दिनांक 14 अप्रैल 2024 को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की 133 वीं जयंती के उपलक्ष्य में सुल्तानपुर के बरामदपुर गांव में ‘स्त्री अधिकार और अंबेडकर’ विषय पर बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया. कार्यक्रम में मुख्य अतिथि डॉ. रविंद्र मोहन (असिस्टेंट प्रोफेसर, KGMU) और वक्ताओं में सामाजिक कार्यकर्ता एवं जनकवि डॉ. बृजेश यादव, रेलवे ट्रेड यूनियन लीडर और एक्टू के राष्ट्रीय सचिव कमल ऊसरी, ‘फ्रंट अगेंस्ट न्यू पेंशन स्कीम इन् रेलवे’ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष अखिलेश यादव और कमलेश जी मौजूद रहे.
‘जय भीम’ के नारों और एक जनगीत के साथ ही कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत हुई. सबसे पहले डॉ. रविन्द्र मोहन ने संविधान की प्रस्तावना पढ़ी और कहा कि इसी को मेरा वक्तव्य माना जाए क्यूंकि आज देश में ‘संविधान की प्रस्तावना’ में निहित मूल्यों को ही बचाने की सबसे अधिक आवश्यकता है. इसके साथ उन्होंने अपने कुछ अनुभव भी साझा किए. उनका कहना था मैं इसी गाँव में पला और पास के ही एक सरकारी स्कूल में कुछ दिन पढ़ा लेकिन आज वो सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल जो की आज बंद हो गया है, देखकर बहुत पीड़ा होती है। क्योंकि वे खुद एक सरकारी यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं इसलिए वे इस तरह के सरकारी संस्थानों के बचे रहने की जरूरत को समझते हैं उनका कहना था कि दलितों के पास न तो जमीनें हैं और न ही रोजगार के कोई बड़े साधन अतः शिक्षा एकमात्र ऐसा जरूरी हथियार है जो उन्हें समाज में सम्मानित और आर्थिक रूप से मजबूत बना सकता है। सरकारी संस्थानो पर मंडराता खतरा, प्राइवेटाइजेशन की मार सबसे ज्यादा और सबसे पहले किसी को नुकसान पहुंचाएगी तो वे होंगे दलित और महिलाएं। पढाई, लड़ाई के साथ- साथ इकॉनॉमी को बचाए रखने और नए विकल्प तलाशने की भी एक मुकम्मल लड़ाई की चुनौती है हमारे आगे।
वक्ताओं की अगली कड़ी में डाॅ. बृजेश यादव ने अपनी बात रखते हुए कहा कि आज स्त्रियों की बेहतर स्थिति ही समाज को आगे बढ़ा सकती है। पितृसत्तात्मक समाज में हमेशा पुरुष को शिखर पर रखा जाता है और स्त्रियों की आज़ादी और अधिकारों को नजरअंदाज किया जाता है। वे इस बात पर जोर देते हैं कि यदि बाबा साहब हिन्दू कोड बिल जैसे कानून न बनाते तो आज भी स्त्रियां दासी और उससे भी अधिक बदतर जिंदगी जीने को मजबूर होतीं. स्त्रियों को बाबा साहब का सबसे अधिक शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उन्होंने उनकी अस्मिता, बराबरी, आज़ादी के लिए हर संभव प्रयास किए । समाज में धार्मिक आस्थाएँ, रीति-रिवाज, परम्पराएँ ज्यादातर स्त्रियाँ ही निभाती हैं क्योंकि उन्हें हमेशा लगता है कि उन्हें किसी सहारे की जरूरत है। उन्हें कमजोर समझा जाता है और देवी बोलकर झूठी तसल्ली दी जाती है कि वे सबसे श्रेष्ठ हैं लेकिन अगर सच में देखा जाए तो उन्हें इंसान ही नहीं समझा गया। जो भी लोग ये सोचकर खुश हैं, कि रामराज्य आयेगा तो वे अग्निपरीक्षा देने के लिए भी तैयार हो जाएँ। पुरुष ने हमेशा ऐसा समाज बनाए रखने की कोशिश की जिसमें स्त्री ही स्त्री के खिलाफ रहे। ऐसे में हमें सजग होने की जरूरत है,सबके अपने अधिकार अपनी स्वतंत्रता है। जहाँ पर धर्म की बात आती है तो ये समाज को भ्रमित करने की योजना होती है और जितने अनुष्ठान, प्राण-प्रतिष्ठण, यज्ञ-हवन होते हैं ये सभी ‘बुद्धि-हरण’ के लिए बनाए गए हैं। ये सब दिमागी कचरा है।
