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मार्क्स और हमारा समय

मार्क्स के द्विशतवार्षिकी के अवसर पर दिल्ली में भाकपा(माले) द्वारा आयोजित संगोष्ठी की रिपोर्ट

नई दिल्ली. 21 वीं सदी में हर गुज़रते हुए साल के साथ हम समूचे भूमंडल पर पूँजीवाद के आर्थिक संकट को और अधिक गहराते हुए और फासीवाद को उभरते हुए देख रहें हैं. एक तरफ इन परिस्थितियों के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी है वहीँ दूसरी तरफ इस साल पूरे विश्व में कार्ल मार्क्स को फिर से याद किये जाने को भी एक चलन के रूप में देखा जा सकता है.

ऐसे अनगिनत लेख प्रकाशित हुए हैं जिनमे न केवल कार्ल मार्क्स को उनकी 200 वीं वर्षगाँठ पर याद किया गया है बल्कि उनके द्वारा की गयी हमारे दौर के पूँजीवाद की आलोचना की प्रासंगिकता को भी रेखांकित किया गया है. उन्हें एक ऐसे दार्शनिक के तौर पर याद किया जा रहा है जिसे बार बार पढ़े जाने की ज़रुरत है. पर ज़्यादातर इस बात को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है कि मार्क्स ने अपनी ज़िन्दगी का अधिकांश समय ब्रिटेन के पुस्तकालयों में पूँजीवाद की वृहद् आलोचना तैयार करने में बिताया है.

मार्क्स मानते थे कि केवल इस आलोचना की समझ मात्र काफी नहीं है बल्कि क्रांतिकारी संघर्षों का संगठन करना भी आवश्यक है जिससे की पूँजीवाद को परास्त किया जा सके. संभवतः इसीलिए उन्होंने कहा कि “दार्शनिकों ने केवल दुनिया की व्याख्या की है, असल मुद्दा तो इसे बदलने का है.” कार्ल मार्क्स एक सच्चे क्रांतिकारी थे और उन्हें याद किये जाने का सही तरीका यही है कि समकालीन क्रांतिकारी राजनीति को उनके विचारों और पाठों के आधार पर आगे बढ़ाया जाये.

इसी परिप्रेक्ष्य में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने नयी दिल्ली स्थित उर्दू घर में 19 मई के दिन ‘ मार्क्स और हमारा समय ’ शीर्षक से एक आम सभा का आयोजन किया. छात्रों, श्रमिकों, बुद्धिजीवियों और नागरिकों से खचाखच भरे सभागार को राजनीति विज्ञानी प्रो. अचिन विनायक, जानी मानी अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक, प्रसिद्ध पत्रकार उर्मिलेश तथा भाकपा ( माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने संबोधित किया.

 

पहले वक्ता के रूप में प्रो.अचिन विनायक ने मार्क्स की विचारधारा के सबसे विशिष्ट और युगांतरकारी पहलुओं पर प्रकाश डाला. उन्होंने मार्क्स द्वारा प्रस्तुत पूंजीवाद की आलोचना के बुनियादी पहलुओं पर चर्चा करते हुए यह रेखांकित किया कि कैसे आज भी वे विभिन्न राजनीतिक और अकादमिक धाराओं को प्रभावित करते हैं. पूंजीवाद की यह मूलगामी आलोचना ही थी जिसने यह सुनिश्चित किया कि मार्क्सवादियों का निरपवाद रूप से समाजवादियों पर ज़बरदस्त असर रहा, न कि इसका उलटा.

उन्होंने स्पष्ट किया कि क्यों हमारे समय के बहुआयामी सामाजिक संघर्षों के दौर में मार्क्स का यह विचार आज भी सही है कि सिर्फ मजदूर वर्ग ही वास्तव में पूंजीवाद को धराशायी कर सकता है. यह विचार ही मार्क्स का सबसे महत्वपूर्ण योगदान था और इसीलिए वे क्रान्ति के दार्शनिक थे.

