समकालीन जनमत
कविताजनमतशख्सियतस्मृति

वत्सल उम्मीद की ठुमक के साथ मैं तो सतत रहूँगा तुम्हारे भीतर नमी बनकर: वीरेन डंगवाल

करीब 16 बरस पहले वीरेन डंगवाल के संग्रह ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ पर लिखते हुए मैंने उल्लास, प्रेम और सौंदर्य को उनकी कविता के केंद्रीय तत्वों के रूप में रेखांकित किया था- यह कहते हुए कि मूलतः अनाधुनिक मान लिए गए ये तत्व दरअसल वीरेन की काव्य-दृष्टि में एक वैकल्पिक आधुनिकता की खोज करते लगते हैं। अब उनके निधन के बाद जब उनका समग्र ‘कविता वीरेन’ के नाम से मेरे सामने पड़ा है तो यह देखना मेरे लिए प्रीतिकर है कि वीरेन की कविता ने उन दिनों जो प्रभाव मुझ पर डाला था, अब भी वह लगभग वैसा ही है- बेशक, उसमें कुछ नई चीजें जुड़ती चली गई हैं।

बिला शक, वीरेन डंगवाल प्रथमतः उल्लास के कवि हैं। बल्कि यह उल्लास उनकी कविता में ही नहीं, उनके जीवन में भी झरता रहता था। सवाल है, यह उल्लास कहाँ से आता था। बीसवीं सदी का जो दौर उन्होंने देखा, वह अपने सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में बहुत सारे सपने जगाने के बावजूद अंततः मनुष्यता के लिहाज से एक विफल और क्रूरता की ओर बढ़ता दौर ही साबित हुआ। उनके जीते-जी महान सपने धूल में मिल गए और यथार्थ लगातार विरूपित होता गया। हिंदी की बहुत सारी कविता- वीरेन के समकालीन कवियों की भी- या तो इस अवसाद से निकली है या इसके विरुद्ध संघर्ष के मानवीय संकल्प से। खुद वीरेन डंगवाल की भी बहुत सारी कविताएँ हमारे समय की इस विफलता की शिनाख्त करती या गवाही देती हैं। लेकिन फिर वह उल्लास कहाँ से आता है जो वीरेन की कविता में लगभग हर जगह मिलता है? क्या यह उनका काव्यात्मक भोलापन है जो उन्हें यथार्थ से दूर एक कल्पनालोक में विचरण करने और उल्लसित बने रहने की प्रेरणा देता है? हालांकि ख़ुद अपनी कविता में वीरेन डंगवाल ऐसे भोलेपन की सख़्त ख़बर लेते हैं- ‘इतने भले मत बन जाना साथी / जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी।‘ तो फिर यह उल्लास आता कहाँ से है?

इस मुश्किल से लगते प्रश्न का उत्तर खोजेंगे तो वीरेन डंगवाल के काव्य व्यक्तित्व की उस बुनावट को समझ पाएंगे जिसने उन्हें हिंदी का स्रबसे अलग, अनूठा और विलक्षण कवि बनाया है। ऐसा नहीं कि वीरेन जीवन की विषमताओं और व्यवस्था के दुष्चक्रों से अपरिचित हैं। वे तो स्रष्टा के दुष्चक्र को भी पहचानते हैं। लेकिन जीवन और उसके स्पंदन में लगभग धंसी उनकी आत्मा यह पहचान पाती है कि विकट से विकट परिस्थितियों में भी मानवीय प्रतिरोध की सभ्यता ख़ुद को बचाए रखती है। अगर आप ध्यान से देखेंगे तो उनकी कविताओं में जितने उल्लास भरे बिंब हैं, उतने ही विद्रूप भरे भी- उनके यहाँ अंधेरा कई बार बहुत घना होकर आता है, हालात कई बार लगभग जुगुप्सा से भरे मिलते हैं, लेकिन वे फिर भी रोशनी की, उम्मीद की, अच्छे दिनों की एक किरण बचाए रखते हैं। निराला को समर्पित उनकी जो बहुत चर्चित कविता है, ‘उजले दिन ज़रूर’, उसमें कई रुपक बिल्कुल डरावने हैं- ‘तहख़ानों से निकले मोटे-मोटे चूहे / जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे / हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें / चीं-चीं चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे’- इस मोड़ पर एक उबकाई भरा डर आपको घेरने को होता है कि कवि आश्वस्त करता है- ‘पर डरो नहीं चूहे आख़िर चूहे ही हैं / जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे।‘

यह आश्वस्ति कहाँ से आती है जो कवि अपने पाठक को देता है? यह सभ्यता में, इतिहास में, मानवीय विवेक और गरिमा में अपने अप्रतिहत भरोसे से आती है। कविता के अंत में कवि कहता है, ‘मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूं / हर सपने के पीछे सच्चाई होती है / हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है / हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है / आए हैं जब हम चल कर इतने लाख वर्ष / इसके आगे भी तब चल कर ही जाएंगे / आएंगे, उजले दिन ज़रूर आएंगे।‘

इस बात से निकलने वाले कुछ और सूत्रों से पहले अचानक यह खयाल आ रहा है कि जिस तरह मुक्तिबोध को सिर्फ़ अंधेरों के कवि की तरह पहचानने के सरलीकरण की वजह से हम उनकी उन बहुत सारी कविताओं को अनदेखा कर देते हैं जिनमें रोशनी भी ख़ूब झरती है, उसी तरह वीरेन डंगवाल को सिर्फ उल्लास का कवि बताने से उनकी कविता के उन हिस्सों की अनजानी उपेक्षा का खतरा उठ खड़ा होता है जो अंधेरों से आँख मिलाते हैं। दरअसल मुक्तिबोध का अंधेरा और वीरेन डंगवाल का उल्लास दोनों अपने-अपने दौर की लगभग एक सी विडंबनाओं से मुठभेड करते हैं- एक अपनी कविताओं की छटपटाहट में रोशनी की तलाश करता है, दूसरा अपने शब्दों की रोशनी में विडंबना को जीत लेने का भरोसा पालता है। मुक्तिबोध में भी कुछ वीरेनियत मिलती है और वीरेन में भी कुछ मुक्तिबोधीयता नज़र आती है।

दरअसल परंपरा वह दूसरी चीज़ है जो वीरेन डंगवाल की कविता को आधुनिकता की विडंबनाओं से अनाक्रांत रखती है। अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ध्वंस घटित होता है तो वे निराला और उनके राम को याद करते हैं और ‘किसी घायल-हत्-कार्य धनुर्धारी का / भिंचा-भिंचा विकल रुदन’ सुन पाते हैं। कई बार लगता है कि अग्रजों के साहचर्य में अचानक वे जैसे खिल जाते हैं। बांदा पर लिखते हुए केदार को याद करते हैं और बहुत अलग अंदाज़ में कहते हैं- “मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार।‘ शमशेर की याद में तो उनकी कलम जैसे ‘एक नीला आइना बेठोस…’ हो उठती है। वे लिखते हैं, ‘रात आईना है मेरा / जिसके सख़्त ठंडेपन में भी / छुपी है सुबह / चमकीली साफ़ / झील में दाढ़ी भिगोते सप्तर्षि / मुस्कुराते हैं आपस में / मेरी तरफ़ इशारा करके / मैंने किया प्रेम / इसलिए भोगने पड़े / मुझे इतने प्रतिशोध।‘

