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वीरेन दा की याद: ‘नदी’ कविता के बहाने से

शिव प्रकाश त्रिपाठी
“ लंबे और सुरीले नहीं थे मेरे गान
मेरी सांसे छोटी थी
पर जब भी गाए
मैंने बसंत के ही गान गाए
अपनी फटी हुई छाती के बावजूद”
बसंत आ चुका है पर न तो हवा में रवानगी ही आई और न फूलों में भौरें. फूल खिले तो हैं पर उनमें कालिख की एक पूरी परत चढ़ी हुई है. ये अंधकार युग की पदचाप भी हो सकती है. एक ऐसा समय गति में है, जहाँ एक तरफ पूरे विश्व में वैश्वीकरण बनाम संरक्षणवाद पर छाती-पीट बहस चल रही है वहीं दूसरी तरफ़ इस महादेश का आमजन बढ़ती अहमन्यता, घटती इंसानियत और सपाट होती जिन्दगी से संघर्ष कर रहा है. घने अन्धकार के इस मौसम में ऐसी पहल चाहिए जो   हमें उजाले की तरफ़ ले जाए तब ऐसे समय में बरबस वीरेन दा याद आते हैं जिन्होंने जोर देकर कहा की “ उजले दिन जरुर आयेंगे”. ये महज एक नारा नहीं है न ही कोई सपाट पंक्ति, ये निराश लोगों का महाकव्य है जो उन्हें दे रहा है एक उम्मीद का लोकपथ जिस रास्ते हमारे जन चलकर आयेंगे. किसी कविता की इससे बड़ी और क्या सार्थकता हो सकती है कि वह टूटे हुए लोगों का सम्बल बन सके, निराश लोगों की आशा बने. यहाँ धूमिल सही साबित होते हैं कि “कविता सबसे पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है.”
मुझे नदियाँ हमेशा आकर्षित करती हैं. उनकी रवानगी, अल्हड़ता और प्रगतिगामिता हमेशा से मेरे भीतर उजास भरती रही. वीरेन दा की कविताएँ मुझे इसलिए भी पसंद हैं क्योंंकि इनकी कविताओं में नदियों के बिम्ब अक्सर देखने को मिलते हैं, बल्कि वीरेन दा की एक लम्बी कविता ही “नदी” शीर्षक से है जिसमें वह नदी के माध्यम से हमारे सत्ता, समाज, तंत्र की वास्तविकता उजागर करते हैं. वीरेन दा का नदी प्रेम सिर्फ कोरी भावुकता नहीं है और न ही मोह मात्र है, वह उनके लिए जीवन में उजास भरने वाली है. वह एक समर्पित कवि व सजग इंसान हैं. वह किसी भी पदार्थ को उसकी सम्पूर्णता में देखना पसंद करते हैं. ऐसा भी नहीं है कि नदियों में कविता करने वाले वह अकेले कवि हैैं, केदारनाथ अग्रवाल का अपनी नदी ‘केन’ के प्रति प्रेम जगजाहिर है पर वीरेन दा के यहाँ नदी ज्यादा निपट यथार्थ के धरातल पर बहती हुई दिखती है. केदारनाथ अग्रवाल जहाँ केन को बिना जगाये ‘मैंने उसको नहीं जगाया/दबे पाँव वापस घर आया’ कह चुपचाप वापस चले आते हैं उसे सोते हुए छोड़कर, वहीं वीरेन दा के यहाँ बात यहीं से आगे बढ़ती है और उनकी नदी पूरे होश-ओ-हवाश में कूदते फांदते चलती है और कवि उससे सवाल भी करता है कि –
“इतना सारा पानी अपनी पीठ पर बांधे
मछलियों पर सवारी गाँठे
इस तरह चीखती चिल्लाती
कहाँ जाती है तू
ओ नदी ?”
कवि वीरेन की नदी सिर्फ सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति भर ही नहीं  है, न ही वह कोई सुकोमल स्त्री सी है.  वह पुलिस के दरोगा की तरह सीना तानकर चलने वाली है, उसमें वैसी ही अकड़ है जो किसी पुलिस वाले में होती है. यहाँ कवि नदी को शरीफ मानने की भूल बिलकुल नहींं करता क्योंकि उसने नदी का ये रूप भी देखा है
“भर्राती
जैसी जीप पर बैठी
वह निकलती है किसी तूफानी मुहीम पर
अँधेरी रात में
पुलिस-दरोगा की तरह गरजती विफरती”
नदियाँ हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैैं. ये परम्परा की वाहक रही हैं. इसने न जाने कितनी ही पीढ़ियों को पलते बढ़ते देखा है. परम्परा की मजबूत वाहक को एक बड़ा कवि कभी भी अनदेखा नहीं कर सकता. वीरेन दा के यहाँ तो परम्परा और समकालीनता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है कई दफ़े. जैसे कोई भी युग अपने अतीत से असम्बद्ध नहीं होता और न वर्तमान से परे, ठीक उसी प्रकार कोई कविता भी. कोई भी कालजयी कविता न तो परम्परा से मुँह फेरती है और न वर्तमान को मुँह चिढ़ाती है, वह तो बहुत ही संवेदित रूप से चीजों को समेटती है. ताली पीढ़ियों को समृद्ध कर सके. इस आधार पर देखा जाय तो कविता स्वयं एक नदी की ही तरह होती है जो ठीक नदी की तरह ही परम्परा की वाहक होती है. वह जो अतीत से पाती है और वर्तमान में देखती सुनती है, वह आने वाली पीढ़ी को ठीक उसी तरह समर्पित कर उर्वर बनाती है .
इस “नदी” शीर्षक कविता में नदी के जगह “कविता” रख देने से न तो उसके अर्थ में कोई परिवर्तन दीखता है न ही कोई मायने बदलते हैं. यह कविता अपने पूरे लय से आगे बढ़ती है. एक संवेदनशील इंसान व जिम्मेदार कवि की कविता में आप जितना डूबियेगा नए नए अर्थों से ओतप्रोत होते जाइएगा. नदी को सौन्दर्य के रूप में देखना उसका परम्परागत दृष्टिकोण हो सकता है पर कवि इतने में ही  वह रुकताा, उसे सामयिक घटनाक्रम से जोड़ उसे समकालीनता से जोड़ता है, चाहे वह तंत्र की तानाशाही हो या फिर सत्ता की धमक, कवि नदी पर कविता करते हुए भी इसे नहीं भूलता. समकालीन कविता में ऐसे बिम्ब बहुत कम देखने को मिलते हैं. वीरेन अपनी कविता में कोई भी बिम्ब योों ही नहीं रखते, उनका एक बड़ा और गम्भीर लक्ष्य होता है. हमारे सत्ताधारियों की अहमन्यता और तानाशाही रवैये के लिए यह निम्नलिखत बिम्ब बहुत ही मारक है. आमजन की लाचारी को शायद इससे ज्यादा मुखर ढंग से नहींं दिखाया जा सकता. जहाँ नदी को किसी पुलिस वाले की तरह चलते हुए दिखाया जाय. इस तरह का प्रयोग कोई प्रगतिगामी इंसान ही कर सकता है.सत्ता और तानाशाही तंत्र के रवैये के कारण आमजन की हालत पस्त है वह हताशा व निराशा से डूबा हुआ है वह लाचार हो चुपचाप अपनी बर्बादी देखा रहा है-
“निकम्मे सिपाहियों की तरह
हाथ बांधे सिर झुकाए
कतार में कांपते हुए पेड़
चुपचाप खड़े रहते हैं
और अपनी बर्खास्तगी के बारे में
सोचते रहते हैं…”
दरअसल यह नदी का बाह्य स्वरुप हो सकता है ठीक किसी शिलाखंड के मानिंद जो जो छूने में भले ही ठंडा हो पर उसकी तासीर गर्म होती है. नदी तो जीवनदायिनी है. न जाने कितनो किसानों की उम्मीद है. यही तो है जो गरीब लोगों की दरिद्रता को अपने साथ बहा ले जाती है और और बना जाती है उन्हें उर्वर-

