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श्यामा: औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था, वर्णवाद के बीच अंतरजातीय प्रेम की कहानी


निराला की कहानी ‘श्यामा’, हिंदी की एक महत्वपूर्ण कहानी है। यह कहानी  एक ब्राह्मण  लड़के और लोध जाति की लड़की के प्रेम की कहानी है। लेकिन, इस कहानी के भीतर से औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था द्वारा हिंदी पट्टी में पैदा किए गये जमीदारों के वर्ण-जाति आधारित भेदभाव, शोषण, अत्याचार की कहानी ज्यादा उभर कर सामने आती है।


बंकिम शहर में पला-बढ़ा अंग्रेजी माध्यम से दसवीं तक शिक्षा प्राप्त ब्राह्मण युवक है। लेकिन वह पिता के या ब्राह्मण आचरण के अनुकूल न होने पर गांव भेज दिया जाता है। गांव में उसका पुश्तैनी मकान और एक बाग है। इसी बाग में वह अक्सर रहता है।

“गांव की हँसती हुई बाहरी प्रकृति से तो बंकिम को बड़ा प्रेम है, पर रूढ़ियों पर चलती हुई लोगों की भीतरी प्रकृति के तद्रूप घृणा। वहां का जीवन जैसे मशीन के चाकों की तरह दूसरे ताप से चल रहा हो। स्वयं लौह-खंड की तरह निर्जीव, निस्पंद। इसलिए वहां उसका हृदय नहीं मिलता, सभी के लिए हृदय से वह विदेशी बन गया है।”
बंकिम आधुनिक विचार का युवक है। निराला ने सायास उसका नाम बंकिम रखा है। नये जमाने का युवक है, नये जमाने का नाम है। इस पर इसी कहानी में निराला लिखते हैं-


” उन्हीं दिनों बंगला उपन्यासों की बाढ़ से हिन्दी की नयी संतानों के नामकरण में भी युगान्तर आ गया था।  रामदास, शिवप्रसाद, कालीचरण आदि नामों की पौराणिक पराधीनता बल खाते हुए बंगालियों के वासन्तिक  बालों से दबकर दम तोड़ रही थी, और ‘शिशिर’, ‘विनोद’, ‘प्रदीप’, ‘प्रमोद’ आदि स्वतंत्र-पत्रों की तरह वास्तव-साहित्य की डालों पर, घर-घर उग चले थे। बालिकाएँ लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और यमुना आदि की मन्द रुढ़ियों  से छुट-छुट कर आशा और लता आदि से ललित, लचीली होकर साहित्य के भीतर से लिपट रही थीं। यह लालच भगवान् ही जाने क्यों, पं. रामप्रसादजी भी नहीं छोड़ सके। विवाह के साल ही भर में उत्पन्न हुए लड़के का नाम बंकिमचंद्र रक्खा। पर, बड़ा होकर, गांव जाकर, गांववालों के स्वाधीन उच्चारण में, एक ही रोज में, बंकिम बांके बन गया।”


लेकिन निराला कहानी के भीतर उसे बंकिम ही लिखते हैं, बाँके नहीं। फिर नामों में ‘पौराणिक पराधीनता’ पद का प्रयोग करते हैं। जिस हिन्दी साहित्य में नवजागरण के पहले चरण में पौराणिक आख्यान गौरव, शक्ति और पता नहीं कितना और और महान बन कर आ रहे थे वहां निराला का पद है, पौराणिक पराधीनता। निराला सेल्फ मेड हैं। उनके यहाँ रोमांटिसिज्म (जिसे हिन्दी में छायावाद कहा गया, जो इसके भीतर की आधुनिक मनुष्य के जन्म और तड़प को लीप देता है, चिपोर देता है) आधुनिक मनुष्य के जन्म और उसकी तड़प से जुड़ा है। यह कविता में बहुत संघनित होकर पीड़ा, दुःख, अवसाद, त्रासदी में बदल कर आता है, गद्य में विस्तार पाकर हास्य-विनोद और व्यंग्य को भी लिए रहता है। उनके इन प्रयोगों को और पुष्ट करते दो और पद हैं, ‘स्वतंत्र-पत्रों’ और ‘वास्तव-साहित्य’। खैर


बंकिम शहर से गाँव आता है। निराला भी यही चाहते हैं कि आधुनिक विचार गाँव में आये। गाँव बदले। गाँव का सामाजिक जीवन जो वर्ण और जाति की गहरी पराधीनता में जकड़ा है। निराला के यहाँ यह बहुत है। उनकी हर बड़ी रचना में है कि कोई न कोई आधुनिक और प्रगतिशील विचार का वाहक होता है और वह गाँव आता है। बिल्लेसुर कलकत्ता जाते हैं लेकिन बदलते हैं तो लौट कर गाँव आते हैं। कुल्ली और चतुरी चमार निराला के प्रभाव में आते हैं, गाँव में रहते हैं, खुद बदलते हैं और बदलने निकलते हैं।