परंपरा से सिर्फ प्रेम नहीं है, परंपरा को बनाने-समझने वाली आलोचक दृष्टि भी है जो बहुत मामूली सी चीज़ों में देख लेती है कि समझ कैसे बनती है। एक कविता है, ‘भाषा, मेरे दोस्त की बेटी’। यह अब ब़डी हो गई पत्रकार भाषा सिंह का ज़िक्र है जो अजय सिंह की बेटी है। वह अपने पिता से पूछती है और कवि दर्ज करता है- ‘बाबा, मुठभेड में क्यों मार देते हैं पुलिसवाले?’/ मैं दूर से सुन रहा था, / मगर फिर भी बहुत अचकचाया / ऐसे ही लपकते हुए बड़े हो रहे हैं, / हमारे बेटे-बेटियां / उन्हें जाननी हैं अभी बहुत सी बातें / निकम्मे मां-बाप उन्हें कुछ नहीं बताएंगे / अच्छे मां-बाप उन्हें समझाएंगे हर चीज़ साफ़-साफ़।‘ प्रसंगवश, कवि ने ज़िक्र किया है कि तब भाषा सातवीं में पढ़ती थी।

दरअसल परंपरा की इस समझ और उस पर हो रही चोट को वीरेन डंगवाल लगभग अचूक ढंग से पहचानते हैं। उनकी एक बहुत छोटी सी कविता है- ‘परंपरा’। वे कहते हैं, ‘पहले उसने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए / और कहा, असल में यह तुम्हारी स्मृति है / और फिर उसने हमारे विवेक को सुन्न किया / और कहा, अब जाकर हुए तुम विवेकवान / फिर उसने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी / और कहा- चलो अब उपनिषद पढ़ो / फिर उसने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की / नदी में उतार दी / और कहा, अब अपनी तो यही है परंपरा।‘

वीरेन डंगवाल की कविताओं पर बात तब तक अधूरी रहेगी जब तक उनकी जनपक्षधरता का ज़िक्र न हो। ‘कविता वीरेन” की भूमिका लिखते हुए मंगलेश डबराल ने उन्हें ‘साधारण मनुष्य का कवि’ कहा है और उनकी इन पंक्तियों से अपनी भूमिका की शुरुआत की है- ‘इन्हीं सड़कों से चल कर आते हैं आततायी / इन्हीं सड़कों से चल कर आएंगे अपने भी जन।‘ यह ‘अपने ही जन’ जैसे पूरे संग्रह में बिखरे पड़े हैं- कहीं बिल्कुल व्यक्तिवाचक संज्ञाओं की तरह तो कहीं अनाम-गुमनाम-सार्वनामिक संबोधनों में- लेकिन वीरेन डंगवाल हर जगह इसी जन से संवाद करते हैं। पीटी उषा की आंखों में भूख को पहचानने वाली विनम्रता देखते हैं, इनाम में मिली मारुति पर न बैठने की सलाह देते हैं और अंततः तथाकथित बड़े लोगों की सभ्यता पर एक तीखा चोट करते हैं- ‘खाते हुए मुंह से चप-चप की आवाज़ होती है? / कोई ग़म नहीं / वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता / दुनिया के सबसे ख़तरनाक खाऊ लोग हैं।‘ ‘राम सिंह’ तो अब हिंदी की ‘क्लासिक’ कविताओं में दर्ज हो चुकी है। जिन कविताओं में व्यक्तियों से संवाद नहीं, समाज का सवाल है, वहां भी बहुत सादगी से वे इकहरे विकास की विडंबना पर अंगुली रख देते हैं। उनकी एक कविता है- ‘हमारा समाज’। कविता में बहुत सादगी से वे कहते हैं कि हर कोई बस थोडा सा प्यार, खाना-पीना, मकान, इलाज, कुछ घूमना, कुछ उत्सव चाहता है, कुछ चिंताएं भी चलेंगी, लेकिन साथ में हौसला देने वाले साथी भी हों। इन छोटी-छोटी कामनाओं का जिक्र करते हुए अचानक वे कहते हैं- ‘पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है / इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है / वह क़त्ल हो रहा सरेआम चौराहे पर / निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है।‘ कहने की ज़रूरत नहीं कि वीरेन डंगवाल किनके साथ खड़े हैं।

बहरहाल, यह परंपरा, यह जनपक्षधरता या पूर्वजों की स्मृति ही वीरेन की कविता को नहीं बनाती है- उसे सबसे विलक्षण शायद वीरेन डंगवाल की मौलिकता बनाती है। उनकी अंतर्दृष्टि, उनके आवेग, उनकी प्रतिक्रियाएं अमूमन इतनी अनूठी हैं कि आपको कुछ विस्मित और कुछ सस्मित छोड़ जाती हैं। यहाँ वे अपने समय के बाकी सारे कवियों से अलग हैं। यहाँ हम पाते हैं कि सिर्फ आदमी ही नहीं, दुनिया भर के जीव-जंतु, पानी-पहाड़-पेड़, आम-इमली-पपीता, नींबृ-लहसुन, समोसा-जलेबी, कुत्ते-सूअर-बिल्ली-गाय- सब कुछ उनकी कविता में समा जाते हैं। यह एक विराट पर्यावरण की कविता है, लेकिन कवि की मौलिक छाप लिए। उल्लास के अलावा जिस सौंदर्य और प्रेम की बात इस लेख के शुरू में की गई है, वह अपने धवल- बल्कि इंद्रधनुषी रूप में- यहाँ मिलता है। बारिश में धुल-पुंछ कर अंग्रेज हो गए सूअर के बच्चे से शुरू करके उन्होंने वर्षा का जो चित्र खींचा है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ‘मानवीकरण’ जैसी कविता हिंदी में शायद ही कहीं और मिलेगी- ‘चींचींचूंचूं चीख चिंरौटे ने की मां की आफ़त / तीन दिन से खिला रही है तू फूलों की लुगदी’ / उससे पहले लाई जो भंवरा कितना कड़वा था / आज मुझे लाकर देना तू पांच चींटियां लाल’ / वरना मैं ख़ुद निकल पड़ूंगा तब तू बैठी रोना / जैसे तब रोई थी, जब भैया को उठा ले गई थी चील’ / याद है बाद में उसकी ख़ुशी भरी टिटकारी?’ कविता इससे लंबी है जिसमें बेचारी चिड़िया अपने दुखते पंखों का, गर्मी के मौसम का और इंसान की क्रूरता का हवाला भी देती है। और कविता की भाषा भी अपनी तरह से निराली है। रेल के इंजन को लेकर, तरह-तरह की कसमों को लेकर, अपने बचपन को लेकर, अपनी बीमारी को लेकर- वीरेन डंगवाल जिस अनूठी तरलता और तल्लीनता के साथ कविता लिखते हैं, वह प्रेम और उल्लास से सराबोर एक संसार रचती है। लेकिन अंततः यह दबी हुई आवाज़ों, छुपी हुई संभावनाओं और सताए लोगों की बददुआ है जिससे कवि अपने-आप को जोड़ता है। अपने पहले ही संग्रह में वीरेन डंगवाल ने लिखा था, ‘मैं हूं रेत की अस्फुट फुसफुसाहट / बनती हुई इमारत से आती ईंटों की खरी आवाज़ / मैं पपीते का बीज हूं / अपने से भी मोटे पपीतों को / अपने भीतर छुपाए / नाज़ुक खयाल की तरह / हज़ार ज़ुल्मों से सताए मेरे लोगो / मैं तुम्हारी बददुआ हूं…’।