“खिड़कियों और छतों के रास्ते
मकानों में घुस जाती है
और उदारता से सारी दरिद्रता को
अपने साथ बहा ले जाती है”
कवि वीरेन की कविताएँ निपट अँधेरे में रौशनी की एक उम्मीद लेकर आती है. इसलिए इनकी कविताएँ जन के करीब होती हैं. ये जनता की आवाज बनती हैं, उनको नेपथ्य में धकेले जाने से बचाती हैं. वह नदी कविता में बड़े सजगता के साथ कहते हैं–
“वह कहती है कमीनेपन से
लो छोड़ जाती हूँ
तुम्हारी मिट्टी में उपजाऊपन”
आजाद भारत का 69वां गणतंत्र दिवस मनाया गया. जब अख़बारों में काली मोटी हेडलाइन है कि देश का 75 प्रतिशत धन सिर्फ 1 प्रतिशत लोगों के पास है तो बाक़ी के 99 प्रतिशत लोग किस तरह जी रहे होंगे, किस तरह अपना जीवन निर्वहन कर रहे होगें, जबकी कवि की यह कविता सन 74 की लिखी है, पर आज के हालत पर सटीक बैठती है. स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ गयी है. उनके द्वारा दिखाए गये सन 74 के भारत को देखिये और आज के भारत से जरा मिला के  देखिये कि कितने हालात बदले हैं  भारत के जन मन गण की और कहाँ पहुँच गये हैं निज़ाम और पूंजीपती. 80 का दशक गरीबी हटाओ के नारे से चमका था और आज आप देख सकते हैं कितनी गरीबी हटी. –
“तुम्हारे फटे हुए छाते, टूटी हुयी खाटे
गली हुई बेसिक रीडर
पटके हुए खाली कनस्तर और मरगिल्ली गाय के बदले
लो तुम्हारी दस सेर लकड़ी के बदले
मैंने घुसा दिया है तुम्हारे दरवाजे के भीतर
बरगद का पेड़…”
सामाजिक विषमताओं का इससे जीवंत व यथार्थ चित्रण कम ही देखने को मिलता है . बढ़ती पूंजीवादी शक्तियों और तानाशाही रवैयों के खिलाफ एक जन कवि के द्वारा पेश की गयी तस्वीर है यह कविता, जो हमें हमारे तथाकथित सभ्य समाज का चरित्र दिखाती है. जिसकी सभ्यता तले एक किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहा है. गरीब इंसान जलालत भरी जिन्दगी जी रहा है और नई पीढ़ी वंचनाओं का शिकार है. डर घुसपैठिये की तरह व्याप्त है पूरे समाज में. कवि के लिए भी यह सब असह्य है –
“उस समय
जब उनके डरे हुए बच्चे
पहचान रहे होते हैं
अपने पिताओं की असहायता
नहीं खींच पाते
अपने माँओं के रीते स्तनों
और अपने पिताओं की
उँगलियों से साहस …”
कवि वीरेन के पास अपना बड़ा ध्वनि संसार है.नाद योजना में वह सिद्धस्त हैं. ध्वनियोों का सार्थक व सटीक प्रयोग इनके यहाँ देखने को मिलता है, चाहे नदियों की बालू की खुस्स-खुस्स हो या फिर किसी के हफ-हफ हांफने की ध्वनियाँ. ये सारी ध्वनियाँ कविता में शब्दों को अर्थ विस्तार, ज्यादा प्रभावी और संवेदनाशील बनाती हैं-
“तेरी आबदार देह
हुँमच-हुँमच कर पत्थरों से भींचती है
उँगलियाँ घुमाती है
लौ-झौ करती बातें मिलाती है
हाँफती है हफ-हफ…”

