समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-3

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

…और हम लोग इलाहाबाद आ गए


सितम्बर 1977 में मैं अचानक ही इलाहाबाद आई। समता 3-4 महीने की थी। मनमोहन पार्क के पास हिमांशु रंजन (रामजी राय के मित्र) के कमरे पर हमलोग रुके। हिमांशु के पास एक ही कमरा था। शौचालय गली में कई किरायदारों का कामन था। अगले दिन खाना खाकर दोनों मित्र किराये का कमरा ढूंढने निकल गये। 3-4 दिन यही क्रम चलता रहा, तब मम्फोर्डगंज में एक कमरा 80/- रू महीने किराये पर मिला। कमरा ऊपर था और शौचालय नीचे था। पानी के लिए छत के कोने में एक टोंटी लगी थी, जिसमें पानी सुबह 9 बजे तक ही धीरे धीरे आता था। नीचे का नल खुल जाए तो ऊपर पानी नहीं चढ़ता था। शाम को 8 से 9 बजे तक पानी आता था। इसी समय हम बर्तन और कपड़ा साफ करते थे। पानी न आने पर नीचे से पानी लाना पड़ता था। नहाना वगैरह नीचे ही होता था।

बगल में एक श्रीवास्तव जी के यहां साबुन बनता था। कपड़ा साफ करने के लिए 2/- रू का एक बाल्टी साबुन का पानी मिल जाता था। मकान मालिक भट्ट जी के तीन बेटे और चार बेटियां थीं। मकान मालकिन जल्दी उठ जाती थीं और सुबह ही साफ-सफाई का काम शुरू हो जाता था, क्योंकि उनके पास 2-3 गायें भी थीं। लेकिन उनसे बात करने पर उन्होंने कहा कि मेरे यहां सब देर से सोकर उठते हैं, तुम 7 से 8 बजे के भीतर पानी भर लिया करो।
किसी तरह समय कट रहा था। अंगीठी, कुछ बर्तन खरीद लिया गया था। अशोक भइया घर से राशन, कुछ बर्तन, स्टोव और बिस्तर लेकर आए। 2-3 दिन बाद वो चले गए।
समता को नीचे सुलाने से ठंडी लग गई । उसे बुखार हो गया। फिर 13/-रू का एक बसहट (चारपाई) खरीदा गया। मैं समता को लेकर चारपाई पर और रामजी राय नीचे सोते थे। दशहरे में घर जाना था। रामजी राय कहे कि मैं घर नहीं जाऊंगा। हमलोग घर गए। इस बीच इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार उपेन्द्रनाथ अश्क के यहां रामजी राय कुछ प्रूफ वगैरह का काम किये, जिसका 50/- रू मिला था। वे उस पैसे से एक तखत खरीद चुके थे। समता के दोनों कांख में गिल्टी निकल आई थी, बुखार आ ही जा रहा था। उसको स्वरुप रानी हॉस्पिटल में डॉ. एस. के. जैन को दिखाया गया। उन्होंने कहा कि नजदीक में कोई टी.बी. का पेसेन्ट है क्या? (उस समय हिमांशुरंजन को टी.बी. हुआ था।) उसी का असर है। 3 माह दवा चलेगी। ऐसी दवा दिये कि दोनों कांख की गिल्टी कब फटकर निकल गई पता ही नहीं चला। धीरे धीरे सब गिल्टी या तो निकल गई या गल गई , फिर बुखार भी ठीक हो गया।

उस समय कुछ पार्टी कामरेड भी आया करते थे। उनमें से कुछ एक कामरेड पुराने कपड़े का हाथ का सिला झोला लिए, कुर्ता और पजामा पहने आते थे, जिनको देखकर लगता ही नहीं था कि वे पढ़े लिखे लोग हैं। लेकिन यह देखकर मैं चकित हुई कि इतने साधारण से लगने वाले कॉमरेड अंग्रेजी में लेनिन और मार्क्स की रचनाएं पढ़ते और उस पर बात करते थे। वे लोग 1-2 दिन से ज्यादा नहीं रुकते थे।
जाड़े में मुन्ना भइया (मेरे भाई) और मतसा (मेरा ससुराल) से मोहन राय कहीं नौकरी के चक्कर में आये थे। और यहां आकर जम गए थे। दोनों कहीं नहीं जाते थे। रोज सुबह तेल लगाकर दण्ड बैठक करते थे और खाना दबा के खाते थे। दिन में दाल, भात ,आलू ,बैगन, टमाटर का चोखा और रात में आलू भरा पराठा, सब्जी, टमाटर की मीठी चटनी बनती थी। इतना खाते थे कि अंत में मुझे मना करना पड़ता था कि अब पराठा मेरे लिए दो ही बचा है, जबकि उन दोनों का रवैया देखकर मैं रोज आटा बढ़ा लेती थी, फिर भी रोज ही कम पड़ जाता था। दोनों रोज यही कहते कि एक एक और रहता…। मैंने कहा कि अब आपलोग अपना दण्ड बैठक बंद करिए, नहीं तो खाना आप लोगों को बनाना पड़ेगा।

