समकालीन जनमत
पुस्तक

पुस्तक अंश : मार्क्स के आखिरी दिन

( अपने जीवन के आखिरी सालों में मार्क्स ने अपना शोध नये क्षेत्रों में विस्तारित किया- ताजातरीन मानव शास्त्रीय खोजों का अध्ययन किया, पूंजीवाद से पहले के समाजों में स्वामित्व के सामुदायिक रूपों का विश्लेषण किया, रूस के क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन किया तथा भारत, आयरलैंड, अल्जीरिया और मिस्र के औपनिवेशिक शोषण की आलोचना की । 1881 से 1883 के बीच वे यूरोप से बाहर पहली और आखिरी यात्रा पर भी गये। उनके जीवन के इन अंतिम दिनों पर केंद्रित मार्चेलो मुस्तो की किताब  ‘द लॉस्ट एयर ऑफ कार्ल मार्क्स  : एन  इंटेलेक्चुएल बायोग्राफी  ‘ में दो गलत धारणाओं का खंडन हुआ है- कि मार्क्स ने अंतिम दिनों में लिखना बंद कर दिया था और कि वे यूरोप केंद्रित ऐसे आर्थिक चिंतक थे जो वर्ग संघर्ष के अतिरिक्त किसी अन्य चीज पर ध्यान नहीं देते थे। इस किताब के जरिए मार्चेलो मुस्तो ने मार्क्स के इस दौर के काम की नयी प्रासंगिकता खोजी है और अंग्रेजी में अनुपलब्ध उनकी अप्रकाशित या उपेक्षित रचनाओं को उजागर किया है ताकि पाठक यूरोपीय उपनिवेशवाद की मार्क्सी आलोचना को, पश्चिमेतर समाज के बारे में उनके विचारों को और गैर पूंजीवादी देशों में क्रांति की सम्भावना संबंधी सिद्धांतों को समझें । अंतिम दिनों की उनकी पांडुलिपियों, नोटबुकों और पत्रों के जरिए मार्क्स की ऐसी तस्वीर उभरती है जो उनके समकालीन आलोचकों और अनुयायियों द्वारा प्रस्तुत छवि से अलग है । इस समय मार्क्स की लोकप्रियता बढ़ी है इसलिए उनके जीवन और उनकी धारणाओं के मामले में कुछ नयी बातें इसमें हैं। अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी के प्राध्यापक और आलोचक गोपाल प्रधान ने मार्चेलो मुस्तो  की इस किताब का हिंदी अनुवाद कर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। यह पुस्तक आकार बुक्स से छपकर आयी है। समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत है पुस्तक का एक अंश)

रोटी और गुलाब

अक्टूबर 1879 में फ़ेडरेशन आफ़ द सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी आफ़ फ़्रांस की पहली राष्ट्रीय कांग्रेस मार्सेलीज में संपन्न हुई । इसका जन्म एक साल पहले ही फ़्रांसिसी समाजवाद की विभिन्न धाराओं के एक साथ मिलने से हुआ था । पार्टी में बहुमत हासिल करने के बाद जूल्स गुदे ने ऐसा राजनीतिक कार्यक्रम बनाना शुरू किया जिसका इस्तेमाल चुनाव में भी किया जा सके । पाल लाफ़ार्ग के जरिए उन्होंने मार्क्स से इस जरूरी काम को पूरा करने में मदद करने का अनुरोध किया और तीनों की मुलाकात मई 1880 में लंदन में हुई । लिखे जाने के तुरंत बाद यह कार्यक्रम कई फ़्रांसिसी अखबारों में छपा । इसका सबसे प्रामाणिक रूप 30 जून 1880 को जूल्स गुदे द्वारा स्थापित ल’इगालिते नामक अखबार में छपा । उसी साल नवंबर में संपन्न ल हाव्रे कांग्रेस में यह पारित भी हो गया ।

अगले साल एंगेल्स ने एडुआर्ड बर्नस्टाइन को लिखे एक पत्र में इसके लेखन की पृष्ठभूमि को उजागर किया । कार्यक्रम की ‘प्रस्तावना’

