समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-28

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

बाल-बच्चे


समता छोटी थी। उन दिनों अक्सर घर में मीटिंग वगैरह होती रहती थी। एक दिन मीटिंग खतम ही हुई थी कि उसी समय समता स्कूल से आई और चितरंजन भाई से बोली -चाचा गली के नुक्कड़ पर ही लाई चना भुन रहा है, आप खाएंगे क्या? चितरंजन भाई बोले- हां खाएंगे। समता बोली- तो पैसा दीजिए, ले आती हूं। चितरंजन भाई हंसने लगे कि कितने तरीके से इसने लाई चना को मेरी मांग बना दिया। उनसे पैसा लेकर गई और लाई चना ले आई, जिसे सब लोग खाए।।

एक बार मैंने इकठ्ठे चावल खरीद लिया था। एक दिन एक भीख मांगने वाला आया तो मैंने कहा कि फुटकर पैसा नहीं है तो एक कटोरी आटा या चावल दे दो। समता एक कटोरी चावल दे दी। अब वह रोज उसी टाइम मांगने आता और समता रोज एक कटोरी चावल दे देती। रविवार के दिन नहीं आया। अगले दिन भी मेरी छुट्टी थी, वह आ गया तो समता चावल ले जाने लगी। मैं बोली कि चावल रख दो और फुटकर पैसा दे दो। तब समता बताई कि मैं तो रोज इसको एक कटोरी चावल देती थी। इस तरह आधा डब्बा चावल (करीब 5 किलो) उसे दे चुकी थी।

समता और अंकुर के पालन पोषण में कोई अंतर नहीं हुआ। समता के पालन पोषण में एक तरफ आर्थिक संकट का दौर था तो दूसरी तरफ प्लस प्वाइंट ये रहा कि वह रामजी राय की गोद में पली। वहीं अंकुर के समय आर्थिक संकट उतना नहीं था लेकिन उसको रामजी राय की गोद नहीं मिली। लेकिन दोनों का नेचर अलग अलग है। समता बचपन से ही तेज थी और अंकुर सीधे थे। खैर, लड़कियों को तेज होना ही चाहिए। समाज में लड़कों से ज्यादा लड़कियों को झेलना पड़ता है।

समता चूंकि पापा के साथ पली- बढ़ी, तो वह हर बात पापा से कह भी लेती थी। रामजी राय भी उसकी बात मानते थे। जैसे-जैसे रामजी राय का इलाहाबाद से बाहर जाना होता गया, वैसे-वैसे समता थोड़ी जिद्दी होती गई। चूंकि उसकी बात पहले की तरह नहीं मानी जा रही थी। रामजी राय की अनुपस्थिति में मुझे ही मां-बाप दोनों की जिम्मेदारी देखनी होती थी। रामजी राय की तरह उसकी बात मैं मानती नहीं थी तो स्वाभाविक था कि टकराहट हमीं से होगी। आर्थिक हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि बच्चों की हर मांग पूरी कर सकूं। हालांकि वह समझदार थी लेकिन थी तो बच्ची ही। घूमती बहुत थी, घर में टिकती ही नहीं थी। परीक्षा के समय छोड़कर बाकी समय में पढ़ाई न के बराबर करती। इसी चक्कर में हमसे मार भी बहुत खाती थी। तब कहती थी – आने दो पापा को सब बताएंगे। रामजी राय आते तो तुरन्त शिकायत करती। फिर रामजी राय अपनी तरह से मुझे और समता दोनों को अलग-अलग समझाते। ज्यादातर तो मुझे ही सुनना पड़ता था कि वो तो बच्ची है, लेकिन आप तो बच्ची नहीं हैं। जो भी हो मारना तो बंद करिए, क्या कर रही हैं आप? अपनी परेशानी उस पर उतारती हैं, ये तो ठीक बात नहीं है। फिर उसको भी समझाते कि मम्मी को अकेले ही स्कूल, बच्चे के अलावा घर की जिम्मेदारी संभालनी होती है। उनकी बात सुना करो।

