समकालीन जनमत
पुस्तक

स्मृतियों के कथ्य में जीवनानुभव की अभिव्यक्ति

राम विनय शर्मा


‘ग़ाज़ीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल’ पत्रकार और लेखक उर्मिलेश के संस्मरणों का संकलन है। ‘प्रमुखतः इसमें साहित्य-संस्कृति और मीडिया से सम्बद्ध लोगों, प्रसंगों व घटनाओं की यादें हैं। कुछ यादें बहुत सुखद और प्रेरित करने वाली हैं तो कुछ बहुत दुःखदायी और निराश करने वाली भी।’ जिन व्यक्तियों पर संस्मरण लिखे गये हैं, वे यकीनन लेखक के सहकर्मी और निकटवर्ती रहे होंगे। उन्हें याद करते हुए राजनीति, समय और समाज के अनेक आयाम उजागर होते हैं।

संस्मरण स्मृतियों का आख्यान है। मनुष्य का जीवन भी एक यात्रा ही है, जिसमें न जाने कितने लोगों, स्थानों और घटनाओं का आना-जाना बना रहता है। इस पुस्तक में पहला अध्याय महादेवी वर्मा पर है। मृदु, शालीन और लगभग अराजनीतिक समझी जाने वाली महादेवी जी की दृढ़ता एवं पक्षधरता को रेखांकित करने लिए उनकी ये पंक्तियाँ पर्याप्त हैं: ‘आज तुम लोगों ने यहाँ अपने हॉस्टल में मेरे सामने जो जो कुछ किया, उसका मैं नैतिक समर्थन करती हूँ। निर्दोष बच्चों पर लाठीचार्ज कराने का किसी को अधिकार नहीं है। यह सिर्फ़ अनैतिक ही नहीं है, बर्बर कृत्य है जो विश्वविद्यालय प्रशासन और पुलिस ने मिलकर किया कराया। मैं उस दिन के अख़बारों में छपी ख़बरों को पढ़कर बहुत परेशान हुई थी।’ ये पंक्तियाँ महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व में निहित उदारता, करुणा, स्नेह और नैतिक बल से हमारा परिचय कराती हैं।

उनको इतनी आत्मीयता और सम्मान के साथ याद करने का एक दूसरा कारण है साहित्य में उनकी लगभग सन्त जैसी स्थिति और साहित्य की संकीर्ण राजनीति से उनकी विच्छिन्नता। यह संस्मरण सत्तर के दशक में इलाहाबाद की छात्र राजनीति, मुद्दों और जीवन्त वातावरण की याद दिलाता है। तब के विद्यार्थियों में वामपन्थ के प्रति आकर्षण की भी यहाँ चर्चा की गयी है, जिसका मतलब है राजनीतिक-सामाजिक जीवन में बदलाव की चाहत।

दूसरे अध्याय में जेएनयू के शोधार्थी गोरख पाण्डेय को जिस तरह याद किया गया है, उससे गुजरते हुए उनकी व्यवहारकुशलता, वैचारिक प्रतिबद्धता, सामाजिक सरोकार, बौद्धिकता, बहुपठितता, बेचैनी और प्रेम सब कुछ आँखों के सामने तैरने लगते हैं। दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी रहे गोरख पाण्डेय का अपनी मातृभाषा भोजपुरी से गहरा लगाव था। उन्होंने अपनी अनेक चर्चित कविताएँ भोजपुरी में ही लिखीं। उर्मिलेश ने लिखा है कि ‘मैंने जितना गोरख को जाना, उसके आधार पर कह सकता हूँ कि अपनी अब तक की ज़िन्दगी में उन जैसा फ़क़ीर वामपन्थी रचनाकार-दार्शनिक मैंने नहीं देखा, जिसकी राजनीतिक सोच में फौलाद जैसी दृढ़ता हो, पर जिसके व्यक्तित्व के अन्दरूनी आँगन में करुणा, प्रेम और कोमलता का समन्दर लहराता हो।’

छल-प्रपंच और यशाकांक्षा से दूर रहने वाले गोरख पाण्डेय में जो बच्चों जैसी मासूमियत थी, उसने उर्मिलेश को बहुत प्रभावित किया। ‘महत्त्वपूर्ण और जटिल कथ्य को सहज भाषा और साफ़ अन्दाज़ में पेश करने में गोरख पाण्डेय को महारत हासिल थी।’ उनमें अन्याय के प्रतिकार का अदम्य साहस था। यह सब होते हुए भी गोरख पाण्डेय के भीतर छिपी प्रेम की अभिलाषा अपूर्ण ही रही, जो त्रासदी बनकर उनके जीवन को लील गयी।

नितान्त अकेलापन कितना घातक हो सकता है, इसे गोरख पाण्डेय की आत्महत्या की घटना से समझा जा सकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि प्रगतिशीलता और जनसरोकारों का दावा करने वाले लोगों में सामुदायिकता एवं आत्मीयता का वैसा भाव क्यों नहीं विकसित हो पाता, जो सामान्यतया हमें साधारण कहे जाने वाले लोगों में दिखलायी पड़ता है? वैचारिकता के साथ सामान्य मानवीय भावों की सहस्थिति क्या सम्भव नहीं है? क्या वैचारिक प्रखरता व्यक्ति की तरलता को सोखकर उसे भावहीन बना देती है? बुद्धिजीवियों और वैचारिकों को इन सवालों पर विचार करना चाहिए, अन्यथा उनके ज्ञान और विचार खोखले और शुष्क होकर रह जाएँगे।