यह याद करना कुछ तकलीफदेह है कि अपने आख़िरी कुछ बरस वीरेन डंगवाल ने कैंसर का सामना करते हुए गुज़ारे। कैंसर ने उनके शरीर से अपनी पूरी कीमत वसूली- उस कवि से जो दैहिकता के ताप और संताप को भी एक सी सहजता से जीता-व्यक्त करता था। एक बहुत संक्षिप्त सी कविता है- ‘कहनानंद’, जिसमें वीरेन डंगवाल अपनी मस्ती में कहते हैं- ‘अपनी ही देह / मज़े देवे / अपना ही जिसम / सताता है / यह बात कोई / न नवीं नक्को / आनंद ज़रा सा / कहन का है।‘ मगर बीमारी के बरसों में भी वीरेन डंगवाल लिखते रहे- इन कविताओं में बीमारियों, अस्पतालों, डॉक्टरों का जिक्र है, लेकिन वहां भी मायूसी कहीं नहीं, बल्कि दृष्टि का वही अबोध-निर्दोष अनूठापन है जिससे सारी दुनिया कुछ नई हो जाती है। यह साफ है कि बीमारी उनकी देह को ही जीत पाई, उनकी आत्मा पर उसकी खरोंच अगर रही भी हो तो वीरेन डंगवाल ने उसे साझा करने योग्य नहीं पाया।

वीरेन डंगवाल की सारी कविताओं को एक साथ प्रकाशित कर नवारुण प्रकाशन ने एक ब़डा काम किया है। इसमें संग्रहों से बाहर की भी उनकी कविताएँ हैं और कई अप्रकाशित रचनाएं भी। इसके अलावा नाजिम हिकमत के वीरेन डंगवाल द्वारा किए गए अनुवाद इस समग्र को कुछ और विशिष्ट बनाते हैं। लेकिन बड़ी बात यह है कि जब आप वीरेन को इस संग्रह में समग्रता से देखते हैं तब आपको एहसास होता है कि वे कितने बड़े कवि हैं और किस तरह मूल्यांकन की प्रचलित वैचारिक पद्धतियों में समाने से इनकार करते हैं। उनके पास हज़ार तरह की बातें हैं और उतनी ही तरह के शिल्प भी। छंद पर उनकी पक़ड अपने समकालीनों में संभवतः सबसे बेहतर मालूम होती है और समकालीन में धंस कर भी, उसके पार जाकर रचने का कौशल उन्हें हमारे समय का बड़ा कवि बनाता है।- प्रियदर्शन 

वीरेन दा की डायरी का एक पन्ना

वीरेन डंगवाल की कविताएँ

आइये पहले पढ़ते हैं उनकी हालही में प्रकाशित नयी कविताएँ

 

गाज़ा का कुत्ता

वह जो कुर्सी पर बैठा
अखबार पढ़ने का ढोंग कर रहा है
जासूस की तरह
वह दरअसल मृत्यु का फरिश्ता है।

क्या शानदार डाक्टरों जैसी बेदा$ग स$फेद पोशाक है उसकी
दवाओं की स्वच्छ गंध से भरी
मगर अभी जब उबासी लेकर अखबार फडफ़ड़ाएगा,
जो दरअसल उसके पंख हैं
तो भयानक बदबू से भर जायेगा यह कमरा
और ताजा खून के गर्म छींटे
तुम्हारे चेहरे और बालों को भी लथपथ कर देंगे
हालांकि बैठा है वह समुद्रों के पार
और तुम जो उसे देख पा रहे हो
वह सिर्फ तकनीक है
ताकि तुम उसकी सतत उपस्थिति को विस्मृत न कर सको

बालू पर चलते हैं अविश्वसनीय र$फ्तार से सरसराते हुए भारी-भरकम टैंक
घरों पर बुलडोजर
बस्तियों पर बम बरसते हैं
बच्चों पर गोलियां

एक कुत्ता भागा जा रहा है
धमाकों की आवाज़ के बीच
मुंह में किसी बच्चे की उखड़ी बची हुई भुजा दबाये
कान पूँछ हलके से दबे हुए
उसे किसी परिकल्पित
सुरक्षित ठिकाने की तलाश है
जहाँ वह इत्मीनान से
खा सके अपना शानदार भोज
वह ठिकाना उसे कभी मिलेगा नहीं।

लहसुन

हाय तुझे ही लूँ, तुझे काटूँ बारीक-बारीक
तेरी खुशबू में खो जाऊँ, हाय

तब मेरी प्रिया के दाँत भी ऐसे ही सुंदर थे
ऐसे ही सुगठित, पंक्तिबद्ध चमकीले
हाँ, वह दिव्य सुगंध तब भी न थी उनमें
यह उन दिनों की बात है
जब सुगंधों की महातलाश शुरू ही की थी हमने,

मुझे पता लगा
कि हिमालय के पठारी हिस्सों में
जहाँ तेज धूप में
नमकीन भूरी चट्टानों के पसीने और गोंद की तरह
निकलते हैं हींग और शिलाजीत
वहीं दरारों के बीच जमी रहस्यमय मिट्टी से
इसकी जड़ों को खोद निकाला था
लामा थोघपा-पा-था ने ईसा से एक शताब्दी पहले।

उन्होंने ही इसके कल्ले
उपहार स्वरूप भिजवाए
कोटांतिक भाषा में अनूदित
पवित्र पुस्तकों के साथ
ल्हासा में दलाईलामा
लिच्छवि, पाटलिपुत्र
कोसल, गांधार जैसे पुराने गणराज्य
और चीन-जापान देश को।
इस प्रकार उपमहाद्वीप सहित समस्त एशिया
और फिर मध्य यूरोप में फैला
इस गांठ-किन्नर का सुस्वादु साम्राज्य
कालांतर में।
इसके प्रसाद में बौद्धों की महती भूमिका के कारण ही
ब्राह्मणों ने इसे अपवित्र और सद्गृहस्थों में
निषिद्ध घोषित किया।
वह तो भला हो जनवेद आयुर्वेद का
जिसने द्वारांतर से खुले रखे इसके लिए कपाट!
यह सारा विवरण वस्तुत: एक लंबे
स्वप्न पर आधरित है जो अपनी
रुग्ण तंद्रावस्था में पिछले दिनों
धारावाहिक मैंने देखा
संभव है निकट भविष्य में
इसी कोटि का इतिहास आपको
पाठ्यपुस्तकों में भी दिखाई पड़े।

