समकालीन जनमत
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कोमिंटर्न की वैश्विकता

2023 में वर्सो से ब्रिजिट स्टूडेर की 2020 में छपी जर्मन किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘ट्रावेलर्स आफ़ द वर्ल्ड रेवोल्यूशन: ए ग्लोबल हिस्ट्री आफ़ द कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ प्रकाशित हुआ । अनुवाद डेफ़िड रीज राबर्ट्स ने किया है । लेखिका ने 1980 में शोध के लिए रोजा ग्रिम को चुना । इनका जन्म ओदेसा के एक यहूदी परिवार में हुआ था । वे स्विट्ज़रलैंड के मजदूर आंदोलन में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरन बहुत सक्रिय थीं । स्विट्ज़रलैंड की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में थीं । कोमिंटर्न में काम करने मास्को गयी थीं । इस तरह स्त्री आंदोलन में लेखिका की रुचि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की ओर ले गयी । कोमिंटर्न और स्विट्ज़रलैंड की कम्युनिस्ट पार्टी के रिश्तों के बारे में छानबीन शुरू की तो 1990 में मास्को का संग्रहालय देखा । सोवियत संघ के बिखराव के बाद भी इसी क्षेत्र में काम जारी रखा । थोड़ा अंतराल के बाद कोमिंटर्न पर फिर काम शुरू किया । 1930 दशक में मास्को में रहने वाले विदेशी कम्युनिस्टों के बारे में लिखा जिसका अंग्रेजी में 2015 में अनुवाद हुआ और सराहा गया । एक समीक्षक ने सवाल उठाया कि आखिर क्यों इन लोगों ने स्तालिन के सामने अपना सिर झुकाया था । इस सवाल ने छानबीन को विस्तारित करने की प्रेरणा दी । अब लेखिका ने उन सभी लोगों के जीवन की छानबीन का बीड़ा उठाया । इससे शोध का देशकाल बहुत बढ़ गया । समझ आया कि यह एक अद्भुत राजनीतिक प्रयोग था जिसमें भविष्य की बेहतरी का प्रयास वैश्विक पैमाने पर व्यवस्थित, समन्वित और तार्किक तरीके से होना था । मास्को आने वाले सभी विदेशी कम्युनिस्टों को कोमिंटर्न की ओर से एक प्रश्नावली दी जाती थी जिसे भरकर जमा करना होता था । उसमें भारत से आये मानवेंद्र नाथ राय ने व्यवसाय की जगह क्रांतिकारी लिखा था । कोमिंटर्न ने उन्हें भी हजारों अन्य लोगों की तरह वैतनिक रूप से बहाल किया था । इस तरह वे विश्व क्रांति की कल्पना, तैयारी और व्यवहार के लिए आवश्यक तार्किक विश्लेषण तथा अति जटिल और परिष्कृत संगठन के उस अद्भुत अपूर्व राजनीतिक प्रयोग से घनिष्ठ तौर पर जुड़े थे । कलकत्ता से थोड़ी दूर के ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ था । वे पक्के उपनिवेशवाद विरोधी थे और भारत की आजादी के संघर्ष लायक वैचारिक हथियारों की खोज उन्हें मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन के करीब लेकर आयी थी । 1920 में कोमिंटर्न की दूसरी विश्व कांग्रेस में उन्होंने अपनी पहली पत्नी एवेलिन ट्रेन्ट के साथ भाग लिया था और उसके बाद से ही अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की सेवा में लग गये । उन्होंने खुद भी लिखा है कि 1919 में पत्नी के साथ यूरोप जाने के बाद से ही भारत की आजादी के लिए लिखते, पढ़ते, संगठन बनाते और प्रचार करते यूरोप के अधिकांश देशों में घूमते रहे । वे उजबेकिस्तान, चीन और सोवियत संघ आते जाते रहे लेकिन हमेशा अवैध रूप से । इसके चलते कैद या देश निकाले का खतरा हमेशा बना रहता था । भारत लौटने के बाद उन पर गुप्त तरीके से मुकदमा चलाया गया और जेल की लम्बी सजा भी भुगतनी पड़ी ।

