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सिनेमा

आदिवासियों के स्वाभिमान की लड़ाई और सौंदर्य विधान की स्थापना का कलात्मक प्रयास है ‘जय भीम’

महेश कुमार

तमिल फिल्म ‘जय भीम’ जस्टिस चंद्रू के 1993 के एक केस पर आधारित है. यह फ़िल्म अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि, यथार्थपरक प्रस्तुति और अस्मितावादी सौंदर्य विधान के कारण सराही जा रही है. यह फ़िल्म असुरन और कर्णन श्रेणी की अगली सार्थक प्रस्तुति है.

                                             फ़िल्म अपने शीर्षक की वजह से भी चर्चा में है. इसमें वकील का राजनीतिक जीवन साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित है. परंतु, उनका पेशा वकालत है. अतः, लोकतांत्रिक संस्थान में काम करने के कारण उनको पद्धति भी लोकतांत्रिक चुनना था जिसके लिए बाबासाहेब एक अनिवार्य वैचारिक आधार बनते हैं. इसीलिए तो नायक कहता है कि ‘यहाँ गाँधी, नेहरू, सुभाष तो दिख रहे हैं लेकिन अंबडेकर को क्यों नहीं दिखाते हैं?’ यह संवाद इसी बात को केंद्र में लाता है कि भारत में वंचित समूह के न्याय की बात बिना अंबेडकर के पूर्ण नहीं हो सकती है. इसलिए इस फ़िल्म का शीर्षक ‘जय भीम’ रखा गया है. दरअसल यह फ़िल्म वामपंथ और अम्बेडकरवाद के बीच समन्वय स्थापित करने की कोशिश करती हुई दिखती है. दोनों ही विचारधारा अपने मूल स्वभाव में वंचितों की आवाज़ उठाती रही है. दोनों विचारधारा अपनी अलग वैचारिक पद्धति के बावजूद लोकतांत्रिक ढाँचे में न्याय के लिए एक साथ हों तो बड़ा बदलाव आ सकता है.

  फ़िल्म की कहानी जनजातियों (होना तो आदिवासी चाहिए था) के साथ होनेवाले भेदभाव, झूठे केस, चोरी के नाम पर गिरफ्तारी और पुलिसिया बर्बरता की है. तमिलनाडु में जो काम इरुला आदिवासी का है वही काम बिहार में मुसहरों का है. चूहा पकड़ना, साँप पकड़ना और मजदूरी करना यही मुख्य काम है. इरुला लोग अपने औषधीय ज्ञान के लिए भी प्रसिद्ध हैं. एक दृश्य में सेंगोनि को दिखाया भी गया है कि डेमोंस्ट्रेशन विधि से बच्चों को साँप के जहर से बचाने वाले पौधों के बारे में बता रही है. लेकिन उनके इस कौशल की कोई कद्र नहीं है.

 जिस तरह इरुला तमिलनाडु के मूल निवासी हैं ठीक उसी तरह बिहार के माँझी, भुइँया, मुसहर यहाँ के मूल निवासी हैं. एक का मूल द्रविड़ियन है दूसरे का कोल है (शरत् चंद्र रॉय की किताब ‘द मुंडाज एंड दियर कंट्री). ये समुदाय अपनी ही जमीन पर पट्टे के लिए संघर्षरत हैं. बिहार में माँझी की सबसे ज्यादा जनसंख्या गया जिला में है. लेकिन इनके पास जमीन न के बराबर है. इसलिए फ़िल्म का एक मुद्दा जमीन का पट्टा भी है. यही कारण है कि चंद्रू सेंगोनि के लिए पट्टे की माँग करता है, क्योंकि इसके बिना आवासीय, आधार कार्ड और नागरिकता के अन्य दस्तावेज पाना मुश्किल है. जमीन ग्रामीण और शहरी दोनों समाज में प्रतिष्ठा और स्थायित्व का मुख्य स्रोत है. याद कीजिए फ़िल्म का संवाद जब  एक अफ़सर कहता है ‘तुम ट्राइब को जाति प्रमाणपत्र से क्या मतलब है? अब तुमलोगों का भी प्रमाणपत्र बनाना पड़ेगा. जाओ जंगल में रहो.’ यह केवल एक व्यक्ति की मंशा नहीं है बल्कि मुख्यधारा के राजनीतिक कपट का प्रमुख स्वर ही यही है.

                                      फ़िल्म में एक संवाद कई पात्रों ने कहा है कि ‘इनकी जाति के लोग हमेशा से चोरी और अपराध करते रहे हैं.’ यह प्रेरित है अंग्रेजों के बनाए क्रिमिनल एक्ट 1871ई० से जिसे 1952ई० में खत्म कर दिया गया है. इसके बावजूद ऐसे आदिवासी समूहों को आज भी नफरत और घृणा से देखा जाता है. शिरीष खरे ने अपनी किताब ‘एक देश बारह दुनिया’ में महाराष्ट्र के पारधी समुदाय के इस अनुभव की बेजोड़ रिपोर्टिंग की है. फ़िल्म में एक इरुला लड़का कहता है कि उसने स्कूल इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उसे लोग चोर समझते हैं. इस तरह की घृणा से हर दलित और आदिवासी समूह गुजरता है. 2015ई० में जब मैं ‘शिक्षा और समाज’ पर एक असाइनमेंट कर रहा था तो गया के भीमनगर के बच्चों ने बताया कि उनलोगों ने स्कूल इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उनकी जाति को शिक्षक गाली देते थे, उन्हें अलग बैठने को कहा जाता था. फ़िल्म संकेत में ही सही लेकिन इस मुद्दे को शिक्षा और समाज के दृष्टिकोण से बहुत मजबूत तरीके से रखती है.