बृजेश जी दहेज की चर्चा करते हैं कि दहेज में किसका मान-सम्मान बढ़ता है? जो दहेज देता है वो सोचता है कि हमने तो कार दी, लाखों रुपये दिए और मेरा नाम, सम्मान बढ़ा और जो दहेज लेता है वो सोचता है कि उसका सम्मान बढ़ा लेकिन वास्तव में पूँजीपति का फायदा हुआ और ये दोनों पक्ष अपना पैसा देकर बेवजह खुश हो रहे हैं। ये अधिकार है सबका कि सभी अच्छा खायें ,पहनें और उनका सम्मान बढ़े लेकिन इस बात पे ध्यान देने की जरूरत है कि कहीं हम मान-सम्मान बढ़ाने के चक्कर में अपनी जेब खाली करके पूंजीपतियों का बैंक बैलेंस तो नहीं बढ़ा रहे। इसके चलते सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को झेलनी पड़ती है क्योंकि समाज में उनका दायरा बहुत कम बना दिया गया है और यह एक तरह की गुलामी है। आज के समय में भी महिलाओं की बेबसी का कोई अंत नहीं है। सवाल ये उठता है कि क्या बाबा साहब महिलाओं की स्थिति का ये स्वप्न देखते थे ?समाज की बेहतरी के लिए महिलाओं की बेहतरी सबसे ज्यादा जरूरी हो जाती है। एक बेहतर समाज के लिए वैज्ञानिक सोच के साथ शिक्षा और आधुनिक बोध होना बहुत जरूरी है। जो सरकार धर्म की, मंदिर की ही बात करे और स्कूल-कॉलेज, अस्पताल आदि के निर्माण की बात न करे तो समइ लीजिए कि ये धर्म की – आड़ में विकास को छिपा रहे हैं जिससे लोगों का ध्यान उसी पर रहे। और लोगों का असली विकास न हो सके।
उसके बाद अखिलेश यादव जी ने स्त्री अधिकारों को अम्बेडकर के हवाले से बताते हुए हिन्दू कोड बिल पर चर्चा की और बताया की किस प्रकार यह बिल तत्कालीन समय से लगभग सौ वर्ष आगे की सोच रखता था और स्त्री अधिकारों को लेकर कितना सचेत और संवेदनशील था, जो मौजूदा समय में हमें प्राप्त है। इस अधिकार के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़ी जा रही है जिसमें पिता की संपत्ति में स्त्री को भी बराबर का अधिकार प्राप्त है और कोई भी पुरुष इस कानून के बाद बहुविवाह का अधिकारी नहीं रह सकता। यह बिल ऐसी तमाम कुरीतियों को हिन्दू धर्म से दूर कर रहा था जिन्हें परम्परा के नाम पर तमाम हिन्दूवादी संगठन, आर्य समाजी, ब्राह्मणवादी लोग जिंदा रखना चाहते थे.
वक्ताओं की अगली कड़ी में काॅ. कमल ऊसरी ने अम्बेडकर के लेबर लॉ, जीवन संघर्ष और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में संविधान पर मंडराते खतरे की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह अघोषित आपातकाल का समय है। यह दौर सबसे ज्यादा दमन और हमले का दौर है मगर ऐसे ही दौर में नई सम्भावनाएं बनती हैं, क्रांति की नई पौध तैयार होती है जिससे जनवाद आता है। महिला पहलवानों का संघर्ष, किसानों का आन्दोलन, नई शिक्षा नीति और नागरिकता अधिनियम कानून (CAA) जैसे बिल सीधा – सीधा फासीवाद की झलक देते हैं। इस सरकार ने बहुतों से सबकुछ छीन लेने और कुछ को सबकुछ दे देने का मन बना लिया है जो दिख भी रहा है। ठेकेदारी और मुनाफाखोरी को बढ़ावा देना इसका अहम लक्ष्य है।
भारत की आधी आबादी(स्त्रियां)को फिर से मनुवादी परंपरा में ढाल देने और शिक्षा- रोजगार से बेदखल कर देने की पूरी योजना इस सरकार ने बना ली है और अब इसका क्रियान्वयन करती दिख रही है।
कार्यक्रम का संचालन हर्षिता ने किया. इस पूरे प्रोग्राम को आयोजित करने और में ‘अम्बेडकर भगत सिंह यूथ ब्रिगेड’ का सबसे अहम योगदान रहा जिसके संस्थापक और अध्यक्ष विवेक कुमार हैं. इस प्रोग्राम से कुछ दिन पहले ही यह एक नया संगठन तैयार हुआ जिसमें इसी गांव के ही 15 वर्ष से 40 वर्ष तक के युवा मौजूद रहे.
प्रोग्राम के अंत में ‘डा. अम्बेडकर भगत सिंह यूथ ब्रिगेड’ ने दसवीं तक के बच्चों के लिए ‘इवनिंग क्लास’ चलाने की घोषणा की जो पूर्णतः निःशुल्क होगी। पूरे गाँव की तरफ से इस कदम का भरपूर स्वागत किया गया।
कार्यक्रम की शाम गांव के सभी लोगों के लिये खाने का प्रबंध भी किया गया जिससे महिलाएं निश्चिंत होकर कार्यक्रम का हिस्सा बन सकें.
गांव में इतने बड़े आयोजन को सफल बनाने की योजना-
आयोजन की शुरुआत लगभग 10 दिन पहले से शुरु हो गई भी। आचार संहिता के अंतर्गत नजदीकी थाने से परमीशन लेना पहला और जरूरी काम था। फिर गाँव में ही तीन बस्तियों को मिलाकर साझी मीटिंग की गई और कार्यक्रम के बजट फंड और रूपरेखा पर चर्चा हुई। चूंकी लोग ज्यादातर खेतिहर मजदूर और किसान हैं अतः तय यह हुआ कि जो भी लोग चंदा नहीं दे पायेंगे वे गेहूँ, चावल, आलू इत्यादि भी दे सकते हैं. गाँव के लोगों ने इस पूरे प्रोग्राम में न सिर्फ बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया बल्कि वे हर स्तर से सहयोगी रहे।