बंकिम गाँव आता है।  उसे श्यामा मिलती है श्यामा गरीब किसान सुधुआ की बेटी है। सुधुआ जाति से लोध है। अवध में लोध दलित जाति में आते हैं। श्यामा बंकिम को आम के बाग में मिलती है। बंकिम और श्यामा के मिलने के प्रसंग को निराला ने बहुत ही वास्तविक तरीके से प्रस्तुत किया है। उनके बीच की बातचीत, एक-दूसरे के प्रति प्रेम-भाव को परिस्थितिजन्य, परिवेशगत व्यहार के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है।

परिवेश का वर्णन
नयी कहानी वालों का सबसे अधिक आग्रह परिवेश की सच्चाई और अनुभूति की प्रामाणिकता पर था। और इसी के आधार पर नयी कहानी के कहानीकार खुद को पिछ्ली पीढ़ी से अलग करते थे। वे कितने अलग थे, यह अलग विषय हो जायेगा, फिलहाल निराला की इस कहानी में परिवेश का वर्णन देखिए-
” आषाढ़ का महीना एक सप्ताह बीत चुका है। बादलों के टुकड़े आकाश में क्रीड़ा करते हुए इधर से उधर दौड़ रहे  हैं। पलकों को हलकी कर कभी पूरब से पश्चिम, कभी पश्चिम से पूरब को, ठंडी-ठंडी हवा बह रही है। किसान आमों  की अच्छी फस्ल होने से सुखी हैं। सभी के मुरझे कपोलों पर हँसी खेलती है। दो-एक दौंगरे गिर चुके हैं। हल चल रहे हैं, कहीं-कहीं जुवार, अरहर, तीली, बाजरे आदि बोये जा चुके हैं, कहीं बोये जा रहे हैं। छोटे-छोटे कपास के पौधे किसी-किसी खेत में उग रहे हैं। ईंख लहरा रही है-उठायी मेड़ें बारिश से कहीं-कहीं छट गयी हैं। देहात बरसात के आगम से प्राणों में सुख-स्पन्द पाकर प्रसन्न है। बागों  की हरी-हरी घास के मखमली गलीचों पर गाँव के करीब बच्चे छुई-छुअल, गुलहड़, गिलीडण्डा  खेलते, अखाड़े गोड़कर कूदते, कुश्ती लड़ते हुए अपने-अपने आमों की रखवाली कर रहे हैं। सुबह से एक पहर दिन तक गाँव के प्रायः सभी बाल-वृद्ध-युवक,  किसानों की स्त्रियाँ, आम लेने, पेड़  हिलाने के लिए बागों में ही एकत्र चहल-पहल करते हुए मिलते हैं।”


‘उठायी मेड़ें बारिश से कहीं-कहीं छट गयी हैं।’ यह कोई खेती-किसानी से जुड़ा ही जान सकता है। परिवेश का इतना सच्चा और सूक्ष्म अवलोकन निराला के कथा-साहित्य में भरा हुआ है। इस बात का पता नयी कहानी के दौर में ग्राम-कथानकों को लेकर आ रहे कहानीकार भी न पा सके, जो ऐसे ही परिवेश के सच्चे वर्णन से खुद को नया कह रहे थे। बहरहाल

इसी परिवेश में बंकिम और श्यामा के बीच स्वाभाविक प्रेम पनपता है।
आम के बाग़ में उन दोनों के बीच पहली वार्तालाप का कुछ हिस्सा देखिए,
बालिका बंकिम के बिलकुल पास आ गयी, और निःसंकोच वैसे ही बोली, “तुम कहो, तो इधर के गिरे हुए आम बिन लूँ।”
उसके चेहरे की ओर देखकर, उसे गरीब किसान की लड़की जानकर बंकिम ने कहा, ” बिन लो।”
बालिका धीरे-धीरे चल दी।
चार कदम चली थी कि ‘एऽऽऽ’ पुकारकर बंकिम ने पूछा, “तेरा नाम क्या है?”
“मेरे घर के सामने से तो रोज आते हो, मेरे बाप को नहीं जानते क्या?” कहकर द्रुत लाज के पग एक पकते पेड़ के नीचे जा आम बीनने लगी।
“तुम्हारे बाप का नाम क्या है?” पास जाकर अज्ञ की तरह तअज्जुब से पूछा।
बेवकूफ समझकर वह फिर मुस्किरायी। “क्यों?” खिलकर बोली, “मेरे बाप का नाम सुधुआ है।” कहकर चलने को हुई, तो बंकिम ने सहृदय अज्ञ की तरह फिर पूछा “तुम्हारा नाम क्या है?” हँसकर, आप ही अपने में हवा की तरह लिपटकर बालिका बोली, “मैं अपना नाम नहीं कहती।” द्रुत फिर खाई की ओर चल दी। बंकिम खड़ा देखता रहा, वह खाई पार कर गाँव को चली गयी।

