समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-9

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)


ट्रेनिंग
दूसरा साल 1980-81


ट्रेनिंग का पहला साल समाप्त हुआ। मैंने सोचा था कि पूरे साल का वजीफा 40/-के हिसाब से 480/- मिलेगा। लेकिन पता चला कि छुट्टियों का नहीं मिलता है। 10 महीने का 400/- मिला। ट्रेनर ऊषा वर्मा कैंटीन से 6.5 लीटर का हाकिंग्स कूकर ( जिसमें तीन खाने का टिफिन कैरियर भी था) 420/- में ले आई। 20/- और लगाना ही पड़ा। लेकिन आराम हो गया। टिफिन के एक डिब्बे में दाल, एक में चावल, एक में आलू एक साथ पक जाता था। इस तरह मिट्टी का तेल और समय दोनों का बचत होने लगा। इस समय हमलोग मम्फोर्डगंज में अशोक कप्तान वाले मकान में थे।

आर्थिक समस्या मुंह बाए खड़ी थी। समता नानी के यहां थी। अमरकांत जी ने रामजी राय को मित्रा प्रकाशन में 10/- रोज पर प्रूफ पढ़ने का काम दिलवा दिया था । रामजी राय वहां ममफोर्डगंज से शिवचरन लाल रोड (चौक) लगभग 4 कि.मी.पैदल जाते थे। प्रूफ का काम भी मन लायक नहीं था। सत्यकथा और मनोहर कहानियां जैसी घटिया मैगजीन का प्रूफ पढ़ना पड़ता था। कहीं बताने में भी शर्म लगती थी। रोज जाते भी नहीं थे। महीने में 20 दिन भी मुश्किल से जाते थे। बगल वाली सत्यकथा और मनोहर कहानियां मांगती कि भाई साहब तो लाते होंगे। जबकि ये लाते ही नहीं थे, कभी लाए भी तो बिस्तर के नीचे छिपा देतेे। जैसे तैसे 2-3 महीना यहां काम किए। जिस महीने पैसा बढ़ने वाला था रामजी राय मुझसे कहे कि मुझे ये काम करने का बिल्कुल मन नहीं है। मैंने कहा कि छोड़ दीजिए देखा जाएगा। मेरे पास कोई आय का स्रोत नहीं था। रामजी राय के मित्र विभूति मिश्र के पिता प्रभात मिश्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधान मंत्री थे। विभूति मिश्र ने अपने पिता से कहकर हिन्दी साहित्य सम्मेलन में 10/- रोज पर मनीआर्डर रिसीव करने और उसे रजिस्टर में चढ़ाने का काम रामजी राय को दिलवाया, जिससे कुछ आर्थिक दिक्कत सँभली और कमरे का 100/- किराया रामजी राय के एक मित्र के दे देने से काफी राहत मिली। इसी बीच समता की तबीयत खराब होने की सूचना मिली। मैंने उसको वापस अपने पास बुलवा लिया। जब तक कहीं एडमिशन नहीं हुआ, समता अशोक कप्तान के घर वाले स्कूल में ही बैठने लगी। बाद में ट्रेनिंग कालेज में ही समता का एडमिशन करा दिए।

