समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते न कोय-5

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

किराये का कमरा नं.-3


मम्फोर्डगंज में ही अशोक कप्तान के यहां एक कमरा, बरामदा सहित 120/- में (बिजली का अलग से) मिल गया। अशोक भाई C.P.M. के कैडर थे। अशोक की माता जी परिषदीय स्कूल में टीचर थीं। पिताजी गवर्मेंट प्रेस में थे। छोटी बहन भी कहीं सरकारी नौकरी में ही थी। छोटा भाई बब्बू पढ़ रहा था। मेरे कमरे से सटे कमरे और बरामदे में प्राइवेट स्कूल भी चलता था। जो शायद उनकी नातिन (बड़ी बेटी की बेटी) देखती थी।

माता जी बहुत मेहनती और व्यवहारिक थीं। जब रामजी राय के बारे में जानीं कि ये भी अशोक की तरह एक कामरेड हैं तो उन्होंने मुझसे कहा कि कमरे का किराया 100/- ही देना और बिजली का भी अलग से देने की जरूरत नहीं है। समता का जब तक कहीं एडमिशन नहीं हो जाता है, मेरे घर वाले स्कूल में बैठेगी। उसकी देखरेख भी हो जाएगी, तुम उसकी चिंता न करो। जब तक हम लोग यहां रहे अपने घर की तरह रहे। हम लोग कमरा खुद छोड़े, उन्होंने कमरा खाली करने को कभी नहीं कहा। दरअसल हम लोगों को गांव वाली बड़ी अम्मा के जरिए स्ट्रैची रोड पर एक दूर के रिश्तेदार को मिले रजिस्ट्रार के बंगले में से दो बड़े- बड़े कमरे 100/- में ही मिल गया।

अशोक भाई छात्र संगठन S.F.I. के समर्थक थे। गायत्री गांगुली अशोक भाई की मित्र थीं । इलाहाबाद यूनिवर्सीटी के 1979 के चुनाव में गायत्री गांगुली S.F.I. से प्रकाशन मंत्री का चुनाव लड़ी थीं। आगे चलकर अशोक भाई और गायत्री गांगुली एक दूसरे के जीवनसाथी बने। इन लोगों का एक बेटा भी है। बाद के दिनों में गायत्री गांगुली सेन्ट्रल स्कूल में और अशोक भाई किले (इलाहाबाद) में नौकरी करने लगे।

अशोक भाई के पिताजी भी बहुत नेक इंसान थे। वे नीचे ही रहते थे। सारंगी बहुत बढ़िया बजाते थे और गाते भी थे। अपनी मस्ती में रमे रहते थे। सब लोग उनके खाने के लिए परेशान रहते थे। वे बहुत देर में खाते थे। कुछ दिन तो खाना नीचे रख दिया जाता था। उनको भी लगता था कि मेरे लिए सब लोग क्यों परेशान हों, वे अपना खाना खुद बनाने लगे और साथ में गायन और वादन चलता रहा। कभी कभी हमलोग भी उनकी अंगीठी के पास बैठते और उनका गायन, वादन सुनते। बाद में अस्वस्थता के कारण उनकी मृत्यु हो गई और इनकी जगह बब्बू को नौकरी मिली। अशोक भाई भी इधर अभी 2 साल पहले अस्वस्थ होने के कारण चल बसे। गायत्री से मुलाकात होती रहती है।


किराये का कमरा नं0-4


दूर के रिश्तेदार सिंह साहब को स्ट्रैची रोड पर मिले रजिस्ट्रार के बंगले में से दो कमरा 100/- में हम लोगों को बड़ी अम्मा के जरिए मिल गया था। कमरे बहुत बड़े बड़े थे। बाथरूम भी छोटे कमरे जैसा था। पीछे बरामदे में खाना बनाते थे। उसके पीछे भी लॉन था। आगे बहुत बड़ा बरामदा और लॉन था। साइड में एक बीघा के करीब खेती लायक जमीन और पीछे सर्वेंट क्वार्टर भी था। सिंह साहब के दो बेटे स्वतंत्र, दीपू और एक बेटी गुड़िया थी।