रामजी राय का रिसर्च में एडमिशन हो चुका था। घर का खर्च कैसे चले कुछ समझ में नहीं आ रहा था। चावल वगैरह तो मां के यहां से आ जाता था। शादी के कपड़े थे, इसलिए कपड़ा भी नहीं खरीदना था। लेकिन कमरे का किराया देने का समय हमेशा जल्दी आ जाता था। कभी कभी तो लगता था किराया देकर फिर छीन लें। समता के लिए दूध लेना भी भारी था। मेरी तबियत भी ठीक नहीं थी। घर में बैठे- बैठे ऊब भी लगती थी। मैंने रामजी राय से कहा कि के पी यू सी हास्टल के बगल में ही कोई नर्सरी की ट्रेनिंग होती है उसका फार्म ला दीजिए। बोले कि जुलाई से क्लास चलता है, मई जून में ला देंगे। मई में जब फार्म लेने गए तो पता चला कि फरवरी, मार्च में ही फार्म मिलता है। अप्रैल से तो क्लास शुरु हो जाता है। अब तो अगले सत्र का ही इन्तजार करना पड़ेगा। समय जैसे तैसे कट ही रहा था। मैं समता को लेकर कुछ दिन के लिए गांव चली गई।
रेवतीपुर से रामजी राय के मामा लोग भी हाईकोर्ट में लगे किसी केस के संबन्ध में आते थे। केस सोमवार को हो तो शुक्रवार को ही आ जाते, शनिवार को वकील संकटा राय से मिलते फिर मंगल बुद्ध तक जाते। शाम में लोग धूनी रमाते, लेकिन समता को लेकर सावधान रहते। मतसा (रामजी राय का गांव) से अजय राय भी कुछ दिन रहे। उस समय दो कामरेड आए थे। अजय परेशान था कि देखने में लोग मजदूर टाइप हैं और सब अंग्रेजी वाली ही किताब पढ़ रहे हैं। चन्द्रप्रकाश राय (बुआ के लड़के) भी उस समय इलाहाबाद में ही पढ़ते थे। उनका भी आना जाना था ही। गांव की गिरिजा दीदी पुलिस लाइन्स में रहतीं थीं। बड़की अम्मा बलरामपुर हाउस में, शिशिर राय (झुनझुन भइया) घर की अगली गली में रहते थे। नैनी में सर्विस करते थे। इन लोगों के यहां जाते थे तो भोजपूरी में बात कर लेते थे तो लगता कि थकान मिट गई। क्योंकि खड़ी बोली बोलने का अभ्यास न होने के कारण लोगों से खड़ी बोली में बात करने में थकान हो जाती थी।