पलाश बिस्वास

सन्निपात में हो जैसे
अपनी निरंतर बड़बड़ाहट में रचता है वह
अपने सपनों और कामनाओं का स्वच्छलोक
जो लिया हुआ है पोखर की मिट्टी और गोबर से।

बारिशों से सीली हुई हैं
शंख्वाकार भूतों वाली झोपडिय़ाँ
जिनकी पूस बिल्लियों की सावधान चाल से
भी धसकने लगती है
धान के खेत और केले के पेड़
पर्याप्त इर्द-गिर्द। और मछलियाँ भी ततैयों में
और झगड़े-फसाद-टंटे सब बंद।
यह पिक्चर पोस्टकार्ड बनाया है उसने
बसंतीपुर का
उसकी माँ के नाम पर नैनीताल की तराई में
बसा बांग्लादेशी शरणार्थियों का एक गाँव
जहाँ लौट नहीं पाया है वह
पिछले कई सालों से
वर्ण के विषबुझे अभिशाप से बिंध
उसका घायल हृदय मगर
मंडराता रहता है उसी के आसपास
किसी प्रेतात्मा की तरह
वह आध बंगाली, आध पहाड़ी
दुनियावी सफलताओं के लिए ज़रूरी चातुर्य
नहीं जुटा पाया वह न सुरक्षा
जबकि पैंतीस बरस से बचा हुआ है
हिंदी पत्रकारिता की
क्षुद्र दुनिया में।
दलितों वंचितों पिछड़ों को न्याय चाहिए
बराबरी का प्रेम
और इन इच्छाओं को सचमुच समझ पाना
आसान नहीं सवर्णों के लिए।
वह थोड़ा आम्बेदकर थोड़ा माक्र्स
थोड़ा अभिमन्यु थोड़ा शम्बूक
थोड़ा पत्रकार थोड़ा समाचार
थोड़ा अपनी निष्कपट इसी
थोड़ा एक पुरानी बंदूक।
किले को
खंडहर में बदलने वाली
पत्थरों के जोड़ों के बीच उगी
मोटी घास
अपना वही प्यारा बावला बागी दोस्त
पलाश बिस्वास।

 

61, अशोक भौमिक

तो हज़रत!
इस जवान जोश के बावजूद
आप भी हो चले 61 के
और कल ही तो नीलाभ प्रकाशन की उस दुछत्ती पर
आपके साथ हम भी रचते थे कभी-कभी अपनी वो विचित्र नृत्य नाटिकायें
जैसे एक विलक्षण नशे में डूबे हुए
या आपका वो एक जुनून में डूबकर कविता पोस्टर बनाना सस्ते रंगों और का$गज़ से
खाते हुए बगल के कॉफी हॉउस से मंगाये बड़ा-सांभर
नीबू की चाय के साथ अभी तक बसी हुई हैं नाक और आत्मा में वे सुगंधों प्रेम और परिवर्तन की चाहत से लबालब और गर्मजोश।
हिन्दी प्रांतर में तो वह एक नयी सांस्कृतिक शुरुआत हो रही थी तब।

क्या उम्दा इत्तेफाक है
कि इकत्तीस जुलाई प्रेमचंद का भी जन्मदिन है
आपसे बार-बार कहा भी गया होगा
आप भी तो रचते हैं
अपने चित्रों और लेखों में
भारतीय जीवन की वे दारुण कथायें
जो पिछले कुछ दशको में गोया और भी अभिशाप ग्रस्त हो गई है
बीते इन तीसेक बरसों में बहुत कुछ बदला है
देश-दुनिया में
हमारे इर्द-गिर्द और आप- हम में भी।
वे तिलस्मी जिन्नात-यतिधान-जादूगर और $खतरनाक बौने आपके चित्रों के
स्याह ज्यामितीय रेखाओं और और कस्बों की तंग गलियों से निकलकर
महानगरों-राजधानियों तक निर्बाध आवाजाही कर रहे हैं
अपने मनहूस रंगों को फडफ़ड़ाते हुए

अब हम खुद बाल बच्चेदार हो रहे हैं
हमारे बेटे- बेटियाँ जो तब बस खड़े होना सीखे ही थे,
और आप भी तो अपने टाई-सूट और
बैग को छोड़ कर
पूरी तरह कुर्ता-पाजामा की
कलाकार पोशाक पर आ गये हैं।

हाँ, कुछ अब भी नहीं बदला है
मसलन शब्दों और भाषा के लिये
आपका पैशन, लोहे के कवच पहना आपका नाज़ुक भावजगत गुस्सा
जो किसी मक्खी की तरह आपकी नाक पर कभी भी आ बैठता है
और थोड़ा सा खब्तीपन भी जनाब
आपकी अन्यथा मोहब्बत से चमकती आँखों और हंसी में.

मगर वह सब काफी उम्दा है, कभी-कभी ज़रूरी भी
और इन दिनों हथौड़ा-छेनी लेकर कैनवास पर आप
गढ़ रहे हैं एक पथराई दुनिया की तस्वीरें
जिन्हें देख कर मन एक साथ
शोक-क्रोध-आशा और प्रतीक्षा से भर उठता है।
ये कैसी अजीब दुनिया है
पत्थर के बच्चे पत्थर की पतली डोर से
पत्थर की पतंगें उड़ा रहे हैं
गली मोहल्लों की अपनी छतों पर
जो जाहिर है सबकी सब पत्थरों से बनी हैं।
या वे परिन्दे
जो पथराई हुई आँखों से देखते हैं
पथरीले बादलों से भरे आकाश जैसा कुछ
अपने पत्थर के डैनों को बमुश्किल फडफ़ड़ाते
मगर आमादा फिर भी
परवाज़ के लिए।

हमें आपकी छेनी के लिये खुशी है अशोक,
हमें खुशी है कि आप महान चित्रकार नहीं हैं
हालांकि बाज़ार आपकी अवहेलना भी नहीं कर सकता
अपने भरपूर और अनोखे और सुविचारित कृतित्व से
खुद के लिए वह जगह बनाई है आपने और अपनी मेहनत से
हमें खुशी है कि हमारे समय में आप हैं
हमारे साथ और सम्मुख।

जन्मदिन मुबारक हो !

