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सुरों के उस्ताद, सुनने की उस्तादी

दिनेश चौधरी

हरिभाई यानी पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी हमेशा थोड़ी जल्दी में होते हैं। वे आँधी की तरह आये, बाँसुरी की तान छेड़ी, खाना खाये बगैर किसमिस के चार दाने मुंह में डाले और तूफान की तरह चले गये। गाड़ी से उतरकर मंच पर विराजने और लौटकर फिर अपने वाहन में सवार होने तक लोगों ने उन्हें घेरे रखा था। किसी को उनके आटोग्राफ चाहिये थे तो किसी को उनके साथ फोटू खिंचानी थी। कुछ लोग एक सेलिब्रिटी के साथ महज चंद पल गुजारने का सुख लूटना चाहते थे, सो लूट लिया। मैं एक अरसे से उनके एक अदद इंटरव्यू की फिराक में था, जो एक बार फिर न हो सका। वे हर बार मुट्टी में आई रेत की तरह फिसल कर निकल जाते हैं। देश-विदेश में कभी न खत्म होने वांले उनके कार्यक्रमों और इसी वजह से उनकी भागदौड की इस आदत के कारण गुरू-माँ अन्नपूर्ण देवी उनसे कहती हैं, ‘यह तुम बंदरों की तरह यहाँ-वहाँ क्या उछलकूद मचाए रहते हो?’’ हरिभाई ने लगातार दूसरी बार मुझे धोखा दिया। यह छत्तीसगढ़ के छोटे से कस्बे बेमेतरा का किस्सा है।

इससे पहले ग्वालियर के तानसेन संगीत समारोह में इस तरह का वाकया हो चुका है। कोई 25 साल पहले की घटना है। शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में उन दिनों दो नाम बेहद उभरकर सामने आ रहे थे। एक थे रशीद खाँ और दूसरे मुकुल शिवपुत्र। रशीद खाँ अब उस्ताद रशीद खाँ हो चुके हैं और बकौल भीमसेन जोशी हिंदुस्तानी संगीत में कम से कम से एक नाम तो ऐसा है जो इसकी शमआ को जलाये हुए लगातार रोशनी बिखेरे हुए है। दूसरी ओर मुकुल शिवपुत्र, जो कुमार गंधर्व के सुपुत्र हैं, लगातार संगीत के अलावा भी दीगर कारणों से खबरों में आते रहे। कभी उनके बारे में मंदिर की सीढ़ियों में भीख मांगने की खबर आयी, तो कभी नशा मुक्ति केंद्र से भाग जाने की और कभी केंद्र में वापस भेज दिये जाने की। बीच-बीच वे प्रोग्राम भी करते रहे पर उन्हें वह मुकाम हासिल नहीं हो पाया जो रशीद खाँ साहब ने बहुत कम उम्र में हासिल कर लिया। यही मुकुल शिवपुत्र ग्वालियर में हरिभाई के आने से पूर्व मोर्चा संभाले हुए थे। कुछ सुनकार उनके व्यवहार में एक खास किस्म की उच्छृंखलता महसूस कर रहे थे पर चूंकि सुबह-सवेरे ही मैं उनसे मिल आया था, मुझे उनके इस रवैये पर कोई हैरानी नहीं हो रही थी।

मुकुल का इंटरव्यू करते हुए मुझे उनके अंदर एक बेचैनी, रोष, वेदना व अस्थिरता के मिले-जुले भाव परिलक्षित हो रहे थे, जिन्हें कला-जगत की भाषा में आम तौर पर ‘फ्रस्टेशन’ के नाम से जाना जाता है। मुकुल उस्ताद अमीर खान व बड़े गुलाम अली खाँ साहब के बाद भीमसेन जोशी को छोड़कर लगभग सारे गवैयों को खारिज करने पर तुले हुए थे। उनके साथ खैरागढ़ के मुकुंद भाले भी थे। मुकुल पूछ रहे थे-शायद आपने आपसे- सब तरफ तो शोर ही शोर है, कराह हैं, चीखें है, आपको संगीत कहाँ सुनाई पड़ता है? तब मुझे अंदेशा नहीं था कि उनके अंदर की यह बेचौनी उन्हें एक दिन नशा मुक्ति केंद्र तक खींचकर ले जायेगी। ये सारी खबरे मुझे टुकड़ों में मिलती रहीं और इनकी पुष्टि का मेरे पास कोई साधन नहीं था। इन्हीं मुकुल शिवपुत्र ने बातों ही बातों में मुझसे कहा कि आप हरिभाई से नहीं मिल पायेंगे। मध्यप्रदेश पर्यटन निगम वालों ने उनके लिये होटल का कमरा तक बुक नहीं किया है और वे आँधी की तरह आकर तूफान की तरह निकलने वाले हैं। तब मुझे क्या पता था कि यही किस्सा इतने अरसे बाद एक बार फिर दोहराया जायेगा।

