समकालीन जनमत
स्मृति

एक यारबाश कवि की याद

रमाशंकर सिंह

 

(आज वीरेन दा उर्फ डॉ. डैंग का जन्म दिन है। उनसे बड़ा यारबाश और दोस्ती को मूल्य की तरह बरतने वाला कोई दूसरा मित्र-कवि पता नहीं अब नसीब होगा या नहीं। उनकी हरकतें, प्यार, डाँट, शरारते सब जेहन में रह-रह कर कौंध जाती हैं। उनका जीवन और उनकी कविता जैसे कि एक दूसरे की पूरक हैं। एक ‘दोस्त-कवि’ को याद करते हुए कुछ वर्ष पहले ‘ रहूंगा भीतर नमी की तरह ‘ पुस्तक में एक लेख मित्र और युवा अध्येता रमाशंकर सिंह ने लिखा था जिसे वीरेन दा के जन्मदिन पर उनके दोस्तों के लिए यहां पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है )

मैं वीरेन डंगवाल से कभी नहीं मिला। वे मेरे मित्र भी नहीं थे। व्यक्तिगत रूप से न तो वे मुझे और न ही मैं उनको जानता था। उनकी कविता के माध्यम से ही मित्रता पर बात करना ज्यादा मुफीद होगा क्योंकि व्यक्तिगत परिचय के पूजा-भाव और दुराग्रह में बदल जाने की आशंका होती है। तो वीरेन डंगवाल की कविता पर बात करने के लिए मैंने मित्रता विषय का चुनाव जानबूझ कर किया है। दुनिया में मित्रता या दोस्ती सबसे पुराना रिश्ता माना जा सकता है। विवाह संस्था से भी पुराना रिश्ता। समाज विज्ञानियों ने इस पर काफी लिखा है कि लोग मित्रता क्यों करते हैं? किसी मित्रता के स्थायी होने की क्या पूर्व शर्तें हो सकती हैं ?

सूजन विश्वनाथन ने एक बहुत ही खूबसूरत किताब लिखी है फ्रेंडशिप, इंटीरियोरिटी एंड मिस्टीसिज्म-एसेज इन डायलाग। इसमें यूरोप और भारत के सभ्यतागत अनुभवों के इंदराज हैं कि मित्रता क्यों जरूरी है। उपनिवेशवाद, मशीन, फासीवाद और अन्य खतरों के बीच मित्रता किस प्रकार पनपती है, इसे जानने के लिए यह किताब पढ़नी चाहिए। यहाँ मैं अपने आपको साहित्य और मित्रता के अंतर्संबधों पर सीमित रखूँगा।

भारत के सभ्यतागत अनुभव में मित्रता एक सामाजिक अवधारणा और चयन के रूप में विद्यमान रही है। संगम साहित्य, तिरूवल्लुर के नीति वाक्य, कृष्णदेवराय के आमुक्तमाल्यद में मित्रता पर व्यापक विचार विमर्श देखा जा सकता है। वेदों में कुछ देवताओं को मित्रों के रूप में परिकल्पित किया गया है तो धर्मसूत्रों, उपनिषदों और महाकाव्यों में मित्रता को एक सुंदर मानवीय गुण माना गया है। जातकों की अधिकांश कहानियों में मित्रता को एक चयन(च्वॉयस) के रूप में प्रस्तुत किया गया है जब किसी व्यक्ति ने दूसरे से मित्रता करने या न करने के अपने विवेक का इस्तेमाल किया है और इसे व्यापक जीवन संदर्भां में देखा है।

पंचतत्र को मित्रता के एक पाठ के रूप में देखा जा सकता है। इसमें पाँच तंत्र हैं- मित्रभेद, मित्र-सम्प्राप्ति, काकोलूकीय, लब्धप्राणाश और अपरीक्षितकारक। इन पाँच तंत्रों को पढ़ाकर राजकुमारों को जीवन की व्यवहारिकता से परिचित कराया जाता था। हमें यह नहीं पता है कि पंचतंत्र के राजकुमारों को किस प्रकार का और कितना व्यवहारिक अनुभव इससे आया लेकिन हमारे पास इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि पंचतत्र को पूर्व आधुनिक भारतीय शिक्षा पद्धति में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। पंचतंत्र की परंपरा ने आगामी साहित्य को भी प्रभावित किया।