पितृपक्ष

मैं आके नहीं बैठूँगा कौवा बनकर
तुम्हारे छज्जे पर
पूड़ी और मीठे कद्दू की सब्जी के लालच में
टेरूँगा नहीं तो
न कुत्ता बनकर आऊँगा तुम्हारे द्वार
रास्ते पर ठिठकी हुई गाय
की तरह भी तुम्हें नहीं ताकूँगा
वत्सल उम्मीद की ठुमक के साथ
मैं तो सतत रहूँगा तुम्हारे भीतर
नमी बनकर
जिसके स्पर्श मात्र से
जाग उठा है जीवन मिट्टी में
कभी-कभी विरूप से काट देगी तुम्हें
ऐसी तभी होगा तुम्हारी इच्छाओं की इमारत
बेहद और भद्दी
हो जाएगी।
पर मैं रहूँगा हरदम तुम्हारे भीतर
जैसे सीलन लगा पुराने दीवारों को
विरूप कर देती है।

 

 

सरलकठिन

इस अंधेरे में तेज रोशनियों ने बचाया मुझे
या अक्टूबर की ओस से आभासित
चाँद की स्मृति ने
या तुम्हारे प्यार ने
मैं नहीं बताऊँगा।
इस बीमारी में
अब तक दवाओं और डॉक्टरों ने बचाए रखा मुझे
या किसी उम्मीद ने
या तुम्हारे प्यार ने
मैं नहीं बताऊँगा।
जीवन बहुत पेचीदा है
बहुत कठिन हो चुकी है यह दुनिया
मगर वे बातें सरल हैं
जिनसे आप इस कठिनाई को समझ सकते हैं।
मुश्किल यह है कि फिजूल करार दे दिया जाता है
आसान बातों को।
उन पर सवाल खड़े कर दिए जाते हैं।
यह भी एक तरीका है शत्रुता का।
पता नहीं क्यों यह सभ्यता
सरलता की दुश्मन है।
अलबत्ता यह ध्यान रहे कि
सरलता भी आडंबर न बन जाए
जैसा होता आया है अक्सर

 

सुबोध, एक नेकदिल शख्स*

बैसाख के तीखे होते सूरज मे
ऊँघता है बांज का घना जंगल श्याम खेत का
घुघूती बोल रही है कहीं पत्तों की ओट में छिपी
घायल हैं कच्चे सेब और नाशपाती
बीते चैत के विचित्र पश्चिमी विक्षोभ के मारे हुए
सबके मुंह चोट खाये दागी और घायल
आओ डाक्टर,
कितने सुन्दर है मरीजों के कन्धों पर रखे तुम्हारे हाथ और ये स$फेद बाल
और तुम्हारी वे आँखें,जिनमेझलमलाता है
पहाड़ के निरभ्र आकाश का जल- वे तो बहुत ही सुन्दर है
कभी- कभी झाँकती है उनमें वह शरारती
पैंतालीस साल पुरानी
उचकती हुई सायकिल पर
कटरा कंडेलगंज में।

(* मशहूर कैंसर विशेषज्ञ डॉ. सुबोध पांडे)

 

रामदासदो

खाली किया जा रहा है
बड़ा कमरा
कोई बरतन गिरता है ऊँचाई से
शायद कटोरा कोई
चकरघिन्नी काटता तीखा शोर मचाता
रोशनी रात और दिन विहीन
बिलकुल साथ है
अस्पताल के सघन चिकित्सा कक्ष की तरह.
कौन रो रहा है बाहर ?
कोई तीमारदार ? किसी का गला काटा जा रहा है
गली में छुरे पर छुरा घोंपकर
भागा जा रहा है कोई
हल्के-सफेद जूते पहन कर।
अरे खिड़की तो खोलो ज़ालिमों
एक पुकार तो लगाओ
वो जो मारा गया है अभी
वह भी एक मनुष्य ही है
उसी का नाम है रामदास।

 

मैट्रो महिमा

पहली
सीमेन्ट की ऊँची मेहराब पर
दौड़ती रुपहली मैट्रो
गोया सींगों को तारों पर उलझाये हिरनी कोई।
मेरा मसोसा हुआ दिल
गोया एक हमस$फर तेरा हमराह।
मुझे भी ले चल ज़ालिम अपने साथ
चाँदनी चौक करौलबाग विश्वविद्यालय वगैरह

मेरे लिये भी खोल अपने वे शानदार द्वार
जो कभी बायें खुलते हैं कभी दायें सि$र्फ आवाज़ के जादू से।

दूसरी
अस्पताल की खिड़की से भी
उतनी ही शानदार दिखती है मैट्रो
गोया धूप में चमचमाता एक तीर
या शाम में खुद की ही रौशनी में जगमगाता
एक तीर दिल को लगा जो कि हाय- हाय !
बेहतर हो चावड़ी बाज़ार उतरना और रिक्शा कर लेना बल्लीमारान गली कासिमजान के लिये।

तीसरी
दृश्य तो वह क्षणांश का ही था मगर कितना साफ
वह छोटी बच्ची चिपकी हुई खिड़की से देखती मैट्रो से बाहर की दुनिया को
उसके पार पृष्ठभूमि बनाता
दूसरी खिड़की का संध्याकाश एकदम नीला
मुझे देखने पाने का तो उसका खैर सवाल ही क्या , पर मुझे क्या-क्या नहीं याद आया उसे देखकर
मा$फ करना ज़रूरी कामों जिन्हें गंवाया मैंने तुच्छताओं में
जिन्हें मुल्तवी करता रहा मैं आजीवन।

चौथी
हाय मैं होली कैसे खेलूँ तेरी मैट्रो में
तेरी फौज पुलिस के सिपाही
ले लीन्हे मेरी जामा तलासी तेरी मैट्रो में
एक छोटी पुडिय़ा हम लावा
जैसे तैसे काम चलावा
बिस्तर पर ही लेटे- लेटे खेल लिये जमकर के होली
आं- हाँ तेरि मटरू में।

पाँचवीं
सुनुकसानम सुनुकसानम सुनुकसानम चलो नहाने
सुनुक सुल्लू छ तप्तधारा वसन्तकाले अति भव्यभूती
जब तुम राजीव चौक पहुँचो
हे अत्यन्त चपलगामिनी
तो कनाटप्लेस की समस्त नैसर्गिक तथा अति प्राकृतिक सुगंधियों को मंगवा लेना अवश्य
तुम्हारा कोई भी भक्त किंवा दास
यह कार्य सहर्ष कर देगा बिना किसी उजरत के
मध्य रात्रि के बाद जब मोटे-मोटे पाइपों की गुनगुनी धारा से भरपूर नहला दिये जाने के बाद
(ऐसे पाइप अब पुलिस के पास भी होने लगे हैं दंगा निरोधन के लिये )
जब तुम्हें टपटपाता हुआ और एकाकी छोड़ दिया जाय
उस नीरव रंगशाला में
तब तुम बिना झिझक अपनी अदृश्य सुघड़ बाहें उठा कर
कांख और वक्ष में जमकर लगा लेना उन सुगंधियों को
मानो अभिसार तत्परता के लिये
तथा
अपनी कांच से बनी सुन्दर आँखों से टिम टिम देखना अपना अप्रतिम सौंदर्य
जो सि$र्फ इक्कीसवीं सदी में ही संभव था भारत में
अपनी वैधता और औचित्य प्रमाणित करने के लिये
इसीलिये अक्लमंद लुटेरे तुम्हें सबसे आगे करते हैं।