कालेज की तरफ से 10 दिन का गाइड का कैंप करना अनिवार्य था। भारत स्काउट स्कूल में ही कैंप का कोर्स करना था। समस्या ये थी कि समता बार-बार नानी के यहां छोड़े जाने से डर गई थी। दिन में तो स्कूल में और पापा के पास रह जाती थी लेकिन रात में मुझे नहीं छोड़ती थी। अपने क्लास टीचर से मैंने अपनी स्थिति बताई तो वे बोलीं कि तुम्हारे ग्रुप का कमरा तो ऊपर है न। रात में 9 बजे के बाद चुपके से समता को ले लेना और कोई आए तो रजाई से ढक देना लेकिन सुबह ही उसे घर भेज देना। प्रति दिन रात 9 बजे रामजी राय बाउण्ड्री से समता को पकड़ा देते और सुबह 6 बजे ही ले जाते। अंतिम दिन रात को रामजी राय समता को छोड़ गए। रात में कैंपफायर होना था। गाइड इंचार्ज सप्रू मैम ने कहा कि कैंपफायर ऊपर वाले हाल में (जिसमें हमलोग थे) होगा। कैंपफायर शुरू हुआ, अब क्या करें थोड़ी देर तो समता चुपचाप छिपी रही। पुष्पा और मैं उसके आगे बैठे थे कि सप्रू मैम देखने न पाएं। गाना बजाना होने लगा तो समता रजाई में रुक ही नहीं रही थी। अंत में रजाई में से बोली मम्मी हम भी गाएंगे। सप्रू मैम बोलीं बच्चे की आवाज कहां से आ रही है। मेरी हालत खराब, जब सप्रू मैम दुबारा पूछीं बच्चे की आवाज तो आ रही है, कहां से आ रही है देखती हूं। एक दो रजाई उठाईं तो मैंने खुद बता दिया कि मैम मेरी बच्ची है। आज इसकी तबियत ठीक नहीं थी बहुत रो रही थी। इसलिए मुझसे मिलाने इसके पापा लाए थे लेकिन बहुत रोने लगी कि तुम्हारे ही पास रहूंगी, जा ही नहीं रही थी मैम। इतना सुनते ही समता रजाई हटाकर मेरी गोंद में आ गई। सप्रू मैम की तरफ देखकर बोली नानी हम भी गाना गाएंगे। सप्रू मैम अनमैरेड थीं, नाराज तो हुईं लेकिन कोई खास नहीं। फिर समता से बोलीं कि गाना गाओ। सुबह ही रामजी राय समता को ले गए। हम भी शाम तक घर पहुंच गए। इसके कुछ ही दिन बाद हमलोग 14, स्ट्रैची रोड पर सिंह साहब के मकान में शिफ्ट हो गए थे।