पहली मुलाकात एवं बाद के दिनों में गोरख पाण्डेय के साथ विकसित प्रगाढ़ सम्बन्ध के बारे में उर्मिलेश ने जो बातें लिखी हैं, उससे गोरख पाण्डेय की एक निश्छल, अविचल एवं करुणार्द्र छवि निर्मित हुई है। उस छवि के भीतर से वेदना का उमड़ता समुद्र और दुनिया को यथाशीघ्र बदल देने की व्यग्रता बार-बार झाँकती है। स्मृतियों के आख्यान का यह प्रसंग मर्म को छू लेता है।

हिन्दी समाज तथा उसकी सांस्कृतिक राजनीति में निश्चय ही हस्तक्षेपकारी भूमिका रखने वाले नामवर सिंह पर केन्द्रित अध्याय में उनकी आरक्षण-विरोधी और जातिवादी टिप्पणी को उद्धृत करते हुए उर्मिलेश ने कुछ सवाल खड़े किये हैं। एक सवाल तो यही है कि लम्बे समय तक जेएनयू के भारतीय भाषा केन्द्र का अध्यक्ष रहते हुए नामवर सिंह उसे अध्ययन-अध्यापन तथा शोध के क्षेत्र में उस ऊँचाई तक क्यों नहीं पहुँचा सके, जिसकी उनसे अपेक्षा थी ? वह सही अर्थों में सभी भारतीय भाषाओं का केन्द्र क्यों नहीं बन सका? वे जिस विडम्बना की ओर संकेत कर रहे हैं, उसकी झलक देश के ख्यात- अख्यात सभी विश्वविद्यालयों में मिल जाएगी। बुद्धिजीवियों में कथनी-करनी का भेद राजनेताओं से कम नहीं है। वे जिस विचार के वाहक होने का दावा करते हैं, वह सामान्यतया उनके आचरण में परिलक्षित नहीं होता। इस द्वैत को उर्मिलेश ने नामवर सिंह के व्यक्तित्व में भी लक्षित किया है।

यह सच है कि जातिगत आग्रह से वामपन्थी लेखक, विचारक और अध्यापक भी मुक्त नहीं हैं। एक ओर उर्मिलेश ने नामवर सिंह को ज्ञान का सागर कहा है, दूसरी ओर उनके व्यवहार में वे सामन्तीपन की झलक देखते हैं। वैसे तो यह प्रवृत्ति किसी व्यक्ति-विशेष में नहीं, अधिकतर आचार्यों में पायी जाती है। सिर्फ़ नामवर सिंह ने ही अपने लोगों को विश्वविद्यालयों में नियुक्त नहीं कराया। जिसको भी अवसर मिलता है, ऐसा ही करता है। नामवर सिंह इसके अपवाद नहीं हैं। कहा जा सकता है कि ज्ञान, प्रतिष्ठा और विचारधारा के उच्चतर धरातल पर पहुँचकर वे उस आदर्श एवं व्यवस्था को स्थापित करने से चूक गये, जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती थी। उर्मिलेश ने लिखा है कि ‘भारत जैसे समाज में वर्ण-भेदभाव के ज्यादा तीर दलित-ओबीसी आदि पर ही बरसते हैं।

जेएनयू में उच्च कुलीन मुस्लिम समाज के लोग भी मज़े में दिखते थे, क्योंकि उन दिनों वे सत्ता और समाज के कुलीन तन्त्र का हिस्सा माने जाते थे।’ इस कथन में कुछ भी असत्य नहीं है। कुलीनता अथवा श्रेष्ठता की अपनी राजनीतिक समझ और प्राथमिकताएँ होती हैं। हिन्दू-मुसलमान दोनों सम्प्रदायों के कुलीन वर्ग के व्यापक हितों में समानता होती है। इसलिए वे अपने साम्प्रदायिक भेदभाव भुलाकर एक-दूसरे को उपकृत करते हैं। भीष्म साहनी ने अपने उपन्यास ‘तमस’ में इस आशय का एक प्रसंग रचा है।

अपने बीते दिनों को याद करते हुए उर्मिलेश ने भारतीय समाज में व्याप्त ऊँच-नीच के भेदभाव को रेखांकित करने के साथ अपना क्षोभ और प्रतिकार भी व्यक्त किया है। एक स्थान पर उन्होंने नामवर सिंह द्वारा उनकी जाति के बारे में जानकारी हासिल करने की बात लिखी है। भारतीय सामाजिक संरचना में जाति एक प्रमुख निर्धारक और निर्णायक तत्त्व है। हमारे भीतर अन्य की जाति के बारे में जानने की उत्सुकता रहती है। जाति के आधार पर अन्य के बारे में धारणा बनायी जाती है तथा सम्बन्धों को परिभाषित किया जाता है।

इस घटना ने उर्मिलेश के अन्तर्मन को इतना क्षुब्ध किया था कि वे नामवर सिंह को जातिवादी, व्यक्तिवादी, स्वार्थी, चेलेबाज और गुटबाज कहने से स्वयं को नहीं रोक पाते। यहाँ जिस तरह नामवर सिंह को खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, वह अटपटा लगता है। कोई काँटा है, जो उनके भीतर चुभता रहता है। उसकी टीस उर्मिलेश के अन्तर्मन को व्यथित करती होगी। कुछ अपवादों को छोड़कर भारत के वामपन्थियों की प्रतिबद्धता पर सन्देह उठते रहे हैं। ऐसा न होता तो भारत जैसे निर्धन, अविकसित और दलित-पिछड़ा बहुल समाज में वामपन्थ की ऐसी दुर्दशा कदाचित् न होती।

साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में नामवर सिंह को जातिवादी और सामन्तवादी कहकर दूसरों के पूर्वग्रहों पर परदा नहीं डाला जा सकता। नामवर सिंह ने जेएनयू में जिस तरह का आधुनिक ज्ञान-सम्पन्न पाठयक्रम बनाया था, वैसा किसी भी विश्वविद्यालय में देखने को नहीं मिलता। उनकी मानवीय कमजोरियों से इनकार नहीं, लेकिन सब कुछ के लिए उन्हीं को उत्तरदायी ठहराना उचित नहीं लगता। जातिवाद, चापलूसी तथा आत्ममुग्धता का वामपन्थी विचारधारा से कोई सम्बन्ध भले न हो, लेकिन यह हमारे समाज की एक कठोर सच्चाई ज़रूर है।

जातिवादी मनोवृत्ति ने भारत में वामपन्थ के स्वाभाविक विस्तार, स्थायित्व और उसकी वैधता को भारी क्षति पहुँचायी है। विचारधारा कोई वस्त्र या आभूषण नहीं है कि जब चाहा पहना और उतारकर रख दिया। विचारधारा से पतित होने की प्रवृत्ति गाँधीवादियों, वामपन्थियों, समाजवादियों तथा अन्य विचारधाराओं से जुड़े सभी में दिखलायी पड़ती है। उर्मिलेश ने लिखा है कि ‘दिल्ली के हर कॉलेज, विश्वविद्यालय, यहाँ तक कि बाहर के संस्थानों के हिन्दी विभागों में स्थानीय प्रबन्धन, सत्तारूढ़ राजनेताओं या नामवर जी की मण्डली के प्रोफ़ेसरों का ही दबदबा था।’ दिल्ली विश्वविद्यालय में तो डॉक्टर नगेन्द्र की चलती थी, जो नामवर सिंह की मण्डली के नहीं थे। वे तो स्वयं में महन्त थे।

इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो दिल्ली विश्वविद्यालय में जेएनयू के विद्यार्थियों का प्रवेश वर्जित था। एक अलिखित नियम की तरह वहाँ इसका पालन होता था। इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय में नामवर सिंह के दबदबे की बात समझ में नहीं आती। उन्होंने अपने चाहने वालों को देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जगह ज़रूर दिलवायी। उनके समय में ही अनेक विश्वविद्यालयों में दबदबा रखने वाले कई आचार्य थे और वे अपनी रुचियों तथा लोभ-लाभ के अनुरूप नियुक्तियाँ करते-करवाते थे। देश के समस्त विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में नामवर सिंह का हस्तक्षेप नहीं था कि वे अपनी मनमानी करते। हाँ, इस प्रसंग से इतना तो जाहिर है कि अकादमिक संस्थानों में व्याप्त विकृतियों के चलते बहुतेरे प्रतिभाशाली लोगों को अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का अवसर नहीं मिलता। उर्मिलेश भी उसमें से एक हो सकते हैं।

लेखक-सम्पादक राजेन्द्र यादव को उर्मिलेश ने ‘हिन्दी का अनोखा डेमाक्रेट’ कहा है। उनके विचार से ‘नयी कहानी वाले राजेन्द्र यादव में नवीनता और प्रतिभा तो पहले से है पर अस्सी के दशक में विकसित हो रहे राजेन्द्र यादव में प्रतिभा के साथ प्रतिबद्धता भी जुड़ती है। सामाजिकता और वैचारिकता का विस्तार दिखता है।’ उर्मिलेश को राजेन्द्र यादव की लोकतान्त्रिकता ने प्रभावित किया, जिन्होंने दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श की शुरुआत करके नये लेखकों और पाठकों को ‘हंस’ से जोड़ा, उसे लोकप्रिय बनाया और सामाजिक न्याय के प्रति अपनी पक्षधरता प्रकट की।

उर्मिलेश ने उनके जीवन और लेखन के अन्तर्विरोधों का भी उल्लेख किया है। वे राजेन्द्र यादव के साथ फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, राही मासूम रज़ा और गुलशेर खान शानी को साहित्य का कोई केन्द्रीय सम्मान न दिये जाने पर सवाल उठाते हैं कि ‘क्या प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच जैसे संगठनों ने साहित्य अकादमी आदि के ऐसे पूर्वाग्रहपूर्ण आचरण को कभी मुद्दा बनाया ?’ उर्मिलेश का सवाल जायज है। जब इतने महत्त्वपूर्ण लेखकों को उपेक्षित किया जाता है, तो सवाल उठना स्वाभाविक है। उर्मिलेश के विचार में राजेन्द्र यादव को किसी संकीर्ण सोच में रखकर सोचना उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ अन्याय होगा।

सामाजिक न्याय को जातिवादी मुद्दा मानने वालों को उर्मिलेश संकीर्ण सोच का आग्रही बताते हैं। उनका कहना कि वर्ण-व्यवस्था को जिन्होंने सामाजिक-वैधानिक स्तर पर समाप्त करने की कोई ठोस पहल नहीं की, वे दूसरों को जातिवादी कैसे कह सकते हैं? यह तर्क अपनी जगह सही है। सामाजिक न्याय की अवधारणा में भी कोई दोष नहीं है। दोष उसे कार्यान्वित करने का दायित्व वहन करने वाली शक्तियों में है, जो अपने से निर्बल, कम संख्या वाली एवं बिखरी हुई जातियों के साथ न्याय नहीं करतीं। तब सामाजिक न्याय की धारणा खण्डित होकर व्यर्थता में बदल जाती है।