 

 

एक व दो

पिछले साल मेरी उम्र 65 की थी
तब मैं तकरीबन पचास साल का रहा होऊँगा
इस साल मैं 66 का हूँ
मगर आ गया हूँ गोया 76 के लपेटे में.
ये शरीर की एक और शरारत है।
पर ये दिल, मेरा ये कमबख्त दिल
डाक्टर कहते हैं कि ये फिलहाल सिर्फ पैंतीस फीसद पर काम कर रहा है
मगर ये कूदता है, भागता है, शामी कबाब और आइसक्रीम खाता है
शामिल होता है जुलूसों में धरनों पर बैठता है इंकलाब जि़ंदाबाद कहते हुए
या कोई उम्दा कविता पढ़ते हुए अभी भी भर लाता है इन दुर्बल आँखों में आँसू
दोस्तों- साथियों मुझे छोडऩा मत कभी
कुछ नहीं तो मैं तुम लोगों को देखा करूँगा प्यार से
दरी पर सबसे पीछे दीवार से सटकर बैठा।

दो

शरणार्थियों की तरह कहीं भी
अपनी पोटली खोलकर खा लेते हैं हम रोटी
हम चले सिवार में दलदल में रेते में गन्ने के धारदार खेतों में चले हम
अपने बच्चों के साथ पूस की भयावनी रातों में
उनके कोमल पैर लहूलुहान

पैसे देकर भी हमने धक्के खाये
तमाम अस्पतालों में
हमें चींथा गया छीला गया नोचा गया
सिला गया भूंजा गया झुलसाया गया
तोड़ डाली गईं हमारी हड्डियाँ
और बताया ये गया कि ये सारी जद्दोजहद
हमें हिफाजत से रखने की थीं।

हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से
पंजर दबता जाता है उनके बोझे से
मन आशंकित होता है तुम्हारे भविष्य के लिए
ओ मेरी मातृभूमि, ओ मेरी प्रिया
कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूँ तुमसे मैं।

 

रामपुर बाग की प्रेम कहानी

यह कोई रूपक नहीं
न निजंधर न कूटकथा न मनोकाव्य
न व्यंग्य न परिहास
न समाजेतिहास न नृतत्वशास्त्र
यह ये सब कुछ है थोड़ा बहुत
और सबसे बढ़ कर थोड़ा दिमा$गी $खलल शायद
जैसा कि हर प्रेम कहानी होती ही है

कभी यहाँ एक नवाब का विशालकाय घना बा$ग था
आम-अमरूद-जामुन और कटहल का
यह पचासेक साल पहले की बात है
गणतंत्र बन चुका था
लेकिन राजे नवाब जि़मींदार व$गैरह भी थे ही

फिर पेड़ कटे
कोठियां बनने लगीं पहले थोड़ी भव्य
फिर क्रमश: आलीशानतर
कालोनी बनी जिसका नाम स्वत: पड़ा
या रखा गया
रामपुर हाता और कालांतर में रामपुर गार्डन
अलबत्ता बाग रहा नहीं
मगर बंदरों को
संकरी सड़कों और हर मेल की
कारों-मोटर साइकिलों – स्कूटरों से गची पड़ी
कुछ सजावटी पेड़ों के अलावा वृक्षहीन
इस कालोनी से
अभी भी बहुत लगाव है
यह शायद उनकी जातीय स्मृति हो
विध्वंस और विस्थापन के विरुद्ध
उनका सामूहिक क्षोभ!
उनके झुंड यहाँ बराबर छापे मारते रहते हैं

कोठियों की छतें उनके क्रीड़ांगन हैं
टेलीफोन – केबल के तार
आम की लचकदार टहनियों की तरह उनके झूले
वे घरों से डबलरोटियां फल और कपड़े उठा ले जाते हैं
घुड़कते हैं हाउसकोट का$फ्तान पहनीं
अधेड़ गिरस्थिनों और उनकी युवा बहुओं को
जिनके पतिजन तो गए
अपनी दूकानों-द$फ्तर-कार$खानों को
और औलादें व्यस्त
स्कूल-टीवी-मोबाइल में
उनमें कोई दिलचस्पी नहीं बंदरों को
उनकी माँओं में शायद है

अपने छोटे छोटे मोटे हाथों में
एक साबूत डबलरोटी थामे
तिमंजिले के छज्जे से कुछ यों घूर रहा है
वह बलिष्ठ बंदर श्रीमती चड्ढा को
कि उनकी कनपटी गर्म और कान लाल हो आए हैं

रमण की उन कल्पनाओं के रहस्य
केवल ऊटपटांग रास्तों पर चलने वाले कवियों को पता हैं
या फिर उस मोटे बंदर को
अपने टोले पर जिसका वर्चस्व असंदिग्ध है
लेकिन जिसका हृदय
इन दिनों एक मानुसी के लिए धड़कने लगा है

और श्रीमती चड्ढा?
इधर मंगलवार को प्रसाद चढ़ाते समय
पता नहीं क्यों उनकी आंखें पूरा पहाड़ हथेली पर उठाए हनुमानजी के
चरणों से ऊपर ही नहीं उठ पातीं

रात का खटका
‘खटाक से गिरता है
जैसे पिंजरे का द्वार।
अंधेरे में छत से आती है
एक प्रार्थनाभरी करुण कूँक

नगरनिगम ने बुलवाया है कहीं बाहर से
बंदर पकडऩे वाला पेशेवर दस्ता
जिसकी फीस है एक सौ सत्तर रुपये फी बंदर
बेचैनी से करवट बदलतीं श्रीमती चड्ढा
चोर निगाहों से देखती हैं
नशे और नींद में धुत्त अपने पति को
जिसकी लार एक हज़ार रुपया $कीमत के
नफीस तकिये को सतत भिगो रही है

और ऊपर एक वानर यूथ पति
नवाब रामपुर के बा$ग का मूल अधिवासी
पूर्ण चंद्रमा जैसे टीवी डिश पर
अपना शीश टिकाये
अंधकार में आंसू भरे नेत्रों से
ताक रहा है तारों को
ढूंढ़ता उन्हीं में
आम का वह भव्य दरख़्त
अपने कुनबे का छीन लिया गया आशियाना
जिसकी शाखों पर केलि करते थे
उसके पुरखे-पुरखिनें

अब तो हज़ारों रातें बीत चुकीं
ठण्डे सीमन्ट से पेट सटा कर सोते हुए
बीत चुकीं लू-लपट से तपतीं
हज़ारों प्यास-$खुश्क दोपहरें
गर्म पानी से भरी पानी की टंकियों से जूझते
कुत्तों-पत्थरों और हुलकारती
हिंसक आवाज़ों से
कूदते भागते गए जाने कितने
सूखे विस्थापित दिन
लेकिन टांड पर मार कर बतौर चेतावनी टांगी गयी
सहजातियों की लाशें
भयाक्षन्त करने के बावजूद
मंद नहीं कर पातीं
उस पुराने सपने का सम्मोहन

