोध में हैं। पिछले कुछ समय से पत्रकारों पर सरकार हमलावर रही है। उन पर क्रिमिनल केसेस लगाए जा रहे हैं, राजनीतिक संगठनों ने शारीरिक रूप से भी उन्हें चोट पहुंचाने की कोशिश की है। ऐसा नहीं है कि 2014 के पहले पत्रकारों पर केस नहीं लगते थे, मानहानि के केस आदि तब भी लगाए जाते थे। लेकिन 2014 के बाद ये नई चीज़ है कि पत्रकारों पर क्रिमिनल केसेस लगाए जा रहे हैं।

मुख्यधारा की मीडिया का मॉडल ऐसा हो गया है कि जगह जगह पर जो ब्यूरो होते थे वह बंद कर दिए गए हैं, उसकी जगह पर उन्होंने छोटे-छोटे जगहों में पत्रकारों को प्रति आर्टिकल, प्रति रिपोर्ट, प्रति बाइट के हिसाब से पैसे देना शुरू कर दिया है, जिसमें उन पत्रकारों को ना तो कोई तनख्वाह मिलती है, ना किसी तरीके का संस्थानिक सपोर्ट, ना इंश्योरेंस, किसी भी तरह की कोई सुविधा नहीं। रिपोर्टिंग करते हुए किसी भी तरीके का खतरा हुआ या उनकी जान को कोई नुकसान हुआ, इसकी भी कोई जवाबदेही नहीं होती। ऐसे बहुत सारे मामले पिछले कुछ सालों में देखे गए हैं जहां पत्रकारों को कोई समस्या होने पर मीडिया ऑर्गेनाइजेशंस ने अपने हाथ पीछे खींच लिए । निश्चित रूप से स्थितियां बहुत भयावह हैं और खोजी पत्रकारिता करना बहुत ही मुश्किल बन चुका है। लॉकडाउन के समय कम से कम 1000 पत्रकारों की नौकरी गई है । ऐसी खबरें भी आई हैं कि छत्तीसगढ़ में कुछ पत्रकारों के पास लॉकडाउन के वक्त खाने को भी नहीं था।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में महिलाओं की बढ़ती वर्चस्ववादी भूमिका पर अपनी बात रखते हुए नेहा कहती हैं कि महिलाओं का मुखर होना अच्छा है लेकिन ऐसा न हो कि सिर्फ मीडिया में उनका प्रतिनिधित्व ही बढ़े बल्कि इसके साथ ही पुरुष वर्चस्ववादी सोच भी ख़तम हो। उन्होंने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि जब मैं बैंगलोर में काम कर रही थी हमें कहा गया कि 35 साल का आदमी हमारा टारगेट ऑडिएंस होगा और हमें उसके लिए ही न्यूज़ बनानी होती थी।जब मैंने महिलाओं के व्यूअरशिप पर अपनी बात रखी तो एडिटर ने सबके सामने ये बात कही कि महिलाएं टीवी न्यूज़ नहीं देखती इसलिए हमें उनको ध्यान में रखकर न्यूज नहीं बनानी और हमारी महिला एंकर्स भी इसलिए हैं जिसे देखकर वो 35 साल का आदमी खुश हो। ऐसे में इस तरह का माहौल औरतों की बातों को ,उनके स्टैंड को जगह ही नहीं देता।

सोशल मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप के सवाल पर नेहा कहती हैं कि अभी तो फिलहाल ऐसा नहीं है लेकिन दिल्ली दंगों की जिस तरह से एकतरफा कार्यवाही चल रही है उसमें यह पता चल गया है कि हमारे व्हाट्सएप चैट के रिकॉर्ड्स सरकार के पास पहुंचते हैं, मतलब हमारी प्राइवेट बातचीत में पहले से भी उनकी दखलअंदाजी है । ऐसी भी खबरें आई है कि जो नए जिओ और गूगल के सांठगांठ से नए स्मार्टफोन बनेंगे उसमें पहले से ही सरकारी सॉफ्टवेयर होंगे, जिन्हें हटाया नहीं जा सकता। इसका मतलब ही है हमारी निजता पर हमला । आरोग्य सेतु ऐप को ही देख लें जो कोरोना के समय में लाई गई, उसके माध्यम से लोगों का व्यक्तिगत डेटा, लोकेशन सब लीक हो सकता है और सरकार उसे अपने पास एकत्रित करके किसी भी तरह इस्तेमाल कर सकती है। ऐसे में कह सकते हैं कि सेंसरशिप तो नहीं लेकिन इन माध्यमों का सरकार जितना दुरुपयोग कर सकती है, कर रही है।