उर्मिलेश ने राजेन्द्र यादव में एक खास तरह का खिलन्दड़ापन तथा ‘धर्मान्धता और वर्णवादी संकीर्णता में पिचकते हिन्दी भाषी क्षेत्र की सामाजिक-राजनीतिक चेतना का स्तर उठाने की’ प्रतिबद्धता लक्षित की है। वे राजेन्द्र यादव के बौद्धिक साहस की प्रशंसा के साथ ही उनके अगम्भीर एवं व्यर्थ के विषयों पर किये गये लेखन से असहमति भी व्यक्त करते हैं। सम्बन्धों के मामले में राजेन्द्र यादव की अराजकता, अव्यावहारिकता तथा व्यर्थ लोगों के साथ उनकी मि़त्रता उर्मिलेश को पसन्द नहीं आती। फिर भी उनका कहना है कि राजेन्द्र यादव ‘अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद बड़े लेखक और दृष्टिसम्पन्न सम्पादक थे।…‘हंस’ की अपनी सम्पादकीय टिप्पणियों के ज़रिये उन्होंने सही मायने में प्रेमचन्द की प्रगतिशील वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाया। उस विरासत में सामाजिक न्याय का सुसंगत अध्याय जोड़ा।’

कहना न होगा कि उर्मिलेश ने जिस तरह राजेन्द्र यादव को लेखक, सम्पादक और निर्भीक बुद्धिजीवी के रूप में याद किया है, उसे पढ़ते हुए उनकी स्वयं की धारणाएँ भी स्पष्ट हो गयी हैं। पिछड़ों और दलितों के साथ होने वाला भेदभाव उर्मिलेश को निरन्तर कचोटता है और जहाँ भी अवसर मिलता है, वे उसके मूल पर चोट करने से नहीं चूकते।

इस पुस्तक का एक अध्याय उर्मिलेश के पत्रकारीय जीवन से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने मीडिया की भीतरी तहों की विस्तार से पड़ताल की है। इस प्रक्रिया में स्थितियाँ, विकृतियाँ और अन्तर्विरोध सभी कुछ उजागर हो उठे हैं। उनका कहना है कि मीडिया में नियुक्ति और पदोन्नति में योग्यता की अपेक्षा व्यक्ति की पृष्ठभूमि एवं उसके सम्पर्क की भूमिका निर्णायक होती है। मीडिया संस्थानों में भी भयंकर उठापटक और गुटबाजी है। वहाँ निरन्तर शीतयुद्ध चलता रहता है। प्रबन्धन और सम्पादक सामान्यतया लिखने-पढ़ने की अपेक्षा भरोसे के आदमी को पसन्द करते हैं। ‘हमारे जैसे समाज में हर सम्पादक ऐसा ही चाहता है–चाहे वह दक्षिणपन्थी हो, मध्यमार्गी हो या वामपन्थी! अपने समाज में यूरोप या अमरीका जैसे प्रोफ़ेशनलिज़्म की अपेक्षा नहीं की जा सकती।’

इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय समाज और उसकी विभिन्न संस्थाओं की प्रकृति रूढ़िवादी और यथास्थितिवादी है। नवाचार तथा वैचारिक असहमति के लिए स्थान सीमित होते हुए भी नवीनता और परिवर्तन की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। राजेन्द्र माथुर के बारे में उर्मिलेश का कहना है कि ‘ प्रधान सम्पादक माथुर जितने अच्छे सम्पादक थे उतने ही भले इंसान भी थे। सहज और सभ्य। एक भले इंसान की तरह अच्छाइयों के साथ उनकी कुछ मानवीय कमजोरियाँ भी थीं।’ उर्मिलेश ने उन्हें अकादमिक रुचि-सम्पन्न, विचारवान और ईमानदार व्यक्ति के रूप में याद किया है, जो अंग्रेजी की पृष्ठभूमि का होते हुए भी हिन्दी भाषा पर अच्छी पकड़ रखते थे।

वे यह कहना भी नहीं भूलते कि ‘हर दफ़्तर में हर तरह के लोग होते हैं। कुछ अच्छे, कुछ बहुत अच्छे तो कुछ निराश या मायूस करने वाले।’ पेशे के प्रति समर्पण और प्रतिबद्धता के लिए सपनों का होना ज़रूरी है। उर्मिलेश ने पत्रकारिता में अपने शुरुआती दिनों को इसी रूप में याद किया है। कहना न होगा कि ऊँच -नीच, जातिवाद, पक्षपात और चापलूसी की प्रवृत्तियां सिर्फ़ अकादमिक संस्थानों में ही नहीं, पत्रकारिता में भी गहराई तक जमी हैं। पदोन्नति और महत्त्वपूर्ण  उत्तरदायित्व देने में यहाँ भी पक्षपात किया जाता है।

