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जनमत

विकास का सैलाब 

 

2014 में लोकसभा के चुनाव के समय विकास की आसमानी बरसात हुई  थी, जिसमें देश के नागरिकों का मानस डूब गया था। अब 9 वर्ष बाद हम विकास का सैलाब देख रहे हैं। जिसने पश्चिम उत्तर भारत के पांच राज्यों व पूर्वोत्तर के असम सहित 12 राज्यों को प्रभावित किया है।

यहां हुई जन-धन हानि की ठोस रिपोर्ट हमारे पास नहीं है। अगर हम  पिछले महामारी के दौर में सेंट्रल विस्टा के निर्माण के राजशाही फैसले के बाद राजधानी को वर्ल्ड क्लास सिटी के बतौर देखने लगे थे। जिसका दावा प्रधानमंत्री और दिल्ली के मुख्यमंत्री कर रहे थे। तो अब विकास के सैलाब में डूबती हुई दिल्ली देख रहे हैं । सैलाब ने कारपोरेट केंद्रित विकास की पोल खोल दी है। दिल्ली के पाश इलाके सिविल लाइन्स, आईटीओ, सुप्रीम कोर्ट, कश्मीरी गेट  सहित झुग्गी- झोपड़ियों और जमुना के खादर तक में रहने वाले लगभग 2 लाख से ज्यादा लोग बाढ़ की चपेट में आ गए हैं।

जुलाई की शुरुआत में ही मानसून के सक्रिय होने के बाद गुजरात में बाढ़ की स्थिति पैदा हुई। गुजरात के 205 तालुके बारिश के बाद बदतर हालात से गुजरे। पिछले बीस साल से विकास के माॅडल के रूप में गुजरात को पेश किया जाता रहा है, लेकिन लगभग हर साल बारिश के बाद इस विकास की कलई उतर जाती है।

जुलाई के अगले ही हफ्ते में उत्तर भारत में यही स्थिति देखने को मिली।
पहाड़ों में तेज बरसात और बादल फटने से हुई तबाही का पहला मंजर 8 जुलाई के बाद हिमाचल प्रदेश के व्यास नदी के आजू-बाजू में दिखाई देने लगा था। जहां सैलाब की चपेट में आकर बहते मकान, डूबते जंगल, तैरती कारें, बस, ट्रक, मरते लोग, खिसकती पहाड़ियां और पहाड़ियों से टूटते बड़े-बड़े बोल्डरों से पटती सड़कें, नदियों-नालों  के नजारे हमको दिखाई दे रहे थे। जो पानी के बेग में तिनके की तरह से बह गया।

अनेकों जानवर नदी में बहे जा रहे थे। सैलाब का पानी सभी सीमाओं को तोड़ते हुए कस्बों, नगरों के घरों, मोहल्लों में इस तरह से घुसा जा रहा था, जैसे हम कोई हारर फिल्म देख रहे हों। सही मायने में विकास के नाम पर मानव निर्मित प्राकृतिक तबाही ने पूंजी की लूट की लिप्सा के भयानक परिणामों  की सीमा को उजागर कर दिया है।

हमें सूखे और बाढ़ से बचने के लिए कारपोरेट पूंजी की मुनाफे के भूख की सीमा को नियंत्रित करना होगा। नहीं तो जो कुछ भी इस धरती पर सुंदर है, सुखदाई है, मनुष्य के जीवन का स्वाभाविक सहयोगी और उपयोगी है, वह विनष्ट हो जाएगा।

गुजरात, हिमाचल प्रदेश से शुरू होकर उत्तराखंड, पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और जम्मू कश्मीर, असम तक फैली विराट त्रासदी ने हमारे सामने कुछ जलते प्रश्न रख दिए हैं।