लेकिन यह प्रसंग कहानी में आता है, तो साथ ही कहानी में दूसरा प्रसंग प्रकट होता है। अगले दिन सुधुआ बंकिम की, आम के लिए प्रशंसा करने लगा और बताया कि वह इस साल तंगदस्त होने के चलते आम मोल नहीं ले सका। पहले वह शुक्लों के ‘हजारे’ में एक रूपये का हिस्सा लेता था। बंकिम ने पूछ लिया कि इस साल वह तंगदस्त क्यों है?

सुधुआ बताता है, ” महाराज आठ रूपये  बीघे के हिसाब से जिमीदार दयाराम महाराज ने तीन बीघे खेत दिये थे। मैंने कई साल तक खेतों को खूब बनाया, खाद छोड़ी, जब खेत कुछ देने लगे, तब परसाल इन्होंने बेदखल कर दिया, पहले इज़ाफा लगान बीघा पीछे पाँच रूपये माँगते थे। अपने पास इतना दम न था। खेत छोड़ दिये। पर किसान जाय कहाँ, क्या खाय? फिर उन्हीं जिमीदार दयाराम महाराज के पैरों नाक रगड़नी  पड़ी। उन्होंने पाँच रूपये  बीघे पर ढाई बीघे का एक खेत दिया। खेत बिल्कुल ऊसर है। मैं जानता था। पर लेना पड़ा। खेती न करें, तो महाजन उधार नहीं देता। भूखों मरा नहीं जाता। खेती में साढ़े बारह रूपये  का पूरोपूर डाँड़ पड़ गया। कुछ न हुआ। एक बैल था, साझ में जोत लेते थे, वह भी मरा, इधर श्यामा की अम्मा थी, वह भी भगवान के यहाँ गयी। अफसोस-अफसोस मुझको भी दमा हो गया है। काम होता नहीं। उस किस्त का किसी तरह पाँच रूपया चुकाया था। अबके कुछ डौल नहीं। बरखा आ गयी। छप्पर वैसा ही रक्खा है। कहाँ से पैसा आवें, जो छाया जाय! मिहनत-मजूरी का बल नहीं है। श्यामा दूसरे की पिसौनी करती है, तब दो रोटी तीसरे पहर तक मिलती है।”

औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था

यह प्रसंग कहानी को उसका मुख्य उद्देश्य देता है। अर्थात औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था में जमीदार और छोटे किसान के बीच का सम्बन्ध और इसमें जाति की भूमिका। बहुत सायास योजना है इस प्रसंग की।
खेत खूब बनाया तो बेदखल कर दिया।
खेती न करें तो महाजन उधार नहीं देता।
‘बेदखली’ और ‘महाजनी’ भारत की भौगोलिक सीमा के भीतर इसके पहले की किसी भी तरह की भूमि-व्यवस्था का हिस्सा नहीं था। यह आता है औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था के साथ। जमीदार और महाजन के बीच का सम्बन्ध द्रष्टव्य है, खेती न करें तो महाजन उधार नहीं देगा। और इस उधार का मतलब क्या है। गोदान उपन्यास को इससे जोड़ लिया जाय। होरी गन्ना उपजाता है तो उसके हिस्से कुछ नहीं आता। जमीदार, सहुआइन, सेठ, ब्रिटिश  एजेण्ट कितने हिस्सेदार!

और देखा जाय इस भूमि-व्यवस्था में कि खेती में लागत और साधन सब किसान का होगा- एक बैल था साझ में जोत लेते थे। इसमें होने वाला कोई भी नुकसान किसान का होगा।

पूरोपूर साढ़े बारह रूपये डांड़ पड़ गये। उसमें भी इज़ाफा लगान! यह इज़ाफा लगान भी कभी नहीं रहा भारत में। यह औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था का ऐसा तत्व था, जो छोटे किसानों को बर्बाद कर देता था। अकाल, भुखमरी और महामारी का आसान शिकार उन्हें बनाता था। सुधुआ भी इसी इज़ाफा लगान का शिकार होता है। एक दिन  सुधुआ  को जमीदार के आदमी पकड़ ले जाते हैं और लगान न चुकाने के चलते मारते-पीटते हैं। बंकिम श्यामा और सुधुआ  के लिए खड़ा होता है।  यहाँ से जमीदार का अत्याचार और बढ़ता है।