“मार्क्स द्वारा मेरे कमरे में लाफ़ार्ग और मेरी मौजूदगी में (गुदे को) लिखवाई गई: मजदूर मुक्त तभी हो सकता है जब वह काम के औजारों का मालिक हो- चाहे वह व्यक्तिगत हो या सामूहिक- आर्थिक बदलावों के चलते मालिकाने का व्यक्तिगत रूप लगातार कम होता जा रहा है इसलिए सामुदायिक आदि ही मालिकाना शेष रहता है । ठोस तर्क के साकार रूप में जनता को सारी बातें संक्षेप में समझा दी गई थीं । ऐसी कोई चीज मैंने शायद ही कभी देखी थी और इस संक्षिप्त रूप में भी वह अद्भुत दस्तावेज था ।”

एंगेल्स ने आगे बताया है कि कुछ ही समय बाद ‘कार्यक्रम के बाकी हिस्से’ पर बात हुई, गुदे के मसौदे में कुछेक बदलाव किए गए, ‘कुछ जोड़ा और कुछ हटाया’ । मार्क्स मजबूती के साथ आर्थिक मामलों के तीसरे विंदु (न्यूनतम मजदूरी के बारे में बेवकूफी) को हटाने की वकालत करते रहे लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला । नवम्बर 1880 में मार्क्स की सबसे बड़ी बेटी जेनी लांग्वे ने अपने पति को लिखे पत्र में अपने पिता और गुदे के बीच की इस बहस का जिक्र किया:

“जहां तक न्यूनतम वेतन के निर्धारण का सवाल है तो तुम्हें यह जानकर मजा आएगा कि पापा ने गुदे से उसे कार्यक्रम से हटवाने के लिए सब कुछ किया, समझाया कि अगर इस बात को अपना लिया जाए तो आर्थिक नियमों के मुताबिक इस तयशुदा न्यूनतम का नतीजा उसके अधिकतम होने में निकलेगा । लेकिन गुदे माने नहीं और कहा कि अगर और कुछ नहीं तो इस मांग से मजदूर वर्ग उनकी पकड़ में रहेगा” ।

आखिरकार मार्क्स ने खुद इस मामले को फ़्रेडरिक जोर्गे को लिखी एक चिट्ठी में उठाया:

‘कानून द्वारा न्यूनतम मजदूरी तय करने जैसी कुछेक बेवकूफियों के अपवाद के अतिरिक्त, जिसे गुदे हमारे विरोध के बावजूद फ़्रांसिसी मजदूरों को प्रदान करना सही समझ रहे थे (मैंने उनसे कहा कि अगर फ़्रांसिसी मजदूर वर्ग इतना बचकाना है कि उसे इस तरह के प्रलोभनों की जरूरत है तो बेहतर है कि कोई कार्यक्रम ही न दिया जाए), इस दस्तावेज के आर्थिक अनुभाग में (कम्युनिस्ट लक्ष्य को कुछेक पंक्तियों में आरम्भ में परिभाषित करने के अलावे) केवल उन्हीं मांगों को शामिल किया गया है जो मजदूर आंदोलन से स्वत:स्फूर्त तौर पर पैदा हुई हैं । फ़्रांसिसी मजदूरों को उनके शाब्दिक घटाटोप से उतारकर जमीन पर ले आना सचमुच बड़ी भारी प्रगति है और इसीलिए इसका विरोध उन सभी बौद्धिक जालसाजों से अपेक्षित है जो ‘बादल एकत्र’ करने के व्यवसाय से जीविका चलाते हैं ।’[1]

700 से कुछ अधिक शब्दों में यह कार्यक्रम मजदूर वर्ग की प्राथमिक मांगों को पेश करता है । इसकी शुरुआत इस मान्यता से होती है कि मजूरी श्रम पर आधारित उत्पादन व्यवस्था में सर्वहारा कभी मुक्त नहीं हो सकता, और कि उनकी मुक्ति उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व हासिल करने से ही होगी । इसके बाद इसमें घोषणा है कि मजदूर वर्ग को किसी भी तरह के भेदभाव- खासकर लिंग या नस्ल से जुड़े भेदभाव- के विरोध में सक्रिय संघर्ष करना होगा और पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की अधीनता को समाप्त करने की मांग उठानी होगी ।