यूनिवर्सिटी के प्राचीन इतिहास विभाग में जी आर शर्मा शायद एच ओ डी थे। विभाग में किसी मौके पर उद्घाटन के लिए इंदिरा गांधी आई हुई थीं। उस समय वी एन राय सिटी एस पी थे। कोई हंगामा न खड़ा हो जाए इस डर से यूनिवर्सिटी के छात्रों को उसमें हिस्सा लेने से रोक दिया गया था। इसके प्रतिवाद में इन्दिरा गांधी के आने पर लड़के काला झंडा दिखाकर विरोध कर रहे थे। इस विरोध प्रदर्शन पर सिटी एसपी वी एन राय ने भयानक लाठी चार्ज करवाया था। हमलोग ट्रेनिंग कालेज में थे। क्लास चल रहा था तब तक कालेज में पुलिस आ गई। पुलिस वाले लड़कों को दौड़ा दौड़ा कर मार रहे थे। लड़कों में रामजी राय और अखिलेन्द्र भी दिखे। कालेज में टीचर्स ने बच्चों को पीछे वाले कमरे में दरवाजा बंद कर छिपा दिया था। ट्रेनर को आफिस के बगलवाले हाल में बंद कर दिया गया। थोड़ा पुलिसवाले कम हुए तो ट्रेनरों की छुट्टी कर दी गई। जैसे तैसे ट्रेनर घर गए। मैं, पुष्पा श्रीवास्तव, आभा वर्मा, शहनाज़, नासिरा पैदल ही के पी यू सी की तरफ आगे बढ़े और यूनियन हाल वाली रोड पर मुड़े। थोड़ी ही दूर गए थे कि हालैंड हाल के बाउण्ड्री पर लड़के ईंट लेकर खड़े थे, हम लोगों को देख बोलने लगे कि मारो इन सबको इंदिरा गांधी को देखने गईं थीं। मैंने बोला कि नहीं हम लोग इंदिरा गांधी को देखने नहीं गए थे, सीनेट हाल के सामने सीटी नर्सरी ट्रेनिंग कालेज में हम लोग ट्रेनिंग करते हैं, ऐसे माहौल में छुट्टी कर स्कूल बंद कर दिया गया तो कहां जाएं हम लोग। उसमें से एक लड़का बोला कि अरे ये तो रविवार को होने वाली स्टडी सर्किल में आती है, छोड़ दो जाने दो इन लोगों को। आगे बढ़े तो यूनियन हाल पर आँसू गैस छोड़ा गया था। उसके चलते चारों ओर धुंआ के नाते अंधेरा जैसा हो गया था। थोड़ी देर बाद पुलिस की गाड़ी दिखी तो मैंने जाकर कहा कि सिटी एस पी वी एन राय से बात करा दीजिए और मैंने सारी स्थिति बताई। उसने बात तो नहीं कराई लेकिन बोला कि इस गेट के अंदर यूनियन हाल के सामने आप लोग बैठ जाइए, माहौल शांत होगा तो आगे जाइएगा। आंसू गैस का धुंआ छंट चुका था। उधर एस एस एल के छत पर लड़के ईंट लिए चिल्ला रहे थे कि पुलिस के संरक्षण में मत जाओ तुम लोग। हम लोग आधा घंटा भीतर बैठे रहे। फिर मैंने पुलिस वालों से बात की कि गाड़ी से आप एस एस एल के सुपरिटेंडेंट के गेट पर छोड़ देंगे तो वहां हम लोग चाहे जितनी देर रह सकते हैं। उस समय वहां के सुपरिटेंडेंट डा. एम पी सिंह थे‌। ( यह संस्मरण लिखते लिखते दुखद सूचना मिली कि डा. एम पी सिंह 15.03.22 को नहीं रहे ) या तो वी एन राय से बात कराइए। पुलिस वाले हम लोगों को एम पी सिंह के यहां छोड़ दिए। एक घंटे बाद सब लोग अपने अपने घर चले गए। इसमें शहनाज़ और नासिरा तो रिक्शा से चौक चली गईं। पुष्पा कटरे में ही रहती थी। आभा वर्मा अकेले सड़क पार करने में भी घबड़ाती थी। उसके घर फोन किया गया, घर से कोई आया तब गई। मैं स्ट्रैची रोड चली गई। जाने के कुछ देर बाद रामजी राय आए। उनके पैर पर पुलिस का डंडा जम के पड़ा था और पैर में गूमड़ निकल आया था। करीब 8.30 बजे वी एन राय की गाड़ी गेट पर आई। पुलिस की गाड़ी देखकर रामजी राय पिछले दरवाजे से पीछे की तरफ निकल गए। गाड़ी बाहर ही खड़ी करके वी एन राय अंदर आकर दरवाज़ा खटखटाए। मैंने दरवाजा खोला तो पूछे रामजी हैं ? मैंने कहा कि नहीं, वो तो नहीं हैं। बोले कहां हैं? आप बताइए उनसे जरूरी काम है। मैंने बोला कि आप पुलिस के ड्रेस में हैं इस समय, आप मित्र नहीं पुलिस वाले हैं आपको नहीं बताऊंगी कि वे कहां हैं। वे बोले कि रात को हास्टल्स में रेड पड़ेगी और अखिलेन्द्र ए एन झा हास्टल में गया है। उन लोगों से कहिए सावधान रहें। तब मैंने इशारे से रामजी राय को बुलाया। फिर उनसे मिलकर वो चले गए।