उर्मिलेश जी वे अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया कि भारत में मार्क्सवादियों ने इतिहासतः जाति और वर्ग के सवाल को एक साथ उठाने की तरफ अपेक्षित ध्यान नहीं दिया. यहाँ तक कि जातिव्यवस्था, ब्राह्मणवादी ज्ञान-परम्परा और संस्कृति की अम्बेडकर द्वारा की गयी मूल्यवान आलोचना भी उपेक्षित रही. उनके अनुसार भविष्य में भारत में मार्क्सवादी राजनीति की सफलता इन सवालों को पहचानने और हल करने पर निर्भर है.

प्रो. उत्सा पटनायक ने अपने भावपूर्ण भाषण में भारत में पूंजीवाद के औपनिवेशिक स्रोत और उसके प्रभावों की सारगर्भित व्याख्या प्रस्तुत की. उन्होंने पूंजी के पलायन जैसी अवधारणाओं पर किंचित विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए यह दिखलाया कि कैसे पूंजीवाद सदैव ही वैश्विक वर्चस्व वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था बन जाने के लिए प्रयासरत रहा और राजनीतिक विउपनिवेशीकरण के दौर के बाद भी इसी दिशा में उसकी कोशिशें बरकरार रहीं.

उन्होंने कहा कि अर्थशास्त्रियों में न केवल अतीत में और आज भी पहली दुनिया के देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों के संरचनागत आर्थिक शोषण की अवधारणात्मक समझदारी का अभाव रहा बल्कि वे उसका हिसाब किताब भी रखने में सफल नहीं हुए हैं. उन्होंने ‘पूंजी के आदिम संचय’ कही जानेवाली मार्क्स की धारणा पर चर्चा करते हुए कहा कि मार्क्स ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि पूंजी का ‘आदिम’ संचय उतना आदिम भी नहीं था, बल्कि पूंजीवाद के दैनंदिन क्रियाकलाप का वह आत्यंतिक हिस्सा था.

कामरेड दीपंकर भट्टाचार्य ने मार्क्स के देहांत के बाद लिखे एंगेल्स के भाषण, जिसमे उन्होंने मार्क्स को क्रांतिवादी बताया था, से अपनी बात की शुरुआत की. मार्क्स मौजूद सभी चीजों की निर्मम आलोचना के पक्ष में थे. निर्मम आलोचना भी ऐसी जो बिना आखिरी परिणाम की चिंता किए की जाये और अस्वीकार कर दिए जाने के भय से भी मुक्त हो. एक तरफ तो यह आलोचना स्थापित मान्यताओ और निहित हितों से टकराती है, इसी के साथ ही यह अनवरत आत्मआलोचना भी होती है. उन्होंने यह भी चर्चा की कि मार्क्स किस तरह से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के सपने देखने वाले पहले व्यक्तियों में से एक थे जैसा कि उनके 1853 के शुरुआती लेखों से दिखता है.

उन्होंने यह भी चर्चा की कि मार्क्स के अनुसार कैसे पूँजी ने सामाजिक शक्ति का प्रतिनिधितत्व किया और परिणामस्वरूप समाज का सर्वहाराकरण हुआ. और यहाँ तक कि अम्बेडकर ने भी कहा था कि जाति व्यवस्था श्रम का विभाजन नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है. इसलिए श्रमिकों को एकजुट करने का कार्य मार्क्स और अम्बेडकर दोनों की ही शिक्षा के केंद्र में है. कामरेड दीपंकर ने इस बात को भी रखा कि मार्क्सवादियों के लिए देश में बढ़ रहे फासीवादी ताकतों के खिलाफ न सिर्फ एकजुट होकर लड़ना जरुरी है बल्कि भारत को समाजवादी दिशा की तरफ ले जाना भी महत्वपूर्ण कार्य है.

हाल में हुए कर्नाटक और त्रिपुरा के चुनावों का उदहारण देते हुए उन्होंने कहा कि फासीवाद के खिलाफ लड़ाई को उदार बुर्जुआ पार्टियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता जिनके पास फासीवादी ताकतों को निर्णायक हार देने की कोई दृष्टि नहीं है.

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