जाति-वर्ण का प्रश्न

अब  यहां इस भूमि-व्यवस्था का एक और तत्व आता है,  जाति का। छोटे किसान प्रायः छोटी जाति से थे। वर्णवादी समाज में औपनिवेशिक भूमि-बन्दोबस्त कोढ़ में खाज हो गया।

निराला की इस कहानी में इसका एक-एक विवरण है। सिर्फ जमीन से बेदखली नहीं समाज में भी बेदखली है। सुधुआ और बंकिम दोनों समाज से बेदखल होते हैं।

कहानी सुखान्त है। बंकिम बाद में मजिस्ट्रेट बन जाता है और अपने घर और बाग़ पर जमीदार के अवैध कब्जे को खत्म करता है। लेकिन उसमें जो प्रसंग चुने-बुने गये हैं, जो विवरण हैं, संवाद हैं, उसमें से जो बात/वस्तु/कथातत्व  उभरता है, औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था, किसानों का शोषण और जाति-उत्पीड़न व जाति-भेद। निराला की कहानी में, खासकर चतुरी चमार, देवी, हिरनी आदि में भी जाति का प्रश्न जिस संदर्भ और विवरण के साथ आता है, वह महत्वपूर्ण है।

श्यामा कहानी में इसे निराला ने अलग से उठाया है। अलग से आशय यह, कि ग्रामीण सामाजिक और आर्थिक संरचना में जाति और जमीदारी व्यवस्था की वस्तुस्थिति और गतिकी क्या थी, इसके इतने निचले स्तर के विवरण हिंदी कहानी या कथा साहित्य में बहुत कम है। निराला के कथा साहित्य के अध्ययन से यह जाना जा सकता है, कि राजा और रैयत तथा जमीदार और किसान के बीच का संबंध एक जैसा नहीं था। राजा को औपनिवेशिक व्यवस्था ने नहीं पैदा किया था, लेकिन जमीदार को औपनिवेशिक भूमि  व्यवस्था ने पैदा किया था।  इनके चरित्रों में महत्वपूर्ण अंतर दिखता है।

निराला की कहानी इस लिहाज से इसलिए उल्लेखनीय है, कि उन्होंने इस बात को, यथार्थ को कथा साहित्य के छोटे प्रारूप में भी बांधा है, व्यक्त किया है। हिंदी में सामाजिक यथार्थ के कई संस्तरों को प्रेमचंद और रेणु ने कहानी की अपेक्षा उपन्यास में अधिक व्यक्त किया है या विषयवस्तु बनाया है। लेकिन, निराला कहानी में भी इसे लेकर आते हैं। खासकर, औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था, देशी राज प्रणाली और जाति समस्या। औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत देशी राज- प्रणाली और प्रजा के सम्बन्धों पर हिन्दी में सिर्फ निराला ने लिखा है।

जाति समस्या को भी निराला किसी सहानुभूति के चलते सिर्फ नहीं, बल्कि आधुनिक राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य के चलते उठाते हैं। या, उसे बार-बार विषय बनाते हैं। या, उस पर सचेतन ध्यान देते हैं। जाति-उत्पीड़न, जाति-विभाजन, भेदभाव, उपेक्षा का प्रश्न निराला के लिए आधुनिक समाज के लिए अनिवार्य सा था।

स्वानुभूति-समानुभूति, अनुभूति की प्रामाणिकता, भोगा हुआ यथार्थ

उनकी रचनाओं में और कथा साहित्य में बार-बार इसीलिए यह आता है। इसका महत्व है। इसे इस रूप में नहीं देखा जा सकता है, कि जातिगत विभाजन, भेदभाव का दंश झेल रही जातियों की अपनी अनुभूति में वह कैसे थी या उसकी अभिव्यक्ति ही प्रामाणिक है। बल्कि, इसे सामाजिक यथार्थ के रूप में देखना चाहिए। समाज की सच्चाई सामने आती है। जिन रचनाकारों ने इसे व्यक्त किया है, उनकी जाति देखकर इसके महत्व को न तो कम किया जा सकता है, न तो नकारा जा सकता है।

निराला जाति से ब्राह्मण थे, लेकिन उनका साहित्य ब्राह्मणवादी साहित्य करार दिया जाना, गैर जिम्मेदारी वाला आलोचनात्मक कर्म है। निराला के साहित्य में जाति समस्या आती है, जाति का उत्पीड़न आता है, जिसे प्रामाणिक और अप्रामाणिक, सहानुभूति व समानुभूति की कोटि से या पैमाने से नहीं देखा जा सकता है।