राजेन्द्र माथुर, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, आलोक मेहता आदि सम्पादकों के साथ अपने खट्टे-मीठे अनुभवों को साझा करते हुए जिस सम्पादक के नाम पर उर्मिलेश के मन के घाव हरे हो जाते हैं, वे हैं मृणाल पाण्डेय। मृणाल पाण्डेय के कार्यकाल में काम करते हुए उपेक्षा एवं अपमान की जैसी अनुभूति उन्हें हुयी थी, उसे लिखते हुए उनका क्षोभ मूर्तिमान हो उठा है। वे आज तक नहीं समझ सके उनके साथ किये गये पक्षपात, ईर्ष्या और घृणा के व्यवहार का कारण क्या था ? इसी संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण महाश्वेता देवी के साक्षात्कार से उर्मिलेश का नाम हटा दिया गया था और विवश होकर उन्हें यह सब सहन करना पड़ा। इसी तरह बहुतेरे योग्य और कर्मठ लोग कुण्ठित हो जाते हैं। यह एक सिलसिला है, जो कभी रुकने का नाम नहीं लेता।

उर्मिलेश की चिन्ता एवं अभिव्यक्ति को उन तक ही सीमित करके नहीं नहीं देखना चाहिए। यह एक व्यापक समस्या है। यह विडम्बना ही है कि इस देश में प्रतिभाशाली लोगों को उचित स्थान, सम्मान और महŸव नहीं मिलता। बावजूद इसके ‘विश्वगुरु’ और ‘अतुल्य भारत’ का डंका लगातार बजता रहता है।

‘ग़ाज़ीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल की आवाजें ’ शीर्षक अध्याय इस पुस्तक के आकर्षण का एक बड़ा कारण है। इसमें सबसे पहले ग़ाज़ीपुर के इतिहास, भूगोल और राजनीति के अलावा वहाँ की शैक्षिक-आर्थिक परिस्थितियों से परिचित कराया गया है। आजादी की लड़ाई में ग़ाज़ीपुर के योगदान और वहाँ के कुटीर उद्योगों की चर्चा करते हुए उर्मिलेश ने कॉडवेल के साथ इस जिले का जो सम्बन्ध जोड़ा है, वह बहुत रोचक है। साम्राज्यवाद-फासीवाद के धुर-विरोधी लेखक, विचारक और बौद्धिक योद्धा क्रिस्टोफर कॉडवेल ग़ाज़ीपुर कभी नहीं आये थे। ऐसे में ग़ाज़ीपुर के साथ उनका क्या सम्बन्ध हो सकता है ? दरअसल ग़ाज़ीपुर के निवासी पी.एन.सिंह ने मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की धारणा विकसित करने वाले कॉडवेल पर भारत में पहला शोध प्रबन्ध लिखा था। उर्मिलेश का कहना है कि कॉडवेल की स्मृति को सँजोने का यह प्रयास किसी स्मारक से कम महत्त्व का नहीं है। इस तरह शोध के माध्यम से क्रिस्टोफर कॉडवेल का ग़ाज़ीपुर की धरती से एक सम्बन्ध बनता है, जो पूरी तरह वैचारिक और अकादमिक है।

उर्मिलेश का मानना है कि ‘उस दौर की राजनीतिक परिस्थितियों और प्रभावी वैचारिकी ने भी पी.एन.सिंह को इस तरह के अध्ययन के लिए प्रेरित किया होगा।…स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र के सूर्योदय में भी जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस ग़ाज़ीपुर को ‘लाल दुर्ग’ बनने से नहीं रोक सकी।’ इस तरह क्रिस्टोफर कॉडवेल और ग़ाज़ीपुर की धरती के बीच वैचारिक स्तर पर जो समानता स्थापित होती है, उसे सत्ता-विरोधी चेतना के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उर्मिलेश ग़ाज़ीपुर और उसके निकटवर्ती जिलों में लेखकों, बुद्धिजीवियों, वामपन्थी नेताओं और उनके प्रभाव का विस्तार से वर्णन करते हैं।

सन् 1990 के नब्बे के बाद की राजनीति, उसके तेवर और समीकरण उससे पहले की राजनीतिक चाल से भिन्न हो गये हैं। अस्मिता और सामाजिक न्याय की राजनीति ने वामपन्थ के प्रभाव को लगभग समाप्त कर दिया है। दक्षिणपन्थी विचारधारा और उसकी राजनीति ने वामपन्थ, मध्यमार्ग और समाजवाद के आधारों को छिन्न-भिन्न कर दिया है।

उर्मिलेश वामपन्थ के क्षरण का प्रमुख कारण संगठन में नेता-केन्द्रित प्रवृत्ति, वामपन्थियों की संकीर्णता तथा सर्वहारा की तानाशाही के नाम पर अतिशय केन्द्रीयता को मानते हैं। इसके अलावा दूसरे भी कारण हैं। संगठन में समावेशी प्रवृत्ति का अभाव, वामपन्थी नेताओं की नगरोन्मुखता, विचारधारा और जनता की आकांक्षाओं के बीच तालमेल की कमी, नेताओं का जनता के साथ कम होता सम्पर्क, खास मुद्दों पर ढुलमुल रवैया और अपने स्वाभाविक जनाधार की उपेक्षा के कारण भी वामपन्थी दल हाशिये पर चले गये हैं। वामपन्थी दलों के भीतर स्वतन्त्रता और बहुलता का प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है। समय और समाज की चित्तवृत्तियों को परखते रहना राजनीतिक उपस्थिति के लिए आवश्यक है।

