समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

‘ साहित्य के संयुक्त मोर्चे में मूल्य सर्वोपरि है ’

इलाहाबाद। अंजुमन रूहे अदब में प्रगतिशील लेखक संघ एवं इप्टा, जनवादी लेखक संघ,जन संस्कृति मंच के संयुक्त तत्वाधान में शनिवार को ‘ स्मरण : अमृत राय ‘ आयोजन के तहत दो सत्रों में अमृत राय की संकल्पना साहित्य का संयुक्त मोर्चा पर चर्चा हुई।

पहले सत्र का परिसंवाद ‘अमृत राय की संकल्पना:साहित्य का संयुक्त मोर्चा’ विषय पर आधारित था। पहले सत्र में कार्यक्रम की शुरुआत स्वागत वक्तव्य से प्रियदर्शन मालवीय जी ने की। श्री मालवीय ने कहा कि अमृत राय जी अपनी पुस्तक ‘साहित्य में संयुक्त मोर्चा ‘ के माध्यम से प्रथमतः साहित्य के संयुक्त मोर्चे की बात उठाते हैं। आज के दौर में जिसकी प्रसंगिगता कहीं अधिक महसूस की जा सकती है।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए डॉ. बसंत त्रिपाठी जी कहा कि संयुक्त मोर्चा सामाजिक न्याय में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष प्रो. राजेन्द्र कुमार ने आधार वक्तव्य देते हुए कहा कि फासीवादी ताकते जब बढ़ती जाती हैं तो वे हमारी विचार प्रक्रिया तक को बाँध देती हैं और इस बात पर भी पहरा लगा देती हैं कि हमें क्या याद करना है क्या नहीं याद करना है। उन्होंने कहा कि संयुक्त मोर्चे में युवाओं की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है और
यही वजह थी कि अमृत राय जी ने अपनी सबसे महत्वपूर्ण व लोकप्रिय रचना ‘कलम का सिपाही’ को देश की नौजवान पीढ़ी को समर्पित किया है। अमृत राय से अपने संस्मरण को साझा करते हुए प्रो.राजेन्द्र कुमार ने बताया कि उन्हें अपने छात्र जीवन मे अमृतराय जी से बहुत सारी सलाहियत मिलती थीं।

साहित्य के संयुक्त मोर्चे पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि प्रगतिशीलता साहित्यकार का स्वाभाविक गुण होता है। साहित्यकार भी लेखन के माध्यम से अपना मोर्चा तैयार करता है और यह मोर्चा जब संयुक्त मोर्चा का रूप लेता है तो वह कहीं अधिक घनीभूत प्रभाव समाज पर डाल सकता है किंतु साहित्य का संयुक्त मोर्चा राजनीति के संयुक्त मोर्चे से भिन्न होता है। साहित्य के संयुक्त मोर्चे में मूल्य सर्वोपरि होते हैं। साहित्यकार को किसी विचारधारा का अंधसमर्थन नहीं करना चाहिए क्योंकि विचारधारा लाठी की तरह नहीं रोशनी की तरह होती है। साहित्यकारों में विषय को लेकर मतभेद हो सकते हैं किंतु मनभेद नहीं होना चाहिए, साहित्यिक मतभेद तो लेखक की आत्मनिष्ठता का द्योतक होता है। दरअसल साहित्य के संयुक्त मोर्चे में मतभेद का महत्व भी है क्योकि यह मोर्चे को बहुआयामी बनाता है। अपनी बातों की प्रामाणिकता के लिए उन्होंने प्रवाह, हंस व युगधारा जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं का भी हवाला दिया। अपनी बात समाप्त करते हुए उन्होंने अमृत राय जी के हवाले से कहा कि “संयुक्त मोर्चा कोई जड़ वस्तु नहीं है वरन एक प्रगतिशील विचार प्रक्रिया है” ।

वरिष्ठ कवि हरिशचंद्र पांडेय ने अमृत राय की कहानी ‘कस्बे का एक दिन’ के माध्यम से अमृत राय के साहित्य के संयुक्त मोर्चा संबंधी दृष्टिकोण को व्याख्यायित करते हुआ कहा कि उन्होने प्रगतिशील व प्रगतिवाद को समाजवादी यथार्थवाद का पर्याय कह देना उचित नहीं माना। प्रगतिशीलता रचनाकार की वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ साथ उसकी सहानुभूतिपरकता व आत्मनिष्ठता पर भी आधारित होती है। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने सुमित्रानंदन पंत की रचना ‘ग्राम्या’ का उदाहरण देते हुए कहा कि पंत जी ने स्वयं ग्राम्या के बारे में कहा था कि ग्राम्या में ग्रामीदोषों का होना अत्यावश्यक है- “देख रहा हूं आज विश्व को ग्रामीण नयन से”।

लेखक अली अहमद फातमी ने अमृत राय के साथ अपने जीवन के संस्मरणों को साझा किया। उन्होंने कहा कि अमृत राय के व्यक्तित्व को प्रेमचंद का व्यक्तित्व किस तरह प्रभावित करता था और अमृतराय उस प्रभा मंडल से बाहर निकालने के लिए कितने आकुल दिखाई देते थे इसी बात को उन्होंने एक शेर के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया एक – “उम्र लग जाती है बरगद के साए से निकलने में ” ।