किताब में इसी तरह के पेशेवर क्रांतिकारियों के जीवन और हालात का जायजा लिया गया है जिन्हें मास्को में वैतनिक रूप से रखा गया था । समय समय पर उन्हें सामाजिक और राजनीतिक रिश्तों में क्रांतिकारी बदलाव लाने के मकसद से इधर उधर भेजा जाता था । सवाल है कि गिरफ़्तारी, यातना और मौत का खतरा होने के बावजूद लोग वैश्विक पेशेवर क्रांतिकारी होना चुनते क्यों थे , सुरक्षित जीवन की आरामदेह सुविधाओं के मुकाबले वे अनिश्चित घुमंतू जीवन आखिर क्यों अपनाते थे और कोमिंटर्न के काम में खुद को क्यों झोंक देते थे । कभी उनका समय भी आयेगा इस उम्मीद के सहारे समूचे जीवन की बाजी लगाना आम लोगों को बेवकूफी लग सकती है लेकिन क्रांतिकारी के लिए यह सहज था । हमारे व्यक्तिवादी वर्तमान से देखने पर यह सम्पूर्ण प्रतिबद्धता किसी दूसरी दुनिया की बात लग सकती है । लेकिन उन लोगों के लिए कोमिंटर्न के प्रयास उनके देशों की लड़ाइयों में जीत के आश्वासन का साकार रूप थे । यह अंतर्राष्ट्रीय संगठन विश्वव्यापी पूंजीवाद विरोधी क्रांति का न केवल पहला संगठित प्रयास था बल्कि साथ ही वह उपनिवेशवाद, नस्लभेद और साम्राज्यवाद विरोधी विश्व राजनीति का अगुआ था । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की उथल पुथल में यह तमाम उपनिवेशों की आजादी के आंदोलनों के लिए वैचारिक स्पष्टता के अलावे सांगठनिक, भौतिक और मानव संसाधन भी उपलब्ध कराता था ।

1917 में सत्ता पर कब्जा करने के बाद बोल्शेविकों ने यूरोपीय ताकतों के उन तमाम गोपनीय समझौतों को प्रकाशित कर दिया जिनमें उन्होंने समूचे संसार को आपस में बांट देने की योजना बना रखी थी । 1919 में कोमिंटर्न की स्थापना कांग्रेस के घोषणापत्र में लेनिन और त्रात्सकी ने अफ़्रीका और एशिया की गुलामी को समाप्त करने का वादा किया था । सोवियत सत्ता ने एकदम शुरू से ही जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता दी थी । फ़िनलैंड और एस्टोनिया ने अपनी स्वाधीनता घोषित की लेकिन उन्हें अपनी आजादी के लिए खुद लड़ना पड़ा क्योंकि सोवियत सत्ता और उसकी विरोधी सेनाओं के बीच युद्ध चल रहा था । कोमिंटर्न के अंतर्राष्ट्रीय मुक्तिकारी स्वरूप के चलते मजदूरों के अतिरिक्त स्त्रियों, अश्वेतों और युवाओं के साथ अन्य सामाजिक समूहों को भी इसके साथ जुड़कर काम करने की प्रेरणा मिली । इसने जुड़ाव का ऐसा नया बोध पैदा किया जिसमें जातीय, राष्ट्रीय, लैंगिक या अन्य कोई सामाजिक पहचान गौण हो जाती थी । इसकी वजह थी कि कम्युनिस्टों के लिए अंतर्राष्ट्रवाद महज सरहदों का खात्मा या संकीर्ण राष्ट्रवाद से छुटकारा नहीं था । यह तो पूंजीवाद, वर्गीय उत्पीड़न, उपनिवेशवाद, नस्लभेद और स्त्री शोषण के खात्मे का अभिन्न अंग था ।