उर्मिलेश आपातकाल के समर्थन को भाकपा के पराभव का प्रस्थान-बिन्दु मानते हैं। इसे भाकपा की रणनीतिक भूल कहा जा सकता है। इसी अध्याय में उर्मिलेश ने ‘क्रिस्टोफर कॉडवेल जैसी प्रतिबद्धता, युवा जोश और बलिदानी भावना’ वाले छात्र तुलसी राम के शेरपुर दौरे का उल्लेख किया है, जहाँ कई दलितों की नृशंस हत्या कर दी गयी थी। दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी के सात दशक बाद भी हमारा नागरिक में रूपान्तरण नहीं हो पाया है। जहाँ के लोग जाति और सम्प्रदाय की संकीर्ण मनोवृत्ति में जकड़े हुए हों, वह देश सही मायने में राष्ट्र कैसे बन सकता है? जातिवाद और साम्प्रदायिकता राष्ट्र-निर्माण के सबसे बड़े अवरोधक तत्व हैं। राष्ट्र के नाम पर जो चल रहा है, वह सतही लगता है। उर्मिलेश पिछड़ों-दलितों के आरक्षण का पक्ष लेते हुए इसे हिस्सेदारी देने वाला समावेशी कदम बताते हैं। कहना न होगा कि हिस्सेदारी जितनी ज़रूरी है, उतनी ही ज़रूरी है गुणवत्ता। आरक्षण के नाम पर कुछ एक जातियों के वर्चस्व को सामाजिक न्याय और भागीदारी का पर्याय नहीं कहा जा सकता। सही अर्थों में सामाजिक न्याय तभी हो सकेगा, जब राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक दृष्टि से निर्बल लोगों कों सुरक्षा, सम्मान एवं भागीदारी मिले। यह सिर्फ़ नारे लगाने अथवा कुछ समर्थ जातियों की गोलबन्दी से नहीं होने वाला है। जो सबसे ज्यादा कमजोर है, उसकी भागीदारी सुनिश्चित किये बिना सामाजिक न्याय का विचार एवं तत्सम्बन्धी राजनीति व्यर्थ है।

हमारे देश की संस्थाओं, खासतौर से शिक्षण संस्थानों में विविधता और गुणवत्ता दोनों का अभाव है। एक तरफ उर्मिलेश लोकतन्त्र, समानता और सामाजिक न्याय के मूल्यों को आगे बढ़ाने वाली राजनीति का आह्वान करते हुए ग़ाज़ीपुर जैसी छोटी-छोटी जगहों में संगठन के कार्यालयों, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों तथा उत्साही युवाओं तक सीमित भगत सिंह, राहुल सांकृत्यायन, डॉ.अम्बेडकर, गोर्की अथवा क्रिस्टोफर कॉडवेल आदि की आवाजों को व्यापक जनसमुदाय के बीच ले जाने की ज़रूरत पर बल देते हैं, दूसरी तरफ खेतों-खलिहानों और गलियों-सड़कों में छायी उदासी को दूर भगाने तथा समाज में फैले उन्माद का सामना करने में प्रगतिशील और सामाजिक न्याय की शक्तियों की विफलता का सवाल उठाते हैं।

‘महाश्वेता देवी का कॉलम और सम्पादकों का धर्मसंकट’ शीर्षक सातवें अध्याय में उर्मिलेश ने महाश्वेता देवी से जुड़े एक प्रसंग का रोचक एवं स्तब्धकारी वर्णन किया है। ‘हिन्दुस्तान’ अखबार में छपने वाले महाश्वेता देवी के कॉलम में काट-छाँट करके उसमें से उर्मिलेश का नाम हटा देने के पीछे कौन-सी मानसिकता काम रही थी, इसके मर्म का उद्घाटन करते हुए उन्होंने लिखा है कि मृणाल पाण्डेय के ‘हिन्दुस्तान’ का प्रधान सम्पादक बनने के बाद उनकी और उन जैसे लोगों की स्थिति ‘बद से बदतर’ होती गयी। सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों से उन्हें विरत कर दिया गया था। तब उर्मिलेश के लिए यह जानना मुश्किल था कि उनके उत्पीड़न का कारण क्या है? कई बार अपने अधीनस्थों की योग्यता और प्रशस्ति से कुण्ठित होकर उच्चपदस्थ लोग प्रतिशोध लेने की ठान लेते हैं। उर्मिलेश जब इन बातों की चर्चा कर रहे होते हैं, तो उन पंक्तियों में प्रवाहित होने वाली टीस किसी भी विवेकवान व्यक्ति को क्षुब्ध कर सकती है। जब वे अपने साधारण परिवार से होने का उल्लेख करते हैं, तो उनके जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले तमाम लोगों की यातना और संघर्ष आँखों के सामने मूर्त हो उठते हैं। यातना और संघर्ष के अनेक कारण और स्तर होते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारा समाज आज भी अपनी तुच्छता और संकीर्णता से मुक्त नहीं हो सका है। इसके कारण अनेक प्रतिभाएँ अपना समुचित योगदान दिये बिना ही कुण्ठित होकर रह जाती हैं।

सृजनशीलता का वास्तविक संकट है उचित अवसर एवं अनुकूल वातावरण का अभाव। सामान्यतया राजसत्ताएँ, समाज और संस्थाएँ पतनशीलता के मूल कारणों पर विचार नहीं करतीं, क्योंकि वह ऐसा करना ही नहीं चाहतीं।