मजदूरों को विकेंद्रित शक्तियों वाली भागीदारी आधारित सरकार का समर्थन करना चाहिए । उन्हें सरकारी कर्जों की मंसूखी और धार्मिक आयाम से विरहित राज्य के लिए लड़ना चाहिए । उन्हें सार्वजनिक खर्च पर सबके लिए शिक्षा के अधिकार को अपनाना चाहिए, सार्वजनिक संपत्ति के निजीकरण का विरोध करना चाहिए और साझा स्वामित्व के सिद्धांत को बुलंद करना चाहिए । इसके साथ ही उन्हें कारखानों का स्व प्रबंधन हासिल करने के लिए गोलबंद होना चाहिए और किसी भी रूप में राजकीय समाजवाद का विरोध करना चाहिए ।

इन लक्ष्यों को साकार करने के लिए जरूरी है कि मजदूर ऐसी स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी के जरिए राजनीतिक रूप से संगठित हों जो अन्य लोकतांत्रिक पार्टियों के साथ होड़ करे और बुर्जुआ पार्टियों के विरुद्ध संघर्ष करे ।

समाजवादी मजदूरों का चुनावी कार्यक्रम

जूल्स गुदे, पाल लाफ़ार्ग, कार्ल मार्क्स

प्रस्तावना

मानकर

कि उत्पादक वर्ग की मुक्ति लिंग या नस्ल आधारित भेदभाव के बिना सभी मनुष्यों की मुक्ति है;

कि उत्पादक केवल तभी मुक्त हो सकते हैं जब उत्पादन के साधन उनके कब्जे में हों;

कि केवल दो रूप हैं जिनके तहत उत्पादन के साधन उनके हो सकते हैं

1 व्यक्तिगत रूप जो आम तौर पर कभी नहीं रहा और औद्योगिक प्रगति के साथ अधिकाधिक समाप्त हो चला है;

2 सामूहिक रूप जिसके भौतिक और बौद्धिक तत्व पूंजीवादी विकास से ही उत्पन्न हो चुके हैं;

मानकर

कि यह सामूहिक अधिग्रहण स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी में संगठित सर्वहारा या मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी कार्यवाही से ही सम्भव है;

कि ऐसे संगठन का निर्माण सर्वहारा के पास उपलब्ध सभी संसाधनों के सहारे करना ही होगा । इन संसाधनों में सार्वभौमिक मताधिकार भी शामिल है जिसे इस प्रकार अब तक धोखे के साधन की भूमिका निभाने वाले उपकरण से बदलकर मुक्ति का उपकरण बना दिया जाएगा;

फ़्रांसिसी समाजवादी मजदूरों ने अपनी कोशिशों का लक्ष्य पूंजीपति वर्ग का आर्थिक और राजनीतिक अपहरण तथा उत्पादन के सभी साधनों को समुदाय को लौटा देना मानते हुए तय किया है कि संगठन और संघर्ष के उपाय के बतौर चुनाव में निम्नांकित तात्कालिक मांगों के साथ उतरा जाए:

(क) राजनीतिक मांग

प्रेस, सभा और संगठन संबंधी सभी कानूनों और सबसे आगे बढ़कर इंटरनेशनल वर्किंग मेन’स एसोसिएशन के विरोध में बने कानून का उन्मूलन । मजदूर वर्ग पर लीव्रे[2] नामक प्रशासनिक नियंत्रण और मालिक के मुकाबले मजदूर की तथा पुरुष के मुकाबले स्त्री की अधीनता स्थापित करने वाली सभी संहिताओं का खात्मा;

1 धार्मिक संस्थाओं के बजट का खात्मा और ‘असंक्राम्य कही जाने वाली चल और अचल वस्तुओं’ (2 अप्रैल 1871 के कम्यून द्वारा अधिसूचित) समेत कारपोरेशनों की समस्त औद्योगिक तथा वाणिज्यिक संपत्ति को जब्त कर राष्ट्र को लौटाना;

2 सार्वजनिक कर्ज की मंसूखी;

3 स्थायी सेना और जनता के आम सैन्यीकरण का खात्मा;