एक दूसरे छोर पर मौखिक साहित्य है जिसमें मित्रता पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। अपने एक सीमित अध्ययन के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि उत्तर प्रदेश की घुमंतू जातियों के बीच जो किस्से कहानियाँ और गीत प्रचलित हैं, वे भी मित्रता के सभ्यतागत अनुभवों के वृत्तांत प्रस्तुत करते हैं। इन किस्से और कहानियों में एक विश्वदृष्टि होती है जिसमें परिवार, समुदाय या दुनिया को बचाने, उसे अधिक समतापूर्ण बनाने, संपत्ति के न्यायपूर्ण वितरण, मित्रता और आपसी भाईचारे की अविभाज्यता के संकेत छिपे होते हैं। इन कथाओं के अंदर इन घुमंतू समुदाय के अस्तित्व में बने रहने की जुगत भी छिपी होती है। मित्रता और आपसी सौहार्द्र के लिए सुनाई जाने वाली इन कथाओं में पंचतंत्र के कथाशिल्प की झलक मिल सकती है जो जो इन कथाओं की एक लंबी श्रुति परंपरा की ओर इशारा करती हैं।

उत्तर प्रदेश के नट समुदाय में एक कथा मिलती है। कथा कुछ यों सुनाई जाती है कि एक मोर था। एक तीतर था। दोनों हमेशा साथ रहते थे। एक बार दोनों में इस बात पर झगड़ा हो गया कि किसके पंख सबसे सुंदर हैं। जब कोई निपटारा नहीं हुआ तो वे अलग हो गये। अलग होकर दोनों दुःखी रहने लगे। इसी बीच एक दिन कुछ महिलाएं जा रही थीं। एक महिला ने दूसरी से कह कि देखो वह मोर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह मोर नहीं है। यदि वह मोर होता तो उसके पास में तीतर भी होता। मोर को बहुत दुःख हुआ। उसने महिलाओं से कहा कि उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना मोर का मन नहीं लगता। उसने महिलाओं से कहा कि यदि उसे कहीं तीतर दिखाई पड़े तो यह बात उसे बता दें। महिलाओं को कुछ दूर आगे जाने पर तीतर दिखाई पड़ा। एक महिला ने दूसरी से कह कि देखो वह तीतर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह तीतर नहीं है। यदि वह तीतर होता तो उसके पास में मोर भी होता। अब तीतर को बहुत दुःख हुआ। तीतर ने महिलाओं से कहा कि उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना तीतर का मन नहीं लगता। जब महिलाओं ने बताया कि मोर के साथ भी ऐसा ही है तो तीतर मोर के पास चला गया। वे साथ-साथ रहने लगे।

इस सामान्य सी कथा को कहकर समुदाय के बड़े-बूढ़े समुदाय के आपसी संबंधों और दोस्तियों को बचाने की जुगत खोजते हैं। घुमंतू समुदाय अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए न केवल कथा-कहानी और गीतों की रचना करते हैं बल्कि अपने सामुदायिक जीवन में एक दूसरे को स्वीकारने की विधियां भी ईजाद कर लेते हैं। दोस्ती उन्हें बचा लेती है।

मुक्तिबोध ने मित्रों के बारे में बहुत खूबसूरत कविताएं लिखी हैं- कि जैसे सूर्य! /अपने हृदय के रक्त की ऊषा/पथिक के क्षितिज पर बिछ जाय/जिससे यह अकेला प्रान्त भी निःसीम परिचय की मधुर संवेदना से/आत्मवत हो जाय/ऐसे जिस मनीषी की मनीषा, वह हमारा मित्र है/माता-पिता-पत्नी-सुहृद पीछे रहे हैं छूट/उन सबके अकेले अग्र में जो चल रहा है/ज्वलत तारक-सा/वही तो आत्मा का मित्र है। मेरे हृदय का चित्र है।

एक आधुनिक मूल्य के रूप में मित्रता बराबरी की माँग करती है। कृष्ण-सुदामा की मित्रता में कृष्ण सदैव राजा ही बने रहे जबकि आधुनिक भावबोध में मित्रता पर कविता लिखने वाले जनतांत्रिक समय की संतान थे। समय को यदि साहित्य रचता है, उसमें मनुष्य को केंद्र में लाता है तो उसकी खूबसूरत भूमिकाओं में मित्रता को जगह देनी होगी।

वीरेन डंगवाल का साहित्य इससे अलग नहीं है। दुनिया की समस्त कविताओं की तरह उनकी कविता मनुष्यता को बचाये रखने की जुगत है। उनकी कविता मानव सभ्यता के दुष्चक्रों में मित्रता की कीमत जानने वाली कविता है। आधुनिक हिंदी कविता में मुक्तिबोध के बाद वीरेन डंगवाल की कविता में मित्रता एक मूल्य के रूप में हमारे सामने आती है। मुक्तिबोध ‘मित्र‘ शब्द का व्यवहार करते हैं। मित्र उनका ‘आत्मीय‘ है। वीरेन डंगवाल ‘दोस्त‘ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। जब इस दोस्त से उन्हें कोई सरल लेकिन राजनीतिक बात कहनी होती है तो वे ‘साथी‘ शब्द का व्यवहार करते हैं।