वह यह है कि हमारे विकास की दिशा क्या हो? भारत निर्माण के लिए हमें किस रास्ते पर चलना होगा। क्या प्रकृति और मनुष्य के बीच में सामंजस्य की कोई सीमा रेखा है, जिसका उल्लंघन करते ही मानव सभ्यता को गंभीर चुनौती मिलने लगती है। भारत में विकास का जो मार्ग चुना गया है और जिस विकास को लगातार मोदी द्वारा आकाश में उछाला जाता रहा है, क्या उसकी  मूल दिशा ही प्रकृतिक संपदा को मुनाफे के लिए अनियंत्रित दोहन पर केंद्रित है। यह सैलाब उस विकास की दिशा का स्वाभाविक परिणाम है।

केदारनाथ त्रासदी से लेकर जेपी हाइड्रो प्रोजेक्ट के टनल में फंसे हुए मजदूरों और बार-बार उत्तराखंड में गंगा-जमुना के सहायक नदियों में पहाड़ियों के खिसकने से आए हुए मलवे से पैदा हुए प्राकृतिक संकटों ने अनेक बार हमें चेतावनी दी थी कि अगर हम विकास के कारपोरेट लूट के मार्ग पर चलते रहे जो स्वाभाविक है मनुष्य खुद अपने द्वारा पैदा की गई समस्या का शिकार होगा ।

उत्तराखंड में नदियों को बांधकर बड़े-बड़े बांधों और सैकड़ों विद्युत परियोजनाएं ने जो गाद व मलवे नदियों में छोडें हैं। वह बारबार नदियों के बहाव में अवरोध पैदा करते हैं। जिससे इन त्रासदियों को  मानव निर्मित त्रासदी कहा जा सकता है।

अभी कुछ ही महीने पहले जोशीमठ का संकट हमारे सामने खड़ा हुआथा। जो अभी तक हल नहीं हुआ है। जहां पहाड़ के नीचे खोदी जा रही सुरंगों के लिए बारूदी विस्फोट कारण अचानक सैकड़ों घरों में दरारें दिखाई देने लगी थी। कई स्थानों पर शहर में  पानी निखलने लगा। उन समय सैकड़ों परिवार विस्थापित हुए थे।घरों को खाली करायागया। उनका रोते हुए अपने पुश्तैनी वास स्थान से बिछड़ना मनुष्य को झकझोर देने वाला मंजर था ।

लेकिन लुटियन की दिल्ली में बैठे हुए हुक्मरानों और शासकों ने झूठी दिलासा देने के साथ परियोजनाओं की वैधता पर सवाल उठाने वाले सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं को (विद्युत परियोजनाओं सहित बन रहे चारधाम यात्रा मार्ग पर )  देशद्रोही  विकास विरोधी तक की संज्ञा दी गई।

जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के नेता  अतुल शती को नक्सली और न जाने क्या-क्या कहा जाने लगा। एक अधिकारी ने तो यहां तक कहा कि मैं इस आदमी का चेहरा नहीं देखना चाहता। विस्थापित हो रहे नागरिकों के दर्द को समझने की जगह उनका उपहास उड़ाया गया। आज उसी उत्तराखंड में सैकड़ों सड़कें और संम्पर्क मार्ग मलवे और गाद से भर गए हैं।आवागमन ठप्प है।

उत्तराखंड के गांधीवादी चंडी प्रसाद भट्ट,  सुंदरलाल बहुगुणा और डॉक्टर शेखर पाठक  जैसे पहाड़ के आर्गेनिक सामाजिक,  राजनीतिक बौद्धिकों ने बार-बार चेतावनी दी थी कि हमारा हिमालय अभी नया है। कच्चा है। इसके साथ विकास के नाम पर छेड़छाड़ की सीमा तय की जानी चाहिए। नहीं तो यह कभी हमें बड़े संकट में डाल सकता है ।