बाजार और मीडिया के अंतर्संबंधों पर अपनी बात रखते हुए नेहा कहती हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं कि बाजार ने मीडिया को अपने कब्जे में कर लिया है। जैसे उदाहरण के लिए हम महिलाओं की ही बात करें तो ग्लोबली ये रिसर्च आई है कि मिलेनियल औरतें इंटरनेट का प्रयोग ज्यादा करती हैं और उन्हें कैरियर आधारित, कॉस्मेटिक या सकारात्मक स्टोरी ही ज्यादा पसंद आती है, उन्हें पॉलिटिकल, सोशल न्यूज़ से कोई लेना देना नहीं। इसकी न्यूज ऑर्गनाइजेशंस ने एक कैटेगरी ही बना दी है। बाजारीकरण इस काम को बहुत अलग अलग और रचनात्मक तरीकों से कर रहा है। ऐसे ही जब इसमें पॉलिटिकल पार्टियां भी शामिल हो जाती हैं तो समस्या बढ़ जाती है। हाल ही में हुए किसान आंदोलन को ही देख लीजिए, जब लाखों लाख किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे, इस बात को भी मुख्य धारा के किसी न्यूज चैनल ने महत्व नहीं दिया और किसी भी अखबार ने फ्रंट पेज पर इस खबर को जगह नहीं दी क्यूंकि इस खबर से उन्हें कोई प्रॉफिट नहीं होता और साथ ही ये सरकार के विरोध में जाता जो की मीडिया ऑर्गनाइजेशंस नहीं कर सकते।

नेहा जी ने जनता को भी जागरूक रहने और अपने खुद में भी बदलाव लाने का सुझाव दिया।उन्होंने कहा कि हम भी 2 मिनट में सब कुछ जान लेना चाहते हैं और ग्राउंड पर तथ्यों पर ध्यान नहीं देते। इसलिए हमें अपनी इस आदत को बदलने की जरूरत है और चीज़ों को जानने और सवाल करने की जरूरत है ।
नेहा जी वेब पोर्टल्स के बारे में कहती हैं कि शुरू में हमें इससे बहुत उम्मीदें थीं कि बड़े बड़े ऑर्गनाइजेशंस के काउंटर की तरह से ये काम करेंगी, कुछ हद तक ये हुआ भी लेकिन बहुत कुछ नहीं बदला। अब इसमें भी नंबर ऑफ क्लिक काउंट होते हैं और उसी हिसाब से रिपोर्ट तैयार की जाती है।
ट्रोलिंग को लेकर नेहा कहती हैं कि जो भी सत्ता की हिंदुत्ववादी सोच के खिलाफ लिखता है, उन सब को ट्रोल किया जाता है।सरकार इसका फायदा उठा रही जिससे जो लोग सत्ता के विरोध में बोलते, लिखते हों उन्हें मानसिक रूप से इतना परेशान कर दिया जाए कि सवाल उठाना ही बंद कर दें, डर जाएं, चुप हो जाएं। गौरी लंकेश की भी हत्या एक खास विचारधारा हिंदूवादी संगठन के लोगों ने की क्यूंकि वो जमीन पर काम कर रही थीं। उन्होंने कहा कि शुरू ने 2-3 साल मुझे भी बहुत मानसिक तनाव हुआ और काम करने में परेशानी हुई लेकिन अब किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं अपना काम कर रही हूं जिसे जो लिखना है, जो कहना है कहता रहे इसका मेरे काम पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

(प्रस्तुति: शिवानी)

इस बातचीत को यहाँ देख सुन सकते हैं।

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