इस सामूहिक राजनीतिक चुनौती को क्रांतिकारियों ने खुशी खुशी स्वीकार किया क्योंकि मंजिल उन्हें नजर आ रही थी । जारशाही का अंत और सत्ता पर बोल्शेविकों का कब्जा नये युग की शुरुआत थी । इसने रूस को विशाल क्रांतिकारी परियोजना की प्रयोगशाला में बदल दिया । आखिर वह भूमंडल का छठवां हिस्सा जो था । रूसी क्रांति के प्रभाव से मुक्ति की व्यापक प्रक्रिया शुरू हो जाने का उन्हें भरोसा था । यूरोप व्यापी लोकतंत्रीकरण के लिए मौजूदा शक्ति संबंधों पर गम्भीर सवाल उठने लगे थे । रूसी क्रांति के प्रभाव से सारी दुनिया में बदलाव की जो लहर आयी उससे सचमुच क्रांतिकारी अंतर्राष्ट्रीयता का अनुभव हुआ । 1923 में जर्मनी की क्रांति के कुचले जाने से पहले एकाधिक लहरें आयीं ।

फ़िनलैंड ने जैसे ही आजादी की घोषणा की वहां गृहयुद्ध छिड़ गया । नवम्बर क्रांति के फलस्वरूप जर्मनी में कैसर को गद्दी छोड़नी पड़ी । आस्ट्रिया-हंगरी में बादशाहत का अंत हुआ । तुर्की में भी यही घटित हुआ । पोलैंड, आस्ट्रिया और जर्मनी में मजदूरों और सैनिकों की सोवियतों के गठित होने से बावेरिया और हंगरी के सोवियत गणराज्यों की घोषणा हुई । इटली में कारखानों और खेती की जमीनों पर कामगारों ने कब्जा कर लिया । आयरलैंड ने आजादी की घोषणा कर दी और काला सागर में फ़्रांसिसी नाविकों ने विद्रोह कर दिया । यूरोप के बाहर अमेरिका में अश्वेतों के संघर्ष ने गोरे शासकों के कान खड़े कर दिये और हड़तालों के चलते व्यवसाय पर संकट आया । कोरिया और चीन में जापानी उपनिवेशवाद और यूरोपीय साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारी जन प्रदर्शन हुए । बहरहाल यूरोप में हिंसक प्रतिक्रिया भी नजर आयी और बड़े पैमाने पर लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा ।

विरोध, विक्षोभ, विद्रोह और क्रांति की इस लहर का नेतृत्व तो वर्दीधारी अथवा नागरिक कामगारों ने किया लेकिन इनमें स्त्रियों और युवाओं जैसे सामाजिक और राजनीतिक तौर पर हाशिये पर मौजूद तबकों ने भी हिस्सा लिया । कलाकार, स्थपति, पत्रकार, वकील, विक्रेता और घरेलू स्त्रियों का भी क्रांतिकारी कायाकल्प हुआ । सबके लिए आशा की नयी दुनिया खुल गयी थी । लेखिका का कहना है कि रूसी क्रांति से पैदा लहर का इन सामाजिक समूहों के हितों के साथ कैसे मेल बैठ गया इसे समझने के लिए रूसी क्रांति को प्रबोधन, उद्योगीकरण और पश्चिमी आधुनिकता के अंतर्विरोधी चरित्र की आलोचना के साथ दक्षिणी गोलार्ध में व्याप्त क्रांतिकारी धाराओं और स्वाधीनता आंदोलनों तथा विचारों और व्यवहार के मेल के मेल के रूप में समझना होगा । बोल्शेविकों ने खुद को मजदूरों के वर्ग संघर्ष की आवाज के बतौर स्थापित करने के साथ ही वाम नारीवादियों, उपनिवेशवाद विरोधी कार्यकर्ताओं और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों का भी समर्थन किया ताकि संघर्षों की विविधता के भीतर एकजुटता पैदा की जा सके ।