निराला का कथा साहित्य पढ़कर यह जानना क्या मुश्किल है, कि दलित जातियों पर अत्याचार हुए! सामाजिक यथार्थ की रचनाएँ यही काम करती हैं। नहीं तो, फिर हिंदी साहित्य में तो यह चलाया ही गया था कि सिर्फ वही लिखो जो तुम्हारा सच है। अज्ञेय इसके अगुआ थे। बाद में नयी कहानी के समय या साठोत्तरी कहानी में ज्यादा,   इसे भोगा हुआ यथार्थ, निजी अनुभूति आदि के दायरे में ही रखने की बातें तो  हो रही थी। यह ‘अपना सच’ बाद में आध्यात्मिक होता हुआ वैष्णवी हो गया।

इन लोगों को आखिर सामाजिक यथार्थ की रचनाओं से क्या दिक्कत थी! उसमें ऐसी क्या बात थी, जिससे साहित्य रचना को निजी अनुभूति में समेटने की कोशिश हो रही थी! वह जाति की समस्या थी, गरीबी की समस्या थी।

प्रेमचंद और निराला के साहित्य को लेकर दिक्कत किसको थी और क्यों थी! कौन लोग प्रेमचंद को अभारतीय सन्दर्भों का लेखक कह रहे थे और भारतीयता को औपनिषदिक आध्यात्मिकता में समेटते जा रहे थे। और यह औपनिवेशिक आध्यात्मिकता सांस्कृतिक नहीं थी सिर्फ, इसमें बाकायदे वर्णवादी सामाजिकता छिपी थी।

साहित्य में निजी अनुभूति, अपना सच, भोगा हुआ यथार्थ इसी सामाजिकता के भीतर से आ रहा था, ऊपर से आध्यात्मिक, दार्शनिक मुलम्मा चढ़ाये। सामाजिक मुक्ति का सवाल यहाँ आध्यात्मिक मुक्ति के तहखाने में डाल दिया जाता है। आज की हिन्दूवादी राजनीति क्या कर रही है! यही तो कर रही है सामाजिक मुक्ति के सवाल के साथ। पूरा अस्मितावादी विमर्श कैसे विमूढ़ हो गया है! एक कोने में धकेल दिया गया है और उसी कोने को बचाने, उसी में हारता-जीतता आत्ममुग्ध पड़ा हुआ है।

आज का कोई दलित चिंतक, प्रेमचंद को अभारतीय सन्दर्भों का लेखक कहने वालों या अपना सच कहने वालों के पूरे चिंतन को देखे तो  वह यह कह ही नहीं सकता कि इनके साहित्य में दलित समस्या का कोई मूल्य नहीं है या वह प्रमाणिक नहीं या वे ब्राह्मणवादी लेखक थे! प्रेमचंद  कायस्थ थे,  निराला  ब्राह्मण थे, इसलिए इनका लेखन ब्राह्मणवादी है। अभारतीय कहने वाले और ब्राह्मणवादी कहने वाले अनजाने या जानबूझकर अगल-बगल खड़े हुए दिखने लगते हैं।

सामाजिक यथार्थ की रचना स्वयं में एक सामूहिक, कलेक्टिव ट्रुथ होती है।  यह जिम्मेदारी भरा लेखन होता है। गहरे सरोकार के साथ सत्य की गवाही करता लेखन। बहुत से मुकर जाते हैं इससे। लेकिन सामाजिक यथार्थ का रचनाकार इसकी गवाही करता है। वह फैसला करने वाला जज नहीं होता।

चतुरी चमार कहानी में निराला कहते हैं- मैं ब्राह्मण संस्कारों की सब बातों को समझ गया। पर उसे उपदेश क्या देता? चमार दबेंगे, ब्राह्मण दबायेंगे। दवा है, दोनों की जड़ें मार दी जाएँ, पर यह सहज-साध्य नहीं। सोचकर चुप हो गया। लेकिन  वे  सामाजिक सत्य की अभिव्यक्ति तो कर जाते हैं।  कुल्ली भाट में भी यही करते हैं। सामाजिक सच्चाई को कथा का विषय बनाने वाला कोई भी बड़ा रचनाकार यही करता है। निराला के लिए जाति समस्या, जाति उत्पीड़न, जाति भेद को अपनी रचनाओं की विषय वस्तु बनाने का उद्देश्य क्या था, उसका मुख्य विचार तत्व क्या था, यह जानना चाहिए! वह बहुत स्पष्ट है, वह है आधुनिक राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य और इसमें तय की गयी खुद की जिम्मेदारी।

आधुनिक राष्ट्र-निर्माण और गुलामी भीतर गुलामी

इस आधुनिक राष्ट्र निर्माण में बाधक क्या है! एक, औपनिवेशिक भू-व्यवस्था। जमीदार सबकुछ को उपभोग की वस्तु बना देता है। वह श्रम, उत्पादन, उत्पादक सब खा जाता है। उससे अपने ऐशोआराम, जातिदंभ, अहं को  पूरा करता है। ब्रिटिश अधिकारी अपना घर भरता है। कृषि को इस व्यवस्था ने तार-तार कर दिया। उद्योग जो फल फूल रहे थे यहां की लूट से, वे लंदन को जगमग करते थे।