‘सृजनशीलता और प्रतिबद्धता का ख़ामोश चेहरा’ में उर्मिलेश ने तुलसीराम से अपनी मित्रता एवं उनके संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व को याद करते हुए लिखा है कि वे भाकपा से जुड़े होने के बावजूद उसकी आलोचना से गुस्सा नहीं होते थे। उनमें धैर्य, सहनशीलता और संयम था। बहुजन समाज के योग्य लोगों को शिक्षक समुदाय में शामिल करने की कोशिश क्यों नहीं की गयी? उर्मिलेश के ऐसे सवालों पर तुलसीराम कटु या आक्रामक हुए बिना व्यापक राजनीतिक सन्दर्भों का हवाला देकर उन्हें समझाया करते थे। उन्होंने लिखा है कि ‘यह कल्पना करना भी कठिन है कि इस आदमी ने पैदाइश के तीन साल बाद से ही उपेक्षा, अपमान और तक़लीफ़ के न जाने कितने समन्दरों को पार किया होगा और यातना भरे उस सफ़र में कितनी सारी मुश्किलों का सामना किया होगा !’ बचपन में चेचक से आँख की रोशनी चली जाने तथा आखा जैसा चेहरा दिखलायी पड़ने के कारण अपशकुन का पर्याय बन चुके तुलसीराम आगे चलकर एक लेखक और बुद्धिजीवी के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उर्मिलेश इस उपलब्धि को उनके परिवार, क्षेत्र, समाज और प्रदेश का गौरव बताते हैं, जो उचित ही है।

उनका कहना है कि ‘तुलसीराम के शब्द और कर्म में वैसा भेद मैंने कभी नहीं देखा, जैसा बहुजन समाज के पढ़े-लिखे ज्यादातर लोगों में अक्सर दिखता रहता है।’ बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों और सामाजिक न्याय की शक्तियों के भीतर शब्द और कर्म का अन्तराल इतना व्यापक है कि अपने-अपने समुदाय के साधारण लोगों से उनका कोई लगाव नहीं रह गया है। ऐसे में सामाजिक न्याय और बहुजनवाद की धारणाएँ विश्वसनीय नहीं रह गयी हैं। तुलसीराम जैसे व्यक्ति अपवाद हैं। उर्मिलेश ने तुलसीराम के साथ पी.एन.सिंह की मित्रता को याद करते हुए उनके अभूतपूर्व विवाह की घटना का भी उल्लेख किया है। बाराती के नाम पर सिर्फ़ पी.एन.सिंह की उपस्थिति और एक पैसा दहेज लिये बिना शादी करना तुलसीराम की वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रमाण है। ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ का उल्लेख किये बिना तुलसीराम पर कोई भी संस्मरण अधूरा ही कहा जाएगा। तुलसीराम की आत्मकथा के दोनों खण्डों में आपबीती के साथ तत्कालीन युवापीढ़ी के आवेग, आक्रोश, जनान्दोलनों की तीव्रता, राजनीतिक उथल-पुथल और संघर्ष के विविध रंग देखने को मिलते हैं।

‘महत्वाकांक्षाओं और लिप्साओं का मारा एक सम्पादक’ शीर्षक अध्याय एम.जे.अकबर पर केन्द्रित है। ‘मी-टू प्रकरण’ से अचानक चर्चा में आये एम.जे.अकबर के बारे उर्मिलेश ने लिखा है कि ‘जब मैं पटना में मिला था तो वह प्रतिभा-सम्पन्न पत्रकार-लेखक के अलावा मुझे आदमी भी दिलचस्प लगे थे।…अपनी शोहरत और समृद्धि के बावजूद लेखक-सम्पादक अकबर का अपनी महत्वाकांक्षाओं और तरह- तरह की लिप्साओं पर कोई नियन्त्रण नहीं था।’ इन दो वाक्यों में अकबर का व्यक्तित्व मूर्त हो उठा है।

‘वामपन्थी विचारक की बहुजन-बेचैनी’ शीर्षक अध्याय में उर्मिलेश ने मित्रों, सहकर्मियों, अम्बेडकरवादियों और वामपन्थियों द्वारा भुला दिये गये बुद्धिजीवी डी.प्रेमपति को सहृदयता के साथ याद किया है। उर्मिलेश के अनुसार डी.प्रेमपति का महत्त्व यह है कि वे भारत की वर्ग-आधारित सामाजिक संरचना के साथ जाति और वर्ण के विभाजन की वास्तविकता को स्वीकार करते हुए वामपन्थी दलों की समावेशी संरचना पर जोर देते थे। यह सच है कि दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समूहों की भागीदारी के बिना सिर्फ़ ऊँची जातियों की सहभागिता के बल पर वामपन्थी दलों की सफलता सम्भव नहीं है। डी. प्रेमपति के साथ उर्मिलेश भी इस विचार के साथ खुद को खड़ा करते हैं।

अन्त में उर्मिलेश ने लिखा है कि डी.प्रेमपति में ‘एक तरह की बेचैनी थी। वामपन्थी नेतृत्व से अगर वह वर्ण-जाति के सवालों के तिरस्कार के चलते क्षुब्ध थे, तो ईमानदारी-समझदारी की कमी के चलते वह बहुजनवादी नेताओं से भी निराश थे। ऐसे बेचैन सामाजिक-न्यायवादी बौद्धिक-योद्धा को ज़रूर याद किया जाना चाहिए, जो बुनियादी तौर पर वामपन्थी था।’ भारत की राजनीति एवं समाज की विडम्बना यह है कि यहाँ विचार तो बहुत ऊँचे-ऊँचे प्रस्तुत किये जाते हैं, किन्तु उनको कर्म में उतारने का प्रयास नहीं किया जाता। कथनी- कथनी का भेद हर जगह मौजूद है, जो विशाल नागरिक समाज को अन्ततः निराश ही करता है।