ट्रेनिंग अपनी गति से चल रही थी। इसमें ढाई से पांच वर्ष के बच्चों को हिन्दी, गणित तथा सामाजिक विषय का ज्ञान अनौपचारिक रूप से देना होता था। प्रैक्टिकल में ज्यादा से ज्यादा बेसमटिरियल से सामान तैयार करना पड़ता था। प्रोजेक्ट तैयार करना होता था। टीचिंग के लिए आए दिन कुछ न कुछ खरीदना ही पड़ता था। मेहनत रहती तो कोई बात नहीं। जैसे जैसे समय बीतता गया, पैसे का इंतजाम भारी पड़ने लगा। यही लगता रामजी राय एक बार भी कह देते की छोड़ दो ट्रेनिंग तो मैं छोड़ देती। लेकिन वो एक बार भी नहीं कहे। जैसे भी हो खर्च खींचा जा रहा था। विज्ञान का एक प्रोजेक्ट माइक्रोस्कोप हमको हरदेव तिवारी जी (जो यूनिवर्सिटी में एकाउण्ट आफिसर और यूनिवर्सीटी के हिंदी विभाग में लेक्चरर मालती तिवारी के पति) बनाकर दिए थे। एक बेसमटिरियल से बने सामान में संध्या भाभी (झुनझुन भइया की पत्नी) ने साइकिल के ट्यूब से बना कुत्ता दी थीं। ट्रेनिंग भी कैसे पूरी होगी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आर्थिक हालत बहुत खराब थी। सामने कलकत्ता बेकरी थी। उस समय 35 पैसे का छोटा और 65 पैसे का बड़ा ब्रेड का पैकेट मिल जाता था। यही बहुत सहारा था हम लोगों का। चाय और ब्रेड पर हफ्तों काट देते हम लोग। 4-5 दिन ऐसे ही बीत चुका था, मैं अभी बरामदे में चाय बना रही थी। मकान मालिक सिंह साहब का किचेन भी पीछे के बरामदे में ही था। उस समय मकान मालिक के यहां खाना बन चुका था। वे लोग खाना अंदर कमरे में खाते थे। कमरे में खाना ले जाने के बाद जब उनका दरवाजा बंद हुआ तो समता बोली पापा दरवाजा बंद हो गया, अब ये लोग खाना खाएंगे न। हम दोनों एक दूसरे को देखने लगे। कोई ज़बाब नहीं दे पाए हम लोग। फिर उसको बहलाए कि हां चलो हम लोग भी दरवाजा बंद करके खाएंगे। इस बीच अंगीठी भी बार बार टूट जा रही थी तो बड़ी अम्मा अंगीठी में मिट्टी लगाने के लिए जियालाल कुम्हार को दिलाईं थीं कि जल्दी न टूटे।

1981 के साल का पहला दिन था। अंगीठी भी नहीं थी और मिट्टी का तेल भी खत्म हो गया था। साइकिल से हम लोग बलरामपुर हाउस अंगीठी लेने जा रहे थे। रास्ते में रामसहाय वाइचांसलर के बंगले के पीछे सुभाष राय रहते थे, उनके गेट तक पहुंचे ही थे कि एक गाड़ी रुकी और हमलोगों को रुकने का इशारा किया। फिर गाड़ी से एक आदमी उतरा और एक ब्रेड तथा एक बंद का पैकेट दिया और बोला कि आपको बहुत बहुत धन्यवाद। रामजी राय बोले धन्यवाद क्यों? उन्होंने बताया कि मैं आपके पास अशोक कप्तान वाले कमरे में आया था। राजापुर में मेरी जमीन थी जिसमें मैं ‘परिवार’ बेकरी खोलना चाहता था। कुछ लोग परेशान कर रहे थे इस संबंध में वी एन राय से बात करना चाहता था। आपके सहयोग से मेरा काम हो गया और संयोगवश आज उसी बेकरी का उद्घाटन था और सामने आप दिख गए। सुबह चाय भी नहीं पिए थे हम लोग। सुभाष के यहां गए वहां चाय और ब्रेड खाए। फिर अंगीठी लेने गए। अंगीठी तो आ गई लेकिन पैसे की व्यवस्था अभी नहीं हो पाई थी। सो रोटी तो बन जा रही थी लेकिन अर्थाभाव में सब्जी नहीं बन रही थी। हफ्ते भर हम लोग नमक, मिर्चा, लहसुन कूटकर उसी से रोटी खाते रहे।