समता को सुबह जगाते रहिए उठती नहीं थी। जब मैं चाय बनाकर छानने के लिए केतली उठाती तो केतली की आवाज सुनकर अपने आप उठकर मंजन करती और टी.वी. खोलकर तब चाय उठाती। कभी कभी तो चाय बनने के बाद भी नहीं उठती थी। अंकुर भी स्कूल चला जाए और मैं स्कूल जाते समय कपड़ा बदलने लगती तब उठती थी। उसका स्कूल भी सेकेण्ड शिफ्ट का था । समता को 11 बजे स्कूल जाना होता था, इसलिए आराम से सोती रहती थी। झाड़ू पोछा वही करती थी और मन से करती थी। लेकिन खाना बनाने और अन्य किसी काम में सहयोग नहीं करती थी। मैं समझती थी कि बच्ची है। अभी उम्र ही क्या है। लेकिन मैं भी तो थक जाती थी। मैं सुबह चाय पीने के बाद अंकुर, समता और अपना टिफिन तैयार करती, फिर अंकुर को तैयार करवाती, उसका बैग चेक करवाती और उसे नास्ता कराकर स्कूल भेजती। आठ बजे अंकुर स्कूल निकल जाता था। उसके बाद दोपहर का खाना बनाकर मैं सवा नौ बजे स्कूल के लिए निकल जाती। मेरा स्कूल 9.5 कि.मी. दूर धा। शाम को 4.30 बजे तक मैं लौटती । फिर चाय पीने के बाद थोड़ा आराम करके बर्तन धोती और सब्जी वगैरह ले आती। उसके बाद अंकुर का होमवर्क पूरा कराती। फिर जल्दी -जल्दी रात का खाना बनाती, नहीं तो अंकुर सोने लगता था। इस बीच समता कम ही घर पर रहती थी। पार्टी आफिस पर दस्ता का रिहर्सल होता तो वहां नहीं तो बगल में ज्यादातर शिखा के यहां या रश्मि के यहां। 9 बजे तक तो सामान्य बात थी। कभी कभी तो 10 भी बज जाता था। इसी पर मैं गुस्सा होती थी, डांटती थी और कभी कभी मार भी देती थी कि घर में रहती तो कुछ सहयोग ही कर देती या पढ़ती। लेकिन उसके ऊपर कोई असर ही नहीं पड़ता। एक बार तो 10 बजे के बाद आई तो दरवाजा खटखटाती रही, मैंने दरवाजा नहीं खोला और उसको बोली कि अब तक जहां थी वहीं रहो। उसके बाद रश्मि की मम्मी दरवाजा खटखटाईं, समता की मम्मी दरवाजा खोलिए। मैंने दरवाजा खोला तो उसको अंदर लेकर आईं और हमें समझाईं कि इसको घर के अंदर आने दीजिए। समझाइए, डांटिए चाहे जो करिए, लेकिन कभी दरवाजा मत बंद करिएगा। बच्चों पर अच्छा असर नहीं पड़ता। ऐसे ही एक बार शिखा के यहां से देर से आई तो दरवाजा तो खोले , उसके बाद पिटाई भी किए और बाद में मैं ही रोने लगी। शिखा की मम्मी आईंं और मुझे सीने से लगा लीं तो मुझे और रोना आ गया। उन्होंने मुझसे कहा कि चुप हो जाओ परेशान न हो, मैं समता को समझाऊंगी, जैसे जैसे बड़ी होगी ठीक हो जाएगी।

कई बार तो ऐसा भी हुआ कि अंकुर से 2-3 दिन तक समता की बात ही नहीं हो पाती थी। सुबह ये सोई रहे तभी अंकुर स्कूल चला जाता और अंकुर सो जाय तब ये लौटती। अंकुर कहता भी था कि मुझे स्कूल जाने के लिए इतना जल्दी उठना पड़ता है, मेरा नाम क्यों नहीं समता दी के स्कूल में लिखवाई? मैं भी देर से सोकर उठता। शाम को भी रोज हमें ही पढ़ने के लिए बैठाती हो समता दी को क्यों नहीं पढ़ाती। मैं समझाती कि समता दी बड़ी हैं न, वो खुद से पढ़ लेती है। तुम भी खुद से पढ़ लिया करो तो मैं न पढ़ाऊं। बोला कि समता दी कब पढ़तीं हैं!

