समकालीन जनमत
जनमत

हिटलर और फ़ासीवाद का नया उभार

 

1997 में लिटिल, ब्राउन ऐंड कंपनी से मार्टिन ए ली की किताब ‘ द बीस्ट रीअवेकेन्स: फ़ासिज्म’स रीसर्जेन्स फ़्राम हिटलर’स स्पाइमास्टर्स टु टुडे’ज नीओ-नाज़ी ग्रुप्स ऐंड राइट-विंग एक्सट्रीमिस्ट्स ’ का प्रकाशन हुआ। भूमिका में लेखक ने हिटलर को अपदस्थ करने की 1944 की एक कोशिश का उल्लेख किया है जिसके योजनाकारों की इच्छा लोकतंत्र की वापसी न होकर हिटलरविहीन तानाशाही की स्थापना करने की थी। कारण कि अमेरिका ने ऐसे शासन के साथ नरमी का बरताव करने का आश्वासन दिया था । उसकी शह पर जिन अधिकारियों ने इस असफल विद्रोह की चेष्टा की थी वे बाद में भी नवनाज़ी गिरोहों के सम्पर्क में रहे । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इन गिरोहों के उभार के पीछे इनके प्रयास ही थे ।

बर्लिन की दीवार गिरने के साथ ही न केवल जर्मनी बल्कि पूरे यूरोप और उत्तरी अमेरिका में इन गिरोहों की सक्रियता और उन्माद में अप्रत्याशित तेजी देखी गई । शरणार्थियों और प्रवासी कामगारों तथा नस्ली अल्पसंख्यकों के विरुद्ध बढ़ते हमलों के पीछे यही नवफ़ासीवादी उभार है। सोवियत संघ के पतन और विश्व अर्थतंत्र में आए बदलावों के चलते तेजी से उभरी नवफ़ासीवादी सक्रियता फिलहाल अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की सबसे खतरनाक प्रवृत्ति बन गई है । किताब में इसी बात को समझने की कोशिश की गई है कि पचास साल पहले जो फ़ासीवाद पूरी तरह बदनाम था वह फिर से किस तरह मजबूत बना। इसके लिए उन नेताओं का विश्लेषण किया गया है जो फ़ासीवाद की बदनामी के दिनों में बहती वैचारिक बयार के हिसाब से अपने को ढाल लिया करते थे।

दूसरे विश्वयुद्ध के तुरंत बाद तो इनके पास मुंह छिपाने के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचा था । दूसरे विश्वयुद्ध में जो विनाश हुआ था उसके कारण अमेरिका और सोवियत संघ ही विश्व राजनीति में बचे खिलाड़ी थे। शीतयुद्ध के दौरान जर्मनी के विभाजन के बावजूद उसका राष्ट्रवाद जिंदा रहा और वह यूरोप में अपने लिए विशेष स्थान बनाए रहा । शीतयुद्ध के दौरान इन राष्ट्रवादियों ने रूस और अमेरिका के बीच तनाव का लाभ उठाया और अपनी ताकत बढ़ाते रहे । कुछ ने अमेरिका का चहेता बनने के लिए कम्यूनिस्ट विरोधी रुख अख्तियार किया तो कुछ अन्य उतना सोवियत विरोधी नहीं दिखे।

बहरहाल दोनों गुटों ने नाज़ीवाद की फिर से स्थापना का सपना कभी अपनी आंखों से ओझल नहीं होने दिया । इस दौरान वे जोड़ तोड़, गुटबंदी, आपसी झगड़ों तथा अप्रत्याशित सम्पर्कों की दुनिया के वासी बने रहे । इस दौरान कई बार वाम और दक्षिण के बीच अंतर करना मुश्किल हो जाता था। शीतयुद्ध का कोई भी इतिहासकार समझ नहीं सका कि उसके समाप्त होते ही ये गिरोह कुकुरमुत्तों की तरह कहां से उग आए क्योंकि वे रूस और अमेरिका के बीच टकराव का लाभ उठाकर लगातार बढ़ते इस आंदोलन की मौजूदगी से ही इनकार करते रहे ।