कवि वीरेन डंगवाल अपने खिलंदड़पन के लिए जाने जाते हैं. उनकी दोस्तों के साथ चुहलबाजी, मस्तमौलापन उनका स्थायी भाव बन चुका था और यही सब तो उनकी इस नदी कविता में दिखाई भी देता है. मने शब्द और कर्म उनके यहाँ एक थे. कोई मतद्वय नहीं है. जैसा लिखा वैसा ही जिया या फिर ये कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि जैसा जीवन जिया वैसा ही लिखा. द्वैध के लिए उनके यहाँ कोई जगह नहीं थी. इस कारण उनकी कविता सबसे निराली, सबसे अलग दिखती है. बहुत दूर से उसे पहचाना जा सकता है.यही वजह है कि उनके कविता कहन में बहुत रोचकता आ जाती है. सहजता इतनी की पाठक सीधे कनेक्ट हो जाता है उनकी कविताओं से. उसे किसी माध्यम और सहारे कि जरुरत ही नहीं पड़ती.
“ कमजोर किनारे की उघड़ी पिछाड़ी पर धरती है
दनादन लात
‘बता साले बता नहीं तो…”
इस तरह से हम देखते हैं कि कवि के यहाँ व्यंग्य बहुत ही मारक और एक अलग अंदाज में आता है. जन सामान्य की रोजमर्रा वाली भाषा में वह आमजन से सम्वाद करते हैं. इस तरह से वह जनता से ज्यादा जुड़ते हैं और यही एक जनवादी कवि की पहचान होती है. आज उनकी कविताओं की पंक्तियां आंदोलनों में जीवन के संघर्षों में मुहावरों कीई तरह प्रयोग की जाती है.वीरेन डंगवाल जन-जन के कवि है. जिन्हें हमेशा हिंदी साहित्य और आम जनता याद रखेगी ।

मोबाइल- 8960580855

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