शुरु में जब अंकुर का एडमिशन सेन्ट्रल स्कूल में हुआ तो मैंने समता से कहा कि तुम्हारा हाई स्कूल में अंग्रेजी है। मेरे समय में कक्षा-6 से अंग्रेजी शुरु ही होती थी। हाई स्कूल में कोई बताने वाला ही नहीं था कि कौन कौन विषय लेकर पढ़ूं। तो हाई स्कूल में अंग्रेजी न ले पाई। इसलिए मुझे अंग्रेजी न के बराबर आती है बिटिया। जरा अंकुर को थोड़ा अंग्रेजी पढ़ा दिया करो, बाकी विषय मैं देख लूंगी। समता बोली- हाई स्कूल में मैंने अंग्रेजी लिया नहीं है मम्मी, अंग्रेजी कंपल्सरी था इसलिए लेना पड़ा। मैं नहीं पढ़ा पाऊंगी।

समता की दोस्तें अस्थाना, नीतिका, सोनू और सोनिया अक्सर मेरी अनुपस्थिति में आती थीं। दोपहर में समता तहरी बनाती थी और सब मिल-जुल कर खाती थीं। तहरी के साथ आम का अचार खाती भी थीं और ले भी जाती थीं। जिसमें सोनिया सबसे ज्यादा। गर्मी की छुट्टी में मां के यहां से 10 किलो का डब्बा भर कर आम का अचार ले आती थी और साल से पहले ही खत्म हो जाता था। खाने के बाद बर्तन धोकर रख देती थीं सब। हमारे स्कूल से आने से पहले किचेन साफ हो जाता था कि मम्मी को पता न चले। कभी कभी हलवा भी बनता था। एक दिन मैंने समता से कहा कि जब दोस्तों के लिए इतना कुछ बनाती हो और सब खा करके बर्तन, किचेन भी साफ हो जाता है। तो कभी मम्मी, अंकुर के लिए भी थोड़ा रख देती। क्या समझती हो कि मुझे पता नहीं चलेगा। आज हलुवा बनाई थी न। समता बोली तुमको कैसे पता लग जाता है। मैंने बोला इतना अफरात सामान नहीं न है, खर्च होता है तो पता चल जाता है।

बाद में समता की आदत बनी कि अगर उसके पास 10/- है तो वह 12/- रुपये का कोई सामान पसंद किए रहती थी। उसके बाद 2/- किसी न किसी से जुगाड़ती और अपना पसन्दीदा सामान ले आती।

आगे चलकर समता को रोज ही यहां-वहां जाना पड़ता था। मैंने कहा कि मैं इतना पैसा कहां से लाऊं। मैं उसे पाकेट खर्च सिर्फ 50/-ही देती थी। उसमें भी एक दो बार गैप ही हो जाता था। समता से मैं बोल भी दी थी कि इससे ज्यादा पैसा तुमको चाहिए तो तुमको खुद कुछ करना पड़ेगा। एक-दो ट्यूशन पकड़ लो। इससे अपने मन का खर्च कर लोगी। अपनी मेहनत से जब पैसा आएगा तो तुमको अच्छा लगेगा। ज़िन्दगी की कठिनाई से लड़ना सीखो। इस तरह वो ट्यूशन करने लगी और बाद में रेडियो स्टेशन में भी गाती थी।