बहरहाल, हरिभाई शायद स्टेशन से सीधे ही कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे थे। मुकुल ने उनके आगमन की आहट के साथ अपना गाना बीच में ही बंद कर दिया। वे कुमार साहब का मशहूर भजन ‘गुरूजी जहाँ बैठूं वहाँ छाया दे’ गा रहे थे। लोग मंत्र-मुग्ध सुन भी रहे थे, पर मुकुल के अंदर कुछ और ही बज रहा था और वे गाना छोड़कर मंच से चले गये। उत्तर भारत की कड़ाके की ठंड के साथ रात के गहराने के बावजूद लोग पंडित हरिप्रसाद चौरसिया को सुनने के लिये जमकर बैठे हुए थे। एक पहाड़ी धुन जो हरिभाई ने सुनाई थी, दो दशकों बाद अब भी कानों में गूंजती है। इसका जिक्र मैंने पहले भी किया है। इस धुन के शबाब में आने पर चौरसिया जी एक छोटी बासुँरी का प्रयोग करते हैं और इसके ऊँचे सुर आपको वहाँ ले जाकर छोड़ते हैं, जहाँ आप अपनी दुनियावी व दिमागी झंझटों से मुक्त होकर अपनी आत्मा के किसी कोने में स्वयं को भारहीन महसूस करते हुए गोते लगाते रहते हैं और जब तक हरिभाई अपनी स्वर लहरियों को समेट कर एक सफेद रुमाल अपने होंठों पर फेरते हैं तब लगता है कि आप कई हजार किलोमीटर की रफ्तार से आकाश में जमीं में आ गिरे हों। लोग मुकर्रर-मुकर्रर के नारे का जाप करते हैं पर हरिभाई कहते हैं कि ‘‘भूख लग आई है। स्नान भी नहीं किया है।’’ पीछे से एक सुनकार कहता है, ‘‘आपके इंतजार में खाना तो हमने नहीं खाया है और भला इतनी ठंड में कोई नहाता है क्या?’’

बेमेतरा में हरिभाई ने फिर यही कहा, ‘‘ भूख लग आयी है।’’ हालांकि खाना उन्होंने नहीं खाया और सीधे कार में सवार होकर ‘यह जा वह जा’ की तर्ज पर रायपुर के लिये रवाना हो गये। अगर रुककर भोजन कर लेते तो शायद इसी दौरान कुछ बातचीत हो जाती पर सोचता हूँ कि ऐसा क्या बचा होगा हरिभाई के पास बताने को और मुझे पूछने को जो इतने सालों में कहा-सुना नहीं गया। हालांकि इंटरव्यू तो फिर भी हुआ। स्कूली छात्रों ने हरिभाई से अजब सवाल पूछे और हरिभाई ने उनके गजब जवाब दिये। वे हल्के मूड में थे। बच्चों का प्रोग्राम था। स्कूली बच्चों के बीच ‘स्पीक-मैके’ शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार के लिये पिछले कई सालों से यह आयोजन कर रही है। हरिभाई ने ‘बड़ों’ को पहले ही चेतावनी दे दी कि वे न तो उनकी कोई फर्माइश पूरी करेंगे और न ही उनके किसी सवाल का जवाब देंगे। बच्चों के लिये पूरी तरह से छूट थी। एक बच्चे ने पूछा कि आपने वाद्य के रूप में बाँसुरी को ही क्यों चुना? हरिभाई ने कहा कि ‘‘सस्ती पड़ती है। अमेरिका और योरोप में स्टील की बनती है पर अपने यहाँ केवल बाँस से। पांच रूपये में मिल जाती है। हवाई जहाज में जाने पर अलग से किराया देकर लगेज बुक करना नहीं पड़ता। सितार वगैरह खोलकर दिखाना पड़ता है, इसमें सिक्योरिटी का कोई झंझट नहीं है। सबसे बड़ी बात यह कि हाथ में रहे तो रात के सन्नाटे में कुत्ते भी नजदीक आने से डरते हैं!’’