इन सारी कठिनाइयों के बावजूद पार्टी का सेल्टर होने के नाते कामरेड भी आते ही रहते थे। ज्यादातर ईश्वर चंद जी आते थे जिनको सब लोग दादा कहते थे या मास्टर साहब। कभी कभी तो उनको देखकर गुस्सा भी लगती थी कि अब तो हफ्ते भर का बजट गड़बड़ाएगा। लेकिन कोशिश रहती कि जैसे भी हो उन लोगों को कोई दिक्कत न होने पाए। उस समय पार्टी अंडर ग्राउंड थी। देर रात तक धीरे – धीरे दादा और रामजी राय बतियाते थे। कभी कभी आजाद जी, बाबू लाल, रामचेत, दिलीप सिंह और शायद अशोक गुप्ता भी आ जाते थे। मकान मालकिन तो दादा को देखते ही कहतीं कि आ गए दादा, अब रात भर घासीराम सोने नहीं देंगे, भुन भुन बतियाएंगे। कितना भी सुनने की कोशिश करो नहीं सुनाई देता है कि क्या बतिया रहे हैं‌। भुनभुनवा पार्टी के हैं ये लोग। इन दिनों रामजी राय का घासीराम कोतवाल नाटक का रिहर्सल प्रयाग संगीत समिति में चल रहा था। मकान मालकिन रामजी राय का नाम ही घासीराम रख दी थीं।

मैं कालेज जाती और समता अक्सर रामजी राय की साइकिल पर रहती। उसी पर बैठे-बैठे सो भी जाती थी। रामजी राय जहां भी जाते समता को लिए रहते थे। रामजी राय साइकिल से 1-2 बार समता को चौराहे पर गिरा चुके थे। वो कुछ सोचते रहते थे फिर लड़ जाते थे। एक बार तो समता आगे और मैं पीछे बैठी थी, के पी यू सी के सामने वाले यूनिवर्सीटी गेट पर साइकिल लड़ी और हम तीनों गिर गए। उसके बाद समता चौराहा आने से पहले ही चिल्लाने लगती पापा चौराहा आ रहा है, कविता तो नहीं लिख रहे हैं। एक बार रामजी राय समता को गोद में लिए यूनिवर्सीटी चौराहे पर दो तीन लोगों के साथ जा रहे थे। समता गोदी में ही अचानक पीछे सर घुमाकर गर्दन से चिपक गई। थोड़ी देर बाद बोली -पापा केला वाला गया? और फिर सिर आगे कर ली। ऐसे ही बाजार में बच्चों की साइकिल टंगी देखकर लेने के लिए जिद्द करने लगती थी। जैसे तैसे उसको सँभालना पड़ता था। एक दिन तो रोने लगी कि नहीं मुझे साइकिल दिलाओ। मान ही नहीं रही थी। तो रामजी राय ने धीरे से कहा कि समता अभी पैसा नहीं है न बेटा, पैसा हो जाएगा तो दिला देंगे। फिर एकदम चुप हो गई और साइकिल के लिए दुबारा कभी नहीं जिद की। यह सब लिखते हुए भी कलेजा फटा जा रहा है।

इस प्रकार जैसे तैसे ट्रेनिंग का दूसरा साल भी बीत गया। ट्रेनिंग का अंत बहुत बढ़िया रहा। कालेज से 600/- मिला। 400/- वजीफा का और 200/- और काशन मनी का। उससे हमलोग 320/- में तीन साड़ी, समता के लिए दो फ्राक और रामजी राय के लिए दो लुंगी लिए।

(फीचर्ड इमेज में मीना राय की गोद में बेटी समता । फोटो क्रेडिट: मीना राय ।)

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