समता संगीत समिति में भी एडमिशन ले चुकी थी। जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई उसकी स्वतंत्रता भी बढ़ती गई। तर्क शक्ति भी बढ़ने लगी। किसी बात को मना करने पर भी मानती नहीं थी। डांटने पर पापा की धमकी देती थी कि आने दो पापा को सब बताएंगे। एक बार मैंने हंसते हुए समता से कहा कि पापा को बताने की धमकी देती हो तो रामजी राय सिर्फ तुम्हारे पापा हैं? हमारे कुछ नहीं लगते हैं, कि मेरे मुंह में जबान नहीं है। आज जब रुनझुन और समता के बीच पढ़ाई, घुमाई और प्रेम करने को लेकर बहस देखती हूं तो अपने और समता के बीच हुए संवाद की याद आती है। सेम सिचुएशन रहता था, सिर्फ जनरेशन का अंतर है। समता को देखकर अपनी याद ताजी हो जाती है।

रामजी राय आते तो समता शिकायत करती ही थी। इस बार ये शिकायत की कि पापा, मम्मी मुझे गाली दी थीं। मुझे हरामी कही थी। मैंने मान लिया कि हो सकता है गुस्से में मुंह से निकल गया हो मुझे नहीं कहना चाहिए था। ऐसे ही जब अगली बार रामजी राय आए तो फिर कही कि मम्मी अबकी नई गाली दी है। मैंने कहा झूठ बोल रही है, मैंने इसको कोई गाली नहीं दी है। रामजी राय समता से बोले कि- ये तो कह रहीं हैं कि मैंने कोई गाली नहीं दी है । समता बोली- मुझे गदहा का चोपड़ कही थी। रामजी राय मेरी तरफ देखने लगे और पूछे ये कौन सी गाली है मैंने कभी नहीं सुना है, इसका क्या मतलब? मैंने बोला कि- ये कोई गाली नहीं है। मुझे जब परेशान करती है तो गुस्से में यही कह देती हूं इसका कोई मतलब नहीं होता है।

रामजी राय चाहे जिन कारणों से लेकिन समता को बहुत मानते हैं। आज भी वही स्थिति है, और उस समय तो उसी का पक्ष लिया करते थे। पहले उसके पक्ष से बोल लेते थे। फिर बाद में धीरे से उससे कहते थे कि तुमको भी मम्मी से लड़ना नहीं चाहिए। और अंकुर को तो हमेशा से चिढ़ाते रहे कि ई तो ‘माई का बेटा’ है। माई जो कहेगी वही करेगा।

रामजी राय से भी मेरी हो जाती थी। मैं तो जैसे-तैसे घर चलाती हूं। आप आएंगे तो अपना पैसा गिनकर बता देगें ( बताने का मतलब यह होता था कि जाते समय उतना पैसा उनको देना होगा) और उस पैसे से जो बच्चे कहते थे, खिला पिला देते थे। बच्चों को तो यही लगता कि मम्मी नहीं खिलाती पिलाती हैं, पापा खिला देते हैं। इसलिए पापा अच्छे हैं। जबकि जाते समय ये सारा पैसा रामजी राय को मैं देती भी थी। तो मैं बेवकूफ ही न बनती थी। उसी पैसे से हम भी खिला सकते थे।

रामजी राय महीने में दो -तीन दिन के लिए आते थे। एक दिन महीने भर की शिकायतों आदि की पेशी में निकल जाता। अगले दिन रेडियो स्टेशन में कहानी देनी होती थी या किसी विषय पर बोलना वगैरह रहता था, जिसे यहीं आकर लिखते थे। एक दिन सबके लिए बचता था। जिसमें देर रात तक संगठन के लोगों का भी जमावड़ा रहता। अगले दिन जाना होता था।