80 के दशक से ही जंगलों की कटाई और पहाड़ों के छेदाई को लेकर पर्यावरणविदों ने बार-बार सवाल उठाए । उनका कहना था कि हमारी प्राथमिकताएं तय हो।लेकिन उस समय भी बड़े बांधों और बड़ी पनबिजली परियोजनाओं को प्राथमिकता दी गई। जिससे बारूदी सुरंगों से पहाड़ को छेदने के कारण पहाड़ियों और नदियों में जगह- जगह गाद और मलवों के जमा होने से बहाव के रास्ते जाम होते गये।

जब से मोदी सरकार आई है स्थिति बदतर होती जा रही है। उसके लिए ‘देवभूमि’ हिंदुत्व के एजेंडे और कारपोरेट कंपनियों के मुनाफे के लिए ही महत्व रखती है।  मोदी सरकार विकास के सभी पैमानों को हिंदुत्व के एजेंडे के आधार पर तय करती है ।

जब चार धाम परियोजना अस्तित्व में आई तो उत्तराखंड के समस्त पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक स्वर से यह चेतावनी दी थी की पर्यटन और पैसे के लिए पहाड़ों से छेड़छाड़ खतरनाक होगा। लेकिन मोदी सरकार तीर्थाटन और पर्यटन में अंतर को खत्म कर  धर्म स्थलों को बाजार के हवाले करने पर तुली हुई है। उसका उद्देश्य ही है भारत के हिन्दू समाज की धार्मिक आस्थाओं का दोहन करने के लिए कारपोरेट मुनाफे के अनुरूप संरचनात्मक बदलाव करना है। जिसे हम महाकालेश्वर मंदिर से लेकर काशी धाम कारीडोर, अयोध्या तक देख रहे हैं।

पहाड़ में भी इसी नजरिए से चारों धाम को कनेक्ट करने की योजना बनाई गई । जिससे पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर बाजार के विस्तार द्वारा मुनाफे के लिए ज्यादा से ज्यादा आस्था का दोहन किया जा सके। बाजार अपने साथ उन सभी बुराइयों को लेकर चारधाम क्षेत्र में प्रवेश करेगी। जिससे यहां की पारिस्थितिकी से लेकर सामाजिक ताने-बाने को गंभीर चोट पहुंचेगी। खैर

जानकारी के अनुसार मनाली में व्यास नदी किनारे से लेकर हिमाचल के सभी प्रमुख शहरों और पर्यटन स्थलों में जो विध्वंस हुआ और लोग मारे गए हैं। वह अकल्पनीय है । एक मोटे अनुमान के अनुसार 2हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान और 100 से ज्यादा की जनहानि हिमाचल प्रदेश में हुई है।

साथ ही पर्यावरण, जंगल और जीवन को जो क्षति पहुंची उसे वापस पटरी पर लाने में छोटे राज्य को कठिन संघर्ष करना पड़ेगा।  किसानों से लेकर झुग्गी झोपड़ियों, गांव-कस्बों में रहने वालों को जो भारी नुकसान उठाना पड़ा है, उसका आकलन तो बाढ़ उतरने के बाद ही हो पाएगा। लेकिन कुछ बातें स्पष्ट हैं, जिस पर हमें अवश्य विचार करना चाहिए।

अनियंत्रित और अनियोजित शहरी विकास के कारण पिछड़े इलाकों झारखंड बिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश छत्तीसगढ़ ‌उत्तराखंड से लाखों लोग अपने गांव से विस्थापित होकर दिल्ली जेसे महानगर की तरफ भागे और आकर यहां के झुग्गी झोपड़ियों नदी नालों के खादर और किनारे में समाते गए। जिन्होंने महानगरी चमक को बनाए रखने में अपना जीवन खपा दिए । महामारी, प्राकृतिक आपदा की मार इन्हें ही सबसे ज्यादा झेलना पड़ता है।