दूसरा बाधक, वर्ण व्यवस्था। जाति विभाजन। सबके कर्म तय हैं। गुलामी के भीतर गुलामी, उसके भी भीतर गुलामी। इन सारी गुलामियों से मुक्त हुए बिना कोई भी आधुनिक राष्ट्र नहीं बन सकता। भगत सिंह तब तक बोल ही चुके हैं, कि आजादी का मतलब सारी गुलामियों से मुक्ति। जाति इसमें दोहरी  गुलामी है।  निराला की रचना-दृष्टि में यह बार-बार इसीलिए आता है।  इसीलिए वह रचना का विषय बनता है।  यह भी तो किसी अनुभव प्रक्रिया से ही उपजती है, जिसमें समाज और राष्ट्र की चिंता मुख्य हो जाती है। खुद की पीड़ा, राष्ट्र और समाज की पीड़ा से अलग होकर निज नहीं हो पाती।   निराला का कथा साहित्य तो इसे व्यक्त करता ही है बहुत सीधे, कविता में भी यह है। ध्यान से गुजरिए कविता से। सिर्फ पीड़ा नहीं, जाति समस्या भी आती है, जाति व्यथा भी उन कविताओं में है। गरीबी है बहुत, तो सबसे ज्यादा गरीबी की मार किसे पड़ेगी! इस गरीबी का जाति-समाजशास्त्र तो बहुत स्पष्ट है, कि अस्सी प्रतिशत दलित। निराला की नजर उस सत्य पर है।

औपनिवेशिक भूमि  व्यवस्था और जाति समस्या में संबंध सीधा तो नहीं था,  लेकिन था बहुत। भारत में इसने जाति व्यवस्था को और अधिक स्थाइत्व दिया। ब्रिटेन के लिए औपनिवेशिक देशों की कृषि पूंजी से नहीं जुड़ पायी थी, क्योंकि उसके पास उस समय  जो भी व्यवस्था बनाने वाले या कानून बनाने वाले थे, उनके पास कृषि के पूंजीवादी रूपांतरण का विचार ही नहीं था। कार्नवालिस के पूरे विकास को देखा जाए तो बहुत स्पष्ट हो जाएगा। अमेरिकी स्वतंत्रता के युद्ध में उसकी हार के पीछे उसकी पिछड़ी हुई व्यवस्था से संबद्ध  होना था। 

कृषि के पूंजीवादी रूपांतरण को लेकर अमेरिकी पूंजीवाद आता है, ब्रिटेन नहीं। 

इसलिए भारत में औपनिवेशिक व्यवस्था पिछड़ेपन को मजबूत करती है।  यह यूरोपीय पूंजीवाद था, जो कभी भी सामंती उत्पादन, उपभोग की व्यवस्था या सामंती कृषि-व्यवहार से अपने को अलग नहीं रख पाया। फासीवादी उभार या दक्षिणपंथी राजनीति इसीलिए यूरोप में ज्यादा आसानी से संभव होती रही। ग्राम्शी जो बात दक्षिणी इटली की कृषि व्यवस्था की करते हैं, इटली के फासीवाद के उभार और मजबूती के लिए, वह प्रायः या कम-बेसी पूरे यूरोप के लिए सच था। मुक्तिबोध जिसे कहते हैं, कि भारत में जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत पूंजीवाद आया वह रुग्ण था, बीमार था, पतनशील था, तो यूरोपी पूंजीवाद प्रारंभ से ही रुग्ण था, बीमार था, इसलिए पतनशील क्या, वह जन्म से ही पतित था। जहाँ भी ब्रिटेन ने शासन किया वहाँ का कृषि समाज पीछे गया। इसलिए कार्नवालिस  द्वारा भारत में लायी गयी भू-व्यवस्था ने जाति-वर्ण की भारत में मौजूद व्यवस्था को स्थाइत्व दिया। उसके प्रगतिशील तत्वों के विकास को रुद्ध किया।

यह हिंदी पट्टी में इसीलिए ज्यादा असरकारी और दक्षिणपंथी विचारों के लिए अवसर बना, क्योंकि कार्नवालिस द्वारा लायी गयी  भूमि-व्यवस्था उत्तर भारत में ही लागू हुई। बाद में दक्षिण भारत के लिए अलग व्यवस्था लायी गयी। हालांकि उसमें भी वह दोष मौजूद था, लेकिन इससे कम। उसमें सामाजिक गतिशीलता की संभावनाएं थीं कुछ।

