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लखनऊ का घंटाघर जहाँ से रोशनी का फव्वारा फूट रहा है

लखनऊ के घंटाघर से लौटा हूं। पर क्या लौट पाया हूं ? यह वह जगह बन गयी जहां से रोशनी का फव्वारा फूट रहा है। उससे मन मस्तिष्क जागृत है। लोगों के आने का सिलसिला जारी है। वह टूट नहीं रहा। औरतें सीधे रस्सी के बनाए घेरे के अंदर प्रवेश कर रही हैं। पुरुष रस्सी के बाहर खड़े हैं। उनका साथ दे रहे हैं। दो रस्सियों का घेरा है। पहली और दूसरी के बीच सिर्फ मीडिया वालों को प्रवेश की इजाजत है। मानवाधिकार कार्यकर्ता संदीप पांडे इसी के बीच बैठे हैं, सूत कातते। उनका चरखा चल रहा है। अंदर घंटाघर के ठीक नीचे मुख्य मंच है। जहां तक नजर जा रही है सिर्फ सिर ही सिर है। हजारों की संख्या है। गिन नहीं सकते सिर्फ आवाज सुन सकते हैं। सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ, इन्हें रिजेक्ट करने की मांग है। ‘हम कागज नहीं दिखायेंगे’ चारों तरफ नारों की गूंज है। पोस्टर बन रहा है।   तिरंगा लहरा रहा है। युवा महिलाओं ने व्यवस्था का जिम्मा संभाल रखा है। अनुशासन बना रहे उनकी पूरी कोशिश है।
घंटाघर लखनऊ का शाहीन बाग है। शाहीन बाग प्रतीक है औरतों के जागरण का। यह प्रतीक है अपनी बात, अपनी पीड़ा और अपना दुख-दर्द बांटने और कहने और पहुंचाने का। जो बातें कही जा रही हैं वह उन तक पहुंच रही है जो समान धर्मा है और महसूस कर रहे हैं। यही कारण है कि शाहीन बाग अकेला नहीं है। उसने मशाल जलाई और रोशनी की। देश में कई शाहीन बाग खड़े हो गए, खड़े होते जा रहे हैं। पर आवाज उन तक नहीं पहुंच रही जो सत्ता के गुरूर में हैं। वे डंके पर चोट दे रहे हैं। डंका क्या है? यह तो अपनी जनता की पीठ है जिस पर लगातार चोट की जा रही है।
घंटाघर के ऊपर घड़ी है, समय घड़ी। नीचे बड़ा बैनर है जिस पर लिखा है -लोकतंत्र व संविधान के वास्ते , गांधी और अंबेडकर के रास्ते। याद आती है कविता की पंक्तियां – वे दर्ज होंगे इतिहास में/पर मिलेंगे हमेशा वर्तमान में/लड़ते हुए/और यह कहते हुए/स्वप्न अभी अधूरा है। लगता है गांधी, अंबेडकर, भगत सिंह, अशफाक, बिस्मिल….. सब हमारे वर्तमान में अवतरित हो गये है। समय घड़ी सब देख रही है। इसने इतिहास को दर्ज किया है और वर्तमान पर भी उसकी नजर है। इसके सीने में अट्ठारह सौ सत्तावन है तो काकोरी भी।
मुझे बाबा नागार्जुन की कविता ‘भोजपुर’ याद आ रही है ‘भगत सिंह ने नया नया अवतार लिया है/अरे यहीं पर/अरे यहीं पर/जन्म ले रहे/आजाद चंद्रशेखर भैया भी…..’। मुझे गाती हुई  औरतें मिलती है – ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’। चारो तरफ है आजादी का गीत – ‘भारत से उठे आजादी/दुनिया में गूंजे अजादी’। हमारे हुक्मरान हैं जिन्हें आजादी का यह गीत शूल की तरह चुभता है। वे समझना नहीं चाहते इस ‘आजादी’ के मायने। 26 नवंबर 1949 को डॉ अंबेडकर ने जिस सामाजिक जनतंत्र, आजादी, बराबरी व इंसाफ की बात की थी, आजादी के इस गीत के तार उससे जुड़े है।
औरतों के इस हुजूम को देखें तो लगता है फूलों से खिला हरा भरा बाग है । हर उम्र की हैं। कुछ पर्दे में है तों कुछ आंचल को परचम बनाती। बात करो तो बताती हैं कि पहली बार इस तरह किसी धरने- प्रदर्शन में आयी हैं। इक्का-दुक्का तो ऐसी भी मिली कि चल नहीं सकती पर अपनों के सहारे चलते हुए पहुंची हैं। इनके अन्दर क्षोभ और गुस्सा है पर बाहर से शान्त हैं। वे उत्तेजित हैं पर उग्र नहीं। सुप्रीम कोर्ट से उन्हें उम्मीद थी। थोड़ी निराशा हुई पर हिम्मत नहीं हारी। वे कहती हैं अब जो भी हो कदम बाहर आ गये हैं। वे पीछेे हटने वाले नहीं। उनके कदमों के निशां जरूर दर्ज होंगे।

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