एक बार हम सारे लोग किसी त्यौहार पर घर जाने का प्लान बनाए हुए थे। सारी तैयारी हो गई थी। समता कहने लगी मैं नहीं जाऊंगी। त्योहार में अपने घर रहना अच्छा लगता है। मेरा मन यहीं रहने का है। रामजी राय उसको न समझाकर हमलोगों से बोले कि समता कह तो ठीक ही रही है। मैंने बोला भी कि मुझे इस समय छुट्टी नहीं लेनी पड़ेगी और अंकुर का भी स्कूल बंद है , अंकुर का हर महीने टेस्ट होता है और टेस्ट के नंबर का कुछ प्रतिशत जोड़कर फाइनल रिजल्ट बनता है। उसके चक्कर में हमें उसके साथ लगे रहना पड़ता है। जल्दी घर भी नहीं जा पाते। अभी दोनों की छुट्टी है इसलिए घर निश्चिंत होकर जा सकते हैं। लेकिन समता नहीं मानी। कही कि आपलोग जाइए, मैं यहीं रहूंगी। फिर उसको अकेले छोड़कर कैसे जाते। इस तरह कोई घर नहीं गया। अंकुर को भी लगने लगा था कि समता दी की बात पापा मानते हैं जो कहती है घर में वही होता है।

इसी तरह की बातों का असर अंकुर पर पड़ता गया। वह इसके विरोध में कुछ बोलता भी नहीं था। अंकुर अपनी डायरी में कुछ कुछ लिखना शुरू किया। एक दिन उसका बैग ठीक करवाते समय स्कूल डायरी के अलावा एक और डायरी दिखी। अंकुर से पूछे कि ये किसकी डायरी है। अंकुर बोला मेरी ही डायरी है। इसमें एक कहानी लिखा हूं तुमको सुनाऊं? फिर उसने कहानी सुनाई जिसका शीर्षक था “एक बिगड़ता मोड़ “। कहानी सुनकर हम एकदम चुप हो गए। वह कहानी मूल रूप में प्रस्तुत है:-
“एक बिगड़ता मोड़ “
यह कहानी एक ऐसे मोड़ से शुरू होती है, जिसमें बहुत सी कठिनाइयां हैं। इस मोड़ पर ऐसी कुछ कठिनाइयां हैं, जिससे आदमी अंदर से मर जाता है। कुछ इसी तरह की कहानी जो कि एक घर की है।

जहां एक स्त्री और एक बेटा, बेटी रहते हैं, और जो पुरुष होना चाहिए सो वह कभी दिल्ली तो कभी पटना में रहते हैं। वह आते ही हैं तो बस किसी काम के लिए। भले वह हमारे घर पर रह लें। पर हमलोग एक शब्द भी बतिया नहीं सकते। स्त्री उनसे बोलना चाहती है, पर उनको समय ही नहीं मिलता, सो वह संपादक हैं।

एक लड़का जो बहुत महीनों तक पुरुष के न रहने पर भी रह लेता था। पर अब वह ऐसा महसूस करने लगा है कि पुरुष यहां नहीं है। पर पुरुष को क्या? वह तो संपादक हैं। हाथ में एक पेन और उसकी नोंक उसके नाक के बगल में रहेगी, और जब भी वह कोई कहानी या कुछ लिखते हैं, तो शायद उनको ये नहीं लगता होगा कि उनका भी एक परिवार है। उसमें एक लड़की है, जो कि ऐसी है कि वह पुरुष भी उससे डरता है। थोड़े दिनों की बात है- पुरुष ने कहा कि इस बार होली में गांव चला जाएगा पर बेटी का एक लाइन ” मैं गांव नहीं जाऊंगी” फिर पुरुष का ना कहना।

लड़के को स्कूल के हर महीने का टेस्ट परेशान करता। स्त्री को भी जाने का समय हो तो वो भी नहीं जा सकती, बेटे की वजह से। मैं सोचता हूं कि इस बार पुरुष आए तो मैं ये कहूंगा कि- आप यहां क्यों नहीं आ पाते, पर नहीं कह पाता। मुझे ज्यादातर सन्तोष चाचा, उदय चाचा और रामजी राय की याद आती है।

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