दक्षिण भारत में जाति विरोधी या सामाजिक आंदोलन भी इसीलिए राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान अधिक मिलता है। भले ही आज उसी से निकली पिछड़ी जातियां प्रतिगामी  या दक्षिणपंथी विचार से ग्रस्त हो गयीं  हैं। लेकिन उत्तर भारत की तरह उनमें वह तत्व ऐसा नहीं था, जो दक्षिणपंथी राजनीति के लिए आसान पड़ता। अभी भी वह बाधक है। इसमें सिर्फ हिंदी विरोध कारक नहीं है, बल्कि वह सामाजिक गतिशीलता है, जो वहां एक सांस्कृतिक रूपांतरण तक गया है।


निराला, प्रेमचंद हिंदी में लिख रहे थे। हिंदी के जातीय रचनाकार थे। इसलिए उन्होंने इसे देखा, पकड़ा।  उनकी अनुभूति का वह प्रामाणिक स्रोत बना। इसीलिए हिंदी प्रदेश का इनसे बड़ा रचनाकार आज तक न हुआ। इन दोनों ने औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था और जाति-वर्ण की समस्या, जाति-उत्पीड़न को देखा,  पाया और रचा। रंगभूमि, प्रेमाश्रम, गोदान समेत प्रेमचंद की प्रायः रचनाओं में इसे पढ़ा जा सकता है। इसी तरह निराला के सारे गद्य में इसका गाहे-बगाहे आना-जाना है। अर्थात मुख्य विषयवस्तु न होने पर भी जाति-वर्ण का प्रश्न आता ही है, क्योंकि कथा प्रायः कृषि व्यवस्था के भीतर से आती है, ग्रामीण समाज से आती है। श्यामा, चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा, कुल्ली भाट, काले कारनामे, चोटी की पकड़, इंदुमती, अलका सभी में औपनिवेशिक भू-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था का संबंध और उसका यथार्थ आता है।

इस बात को जाँचना चाहिए कि 1773 या 1793 ई. से पहले भारत में जो भूमि व्यवस्था थी उसमें खेत मजदूर जैसी कोई कोटि थी या दलित जातियों का कितना हिस्सा किसान था और कितना शिल्पी, कारीगर और सेवक, दास। यह इसलिए कि आजादी के समय भारत में भूमि के मालिकाने की जो तश्वीर सामने आती है, वह तो अंग्रेजों से पहले थी ही नहीं। इसलिए प्रेमचंद और निराला को पढ़ते हुए यह देखना चाहिए कि कृषि संकट के साथ जाति का प्रश्न भी इनके यहाँ क्यों आता है! इसीलिए आता है कि यह औपनिवेशिक भूमि-बन्दोबस्त से आया था।

‘श्यामा’, कहानी में यह केंद्रीय वस्तु के रूप में है। इसमें जमीदारी व्यवस्था का वह रूप सामने आता है, जिसमें सिवाय अमानवीयता, क्रूरता, उत्पीड़न, भेदभाव, फरेब, झूठ, छल, पाखण्ड, धोखाधड़ी  के कुछ भी नहीं है। खेती का भी कोई लाभकारी उत्पादन स्वरूप नहीं है इस व्यवस्था में। सिर्फ जमीन बढ़ाना है या जमीदारी को बढ़ाना, उस पर खेती कर रहे किसानों का अनंत शोषण, अत्याचार और समस्त उत्पादन को निजी सुख-सुविधा में लगाना, सामाजिक शक्ति में वृद्धि करना ही इस भू-व्यवस्था का लक्ष्य होता है।


“तब तक वहाँ सुधुआ की सब दशा हो चुकी थी। बेंत की मार से उसकी पीठ फट चुकी थी। नीम के पेड़ के नीचे बेहोश होकर मुँह के बल पड़ा था। मुश्कें बँधी थीं।
सामने गलीचा-बिछे तख्त पर जमीदार दयाराम दोहरे के बाद तंबाकू खाने का उपक्रम कर रहे थे। गांव के भले आदमी कहलाने वाले प्रायः सभी लोग चारपाइयों पर बैठे बलि के बकरे की निगाह से मालिक दयाराम की ओर देख रहे थे। दोनों सिपाही तख्त के सामने लट्ठ लिये हुए खड़े थे।”
“जमीदार पं. दयाराम ने बाग़ में अपना कब्जा कर लिया। जो पड़ोसी भैयाचार थे, उन्हें बाहर से उन्होंने भैयाचार  स्वीकार ही ने किया।  गाँव वालों को सिखला दिया कि कोई भैयाचार न कहे। घर में भी अपना कब्जा कर लिया। वहाँ अपने बैल बँधवाने लगे।”