एक दूसरे बच्चे ने पूछा, ‘‘ हारमोनियम व सितार वगैरह को दूसरे कलाकार बजाने के पहले ट्यून करते हैं। बाँसुरी के साथ यह काम कैसे होता है?’ हरिभाई ने जवाब दिया कि ‘‘बाँसुरी ट्यून नहीं करते। अलग-अलग रेंज की चार-पाँच बाँसुरी साथ रखते हैं। पर ज्यादा नहीं रखते। बीस-पच्चीस रख ली तो लोग सोचेंगे कि यह कलाकार नहीं बाँसुरी बेचने वाला है।

पंडित जसराज से भी दो बार मिलने का मौका मिला। पहली बार कोई 25-26 बरस पहले भिलाई में ”बालाजी संगीत कल्याणोत्व” नामक आयोजन में और फिर 2005-06 के आस-पास जमशेदपुर में एक सभा के सिलसिले में। अपनी आदत से लाचार, सभा से पूर्व मैं पंडितजी से मिलने भी पहुंचा। जमशेदपुर का आयोजन मुंबई के किन्हीं अजगैवी प्रकाशन वालों ने कराया था। इस प्रकाशन का नाम मैंने पहले कभी नहीं सुना था, पर आयोजन के तामझाम से लग रहा था कि वे किताबों के धंधे में मोटी कमाई कर रहे होंगे। आयोजक थोड़े ठसन वाले थे और चूंकि पंडितजी को उन्होंने आमंत्रित किया था, इसलिए वे उन पर अपना पूरा अधिकार छाँट रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि पंडितजी कहां ठहरे हैं तो उन्होंने यह कहकर बताने से साफ इंकार कर दिया कि वे कलकत्ते से कार से आये हैं, थके हैं और किसी से मिलना नहीं चाहते। मुझे उन पर गुस्सा नहीं आया, उनकी सादगी पर तरस आया।

‘सेंटर पाइंट’ जमशेदपुर के अभिजात्य इलाके में है, सबसे बड़ा होटल माना जाता है और कोई बड़ा आदमी आये तो यहीं ठहरता है, ये बातें सभी को मालूम हैं। प्रकाशक महोदय के दो-तीन शागिर्द आयोजन की तैयारियों में व्यस्त थे। मैंने उनमें से एक से अधिकारपूर्वक पूछा कि ‘सेंटर पाइंट’ में पंडित जी किस कमरे में है? उसने कमरे का नंबर तो नहीं बताया पर उनके वहां होने की पुष्टि कर दी। मुझे बस इतनी ही जरूरत थी। आनन-फानन में मैं अपने मित्र के साथ होटल की लॉबी में पहुंच गया। पंडितजी के कमरे में घबर भिजवा दी और प्रतीक्षा करने लगे।

मित्र ने कहा कि सेलीब्रिटी होने की अपनी मजबूरियां होती है। कभी-कभी वे किसी से मिलना नहीं चाहते पर कोई मिलने नहीं आये तो लगता होगा ”अरे! कोई आया नहीं।” लेकिन संगीतज्ञों से मिलने मेरा अपना तर्जुबा है कि वे अपने चाहने वालों को कभी निराश नहीं करते। मैंने अपना परिचय पत्रकार के रूप में दिया था। कोई दस मिनट बाद ही बुलावा आ गया। लंबे सफेद बाल, चमकता हुआ माथा और चेहरे पर वही दिव्य मुस्कुराहट। उनका आभा मंडल कुछ ऐसा है कि मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि पंडितजी जैसी हस्तियों के होते हुए लोग स्वयंभू भगवानों के पीछे किसलिये अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं। ताउम्र की तपस्या चेहरे पर झलकती है। प्रकृतस्थ होने में मुझे थोड़ा समय लगा। ”तुम मुखातिब भी हो, करीब भी/तुम्हें देखे या तुमसे बातें करे,” गालिब ने किसी ऐसे ही मौके पर कहा होगा।