समीक्षकों ने इस फ़िल्म को न्याय की लड़ाई के रूप में देखने की कोशिश की है. लेकिन यह फ़िल्म उससे आगे बढ़कर ‘मानव गरिमा’ की लड़ाई को प्रस्तुत करती है. बल्कि इस फ़िल्म का मुख्य मुद्दा ही खोई हुई मानवीय गरिमा को वापस पाना है. लॉकअप में हत्या के पहले राजकन्नू कहता है कि ‘मैं चोर नहीं हूँ, मैंने चोरी नहीं की है.’ सेंगोनि भी अधिकारी से यही कहती है कि ‘पैसा लेकर केस वापस ले लूँगी तो मेरे स्वाभिमान का क्या होगा!’ उनके समुदाय पर जो अपराधी और चोर होने का धब्बा लगा है उससे मुक्ति की इच्छा इतनी प्रबल है कि इतनी बर्बरता के बाद भी वह आरोप स्वीकार नहीं करता है. समीक्षकों ने इस पक्ष को तो नजरअंदाज किया ही साथ में सेंगोनि के संघर्ष और उसकी प्रतिबद्धता को भी नहीं विश्लेषित किया. यह न्याय और मानवीय गरिमा की लड़ाई वहीं दम तोड़ देती अगर सेंगोनि पति को खोजते हुए अदालत नहीं पहुँचती. वह अदालत जाती है, प्रताड़ना झेलती है इसके बावजूद समझौता नहीं करती है. फ़िल्म का मुख्य पात्र तो वही है.

यह उस स्त्री की समझ है कि वह कौशल को समूह की देन मानती हुई कहती है कि ‘पुलिस वाले भी होते तो मैं उनका इलाज करती (साँप काटने पर)’. इस दृश्य में चंद्रू अगर पंच परमेश्वर हैं तो सेंगोनि ‘मंत्र’ कहानी का बूढ़ा है. वकील और सेंगोनि दोनों का ज्ञान यहाँ हायरार्की से मुक्त होकर ‘श्रम की सामूहिकता’ का दर्शन प्रस्तुत करता है. इस फ़िल्म में साहित्यिक ऊँचाई बेजोड़ है. राजकन्नू के मरने पर उसकी पत्नी हाथ छपा ईंट लेकर रोती है. जगदीश चंद्र ने ‘धरती धन न अपना’ उपन्यास में यही तो दिखाया है कि काली की इच्छा है कि उसका अपना ईंट का मकान हो. यह इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाती है. यह कई इरुला, माँझी और दलित-आदिवासी लोगों की इच्छा है. अरुण कुमार ने अपने एक लेख में 22वर्ष के विजय कुमार का जिक्र किया है जिसका  सपना है कि उसका एक घर हो, वह शिक्षित हो और उसे प्रवास की पीड़ा न झेलनी पड़े. यह कोई फिल्मी कहानी न होकर कटु यथार्थ है.

                           फ़िल्म का अंत छोटी बच्ची का आत्मविश्वास के साथ कुर्सी पर अखबार पढ़ते हुए दृश्य के साथ हुआ है. यह जेंडर के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है कि निर्देशक ने लड़की को रखा है. कर्णन फ़िल्म में भी प्रतिरोध के प्रतीक में नायक की बहन को मिथकीय शैली में दिखाया गया है. यह फिल्मों के प्रतीक और दृश्य संजोयन में अस्मितावादी एस्थेटिक के प्रयोग का शानदार प्रयास है.

               फ़िल्म की एकमात्र कमजोरी लगती है बार-बार इरुला को जनजाति कहना जबकि यह सिद्ध है कि वे मूल रूप से आदिवासी हैं. जैसे ही हम उन्हें जनजाति कहते हैं वहीं जयपाल सिंह मुंडा का संघर्ष पीछे छूट जाता है. वह संविधान में जनजाति नहीं आदिवासी शब्द चाहते थे. यह आदिवासियत का मूल प्रेरक शब्द है. जनजाति कहने से सेंगोनि जो कि एक आदिवासी महिला है, उसका इतिहास और संघर्ष सीमित हो जाता है. फ़िल्म में यह पहलू इसलिए छूट गया क्योंकि फ़िल्म निर्माता और निर्देशक का ध्यान अम्बेडकरवाद और वामपंथ पर तो गया लेकिन आदिवासी आंदोलन के राजनीतिक स्वरूप पर नहीं गया. उपर्युक्त दोनों राजनीतिक विचार वर्ण और वर्ग व्यवस्था से निकला है जो मुख्यधारा के आंदोलन का ही हिस्सा है. आदिवासियों की यह लड़ाई अभी भी जारी है कि कब उनको ‘जनजाति’ के टैग से मुक्ति मिलेगी.

संदर्भ:-

1. Cultural development and cultural capital of farce:-The mushhar community in Bihar. Arun kumar, economic and political weekly vol.41,no.40,oct7-13,2006

    (महेश कुमार, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया. ईमेल:-manishpratima2599@gmail.com)

           

           

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