मेरे यहां लोगों का आना जाना लगा रहता था। सिंह साहब का कहना था कि कमरे में ताला न लगाया करिए। क्योंकि ये बंगला उनके भाई के नाम अलॉट था या भाई के सोर्स से मिला था। मैं तो रजिस्ट्रार आफिस में एक सामान्य क्लर्क हूं। डरते थे कि कोई शिकायत न कर दे कि किराए पर भी उठाए हैं। उनका डरना भी वाजिब था। और मेरे लिए ताला बंद करना भी जरूरी था। इसलिए दरवाजे पर पर्दा लगा दिया गया कि ताला दिखेगा नहीं। मैंने सिंह साहब से कहा कि इससे भी काम नहीं चलेगा तो मैं पीछे से कमरे में ताला बंद करके बाहर आया-जाया करूंगी।

इनका बड़ा बेटा छठी क्लास में था लेकिन थोड़ा बदमाश था। उसके दिमाग में मकान मालिक का तेवर था। जबकि मां बाप ऐसे नहीं थे। एक दिन मैं पीछे वाले कमरे में सोई थी, उसने अपने कमरे वाले दरवाजे से धक्का दिया और आगे वाले कमरे का दरवाजा खोलकर मेरे कमरे में आ गया। फिर इधर -उधर कुछ खट-पट की आवाज़ आई तो मैंने पूछा कि दरवाजा तो बंद है तुम आए कैसे? उसने अपने कमरे की तरफ वाला दरवाजा दिखाया कि यहां से। हम लोग अक्सर खेलते समय इसे खोल लेते हैं। मुझे इसका पता आज पहली बार लगा। फिर ताला बंद करने का तो कोई मतलब ही नहीं रह गया। सभी कमरे में आने जाने के लिए दरवाजा था। वो उनकी तरफ से लॉक नहीं था और इधर से मात्र कुंडी थी, जो हिलाने पर खुल जाती थी। एक दो बार छोटा- मोटा सामान भी गायब हो गया था लेकिन कोई खास नहीं, केवल परेशान करने की नीयत से ही ऐसा किया गया लगता था, जैसे स्टोव की चूड़ी, स्टोव की पिन, माचिस आदि। बच्चे का इस तरह से कमरे में आने की शिकायत सिंह साहब से करने पर उन्होंने उससे पूछा तो वह मुकर गया कि मैं नहीं गया था कमरे में। इसका मतलब कि उसकी नीयत ठीक नहीं थी या अपने पिताजी की डांट के डर से झूठ बोल रहा था। सिंह साहब को बुरा लगा जबकि वे अपने लड़के की इस आदत को जानते थे।

एक बार हम गांव गए हुए थे और रामजी राय इलाहाबाद में ही थे। मेन गेट की चाभी सिंह साहब के यहां ही रहती थी। मेरे यहां कोई बाहर से आया हुआ था, उनके साथ अखिलेन्द्र और दो लड़के भी साथ में थे। गेट तक सिंह साहब आए लेकिन गेट नहीं खोले कि रामजी आएंगे तब गेट खोलेंगे। उन लोगों ने सिंह साहब से रिक्वेस्ट किया कि रामजी कमरे की चाभी दिए हैं, वो एक दो घंटे बाद आएंगे। सिंह साहब आप हम लोगों को पहचान भी रहे हैं, ऐसा नहीं कि हम लोग पहली बार आए हैं, गेट खोल दीजिए। फिर भी उन्होंने गेट नहीं खोला और लौटकर बरामदे में सामने ही बैठ गए। बहुत देर तक खड़े रहने के बाद लड़के गेट फांदकर अंदर आए और सिंह साहब से चाभी छीनकर गेट खोले और कमरा खोलकर अंदर गए। उसके बाद से सिंह साहब कमरा खाली करने के लिए कहने लगे। फिर बहाना वही कि इनके यहां बहुत लोग आते हैं। रामजी की अनुपस्थिति में भी लोग आते हैं। समाज है, अच्छा नहीं लगता है। रामजी राय बोले कि ठीक है, कमरा मिल जाएगा तो छोड़ देंगे।