यूथपति एक प्रौढ़ वानर संकल्प लेता है :
फिर से यहीं बनाएंगे
अपना वह बा$ग
फिर से प्यार करेंगे
पेड़ों की घनी-भारी डालों पर
सब विजातियों को भगा देंगे
बस एक उसी मानुसी को छोड़ कर
जिसकी वसंत में आम के नए पत्तों जैसे हरे परिधान में देखी
करुणामयी छवि
हृदय से उतरती नहीं
जो गोया उस पुराने भव्य आम्रवृक्ष
का ही कमनीय प्रतिरूप है

न कोई रूपक, न निजंधर
न व्यंग्य न समाजेतिहास
थोड़ा दिमागी खलल, बस, शायद

वीरेन दा की डायरी का एक पन्ना

वीरेन दा की कुछ प्रकाशित और लोकप्रिय रचनाएँ

इतने भले नहीं बन जाना साथी

इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कूवत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊँचे सन्नाटे में सर धुनते रह गये
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरकते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बगल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना

ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं जो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो, उस पर भी तो तनिक विचारो

काफी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अन्धकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी

रामसिंह

दो रात और तीन दिन का स$फर करके
छुट्टी पर अपने घर जा रहा है रामसिंह
रामसिंह अपना वार्निश की महक मारता ट्रंक खोलो
अपनी गन्दी जर्सी उतार कर कलफदार वर्दी पहन लो
रम की बोतलों को हि$फाजत से रख लो रामसिंह, वक्त $खराब है;
खुश होओ, तनो, बस में बैठो, घर चलो।

तुम्हारी याददाश्त बढिय़ा है रामसिंह
पहाड़ होते थे अच्छे मौके के मुताबिक
कत्थई-सफेद-हरे में बदले हुए
पानी की तरह साफ
खुशी होती थी
तुम कण्टोप पहन कर चाय पीते थे पीतल के चमकदार गिलास में
घड़े में, गड़ी हुई दौलत की तरह रक्खा गुड़ होता था
हवा में मशक्कत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे फौजियों की तरह
नींद में सुबकते घरों पर गिरा करती थीं चट्टानें
तुम्हारा बाप
मरा करता था लाम पर अंगरेज़ बहादुर की खिदमत करता
माँ सारी रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने

घरों के भीतर तक घुस आया करता था बाघ
भूत होते थे
सीले हुए कमरों में
बिल्ली की तरह कलपती हुई माँ होती थी बिल्ली की तरह
पिता लाम पर कटा करते थे
खिदमत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे सिपाहियों की तरह;
सड़क होती थी अपरिचित जगहों के कौतुक तुम तक लाती हुई
मोटर में बैठकर घर से भागा करते थे रामसिंह
बीहड़ प्रदेश की तरफ।

तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी ऊँगली हो?
किसका उठा हुआ हाथ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफीस दस्ताना?
जि़न्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार?
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढ़ते रहते हैं?
जो बच्चों की नींद में डर की तरह दाखिल होते हैं?
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं?
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं?
वे माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।

पहले वे तुम्हें कायदे से बन्दूक पकडऩा सिखाते हैं
फिर एक पुतले के सामने खड़ा करते हैं
यह पुतला है रामसिंह, बदमाश पुतला
इसे गोली मार दो, इसे संगीन भोंक दो
उसके बाद वे तुम्हें आदमी के सामने खड़ा करते हैं
ये पुतले हैं रामसिंह, बदमाश पुतले
इन्हें गोली मार दो, इन्हें संगीन भोंक दो, इन्हें…इन्हें…इन्हें…
वे तुम पर खुश होते हैं—तुम्हें बख्शीश देते हैं
तुम्हारे सीने पर कपड़े के रंगीन फूल बाँधते हैं
तुम्हें तीन जोड़ा वर्दी, चमकदार जूते
और उन्हें चमकाने की पालिश देते हैं
खेलने के लिए बन्दूक और नंगी तस्वीरें
खाने के लिए भरपेट खाना, सस्ती शराब
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इस सबके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हुई
लड़कियों से बचपन में सीखे गये गीत ले लेते हैं

सचमुच वे बहुत माहिर हैं रामसिंह
और तुम्हारी याददाश्त वाकई बहुत बढिय़ा है।

बहुत घुमावदार है आगे का रास्ता
इस पर तुम्हें चक्कर आयेंगे रामसिंह मगर तुम्हें चलना ही है
क्योंकि ऐन इस पहाड़ की पसली पर
अटका है तुम्हारा गाँव

इसलिए चलो, अब ज़रा अपने बूटों के तस्मे तो कस लो
कन्धे से लटका ट्रांजिस्टर बुझा दो तो खबरें आने से पहले
हाँ, अब चलो गाड़ी में बैठ जाओ, डरो नहीं
गुस्सा नहीं करो, तनो

ठीक है अब ज़रा आँखें बन्द करो रामसिंह
और अपनी पत्थर की छत से
ओस के टपकने की आवाज़ को याद करो
सूर्य के पत्ते की तरह काँपना
हवा में आसमान का फडफ़ड़ाना
गायों का नदियों की तरह रँभाते हुए भागना
बर्फ के खिलाफ लोगों और पेड़ों का इकट्ठा होना
अच्छी खबर की तरह वसन्त का आना
आदमी का हर पल मौसम और पहाड़ों से लडऩा
कभी न भरने वाले ज़ख्म की तरह पेट
देवदार पर लगे खुशबूदार शहद के छत्ते
पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रोमांच
और तुम्हारी माँ का कलपना याद करो
याद करो कि वह किसका खून होता है
जो उतर जाता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलाने से पहले हर बार?

कहाँ की होती है वह मिट्टी
जो हर रोज़ साफ करने के बावजूद
तुम्हारे भारी बूटों के तलवों में चिपक जाती है?

कौन होते हैं वे लोग जो जब मरते हैं
तो उस वक्त भी नफरत से आँख उठाकर तुम्हें देखते हैं?