लेनिन को यकीन था कि प्रथम विश्वयुद्ध से गृहयुद्ध और क्रांति की राह खुलेगी और उनका यकीन सही साबित हुआ । इसके बावजूद उनको लगता था कि क्रांति की यह लहर उतर जायेगी क्योंकि क्रांतिकारी ताकतें छोटे छोटे समूहों में बंटी थीं और मजदूर जनता दूसरे इंटरनेशनल की सुधारवादी पार्टियों की पिछलग्गू बनी हुई थी । यूरोप के मजदूर वर्ग के समर्थन के बिना सत्ता में बने रहना उनको सम्भव नहीं दिखायी दे रहा था । उन्हें जर्मनी की क्रांति से आशा थी जिसके बाद अन्य देशों में क्रांति होनी सम्भावित थी । इसीलिए बोल्शेविक नेताओं ने क्रांतिकारी ताकतों को नये इंटरनेशनल, कोमिंटर्न में संगठित किया । 1919 में विदेशी कम्युनिस्ट पार्टियों से महज तीन प्रतिनिधि शामिल हुए और इनमें भी जर्मनी की पार्टी का ही कुछ राजनीतिक प्रभाव था । तब कम्युनिस्ट पार्टी कहलाने वाली पार्टियां बहुत कम थीं । रूसी पार्टी ने भी 1918 में अपना यह नाम रखा था । जर्मनी में उन्हें स्पार्टाकस समूह कहा जाता था । बोल्शेविकों के साथ एकजुटता जाहिर करने के लिए जर्मनी के समूह ने 1918 के अंत में खुद को कम्युनिस्ट पार्टी कहा । इसके बावजूद उसके नेतागण रूसी पार्टी के दबदबे की आशंका से भरे हुए थे । रोजा लक्जेमबर्ग ने पश्चिमी यूरोप में कम्युनिस्ट पार्टियों के गठन तक नये इंटरनेशनल की स्थापना न करने को सोचा था ।

इसके बावजूद कोमिंटर्न ने समय की मांग को पूरा किया । सामाजिक जनवाद का सुधारवादी रुख पिट चुका था और मजदूर आंदोलन का भविष्य अस्पष्ट था । कोमिंटर्न की दूसरी विश्व कांग्रेस तक मजदूरों के पक्ष में लड़ने वाली प्रत्येक धारा का प्रतिनिधित्व था । केवल सामाजिक जनवादी धारा का कोई नहीं मौजूद था । उस समय विश्व क्रांति की चाहत बहुत मजबूत थी । नये इंटरनेशनल को वैचारिक रूप से मजबूत बनाया जाना था और सुचारु सांगठनिक ढांचा तैयार होना था । संगठन के लिए कार्यकर्ता और सम्पर्कों का जाल जरूरी थे । इसे प्रचार और मुहिम के मंच की जगह जुझारू संगठन में बदलने की जरूरत थी । दूसरी कांग्रेस ने कोमिंटर्न की कार्यपद्धति तय करने के साथ ही क्रांतिकारी गतिविधियों की एकता का वैश्विक आधार खड़ा किया । पूंजीवादी विश्व व्यवस्था को ध्वस्त करने और विश्व क्रांति को संपन्न करने के लिए राजनीतिक ढांचा और वैश्विक सम्पर्क का निर्माण आवश्यक था । बोल्शेविकों को लग गया था कि उन्हें लम्बे समय तक अकेले ही रहना है । ऐसी स्थिति में ठोस सैद्धांतिक समझ और व्यावहारिक कौशल से युक्त पेशेवर क्रांतिकारियों की फौज चाहिए । मजबूत दुश्मन को स्वत:स्फूर्त कार्यवाहियों से नहीं हराया जा सकता । उसके लिए प्रशिक्षित और कुशल नेताओं के साथ ही जनता को भी वैचारिक रूप से तैयार करना होगा ।

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