मैंने बातें करने का फैसला किया। पूछा कि इन दिनों संगीत के रियलिटी शो में इलाकाई भावनाओं को हवा देकर एसएमएस के जरिये ‘सुरों के सरताज’ बनाने का जो सिलसिला चल निकला है, वह कहां तक जायज है? पंडितजी सचमुच थके हुए थे। या शायद मेरे प्रश्न का अभिप्राय समझने में उनसे गलती हुई। या उनकी भव्यता व शख्सियत से आक्रांत मैं ही अपनी बात को सही ढंग से नहीं रख पाया था। वे पहले ही सवाल पर उखड़ गये, ‘कहा ‘आपको जो लिखना है लिख मारिये, हम इन सब पचड़ों में नहीं पड़ते।’

मुझे जरा भी असहज नहीं लगा। पंडितजी के पास रोज ऐसे कई सिटी रिपोर्टर आते होंगे जिन्हें संगीत की नहीं बल्कि डबल कॉलम न्यूज की चिंता रहती होगी। या ऐसे न्यूज चैनल वाले आते होंगे जो पंडित भीमसेन जोशी के गुजरने पर उनकी फुटेज चस्पां कर देते हैं। इस तरह की बातें होती ही रहती होंगी। मैंने धैर्य नहीं खोया और बातचीत का सिलसिला जारी रखा तो पंडितजी भी सहज हो गये। जब उन्हें बताया कि बीसेक साल पहले भी आप से मिला था तो उनकी दिव्य मुस्कुराहट वापस लौट आयी, कहा कि ‘तब आपकी उम्र क्या रही होगी? आपको देखकर तो ऐसा लगता नहीं।’ फिर वे पूरी आत्मीयता से बातें करने लगे। मैं लिखना-लिखाना भूल गया। सोचा भाड़ में गया इंटरव्यू, मौका मिला है तो रस लेकर सिर्फ बातें ही की जायें।

बिसमिल्ला खां साहब के साथ जुगलबंदी करने वालीं डॉ. शोमा घोष से एक दिन पहले बातें हुई थीं तो उन्होंने संगीत की पाइरेसी को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। लिहाजा मैंने पंडितजी को उन्हीं का एक सीडी दिखाया जिसमें कोई 25 एलबम थे और जिसे मैंने महज 25 रुपयों में हासिल किया था। पंडितजी ने पूछा कि ‘यह आपको कहां मिला? मैंने कहा, ” कलकत्ते में फुटपाथ पर।” पंडितजी ने कहा कि ‘वो बहुत बढ़िया काम कर रहा है। शास्त्रीय संगीत की पाइरेसी हो रही है, इसका मतलब ये है कि लोग शास्त्रीय संगीत सुन रहे हैं। हमारे लिये इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है?’

और भी ढेर सारी बातें हुई। रसधारा-सी बहने लगी। यह सिलसिला देर रात तक चला जब उन्होंने अपनी बेहद लोकप्रिय व खुद की पसंदीदा रचना ”ओम नमो भगवते वासुदेवाय” सुनाई। अद्भुत होती है उनकी यह प्रस्तुति। स्वरों का वे ऐसा वितान खड़ा करते हैं जहां गाने व सुनने वाले एकाकार हो जाते हैं। जिसे आत्मा से परमात्मा का मिलन कहा जाता है और जिसके बारे में मेरी मालूमात बहुत थोड़ी है, यदि होता होगा तो शर्तिया ऐसा ही होता होगा। वे आपको एक अलग दुनिया में ले जाते हैं, जिसका वर्णन लगभग नामुमकिन है।