कोविड-19 महामारी के दौरान अमानवीय लॉकडाउन के समय लाखों की तादात में जो लोग सड़कों पर निकलआए थे।ये वही लोग हैं। जो इस कारपोरेट हितेषी विकास की नीतियों के शिकार हो चुके हैं।  न्यूज़क्लिक के अनुसार जमुना नदी के खादर में पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले का एक किसान परिवार 40 साल पहले आकर बस गया था।जो सब्जी पशुपालनऔर अन्य खाने  की चीजों को पैदा कर गुजर बसर करता था। इस बाढ़ ने उसे तबाह कर दियाया हैं। उनके घर का सामान जानवर सभी कुछ बह गया है ।

इस तरह के परिवारों की संख्या लाखों में बताई जा रही है ।हमें इस बात को अवश्य सोचना होगा की स्मार्ट सिटी की चमक और शहरी विकास की कीमत किसको चुकानी पड़ रही है। हमें यह समझना ही होगा कि उदारीकरण भारत जैसे देश के लिए कितना विनाशकारी रहा है।

भारत में सभी विचार की पार्टियों और सरकारों में मतैक्य रहा है कि खेती पर से आबादी का बोझ घटाया जाना चाहिए। उन्हें अन्यत्र ले जाकर अन्य पेशों में खपाना होगा। लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर के अभाव, अवरुद्ध औद्योगिक विकास और नोटबंदी के कारण बर्बाद हुए मध्यम और लघु उद्योगों के कारण गांव से उजड़े हुए लोग शहरों के किनारे नदियों नालों सड़कों के इर्द-गिर्द बिलों में रहने वाले जानवरों की तरह से फैल गए हैं। जो हर प्राकृतिक और मानवीय त्रासदी के समय प्रकट हो जाते हैं।  भारत के राजनीतिज्ञों के लिए वे मात्र एक वोट भर हैं। सैलाब ने शहरी विकास की मानवद्रोही असलियत को सामने ला दिया है। इसलिए अगर विकास की पूंजी केंद्रित नीतियों को नहीं बदला गया तो आने वाले समय में इससे भी भयानक मानव त्रासदी देखनी पड़ सकती है।

 

दिल्ली के विकास के मॉडल पर सवाल उठाते हुए खुद विस्थापित लोगों ने बताया कि मेट्रो और सेंट्रल विस्टा से निकले हुए कंक्रीट के कचरे और मलबे को जमुना के पेट में लाकर उड़ेल दिया गया। जिससे जल बहाव के प्राकृतिक रास्ते अवरुद्ध हो गए। दिल्ली में जल निकासी का सवाल एक गंभीर प्रश्न बनकर उभरा है ।जल निकासी के नालों की  वैज्ञानिक तरीके से कचरा सफाई की पॉलिसी न होने के कारण सीवर सिस्टम चोक हो गए। जिस कारण बाढ़ का गंदा पानी उन इलाकों में पहुंच गया जो नदी के डूबक्षेत्र में नहीं आते। सफाई कर्मियों की अपर्याप्त संख्या और ठेका मजदूर के रुप में उनको अमानवीय जीवन जीना पड़ता है । इन कारणों से दिल्ली को अप्रत्याशित जलभराव का  सामना करना पड़ा।

बिल्डरों, ठेकेदारों, नौकरशाहों और नेताओं के त्रिगुट ने महानगरी विकास की परियोजनाओं को दुधारू गाय की तरह खूब दुहा और मुनाफा कूटा है। इनके सहयोग और संरक्षण से  प्रतिबंधित क्षेत्रों में मकानों के निर्माण जल निकासी के इलाकों नदियों नालों सड़कों और पटरियों के किनारे झुग्गी झोपड़ियों के नियंत्रित बसावट के कारण शहरों का जल निकासी सिस्टम बाधित है ।

चुनाव के समय इन्हें नियमित करने अन्यत्र बसाने जैसी योजनाएं बड़े धूमधाम के साथ प्रचारित की जाती है। लेकिन इन गरीब लोगों के जीवन का सुरक्षित घर का सपना कभी पूरा नहीं होता। यह सपना त्रिगुट के लिए अपार पैसा लूटने का बढ़िया जरिया भी है ।