इसके बाद लेखक ने फ़ासीवाद की परिघटना के बारे में हुई बहसों के सहारे इसे समझने की गंभीर कोशिश की है । उनका कहना है कि फ़ासिस्ट आंदोलन ने शुरू में मुक्त बाजार व्यवस्था से पैदा विषमता से लाभ उठाया । इसके बाद सत्ता के करीब पहुंचने पर उन्होंने पूंजीपतियों और उनके राजनीतिक नुमाइंदों को कम्यूनिस्ट विरोधी होने का भरोसा दिलाया। जहां भी उन्हें सत्ता मिली पूंजीवाद विरोध का मुखौटा उतार फेंका। कुछ फ़ासिस्ट नेताओं ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत समाजवाद से की थी लेकिन उन्हें जल्दी ही मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी चेतना पर से भरोसा उठ गया। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रवाद का सहारा लिया ।

फ़ासीवाद में आए इन तमाम बदलावों के चलते फ़ासीवादी आंदोलनों के बारे में कोई एक बात कहना मुश्किल है। फ़ासीवादी राजनीति का जादू समाजार्थिक विक्षोभों को राष्ट्रीय और नस्ली जामा पहना देता है। वे समातामूलक विचारों का घनघोर विरोध करते हैं। तमाम तरह की अंतर्विरोधी विचार सरणियों को वे सहजता के साथ साध लेते हैं। वे कुलीनतावादी होने के साथ लोकप्रिय भी होते हैं तथा परंपरावादी होने के साथ परंपराद्रोही भी होते हैं। उनमें उद्योगीकरण से पहले के समाजों के प्रति अतीतप्रेम के साथ अत्याधुनिक तकनीक का आकर्षण भी पाया जाता है। अबाध पाशविकता के साथ ही आज्ञाकारिता और व्यवस्था प्रेम भी उनकी विशेषता है। आधुनिक जीवन स्थितियों की दुर्दशा से निजात दिलाने का वादा करके वे बेहतर समाज की आकांक्षा के भी पोषक बन बैठते हैं । अपने इसी जादू के बल पर वे ग्रामीण और शहरी ; नौजवान और बुजुर्ग; धनी और गरीब तथा अनपढ़ और बुद्धिमान- सभी तबकों को अपनी जद में ले लेते हैं।

दूसरे विश्वयुद्ध में लगे भारी धक्के के बावजूद उन्होंने अपने सपनों को तिलांजलि नहीं दी थी । तभी आज के नव फ़ासीवादियों में एक धारा हिटलर और मुसोलिनी के प्रशंसकों की भी पाई जाती है । यहूदियों के कत्लेआम को झूठ बताने वाले और नस्ली साहित्य की बिक्री और उसका प्रचार अश्लील साहित्य की तरह छोटे छोटे समूहों में होता रहा है ।

लेकिन उनका एक हिस्सा ऐसा भी रहा जो युद्धोत्तर माहौल के हिसाब से लचीलापन दिखाते हुए मुख्यधारा में मौजूद बना रहा। कुल मिलाकर यह उनके लिए राजनीतिक रूप से जिंदा रहने का एक तरीका था। वे जानते थे कि फ़ासीवादी खेल कई तरीकों से खेला जा सकता है। कुछ ज्यादा चतुर लोग अपनी संबद्धता खुलेआम जाहिर नहीं करते थे। स्वाभाविक तौर पर फ़ासीवाद का पुनरावतार इसके पुराने रूप से अलग होगा। इसके नए नेता परिणामवादी और अवसरवादी होने के नाते सार्वजनिक मंचों पर लोकतंत्र से अपनी नफ़रत छिपाने में कामयाब हो जाते हैं।

इस तरह कई देशों में चुनावी सफलता हासिल करने के बाद वे युद्धोत्तर राजनीतिक परिदृश्य को बदलने की कोशिश में जुट गए हैं। पचास साल तक लगभग भूमिगत रहने के बाद खुले में आए राजनीतिक आंदोलन की गाथा इस किताब में लिपिबद्ध की गई है । जो गुप्त था वही नए रूप में प्रकट हुआ है । जो प्रतिबंधित था उसने धीरे धीरे प्रभाव और प्रतिष्ठा हासिल की है । पुराने फ़ासीवादियों ने मशाल को बुझने नहीं दिया था और नई पीढ़ी के अतिवादियों को आगे की, आज की दौड़ के लिए उसे थमा दिया है ।

Related posts

3 comments

Comments are closed.

Fearlessly expressing peoples opinion