वे लोग जो छात्र आंदोलनों और जन आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं, उसकी अंदरूनी तासीर को समझते हैं वे इस शब्द की अर्थच्छवियों से अपने आपको जोड़कर उनकी कविता का आस्वाद ले सकते हैं। थोड़ा राजनीतिक अर्थ में कहें तो वे इस कविता से अपना काम चला सकते हैं। काम चलाने का मतलब है कि किसी कविता की जीवन में क्या भूमिका हो सकती है? उसकी एक भूमिका विवेक संपन्न मनुष्य बनाने की है।

वीरेन डंगवाल ने दुष्चक्र में स्रष्टा का समर्पण अपने दोस्तों के लिए लिखा है। वे अपनी कविता अपने दोस्तों को समर्पित कर देते हैं-तुम्हारे ही लिए मेरे दोस्तो/जिनसे जिन्दगी में मानी पैदा होते हैं। यह केवल पहले पृष्ठ पर लिखा समर्पण नहीं है। यह समर्पण प्रेम कराता है। इस प्रेम को बचाने के लिए बहुत प्रतिशोध भोगने पड़ते हैं। ‘शमशेर‘ कविता में वे कहते हैं- मैंने प्रेम किया/इसीलिए भोगने पड़े/मुझे इतने प्रतिशोध।

जिन्दगी में मायने मित्रता या दोस्ती से तो आते ही हैं साथ ही साथ एक वैचारिक सहयात्रा इन अर्थां में गहन भाव भरती है। यह तब होता है जब कोई अपने मित्रों की आलोचना, उनके विचार और रूझानों को सह सकने की योग्यता हासिल कर लेता है। कार्ल मार्क्स और भगत सिंह का व्यक्तित्व, महात्मा गांधी और सुशील रूद्र के साथ सी. एफ. एंड्र्ज का व्यक्तित्व इसलिए मानीखेज हो जाता है कि वह अपने मित्रों को बर्दाश्त कर पाता है, उनसे अपनी राजनीतिक समझ को साफ करता है।

मुझे नहीं लगता कि तानाशाहों के मित्र होते होंगे। उनके शायद एक भी मित्र नहीं होते। उनके चापलूस होते हैं, रीढ़विहीन समर्थक होते हैं। आधुनिक समय में जनतंत्र और जनतांत्रिक चेतना की बात की जाती है। यह तब तक संभव नही है जब तक कोई व्यक्ति अपने आपको मित्र होने के लायक बना न ले। असमानता की कई मोटी-महीन परतों वाले भारतीय समाज में यदि किसी रिश्ते की दरकार है तो वह दोस्ती का रिश्ता है, मित्रता का रिश्ता है। माता-पिता और उनकी संतानें, भाई-बहन, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, गुरू-शिष्य, पदाधिकारी-कार्यकर्ता में एक शक्ति संरचना तंत्र व्याप्त है। रणजीत गुहा की गुहा शब्दावली उधार लूँ तो इनके बीच एक हिंसा का रिश्ता है।

सुजान विश्वनाथन अपने लेख सिमोन वेइल एंड क्वालिटी आफ फ्रेंडशिप में दिखाती हैं कि बीसवीं शताब्दी के शुरूआती वर्षां में पुरूषों, ईश्वर और मशीन से आक्रांत दुनिया में मित्रता कितना आवश्यक मूल्य था। सिमोन वेइल के हवाले से वे बताती हैं कि छात्रों और मजदूरों के लिए मित्रता बहुत जरूरी है।

वीरेन डंगवाल को पढ़ते समय मैं ऐसा महसूस कर पाता हूँ कि यह कवि छात्रों और मजदूरों के लिए जरूरी कवि है। वीरेन डंगवाल की कविता मनुष्य के लिए एक जगह बनाती है। उसे बातचीत करने का अवसर देती है। वह बंदूक के घोड़े पर उंगली रखे रामसिंह से बात की गुंजाइश निकाल लेती है। वह रामसिंह के हथेली से चमड़े के नफीस दस्तानों को उतार लेती है-

याद करो कि वह किसका खून होता है
जो उतर जाता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलाने से पहले हर बार

वीरेन की कविता के अंत में रामसिंह चेहरा देखिए। क्षुद्र दुश्मनियों वाले इस समय में अपने इर्द-गिर्द नजर डालिए तो यह बात समझ में आ जाएगी कि किसी कवि मित्र का होना कितना जरूरी है। और यदि वह आपको बराबरी का दर्जा दे, आपको साथ ले चलने लायक समझे। साथ चले। वह निश्चित ही झिड़की देगा, प्यार करेगा और कहेगा-