उर्मिलेश ने वरिष्ठ पत्रकार शुजात बुख़ारी की नृशंस हत्या के सन्दर्भ में कश्मीर की समस्या और वहाँ की परिस्थितियों का जायजा लिया है। वे शुजात बुखारी को अजातशत्रु कहते हैं, जो श्रीनगर जाने वाले हर एक परिचित की निःस्वार्थ भाव से भरपूर सहायता किया करते थे। किताब के आखिर में सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन पर कुछ बातें कही गयी हैं। एक साक्षात्कार का उल्लेख करते हुए उन्होंने अमिताभ बच्चन की बातों को व्यर्थ और कृत्रि़म बताया है।

जनसरोकारों से विच्छिन्न व्यक्ति की बातों में कृत्रिमता  और व्यर्थता स्वाभाविक है। समाज का हर एक जाना-पहचाना चेहरा वृहत्तर जनसमुदाय से जुड़े सवालों पर अपना मुँह नहीं खोलना चाहता। सत्ता-प्रतिष्ठान का प्रतिपक्ष बनने की बजाय उसका स्नेहभाजन बनना सुविधाजनक और लाभप्रद होता है। राजनीतिक-सामाजिक महत्त्व के प्रश्नों पर चुप रहने का यह भी एक कारण है। आत्ममुग्ध और सफल व्यक्तियों से प्रतिरोध की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

यह विडम्बना ही है कि जिन चरित्रों को अमिताभ बच्चन ने सिनेमा के पर्दे पर जिया और प्रतिष्ठा पायी, उन निर्बल-निर्धन-उत्पीड़ित समुदाय के पक्ष में बोलने के लिए उनके पास शब्द नहीं होते? साहित्य, सिनेमा और कलाओं से जुड़े लोगों में यह अन्तर्विरोध मिलता ही है। इसे वास्तविक और कृत्रिम जीवन का अन्तर, अवसरवाद एवं आत्मुग्धता भी कहा जा सकता है। व्यक्तित्व का दोहरापन समाज को भला क्या दे सकता है? इस पुस्तक को पढ़ते हुए हम उर्मिलेश की स्मृतियों के साथ-साथ उनके विद्यार्थी जीवन से लेकर आज तक की राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों, ऐतिहासिक महत्त्व की घटनाओं, परिवर्तन की चेतना, यथास्थितिवादी सोच, जातिवादी भेदभाव, युवा पीढ़ी के सपनों- संघर्षों और विभिन्न विचारधाराओं के टकरावों को महसूस कर पाते हैं।

इसमें जो ब्यौरे दिये गये हैं, उनमें इतिहास, साहित्य, पत्रकारिता, विकास और सामाजिक न्याय से जुड़े अनेक प्रश्न कुलबुलाते दिखलायी पड़ते हैं। वर्णन में जहाँ कहीं कथात्मकता का प्रवेश हुआ है, वहाँ कहने का तरीका अधिक रोचक बन गया है। इसमें भरपूर पठनीयता है। राजनीति, साहित्य, शिक्षा और मीडिया को संचालित एवं प्रभावित करने वाले व्यक्तियों के कामकाज की जाँच-पड़ताल करते हुए उर्मिलेश ने जो अनुभव व्यक्त किया है, उससे असहमति हो सकती है।

इन संस्मरणों में उर्मिलेश ने किसी के प्रति कटुता, ईर्ष्या और घृणा से बचने की बात कही है, लेकिन कहीं-कहीं वे अपनी कटुता को व्यक्त होने से रोक नहीं पाये हैं। नामवर सिंह और अमिताभ बच्चन के प्रसंग में ऐसा देखने को मिलता है। वामपन्थ और सामाजिक न्याय को साथ-साथ साधने के पक्ष में दिया गया उनका तर्क कहीं-कहीं दरकता हुआ दिखलायी पड़ता है और वे एकांगी होकर फिर सँभलने की कोशिश करते हैं। फिर भी इस पुस्तक में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। विविध अनुभवों वाली यह पुस्तक अनेक अनुशासनों का स्वाद चखाती है। इसमें वर्णित स्मृतियाँ राजनीति, समाज, शिक्षा और मीडिया के ज्वलन्त प्रश्नों से गुँथकर पाठक को अनुभव-सत्य के निकट लाती हैं तथा उसे सोचने, विचारने और लीक से हटकर कुछ नया करने के लिए प्रेरित भी करती हैं।

 

समीक्षित कृति:
ग़ाज़ीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल: उर्मिलेश
नवारुण प्रकाशन, वसुन्धरा, ग़ाजियाबाद
प्रथम संस्करण 2021, मूल्य 300 रूपये

(राम विनय शर्मा, सम्प्रतिः अध्यापन, प्रकाशित पुस्तकेंः ‘गल्प के अन्तःसूत्रों की खोज’, ‘यथार्थ की कथादृष्टि’, ‘भीष्म साहनी के साहित्य का सरोकार’ और ‘पूर्वांचल का ग्राम समाज, हिन्दी उपन्यास और परिवर्तन की दिशाएँ’, हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाओं में लेख और समीक्षाएँ प्रकाशित. मोबाइल 9411038585)

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