हमने मुंबई से लेकर दिल्ली तक बाढ़ के दौरान बार बार त्रिगुट के अपराध को अनुभव किया है। इसलिए इस नेक्सस को तोड़े बिना हम शहरों के सुरक्षा साफ सफाई और जल निकासी की योजनाओं को सही ढंग से संचालित नहीं कर सकते ।

एक जानकारी के अनुसार हरित और वन्य क्षेत्रों में अक्षरधाम जैसे मंदिरों और कामन वेल्थ कंट्रीज गेम्स के लिए खेल के मैदानों के निर्माण ने भी जमुना के प्राकृतिक जल बहाव के रास्ते को अवरुद्ध किया । सरकार की ऐसी नीतियों का फायदा उठाकर ठेकेदारों नौकरशाहों और राजनेताओं का गठजोड़ नदियों के जल क्षेत्रों का भी  बेच कर पैसा कमा लेता है।

सूखा और सैलाब से बचाव के लिए वैज्ञानिक नीतियों के अभाव के कारण ठोस योजनाएं नहीं बन पाती। नदियों पर पुख्ता तटबंध बनाने, तटबंधों के निर्माण में भ्रष्टाचार को रोकने और सही ढंग से उनके रखरखाव के द्वारा बहुत सारे क्षेत्रों को बाढ़ से बचाया जा सकता है।

इस बार तो कई तट बंध इसलिए टूट गए कि जल निकासी के मार्ग में  शहरी कचरे के पहाड़ लगा दिए गए थे। सैलाब का पानी जिनको न तोड़कर बांधों को ही तोड़ दिया। जिससे हजारों एकड़ फसल और गांव डूब गए । पंजाब में फैला हुआ सैलाब इस बात की गवाही दे रहा है।

नदियों के तटबंधों व बांधों के निर्माण और मरम्मत के साथ नदियों के साफ सफाई की जगह सरकार की प्राथमिकताएं  गौशालाओं और गोबर के गुणों की खोज करने पर केंद्रित है। इसलिए सरकार के नीति नियामक लोग किसी वैज्ञानिक नीति के द्वारा जल प्रबंधन और सूखे की कोई ठोस योजना बना पाने में अक्षम है।

स्वाभाविक है,   जब तक कारपोरेट हितैषी नीतियों को बदलकर जनपक्षधर नीतियां नहीं ली जाती  तब तक हम इस तरह की आपदाओं के शिकार होते रहेंगे।

1971 /72 के आसपास दिनमान में बाढ़ नियंत्रण को लेकर एक रिपोर्ट छपी थी। जिसमें एक खबर थी कि पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के काल में बिजली और सिंचाई मंत्री रहे के,एल, राव ( जो एक बड़े इंजीनियर थे) ने नदियों को आपस में जोड़ने की एक योजना सरकार के सामने रखी थी ।उसके अनुसार उत्तर भारत की नदियों को मध्य और दक्षिणभारत की नदियों से जोड़ना था। जिससे नदियों के अतिरिक्त जल को एक इलाके से दूसरे इलाके तक इस कनेक्टिविटी द्वारा पहुंचाकर बाढ़ और सूखा पर नियंत्रण किया जा सके। लेकिन उस समय परियोजना की लागत को देखते हुए इसे व्यावहारिक रूप नहीं दिया जा सका। बाद के दिनों में कई सरकारों ने इस पर विचार किया। लेकिन उनकी प्राथमिकता  खेती किसानी और पहाड़ जंगल बचाने की नहीं थी।

इस भयानक त्रासदी के समय जब 12 राज्य सैलाब में डूबे हो उस समय हमारे प्रधानमंत्री रफेल और पनडुब्बी खरीदने के अभियान पर हैं । तो समझा जा सकता है, कि इस देश का क्या होने वाला है।

