समकालीन जनमत
फोटो-आमिर अज़ीज़
ज़ेर-ए-बहस

सरकार संविधान विरोधी नहीं तो जनता कैसे ?

फीस बढ़ोत्तरी, कानून-व्यवस्था में बेतहाशा गिरावट, स्वास्थ्य सेवाओं का लगातार मंहगा होते जाना, किसानों बेरोज़गारों की बढ़ती आत्महत्याएं, पहले गाय और अब देशभक्ति के नाम पर लिंचिंग के बाद नागरिकता पर आसन्न ख़तरे ! यदि यह सब संविधान विरोधी नहीं हैं तो उनके विरुद्ध उठने वाली आवाज़ें संविधान विरोधी कैसे हो सकती हैं ? यह सम्भव है क्या कि चुनी हुई सरकार तो संविधान सम्मत हो पर उसे चुनने वाली जनता संविधान विरोधी हो ? यदि ये कानून अल्पसंख्यक विरोधी नहीं हैं तो उसके ख़िलाफ़ चल रहा धरना-प्रदर्शन भी सिर्फ़ अल्पसंख्यकों तक सीमित नहीं है ।
सिर्फ़ बुर्क़ा तलाशने वालों और बुर्क़े में फ़क़त एक दबा-सिकुड़ा जिस्म,  एक ‘मादा’ तलाशने वालों के लिए यह अजब-ग़ज़ब है कि बिना किसी मस्जिद से ख़ुत्बा, फ़तवा, फ़रमान ज़ारी हुए, बिना किसी मठाधीश के मंत्र फूंके, बिना किसी राजनीतिक दल द्वारा गोलबंद किए,  हाड़ कंपा देने वाली ठंड में आकाश तले, ये इतने सारे लोग हाथों में तिरंगा, संविधान बचाओ की तख़्ती और अम्बेडकर का चित्र  लिए चौबीस घंटों के सत्यग्रही के रूप में शहर दर शहर कैसे जमा हो रहे हैं । धमकाने, बदनाम करने, अनसुना करने, रजाई कम्बल ओठना छीन लेने, शौचालय में ताला लगा देने, कारोबार चौपट हो जाने के बावज़ूद बिना किसी हिंसा के यह कारवां लगातार चलता-बढ़ता जा रहा है । महात्मा गाँधी यूं ही नही अमर हैं । गांधीवाद अहिंसक सत्याग्रह है और संवैधानिक संवाद का रास्ता बनाता रहा है । आगे भी जब-जब आवाज़ और आज़ादी पर ख़तरे आएंगे, गांधी ही रास्ता दिखायेंगे ।
2019 में पहले से भी मजबूत बहुमत में आयी भाजपा सरकार ने पिछले पांच सालों के भीतर अपने ‘हिंदू भारत’ के घोषणा-पत्र के भव्य लोकार्पण की तैयारी कर ली थी और संविधान की शपथ लेते ही मुंह दिखाई की रस्म पूरी करते हुए कश्मीर की वादियों में गोले बारूद के साथ खो गई । तीन तलाक तो हो ही चुका था । सर्वोच्च न्यायालय से अयोध्या-पंचायत भी भाजपा एजेंडे के अनुसार हो गयी । मगर राष्ट्रभक्ति का स्वाद कुछ फीका-फीका लग रहा था । सब कुछ शांतिपूर्वक के लबादे में बलपूर्वक होते जाना मज़ा नहीं दे रहा था । गरियाते किसे ? पाकिस्तानी कहने को मुंह खुजला रहा था । देशभक्त राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त पुलिस अधिकारी देविंदर सिंह का आतंकी चेहरा ‘गेम ख़राब’  कर रहा था । इसलिए देश की बेरोज़गार शांति में एन आर.सी, एन. पी. आर और सी.ए.ए का चटक मसाला डाला गया । यहां तक सब कुछ प्राइवेट सेक्टर द्वारा इंजीनियर्ड था पर उसके बाद की इंजीनियरिंग पब्लिक सेक्टर में चली गयी । पूर्वोत्तर राज्य, जामिया इस्लामिया, अलीगढ़, जे.एन.यू,  शाहीन बाग और फिर पूरे मुल्क में महसूस होने लगा कि फ़क़ीर पल्थीमार है और देश की नागरिकता पर साझा ख़तरा मंडरा रहा है । नागरिकता को हिंदू-मुस्लिम में बांटने की फ़ितरत बेनक़ाब होती गयी ।
असम और शाहीन बाग के गांधीवाद ने सरकारी नेताओं की गुंडई को उजागर कर दिया । संविधान की क़सम खाकर गद्दीनशीन हुए लोगों ने लफंगों की भाषा में बर्ताव शुरू कर दिया । अब किसी को दोहराने-दिखाने की भी ज़रूरत नहीं रही कि देश में अघोषित तानाशाही आ चुकी है ।
गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पुरुषों के नेतृत्व में महिलाओं को धरना-प्रदर्शन से जोड़ा था । पहली बार देश की पर्दानशीन औरतें सामूहिक रूप से सड़कों पर उतरी थीं । एक दशक बाद आज गांधीवाद का अगला संस्करण यह है कि महिलाएं बिना किसी गांधी के बुलाए , सड़कों पर उतर आयी हैं । पुरुषों का ही नहीं , देशव्यापी प्रतिरोध का नेतृत्व कर रही हैं । आपने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गोद में बच्चा लिए नारा लगाती महिला का चित्र नहीं देखा होगा । अब देख लीजिए । दो डिग्री सेंटीग्रेट तापमान में खुले आकाश के नीचे अपने बच्चे के साथ, उसकी बूढ़ी दादी को भी सम्हाले, आंदोलन-प्रदर्शन