इप्टा के महासचिव राकेश ने कहा कि संयुक्त मोर्चा प्राचीन शास्त्रों एवं पुराणों के खिलाफ होना चाहिए, नाना प्रकार के अंधविश्वासों के खिलाफ होना चाहिए, सांप्रदायिकता के खिलाफ होना चाहिए। उन्होंने किसान आंदोलन के हवाले से भी संयुक्त मोर्चे की बात की।

चर्चा को विस्तार देते हुए समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने प्रेमचंद के हवाले से कहा कि साहित्य समाज के आगे-आगे राह दिखाते हुए चलने वाली मशाल है। उन्होंने साहित्य-संस्कृति में आज के संयुक्त मोर्चे के विषय में कुछ बिंदुओं पर विस्तार से अपनी बाते रखी। उन्होने कहा अमृत राय जी ने साहित्य के संयुक्त मोर्चे की बात वैचारिक धरातल पर उठाई है। आज पहले की रूपंकर कलाओं नृत्य,नाटक,संगीत के साथ -साथ फिल्म और डिजिटल माध्यम भी जुड़ गए हैं। हमें संयुक्त मोर्चे की संकल्पना में इन सभी विधाओं के बीच रचनात्मक आवाजाही को सार्थक और जन चरित्री बनाना होगा।

कार्यक्रम में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए विभूति नारायण जी ने कहा साम्प्रदायिकता का खतरा देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है और साम्प्रदायिकता ही धीरे धीरे फासीवाद की ओर बढ़ जाती है। संप्रदायिकता हमेशा घातक होती है किसी भी समाज के लिए चाहे वह अल्पसंख्यक वर्ग की हो या बहुसंख्यक वर्ग की।

कार्यक्रम के अंत में आभार व्यक्त करते हुए संध्या निवेदिता ने कहा साहित्य के संयुक्त मोर्चा का विचार यद्यपि अमृत राय जी ने आधी शताब्दी पहले ही प्रस्तुत किया था किंतु उसके क्रियान्वयन का सबसे जरूरी समय आज है।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र का विषय ‘समकालीन लेखन: जनएकता की चुनौतियां ‘ रहा। संचालन युवा कवि मृत्यंजय ने किया। आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए जाने माने आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि -‘हम संयुक्त मोर्चा बनाएं लेकिन साथ ही अपनी वैचारिकी को नष्ट नहीं कर देना चाहिए।’ अमृतराय का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी-वैचारिक बहसों में शामिल होना। उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकता वर्णाश्रमी जातिवाद के सिर पर सवार होकर आ रही है। सविता जी ने अवसरवादिता की प्रवृति को सबसे खतरनाक प्रवृत्ति कहा। उन्होंने कहा कि सिर्फ स्त्री मुद्दे ही पेचीदे नहीं होते बल्कि हर मुद्दा पेचीदा होता है। किसान आंदोलन के विषय में उन्होंने बताया कि वहाँ ‘मार्क्सवाद क्या है’ पढ़ा जा रहा था, लाइब्रेरी बनी हुई थी।

आशीष त्रिपाठी ने जनसंस्कृति और जनएकता की ओर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने बताया कि विभाजन का इतिहास और जनता को विभाजित करने वाली प्रवृत्तियाँ अधिक ताकतवर हैं। ऊपरी एकता को आतंरिक गतिरोध खण्डित कर देता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि राजनीति के भीतर संयुक्त मोर्चे के बगैर साहित्य के भीतर कोई भी संयुक्त मोर्चा अधिक समय तक नहीं चल सकता।

वंदना चौबे ने अपने वक्तव्य में कहा कि सबसे ज्यादा युवा पीढ़ी बिखर गई है।

कवि-आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा कि जब आप बहस करें तो एक दूसरे की नीयत पर शक न करें। जब आप नीयत पर शक करेंगे तो किसी प्रकार की कोई बात हो ही नहीं सकती। उन्होंने मुख्य बात कही कि साम्प्रदायिकता फासीवाद में तब बदलती है जब राष्ट्रवाद का रूप ले लेती है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने रामेश्वर करुण की कविता के साथ-साथ यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ के हवाले से बताया कि साहित्य का मूल कार्य न्याय की बात को दृढ़ता से कहना है।

सत्र के अंत में सुरेंद्र राही ने सभी वक्ताओं व स्रोताओं का कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु आभार व्यक्त किया।कार्यक्रम में अनीता गोपेश, असरार गांधी, आनंद मालवीय, अनिल रंजन, सूर्य नारायण सिंह, अमितेश, जनार्दन,अंशुमान कुशवाहा, वीरेंद्र मीणा,रूपम पांडेय,संजय श्रीवास्तव, अभिषेक सिंह,प्रवीण शेखर, अनीता त्रिपाठी,विश्व विजय, कृष्णकुमार पांडेय,सीमा आज़ाद, अजामिल, शिव नारायण सिंह, चंद्रशेखर आदि उपस्थित रहे।

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