इस जमीदारी व्यवस्था में जो व्यवहार है, वह वर्णवादी और स्तरीकृत है। इसमें किसान अगर भैयाचार या रक्त-संबंधी है, तो उसकी संपत्ति पर कब्जे की प्रवृत्ति रहेगी। अगर स्वजातीय है तो उसे रियायत तभी होगी, जब वह चापलूस होगा, खुशामद करने वाला या जमीदार के तलवे सहलाने वाला होगा। जैसे गाँव के गण्य ब्राह्मण देवीदयाल, जो पहले तीन बिस्वे वाले कनवजिए थे, अब तेरह बिस्वे वाले बन कर ब्राह्मणों में सिरमौर हैं।


लेकिन इसमें दलित किसान को कोई रियायत नहीं होगी।  वह लगान भी देगा, फसल भी देगा, मुफ्त का श्रम भी देगा, बेदखली भी होगी, अपमान होगा, भेदभाव होगा। कोड़े लगेंगे, लाठियां पड़ेंगी, जेल भी होगा।


“भारतीय किसानों के घर में दरवाजे नहीं होते। सिर्फ टट्टर रहता है। रात को भेड़िये से बकरियों को बचाने के लिए एक डण्डे से बाँध दिया जाता है। फिर शूद्र के मकान में प्रवेश के लिए आज्ञाविशेष आवश्यक नहीं। दरवाजा खुला था। सब लोग जूते समेत भीतर धँस गये।”


अर्थात औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था ने जाति-संरचना को, उसके भीतर के अन्याय, अत्याचार, शोषण, भेदभाव  को नियमित किया,  स्थायी किया।
दूसरे जो ब्रिटिश शासन अपने को पारदर्शी, इमानदार दिखाता है, उसका पाखंड भी इसमें जाहिर होता है। औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी को जन्म देने वाली थी। श्यामा कहानी में इसका भी संकेत है।


“दयाराम चारों ओर से चौकस रहते थे। एक पेशी को गये, तो मालूम हुआ, नाती-पक्षवाले रिश्वत की पूरी तैयारी से डिप्टी साहब से मिलने गये हैं, क्योंकि अदालत के गवाहों की कमजोरी उधर रूपये से पूरी करेंगे।”
यही सब कुछ एक संस्कृति बन कर रह गया भारतीय समाज में।
अर्थात आज भारतीय कृषि-समाज या गाँव में, भूमि-सम्बन्धों में, व्यवहार में जो दिखता है, उसका अधिकांश औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था की देन है।


इसी से मध्यवर्ग का भी हिस्सा ज्यादतर आ रहा था, जिसकी सांस्कृतिक अवस्थिति का वर्णन निराला ने यूँ किया है-
” पं. रामप्रसादजी बाकायदा कर्मचारी भक्त-वृंदो के यहाँ रामायण पाठ करते हैं, कभी यहाँ, कभी वहाँ। अपने उदात्त व्याख्यानों  द्वारा यह विश्वास उन्होंने उनमें जमा दिया है कि रामायण के वर्णन में आया हुआ विहवावलपुर  ही आजकल की वलायत है। वहाँ जानेवालों के राक्षसभाव, भोजन-पान तथा संग-संसर्ग आदि दोषों के कारण, चूँकि  प्रबल हो जाते हैं,  इसलिए करुणा-निधान महाराज श्रीरघुनाथजी उन्हें अपने चरणारवृन्दों में स्थान नहीं देते। ऐसे कई और भी महत्वपूर्ण अन्वेषण उन्होंने रामायण से किये हैं। वह भक्तगण व्यर्थ के लिए रामायण न सुनते थे। वे पाप करने वाले थे, तरने की आशा रखते थे। वे सब सरकारी नौकर थे, तनख्वाह सौ से सिर्फ तीन-चार तक पानेवाले, पर रिश्वत से, धर्म की आम सड़क से उतरकर, अदालत या अपने ऑफिस की गली और कूचे में, महीने में हजारों के वारे-न्यारे कर देते थे। अधिकांश ऐसे थे, जो पाप पूरा कर चुके थे, अब पेंशन लेकर प्रायश्चित कर रहे। उन्हीं में से किन्ही-किन्हीं के सुपुत्र वलायत भी गये थे; पर चूँकि वलायत न जाने पर ही पिता ने पापों के हिसाबवाला काफी मोटा खाता तैयार कर लिया था, इसलिए पुत्र के वर्तमान और भविष्य पापों के निश्चय पर उन्हें रत्ती-भर शंका न होती थी, पुनश्च  उन्होंने किसी निष्काम साधना के लिए पुत्र को वलायत तो भेजा न था। अतः पण्डितजी को कसौटी पर खरा पाकर, नाराज होने के बदले सभय प्रसन्न होते थे।”


इस कहानी का महत्व इसी रूप में सामने आता है या इस कहानी को इसी तरह से देखने पर इस कहानी का भी और निराला के साहित्य का वास्तविक मूल्यांकन हो पायेगा!

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