करती महिलाएं ! सलाम बनता है इन्हें । सलाम से अगर दिल जलने की बू आ रही हो तो प्रणाम कर लीजिए इस असली भारत माता को । ये माताएं बहनें ही लोकतंत्र का और देश का मुस्तकबिल हैं । आज गांधी होते तो उनमें जीने की ललक बढ़ गई होती । ये वे ही औरतें हैं जिन्हें छः महीने पहले ‘हमारी मुस्लिम बहनें’ कहते-कहते सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का मुंह खिया रहा था । आज उन्हें ही मातृशक्ति के ये पुजारी पांच सौ रूपये में धरने का धंधा करने वाली बता रहे हैं । यह है आपका ज़ेह्न , आपकी स्त्री-संवेदना, आपका पिलपिला ईमान । राष्ट्रवाद की रिसेपी में यह सब आता है कि नहीं ?
             आख़िर ऐसा सम्भव कैसे हो रहा है ? हर मसले की जड़ में पाकिस्तान पर लगाया जाने वाला आरोप तो अभी तक लगा ही नहीं । विपक्ष गायब है । फिर ? इसके दो कारण समझ में आ रहे हैं । एक तो यह कि जो मध्यवर्ग अब तक केवल हिंदुओं में प्रभावी था, वह मुसलमानों में भी प्रभावी हो गया है और उसके विचार, उसके सपने हिंदू मध्यवर्ग के साथ हमराह हैं । उन्हें लग रहा है कि विकास का झुनझुना थमा कर उन्हें राष्ट्रवाद के नाम पर ठगा जा रहा है । इस मध्यवर्ग में बहुत बड़ी संख्या पढ़ी-लिखी महिलाओं की भी है । दूसरी बात यह कि ख़ासतौर से महिलाओं को न केवल अपना बल्कि अपने बच्चों का भविष्य ख़तरे में नज़र आ रहा है और उन्हें अब पुरुषों के हाथों में अपना नेतृत्व संदेहास्पद लग रहा है । पार्टियों के हाथों में भी वे मात्र वोट तक सीमित नहीं रहने देने का संकेत दे रही हैं । छात्रों, नौजवानों, बेरोज़गारों और अब नागरिकता गंवाने को सम्भाव्य अपनी संततियों की चिंता मांएं नहीं करेंगी तो कौन करेगा ?
यह आंदोलन साबित कर रहा है कि जब-जब सत्ता बेलगाम होती है उस पर लगाम कसने का काम जनता ही करती है । लगातार झूठ और वादाख़िलाफ़ी, मत-भेद को मन-भेद तक ले जाने की मंशा ही इनका विकास वाद है । पार्टी का विकास ही सबका विकास है । पार्टी कार्यकर्ता का विश्वास ही सबका विश्वास है ।बहुत प्यारा रंग था भगवा । तिरंगे पर चढ़ने को तैयार । मगर एक ही लोकसभा टर्म के बाद भगई में बदल गया । गोडसे का महिमागान और गांधी को चश्मे तक सीमित करने का अभियान मंहगा पड़ना ही था । ऊपर से अम्बेडकर की दूकान ! अरे गीता-क़ुरान तक का तो व्यवसाय ठीक था पर संविधान की तिजारत ! मनुवाद की पूंजी ही डूबने के कगार पर है । सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का असर यह है कि लोकतंत्र ही डूब रहा है । ये शायद चाहते भी यही हों । डेमोक्रेटिक इंडेक्स दस पायदान गिर चुका है । साढ़े पांच सालों में भारतीय लोकतंत्र विश्व में पहले से लुढ़क कर इंक्यावनवे नम्बर पर चला गया है । काशीवासी विश्वनाथ ही जाने कि अगले साढ़े चार सालों में हम कितना लुढ़केंगे ।
    अम्बेडकर के संविधान की बंधुत्व भावना को गोडसे की हिंदुत्व भावना में बदलने का हश्र और क्या होना है ?
संसद से सड़क तक की लड़ाई भले ही अभी कमज़ोर दिख रही हो, सड़क से सड़क तक का संघर्ष भरपूर दिख रहा है । इस आलेख का समापन अपनी ही एक टिप्पणी से करना चाहूंगा जो मैने पिछले 15 मई को अपनी फेसबुक दीवार पर लिखी थी ।
” क्या वाक़ई 23 मई के बाद देश में सब कुछ लोकतान्त्रिक ढंग से ही चलेगा ? ……23 मई के बाद संसद में जो होगा , लोकतंत्र उससे नहीं बचेगा । लोकतंत्र सिर्फ़ संसद और सरकार नहीं होता । 23 मई के बाद जो लोग संसद से सड़क तक उतरने का ख़तरा मोल लेंगे वे ही लोकतंत्र बचा पाएंगे । सत्ता-साधना में लगी कितनी पार्टियां आपको इसके लिए तैयार दिखती हैं ?” ( ‘संसद से सड़क तक उतरने का ख़तरा कौन मोल लेगा’ : देवेन्द्र आर्य : प्रकाशित ‘गांव के लोग’ : मई-जून 2019)
क्या वाक़ई प्रचंड बहुमत पाए मोदी के लिए 2019-24 की अवधि शेर की सवारी साबित होगी ?
( लेखक वरिष्ठ कवि हैं.सम्पर्क –आशावरी’, ए-127 , आवास विकास कॉलोनी , शाहपुर, गोरखपुर -273006,मोबाइल : 7318323162)

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