जितना पैसा इस समय अमेरिका और फ्रांस से हथियार खरीदने पर खर्च किया जा रहा है। उससे कम में ही यह परियोजना पूरी की जा सकती है । जिससे उत्तर प्रदेश पंजाब हरियाणा के साथ राजस्थान मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र तक पानी पहुंचाया जा सकता है।

भारतीय उपमहाद्वीप की कई नदियां ऐसी हैं ।जो कई देशों को आपस में जोड़ती है। चीन के तिब्बत प्रदेश के हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियां सिंधु, सतलुज, ब्रह्मपुत्र से लद्दाख नेपाल और अरुणाचल असम के रास्ते कभी-कभी अतिरिक्त जल आ जाने से कई राज्य डूब जाते हैं ।

बिहार उत्तर प्रदेश बार-बार नेपाल की नदियों के अतिरिक्त जल के कारण बाढ़ की चपेट में आते हैं।  ब्रह्मपुत्र से असम में भी ऐसा होता है। जिससे भारत और बांग्लादेश को बाढ़ का सामना करना पड़ता है। यही हालात पाकिस्तान में भी सिंधु और सतलुज के पानी के चलते पैदा होते हैं।

पिछले साल  बाढ़ ने पाकिस्तान में जो तबाही मचाई थी उससे पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठ गया है ।

भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में अगर इन नदियों के जल प्रबंधन को लेकर आपस में कोई वैज्ञानिक योजना बनती तो अतिरिक्त जल को कई तरह से नियंत्रित किया जा सकता है और एक दूसरे के लिए उसे उचित अवसरों पर उपलब्ध कराया जा सकता है। आपसी सीमा विवाद और मतभेद के रहते हुए भी बाढ़ नियंत्रण के लिहाज से यह इन देशों के हित में होगा ।

फरक्का जल परियोजना और सतलुज के जलसे संबंधित ऐसे समझौते इन देशों के बीच में हुए हैं । इसी तरह काली नदी और कोशी को लेकर नेपाल के साथ भी और बेहतर तालमेल बिठाया जा सकता हैं ।जिससे विशेषज्ञों की सहमति से बेहतर और उपयोगी बनाकर इन इलाकों में बाढ़ और सूखा पर नियंत्रण किया जा सकताहै।

इसी तरह कई ऐसे इलाके जहां कभी जल जमाव नहीं होता था।अनियोजित विकास योजनाओं (जैसे गांव में चकरोड खड़ंजा लिंक रोड़ों के निर्माण) के कारण आज डूब क्षेत्र हो गए हैं। हाईवे एक्सप्रेस आज  जल भराव के नये क्षेत्र पैदा कर रहे हैं। जिस कारण किसानों की कई फसलें मारी जा रही है तथा जमीन की उर्वरा क्षमता पर भी उसके दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं।  जिससे तिलहन दलहन की फसलों के एरिया सिकुड़ते जा रहे हैं।

लेकिन यह दुर्भाग्य है कि भारत के राजनीतिज्ञों की प्राथमिकताएं अवैज्ञानिक सोच और कारपोरेट नियंत्रित है । चूंकि हर आपदा कारपोरेट पूंजी के मुनाफे को नया अवसर प्रदान करती है। इसलिए सरकारें भी आपदा प्रबंधन की जगह पर आपदा क्रिएटर की भूमिका में हमारे सामने दिखाई दे रही है।

हिमाचल प्रदेश से लेकर दिल्ली पंजाब हरियाणा पश्चिमी उत्तर प्रदेश उत्तराखंड तक आये सैलाब के जितने प्राकृतिक कारण है उससे ज्यादा हमारे विकास की नीतियों के अंदर तबाही का राज छुपा हुआ है। इस दिशा को बदल कर ही हम आने वाले समय में भारत में बाढ़ और सूखाड  पर नियंत्रण पा सकते हैं।

फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार 

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