फिर कमरे की खोज शुरू हो गई । कमरा मिल नहीं रहा था। एक दिन सिंह साहब अपनी समझ से किसी बदमाश को कमरा खाली कराने के लिए 9 बजे रात लेकर आए और हम लोगों का दरवाजा खटखटाए। दरवाजा रामजी राय ही खोले। रामजी राय को सामने देख उनके द्वारा बुलाए हुए आदमी ने नमस्ते किया और कहे तुम यहां? फिर रामजी राय से बतियाने लगे। उन्हें बतियाता देख सिंह साहब कई बार सामान बाहर निकलवाने के लिए उनको इशारा करते रहे, लेकिन वो उनकी तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे थे और रामजी राय से बतियाते जा रहे थे। परेशान होकर सिंह साहब मेरी चारपाई खींचकर खुद ही बाहर निकालने लगे तो उन्होंने रोक दिया। फिर सिंह साहब बाहर जाकर उनको बुलाकर कहे कि आपको किस काम के लिए बुलाए थे और आप क्या कर रहे हैं? जल्दी रामजी का सब सामान बाहर निकालना है। उन्होंने कहा- आप पहले अपने कमरे में जाइए, आप से बाद में बात करूंगा, और आकर रामजी राय से बतियाने लगे। यूनिवर्सिटी के जरिए वो रामजी राय को अच्छी तरह से जानते थे। जाते समय बोले कि मैं शर्मिन्दा हूं कि इस रूप में तुम्हारे सामने आना हुआ। उसके बाद वो सिंह साहब के यहां गए और उनसे बोले कि किस आदमी का सामान निकलवाने के लिए आप मुझे लेकर आए थे। आप उसके बारे में जो कुछ हमें बताए थे, सरासर झूठ बोला था आपने। मैं रामजी को अच्छी तरह से जानता हूं। और खबरदार जो उससे जबरदस्ती कमरा खाली करवाने की कोशिश की। आप के कारण आज मैं शर्मिन्दा हूं।

उसके बाद सिंह साहब हम लोगों से नजर नहीं मिला पा रहे थे। फिर बड़ी अम्मा के पास गए और दुनिया भर की शिकायत किए। बड़ी अम्मा ने उनसे कह दिया था कि कमरा खाली करवाना है यही कहो, बाकी हम लोग रामजी और मीना दोनों को जानते हैं। रिश्तेदार हो इसलिए और कुछ नहीं कह रही हूं। मैं कमरा खोजने के चक्कर में ही निकली थी। एम पी सिंह के यहां S S L हॉस्टल जा रही थी (उस समय एम.पी.सिंह S S L हॉस्टल के सुपरिटेंडेंट थे) बड़ी अम्मा से कटरे में मुलाकात हो गई । उन्होंने कहा कि घर आना, तुम्हारे मकान मालिक मेरे यहां आए थे, तुमसे कुछ बात करनी है। ठीक है, रविवार को आऊंगी कहकर मैं आगे बढ़ गई। समझ में तो आ ही गया था कि क्या बात करेंगी।

अगले ही दिन बतासी दीदी (गांव की एक दीदी) के यहां गई और उनसे सारी बात बताई तो उन्होंने कहा कि छोड़ दो उस कमरे को और सामान के साथ मेरे यहां आ जाओ। जब तक किराये का कोई मकान नहीं मिलता है यहीं रहो। जैसे सब रहेंगे तुम भी रहना। जबकि उनके यहां मात्र एक ही कमरा, एक बड़ा किचेन और बड़ा आंगन था। कमरा बहुत बडा़ था। कमरे में 5-6 चारपाई बिछी थी। जीजा जी होमगार्ड आफिस में थे। आफिसियल कमरा था। उनकी पांच बेटियां और एक बेटा था। एक बेटी की शादी हो चुकी थी। चार बेटी और एक बेटा के साथ सबको पढ़ाने के लिए यहां रहती थीं। जीजा जी कभी-कभी आते थे। रामजी राय शहर से बाहर गए थे, उनके रहते ही बतासी दीदी के यहां शिफ्ट होने की बात हो गई थी। उनकी अनुपस्थिति में ही मैंने रविवार को सिंह साहब का कमरा खाली कर दिया। उसके बाद स्कूल से आकर रोज साइकिल से कमरा ढूंढने निकल जाती थी। एक हफ्ते के बाद राजापुर पोस्ट आफिस के पीछे एक कमरा 120/- में मिल गया। और हम वहां शिफ्ट हो गए।

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