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हरेली तिहार: मनुष्यता को हरियर करने का लोक संकल्प

भुवाल सिंह


आज छत्तीसगढ़ लोक में हरेली लोकपर्व है! हरेली अर्थात् हरियाली। अब प्रश्न उठता है सावन के हरे भरे मौसम में हरेली क्यों? जब सब ओर हरा है। यह पर्व हरियाली को विभिन्न आशयों से जोड़ने का लोक अरमान है।

सुबह से ही किसान अपने जीवन सहचर पशुधन और किसान की गति के प्रतीक कृषियंत्र नांगर (हल), जुड़ा, चतवार, हंसिया, टंगिया, बसूला, बिंधना, रापा, कुदारी, आरी, भँवारी के प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हैं। किसानिन घर में पूरे मन से गेंहू आटे में गुड़ मिलाकर ‘चिला’ बनाती है। पश्चात चिला (मीठा लोकव्यंजन) को कृषियंत्रों को समर्पित किया जाता है। हरेली कृषि के प्रथम सोपान बोनी,बियासी पूर्ण होने का उत्सवी घोषणा है। इस लोक पर्व से गुजरते हुए छत्तीसगढी लोकगीत की पंक्तियां मन में उतरने लगती है-
‘झिमिर झिमिर बरसे पानी
दौड़ो रे संगी ,दौड़ो रे साथी
चुचवावत हे ओरवाती
मोती झरे खपरा छानी!
लइका मन झुमय नाचय
बबा मन रामायन बाचय
बचन लागय गीता बानी
बचन लागय गीता बानी!’

सावन का महीना लग गया है। ओरिया से मोती जैसे बारिश की बूंदे धरती में गिर रही है। बच्चे सावन की बूंदों में को छूकर खेल में मग्न हो रहे हैं। वृद्ध जन सामूहिक स्वर में दण्डक रामायण बांच रहे हैं। इन सबसे भिन्न किसान और उनकी किसानीन की स्थिति है।

सावन के घनघोर बूंदों के मध्य किसान अपने जीवन सहचर हीरा, मोती सरीखे बैलों को लेकर नांगर और अन्य कृषि उपकरणों की सहायता से कृषि कर्म में रत है। किसान बैलों को तेज चलने की संकेत हेतु त त त और अर्र अर्र की आवाज़ लगा रहे हैं। यह आवाज गीता के कर्मयोग की लोकबानी है। जहां बैठे ठाले का उपदेश नहीं बल्कि कर्म केवल कर्म में आस्था है। हरेली भुखमरी और अकाल के विरुद्ध लहलहाती फसल की आश्वस्तिपरक लोकपर्व है।बुंदेलखंड,विदर्भ और कालाहाण्डी के दृश्य को जब जब देखता हूं मन में हरेली को याद करता हूँ मेरी हरेली वहां भी उतर और हरियाली बिखेर।

किसान पर्व हरेली सावन महीने की अमावस्या के दिन हरियाली भरे उजाले की गाथा है। सावन के आगमन के साथ ही छत्तीसगढ़ लोक आरोग्य हेतु सचेत हो जाता है।आरोग्य कामना की पहली अभिव्यक्ति सावन के शुरू दिन घर के द्वार पर ‘सवनाही’ बनाकर किया जाता है।’सवनाही’ गोबर से बनाया गया लोकचित्रकारी है।जिसमें अमंगल के नाश हेतु प्रार्थना भाव समाहित है।

हरेली के दिन किसान के जीवन आधार पशुओं के आरोग्य हेतु पहटिया (चरवाहा) पहट (सुबह) से पशु धन को खैरखा टांड़ (गोठान) ले जाता है। हरेली के एक दिन पहले चरवाहा पूरे विधि विधान से ‘बन गोंदली’ और ‘दशमूल कंद ‘लाता है।इन औषधीय गुणों से युक्त वनस्पत्ति को हरेली के दिन गेहूं की लोई (लोंदी) बनाकर खड़ी नमक के साथ अंडा(अरण्ड)और खम्हार के पत्ते में लपेटकर गाय बैलों को खिलाया जाता है। इन कंद और वनस्पत्ति के सेवन से पशुधन वर्ष भर रोग प्रतिरोधक क्षमता के विकास के कारण आरोग्य रहता है। इसके साथ ही चरवाहा को हरेली के अवसर पर गाय- बैल के मालिक किसान द्वारा चावल,दाल दिया जाता है।

छत्तीसगढ़ के कई क्षेत्रों में दशमूल कंद और बन गोंदली को चरवाहा द्वारा देने के पश्चात मनुष्य भी इसका औषधि के रूप में सेवन करते हैं।

बस्तर क्षेत्र में आज के दिन ‘अमूस तिहार’ मनाया जाता है।इस अवसर पर यहां के चरवाहा जिसे यहां धोरई भी कहा जाता है। वह रसनाजड़ी और देवबाढन(शतावरी)लाने वन जाता है। वह इस औषधि रूप वनस्पत्ति को प्रणाम कर गांव में लाता है और हरेली (अमूस तिहार) के अवसर पर पशुधन को आरोग्य कामना सहित खिलाया जाता है।हरेली पर्व की हरियाली पशुधन के आरोग्य में है।