4 प्रशासन और पुलिस पर कम्यून का नियंत्रण

(ख) आर्थिक मांग

1 हफ़्ते में एक दिन आराम या सात दिनों में छह दिन से अधिक काम कराने पर कानूनी प्रतिबंध । बालिगों के लिए काम की अवधि घटाकर कानूनी रूप से आठ घंटे करना । चौदह बरस से कम उम्र के बच्चों से निजी कारखानों में काम कराने की मनाही, चौदह से सोलह बरस के बच्चों के लिए काम की अवधि आठ से घटाकर छह घंटे करना;[3]

2 मजदूर संगठनों द्वारा प्रशिक्षु कामगारों की सुरक्षा का निरीक्षण;

3 मजदूरों के एक सांख्यिकी आयोग द्वारा भोजन की स्थानीय कीमत के अनुरूप प्रत्येक वर्ष निर्धारित न्यूनतम वेतन का भुगतान;

4 फ़्रांसिसी मजदूरों को देय वेतन से कम वेतन पर विदेशी मजदूरों को नियुक्त करने पर कानूनी प्रतिबंध;

5 स्त्री और पुरुष कामगारों को समान काम का समान वेतन;

6 सभी बच्चों को वैज्ञानिक और व्यावहारिक शिक्षा, समाज की ओर से राज्य और कम्यून पर इनके भरण पोषण की जिम्मेदारी;

7 समाज पर वृद्ध और अशक्त लोगों की जिम्मेदारी;

8 मजदूरों की सहकारिता सोसाइटियों और भविष्य निधि सोसाइटियों के प्रशासन में मालिकों के समस्त हस्तक्षेप पर रोक और इन्हें एकमात्र मजदूरों के नियंत्रण में वापस लाया जाए;[4]

9 दुर्घटनाओं के मामलों में नियोक्ता की जिम्मेदारी, जिसके लिए मजदूरों की सुरक्षा के कोश में नियोक्ता की ओर से जमा सिक्योरिटी की गारंटी हो; यह कोश कामगारों की संख्या और संबंधित उद्योग में खतरे की सम्भावना के अनुपात में होगा;

10 विभिन्न कारखानों की विशेष नियमावली बनाने में मजदूरों का हस्तक्षेप होगा; अर्थदंड या मजदूरी के भुगतान पर रोक की शक्ल में मजदूरों को सजा देने का मालिकों का अधिकार खत्म किया जाए (27 अप्रैल 1871 की कम्यून की अधिसूचना);

11 (बैंक, रेल, खान आदि) सार्वजनिक संपत्ति के निजी अधिग्रहण संबंधी समस्त समझौतों का खात्मा, सभी सरकारी कारखानों का संचालन वहां काम करने वाले मजदूरों को सौंपा जाए;

12 सभी परोक्ष करों का उन्मूलन और सभी प्रत्यक्ष करों को तीन हजार फ़्रांक से अधिक आमदनी पर प्रगतिशील आयकर में बदल दिया जाए । सीधे वारिसान के अतिरिक्त किसी और को विरासत सौंपने तथा बीस हजार फ़्रांक से अधिक की समस्त सीधी विरासत पर पाबंदी ।

[1] फ़्रेडरिक जोर्गे को मार्क्स ने 5 नवम्बर 1880 को बताया कि बेवकूफियों में वे सबसे अधिक विरासत के उन्मूलन के बारे में शंकाकुल थे । यह हेनरी द सेंट साइमन (1760-1825) का पुराना प्रस्ताव था जिस पर प्रथम इंटरनेशनल के समय ही मिखाइल बाकुनिन के साथ उनका वाद विवाद हुआ था । मार्क्स के मुताबिक ‘अगर मजदूर वर्ग विरासत का उन्मूलन करने में सक्षम होने की ताकत जुटा लेता है तो वह इतना तकतवर भी होगा कि संपत्तिहरण कर ले । यह अधिक आसान और प्रभावी प्रक्रिया होगी’ ।

[2] लीव्रे एक प्रमाणपत्र होता था जिसमें लिखा होता था कि इस मजदूर पर पुराने नियोक्ता का कोई कर्ज या देनदारी नहीं है । इसके प्रस्तुत किए बिना किसी को काम पर नहीं रखा जाता था । 1890 में जाकर इस प्रथा का खात्मा हुआ ।

[3] इन मांगों को 19वीं सदी के संदर्भ में देखना होगा ।

[4] इन मांगों को उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के संदर्भ में देखना होगा ।

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