आँखें मूँदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो।

पी.टी. ऊषा

काली तरुण हिरनी
अपनी लम्बी चपल टाँगों पर
उड़ती है मेरे गरीब देश की बेटी

आँखों की चमक में जीवित है अभी
भूख को पहचानने वाली विनम्रता
इसीलिए चेहरे पर नहीं है
सुनील गावस्कर की छटा

मत बैठना पी.टी.ऊषा
इनाम में मिली उस मारुति पर मन में भी इतराते हुए
बल्कि हवाई जहाज़ में जाओ
तो पैर भी रख लेना गद्दी पर

खाते हुए मुँह से चपचप की आवाज़ होती है?
कोई गम नहीं
वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता
दुनिया के सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं

 

हमारा समाज

यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार
यह कौन नहीं चाहेगा भोजन-वस्त्र मिले
यह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर
बीमार पड़ें तो हो इलाज थोड़ा ढब से

बेटे-बेटी को मिले ठिकाना दुनिया में
कुछ इज़्ज़त हो, कुछ मान बढ़े, फल-फूल जायँ
गाड़ी में बैठें, जगह मिले, डर भी न लगे
यदि दफ्तर में भी जाएँ किसी तो न घबरायँ?
अनजानों से घुल-मिल भी मन में न पछतायँ।

कुछ चिंताएँ भी हों, हाँ कोई हरज नहीं
पर ऐसी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने
हौसला दिलाने और बरजने आसपास
हो संगी-साथी, अपने प्यारे, खूब घने।

पापड़-चटनी, आँचा-पाँचा, हल्ला-गुल्ला
दो-चार जशन भी कभी, कभी कुछ धूम-धाँय
जितना संभव हो देख सकें, इस धरती को
हो सके जहाँ तक, उतनी दुनिया घूम आयँ

यह कौन नहीं चाहेगा?

पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है
इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है
वह कत्ल हो रहा, सरेआम चौराहे पर
निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है

किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है?

मोटर सफेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिंताकुल चेहरा-बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है
हर साँस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
वह भव्य इमारत काली है

कालेपन की वे सन्तानें
हैं बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू हैं हम पर फेर रहीं
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना है?

मार्च की एक शाम में आईआईटी कानपुर

मृत्यु का अभेद्य प्रसार।
इस उजाड़ झुटपुटे में कोई नहीं
रास्ता बतानेवाला।
दुमें साधे डगडगाकर भागते-भागते भी
मनहूस आवाज़ में बोलते हैं मोर
गर्वीली आवाज़ में बोलते हैं मोर
गर्वीली गरदनों वाले कितने किशोर
आये यहाँ
गुम हो गए।
मेधा उनकी
पुकारती रही
पुकारती रही विकल।

फिर उस्ताद हत्यारों ने उसे बदला
एक निश्छल लालच में।
अंत में बन जाएगी वह
बिल गेट्स का एक
निर्जीव किन्तु दक्ष हाथ
आत्ममुग्ध फुर्ती से घुमाता स्टीयरिंग
काटता खतरनाक मोड़।

दुनिया एक गाँव तो बने
लेकिन सारे गाँव बाहर रहें उस दुनिया के
यह कम्प्यूटर करामात हो।

कितने अभागे हैं वे पुल
जो सिर्फ गलियारे हैं
जिनके नीचे से गुज़रती नहीं
कोई नदी।

 

उजले दिन ज़रूर
(निराला को)

आयेंगे, उजले दिन ज़रूर आयेंगे

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार
संशय-विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पायेंगे।

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक्-चिक् की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं,
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पायेंगे।

यह रक्तपात, यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है।

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जायेंगे।

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है।

आये हैं जब हम चलकर इतने लाख वर्ष
इसके आगे भी तब चलकर ही जायेंगे,
आयेंगे, उजले दिन ज़रूर आयेंगे।

रातगाड़ी
(मंगलेश को एक चिट्ठी)

रात चूँ-चर्र-मर्र जाती है
ऐसी गाड़ी में भला नींद कहीं आती है?

इस कदर तेज़ वक्त की रफ्तार
और ये सुस्त जि़ंदगी का चलन
अब तो डब्बे भी पाँच ऐसी के
पाँच में ठुँसा हुआ बा$की वतन
आत्मग्रस्त छिछलापन ही जैसे रह आया जीवन में शेष
प्यारे मंगलेश
अपने लोग फँसे रहे चीं-चीं-चीं-टुट-पुट में जीवन की
भीषणतम मुश्किल में दीन और देश।
लोगों के दु:ख तनिक कम न हुए बढ़े और बढ़े और और
प्यास लगी होने पर एक ग्लास शीतल जल भी
प्यार सहित पाना आसान नहीं
बेगाने हुए स्वजन
कोमलता अगर कहीं दीख गई आँखों में, चेहरे पर
पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्ध और स्यार
बिस्कुट खिलाकर लूट लेने वाले ठग बटमार
माया ने धरे कोटि रूप
अपना ही मुल्क हुआ जाता परदेस। प्यारे मंगलेश।
रात विकट विकट रात विकट रात।
दिन शीराज़ा।
शाम रुलाई फूटने से ठीक पहले का लंबा पल।
सुबह भूख की चौंध में खुलती नींद।
दाँत सबसे विचित्र हड्डी
तैश में लगातार फ्लैट की बालकनी से
भोंकता छोटी नस्ल का व्यक्तित्वहीन कुत्ता
टेलीविज़न
अखबार भाषा की खुजाती हुई बड़ी आँत
विश्वविद्यालय बेरोज़गारों के बीमार कारखाने
गुंडों के मेले राजधानियाँ
कलावा बाँधे गद्गद् खल विदूषक
सोने के मुकुट पहनते उतरवा रहे हैं फोटो
प्राथमिक शाला के प्रांगण में
नाच रहा है विभोर विश्वबैंक का कार्याधिकारी
बावर्दी बेवर्दी हत्यारे
रौंद रहे गाँव-गाँव-नगर-नगर
एक प्रेतलीला सी जैसे चलती रहती है लगातार।
दिल को मुट्ठी में भींचे
घसीटता लेता चला जाता है कोई
बिना देखे पार कर जाता हूँ उन नवेली गाडिय़ों का
खतरनाक शाँय-शाँय ट्राफिक
जा पहुँचता हक्का-बक्का कर देने वाले मगर बंजर सभागार में
जहाँ छत से लगातार बरसती
रेत और गिट्टियाँ।
उधर मेरे अपने लोग
बेघर बेदाना बेपानी बिना काम मेरे लोग
चिंदियों की तरह उड़े चले जा रहे हर ठौर
अपने देश की हवा में।

फिलहाल श्रवण सीमा से आगे इसीलिए अश्रव्य है
उनका क्षुब्ध हाहाकार
घनीभूत और सुसंगठित होनी है उनकी वेदना अभी
सुरती ठोंकता हुआ कर रहा हूँ मैं
प्रागैतिहासिक रात के बीतने का यही इंतज़ार।
फिलहाल तो यही हाल है मंगलेश
भीषणतम मुश्किल में दीन और देश।
संशय खुसरो की बातों में
खुसरो की आँखों में डर है
इसी रात में अपना घर है।

 

पेप्पोर, रद्दी पेप्पोर!

पहर अभी बीता ही है पर चौंधा मार रही है धूप
खड़े-खड़े ही कुम्हला रहे हैं सजीले अशोक के पेड़
उरुज पर आ पहुँचा है बैसाख

सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार
गोया एक फरियाद है अज़ान सी
एक फरियाद है फरियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से।

 

(साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त और दिवंगत कवि वीरेन डंगवाल को उनके जन्मदिन पर याद कर रहें हैं , हमारे दौर के प्रमुख कहानीकार, अनुवादक और संपादक के रूप में ख्यातिप्राप्त प्रियदर्शन।)

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