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरकतें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बगल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाव नहीं हो जाना

कोई इसे माने या न माने आत्मवृत्त में साथी या दोस्त मौजूद होते हैं। उनकी हरकत अपनी हरकत बन जाती है। वीरेन डंगवाल की कविता अपने साथी को भी यही हिदायत देती है। वह उसे उन चेहरों को पहचानने का विवेक देने का प्रसास करती है जो संस्कृति का मुखौटा लगाकर आते हैं। 1984 में लिखी इस कविता में वे आगाह करते हैं कि संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती/इनकी असल समझना साथी/अपनी समझ बदलना साथी।

आज के दौर की सांस्कृतिक राजनीति को समझने के लिए कोई कवि ऐसी ही कविता अपने साथी के लिए लिखना चाहेगा। यहीं पर वीरेन डंगवाल एक दोस्त कवि हो जाते हैं। उनकी कविता पाठक का हाथ गहती है- हमेशा के लिए, एक राजनीतिक कविता के रूप में।

वीरेन डंगवाल ने अपने मरहूम दोस्त बलदेव साहनी के लिए एक कविता लिखी है- मरते हुए दोस्त के लिए। यह पूरी सृृष्टि के भीतर, उसमें रची गयी सारी दुष्वारियों और असमानताओं के बीच दोस्ती को सिचुएट करती हुई कविता है। दोस्त को पहचानती हुई कविता कि जैसे बहुत पुराने पेड़ का तना/खूब पहचानता बहुत पुराने पेड़ के तने को/ वैसे ही मैं पहचानता हूँ तुझे। यह कविता आरा मशीन के साथ शुरू होती है। मशीन मनुष्य को अमनुष्य बनाती है। मशीन आदमी को कम आदमी बनाने पर आमादा है।

1925 में रबींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी ने इस विषय पर काफी बहस की थी। आज नौजवानों के जत्थे इन्हीं मशीनों से अपमानवीय दशाओं में पहुँचा दिए गए हैं। आखिर मशीन का वर्चस्व कब टूटेगा? कविता इसकी आशा करती है- एक दिन तोड़ तो दिया जाएगा जरूर/आदमी को नीच बना देने वाली उस मशीन को/मगर फिलहाल तो बैठा हूँ मैं यहाँ इस कुर्सी पर/तेरी भालू जैसी बालदार कलाई पकड़े हुए /कितना पसीना है /जैसी सीझती है बहुत पुराने वृक्षों की त्वचा।

वीरेन डंगवाल के दोस्तों के परिवार उनकी कविता में आ धमकते हैं। वे अपने दोस्त की बेटी को साफ-साफ बताना चाहते हैं कि मुठभेड़ में क्यों मार देते हैं पुलिस वाले? उन्हें इस बात की कोफ्त है कि बच्चों को साफ-साफ क्यों नहीं बताया जाता सब कुछ-

ऐसे ही लपकते हुए बड़े हो रहे हैं
हमारे बेटे-बेटियाँ
उन्हें जाननी हैं अभी बहुत सी बातें
निकम्मे माँ-बाप उन्हें कुछ नहीं बताएंगे
अच्छे माँ-बाप उन्हें समझाएंगे हर चीज साफ-साफ।

तो यह साफगोई एक दोस्त कवि में ही संभव है। वीरेन डंगवाल की एक कविता है रात-गाड़ी। यह एक दोस्त की चिट्ठी है अपने दोस्त के लिए। दोनों कवि हैं तो चिंता की बातों को साझा कर सकते हैं-

रात चूँ-चर्र-मर्र जाती है
ऐसी गाड़ी में भला नींद कहाँ आती है ?

उधर मेरे अपने लोग
बेघर बेदाना बेपानी बिना काम मेरे लोग
चिंदियों की तरह उड़े चले जा रहे हर ठौर
अपने देश की हवा में।

वीरेन डंगवाल की यह कविता पढ़ने के बाद मैं अपने दोस्त विभूत नारायण पाण्डेय का शोध पढ़ने जा रहा हूँ। उसका शोध उत्तर प्रदेश के दसलाखी नगरों के लेबर चौराहों के उन लोगों के बारे में है जो सुबह सात बजे से 12 बजे दिन चढ़ने तक काम मिलने का इंतजार करते हैं। कुछ को काम मिल जाता है। कुछ घर लौट जाते हैं- फिलहाल तो यही हाल है मंगलेश/भीषणतम मुश्किल में दीन और देश.

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