उस समय एक नया छात्र संगठन के निर्माण का दौर था। रामजी राय रिसर्च के साथ साथ इस कार्य में भी लगे हुए थे। कृष्ण प्रताप रविवार को कभी आ ही जाते थे। मेस बंद होने के कारण रात का खाना यहीं होता था। हिमांशु रंजन और राजेन्द्र मंगज भी आते थे । हिमांशु रंजन खाना बनाने के और ‘मंगज’ खाना खाने के उस्ताद थे। मंगज की एक खास विशेषता थी कि नहाने धोने से उनका कम ही वास्ता था। चप्पल पहनते थे और धुन के पैदल चलते थे। पैरों पर धूल इतनी जमी रहती थी कि मानो उनके पैर का हिस्सा बन गई थी। घर आने पर चप्पल तो दरवाजे पर उतारते थे, लेकिन जहां जहां उनका पैर पड़ता पदचिन्ह बन जाता, जो पोंछा से भी जल्दी नहीं छूटता था। मजबूरन उन्हें कहना पड़ता था कि पैर बिस्तर पर रखकर न बैठिएगा। कुर्सी थी नहीं। तो उनके लिए बसहट (चारपाई) खाली कर दी जाती। उनके चप्पल पर घिसने का निशान नहीं बनता था, चप्पल से तलवे में जमी गन्दगी में निशान बनता था। लेकिन पढ़ने में वे हमेशा अव्वल रहे। उन्होंने पी.सी.एस. टाप भी किया था। रवि श्रीवास्तव, निशा श्रीवास्तव आते थे तो ‌छात्र संगठन और अन्य बातें होती रहती थीं। छात्रों के बीच स्टडी सर्किल चलाने की बात होती। जिसमें सुनीता द्विवेदी, राकेश द्विवेदी भी कभी कभी आते थे। इन लोगों की बातें अच्छी लगती थीं। बाद में डा.एम.पी. सिंह, मालती तिवारी और दूधनाथ सिंह से भी मिलना जुलना शुरु हुआ।
फरवरी-79 में रामजी राय ट्रेनिंग वाला फार्म लाए। फार्म भर कर जमा भी हो गया। उसके बाद नई समस्या सामने आ गई । मकान मालिक कमरा खाली करने को कहने लगे। रामजी राय ने कहा कि किराया बढ़ाना है तो बढ़ा लीजिए। नहीं माने, कहने लगे कि मुझे लड़के की शादी करनी है, इस कमरे में बहू रहेगी। जबकि बाद में पता चला स्टोर रूम का टांड़ तुड़वाकर वे बहू के लिए पहले ही कमरा सेट कर दिए थे और इस कमरे को 100/-रू में किराए पर ही दिये थे।
इसी मकान से सटा लक्ष्मीकांत दीक्षित का मकान था। जो यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफेसर थे। उनकी पत्नी और बेटियों से बात होती रहती थी। उनसे कमरे के लिए बात किए तो बोलीं अभी खाली नहीं है। लिहाजा हम लोग पूरे सामान के साथ घर चले गए। मैं घर रह गई और रामजी राय लौट आए। मार्च में रामजी राय मेरे ट्रेनिंग वाला पता किए तो मेरा नाम लिस्ट में आ गया था। फिर वे मुझे लेने घर आए। मास्टर साहब (रामजी राय के बड़े भाई) से मैंने कहा कि मेरा नाम ट्रेनिंग के लिए लिस्ट में आ गया है मैं ट्रेनिंग करना चाहती हूं। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि आप ट्रेंनिग करिए अच्छी बात है, लेकिन मैं आर्थिक रुप से कोई सहयोग नहीं कर सकता। मैंने कहा कि फिर मैं जाकर क्या करूंगी। खर्च कहां से आएगा। मायके से राशन तो मिल सकता है, नकद महीने का खर्च नहीं मिल सकता है, और न ही मैं मांगूंगी। मास्टर साहब ने पहले मुझसे कहा था कि रामजी नौकरी के लिए नहीं सुन रहे हैं लगता नहीं कि वे नौकरी करेंगे, “चर गोड़वा बान्हल जाला , दूगोड़वा ना बन्हाला”। इसलिए तुम चिंता न करना जहां तक तुम पढ़ोगी मैं पढ़ाऊंगा, जो भी करना चाहोगी मैं कराऊंगा। और जब मौका आया तो साफ ज़बाब दे दिए- मैं राजनीति करने के लिए पैसा नहीं दूंगा, आपको मैंने भेजा था कि आप रामजी को समझाएंगी तो आप भी झंडे का डंडा पकड़ने लगीं, अब आप लोगों को जो करना है करिए।
क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रामजी राय पहले ही मुझे स्पष्ट कर दिए थे कि घर के दबाव में मैं भले ही रिसर्च कर रहा हूं लेकिन न ही मैं रिसर्च जमा करने जा रहा हूं, और न ही मुझे नौकरी करनी है। इसलिए आप जैसे भी हो ट्रेनिंग कर लीजिए। अंत में रामजी राय कहे कि चलिए पहले एडमिशन लीजिए, आगे जो होगा देखा जाएगा। आपको कुछ करना है तो ट्रेनिंग तो करना पड़ेगा ही । मैंने मन कड़ा किया, निर्णय लिया और हम लोग इलाहाबाद आ गए।

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