अब आते हैं मनुष्य के तरफ-हरेली के अवसर पर छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में राउत (चरवाहा) या कई इलाकों में बैगाओं द्वारा घर के मुख्य द्वार में नीम की डाली खोंची जाती है। बस्तर क्षेत्र में अमूस तिहार के अवसर पर घर में ‘डूमा डारा’ खोंची जाती है। नीम की डाली को खोंचने के पीछे लोक की वैज्ञानिकता छिपी है। नीम रोग प्रतिरोधक क्षमता का पर्याय वनस्पत्ति है। वर्षाकालीन बीमारियों से लड़ने के लिए नीम, खम्हार, अंडा के पत्ते, दशमूल कंद, रसनाजडी, देवबाढ़न जैसे पौधे अचूक हैं। ‘डूमा डोरा’जो बस्तर में नीम की तरह घर में खोंची जाती है।अपने वायुशोधक गुण के लिए प्रसिद्ध है। हरेली की हरियाली का आरोग्य विस्तार पशु से मनुष्य तक है।

मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को सहअस्तित्व की भूमि में जीवन देने वाली हरेली के दिन भेलवा की पत्तियां भी लगाई जाती है ताकि हरे भरे खेतों से धान उपजें और दुनिया में खुशी हो। भेलवा खुशहाल फसल और जीवन हेतु मंगलकामना का प्रतीक है।

हरेली के आसपास ही चरोटा भाजी का भी सेवन शुरू होता है। इस भाजी में भी औषधीय गुण छिपे हुए हैं।

हरेली के ही दिन दशहरा रथ हेतु जंगल से लकड़ी लाकर जगदलपुर के राजदरबार के दरवाजे में पारंपरिक अनुष्ठान के पश्चात रखा जाता है।बस्तर का दशहरा विख्यात है।

हरेली पर्व को लेकर छत्तीसगढ़ में टोनही सिद्धि का भी मिथक विद्यमान है। यहां के लोक में ऐसी मान्यता है कि सावन मास के हरेली अमावस्या के दिन जादू टोने के लिए टोनहा एवं टोनही सिद्धि प्राप्त करते हैं। टोनही भय और अंधविश्वास का रूप है। जिसके कारण कई महिलाओं पर झूठे आरोप भी लगते रहते हैं। इन सबको ध्यान में रखकर छत्तीसगढ़ में टोनही प्रताड़ना अधिनियम भी बनाया गया है।

अब हरेली के असल उल्लास की ओर आते हैं। बचपन में हरेली की हरियाली हमें गेड़ी में दिखाई देती थी। हरेली के दिन बड़े धूमधाम से बांस या अरण्ड से गेडी बनाई जाती है।अपने क्षमता भर ऊंचाई को ध्यान में रखकर गेड़ी की लंबाई तय की जाती है।फिर उसमें पावा खोंपा जाता है।पावा को नारियल की रस्सी में बांधा जाता है।पश्चात नारियल की रस्सी में ऊपर से मिट्टी तेल डालते है।जैसे जैसे हम गेडी के सहारे अपने पैरों को आगे बढाते है।वैसे वैसे गेड़ी से निकलती रचक रचक की आवाज़ बचपन की सबसे सुंदर ध्वनि में शुमार है। गेड़ी का लोक आयाम दो रूपों में महत्वपूर्ण है। प्रथम यह लोक खेलों का प्रतीक है जो बचपन की सबसे सुंदर और जीवंत रूप है। आज भी बच्चें गांवों में गेड़ी के ऊपर चलते हुए अपने को सिरमौर मानता है। दूसरा यह गेड़ी सावन के बारिश के बाद कीचड़ ,सर्प और अनेक विषैले कीड़ो से भी सुरक्षा प्रदान करता है।

गेड़ी के बनने की कहानी को वही समझ सकता है जो मोबाइल के तुरंता युग में भी लोक को समझने का धैर्य रखता है। अपने बच्चों को गांव के खेलों में सम्मिलित होने का अवसर देता है। धूल से प्रेम करना जानता है।गेड़ी में चढ़ते उतरते गिरते बच्चे जीवन में सामूहिकता और धैर्य का पाठ सीखते हैं। वे इस प्रक्रिया में जानते हैं कि गांव से प्रेम पेड़ ,पौधों,तरिया,नदिया,गाय,बैल,चिड़िया,गेड़ी ,धूल,गोबर को आत्मसात करने का नाम है।

हरेली के दिन गेड़ी की गूंज और अनेक लोक खेलों की ध्वनि वातावरण में उत्सव का रस घोलती है।इस दिन कबड्डी, खो-खो,पोषम पा,टिटँगी दौड़,गेड़ी दौड आदि अनेक खेलों का आयोजन होता है। छत्तीसगढ़ में हरेली का दिन भारत माता के रतन बेटा छत्तीसगढ़िया का उत्सवी दिन है-

मैं छत्तीसगढ़िया अंव ग
भारत माता के रतन बेटा
बढ़िया अंव ग
मैं छत्तीसगढ़िया अंव ग।

(भुवाल सिंह शासकीय महाविद्यालय भखारा(धमतरी) में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैैं।)
सम्पर्क-7509322425

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