आत्मा-परमात्मा वाली व्याख्या से इतर, खुरदुरी ठोस जमीन पर विचरण करने वांले कलाकार के रूप में मुझे सिर्फ रोनू मजुमदार मिले। एक आवासीय विद्यालय के स्टाफ क्वार्टर में बैठा हुआ मैं उस्ताद बिसमिल्लाह खान और शोमा घोष की जुगलबंदी सुन रहा था- ‘‘लट उलझे सुलझा जा बालमा।’’ नायिका के हाथों में मेहंदी रची हुई है। वह शायद खुले मैं बैठी है और शोख हवा उसके जुल्फों को छेड़ जाती है। वह नायक से इसरार कर रही है कि चूंकि उसके अपने हाथ व्यस्त हैं, इसलिए वह उसके मुखड़े से, जो कि जाहिर है कि सलोना भी होगा, जुल्फ को तनिक हटा देने की जहमत फरमाये। नायक फुल टाइम प्रेमी होगा और उसे सिवाय इश्क फरमाने के और कोई काम नहीं होगा, वरना जॉब वाला प्रेमी तो बॉस के टेंशन से ऑफ-ड्यूटी में भी अधमरा-सा रहता है और उसे कम उम्र में ही उच्च रक्तचाप, डिप्रेशन, नर्वसनेस वगैरह की शिकायत होती है। कोई भी प्रेमिका कितनी भी मूर्ख हो ऐसे व्यस्त और पस्त प्रेमी से लट सुलझाने जैसे ‘‘नॉन प्रोडक्टिव’’ काम का इसरार नहीं करेगी।

जुगलबंदी का आनन्द लेते हुए मैं कुछ इन्हीं ख्यालों में खोया हुआ था कि एक लड़के ने आकर खबर दी कि कोई इंटरनेशनल बाँसुरी वादक आए हैं तो प्रिंसिपल साहब ने याद किया है। मैं प्रिंसिपल साहब का मुलाजिम नहीं था पर इप्टा वगैरह के अपने काम की वजह से वाक़िफियत थी। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि एक ‘इंटरनेशनल आर्टिस्ट’ की मेजबानी कैसे करें। इस बीच मैंने अंदाजा लगा लिया था कि चौरसिया जी तो नहीं होंगे। वे पदम् विभूषण हैं तो उनका कुछ प्रोटोकाल वगैरह होता होगा, वे यूँ अचानक नहीं आ धमकेंगे। मैंने कयास लगाया कि रोनू होंगे। वही थे। प्रिंसिपल साहब उन्हें मेरे हवाले सौंपकर बरी हो गए। पास में खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय है। वहाँ स्पीक मैके वाला प्रोग्राम था। यूनिवर्सिटी की चान्सलर इस स्कूल में आ चुकी हैं। इप्टा के आयोजन में भी। तो उन्होंने रोनू को मशविरा दिया कि लौटते हुए इस स्कूल के बच्चों को भी सुर और राग के बारे में बताते चलें।

रोनू ने मस्त बाँसुरी बजाई। वादन की बारीकियाँ भी बताते रहे। फिर उनसे लंबी बातचीत हुई, जिसका खुलासा फिर किसी मौके पर। जो उल्लेखनीय बात थी वो यह थी कि रोनू मुझे कम से कम संगीत के क्षेत्र में ऐसे पहले कलाकार मिले जो कला के अलावा गमे- दौरां या दुनियावी बातों में भी उतनी ही दिलचस्पी रखते थे। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ा कलाकार तो हमारा किसान है, जिसके क्राफ्ट ने हमें हजारों प्रजातियों के पौधे व फसलें दी हैं। यह काम उन्होंने बरसों की साधना से वैसे ही किया है, जैसी साधना दीगर कलाकार करते हैं। हमने उनके क्राफ्ट को कभी क्राफ्ट नहीं माना, सिर्फ मजदूर समझते रहे।

‘‘जब फसल खड़ी हो और हवा चलती हो उससे निकलने वाले सुरों पर कान दें, आपको सच्चे सुर सुनाई पड़ेंगे, शर्त ये है कि उन्हें पकड़ने की थोड़ी-सी सलाहियत हो और अनजाने कलाकर के लिए मन मे एक मुलायम-सा कोना!’’

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