समकालीन जनमत
जनमत

जिन शहरों ने प्रवासी श्रमिकों से आँखें फेर ली थीं वही उनकी राह में आँखे बिछाये बैठे हैं

( अजीत महाले और के.वी. आदित्य भारद्वाज की यह रिपोर्ट ‘ द हिन्दू ‘ में प्रकाशित हुई है. समकालीन जनमत के पाठकों के लिए इसका हिंदी अनुवाद दिनेश अस्थाना ने उपलब्ध कराया है. )

 नोवेल कोरोना वायरस के विस्फोट और नतीजे में उसके प्रसार को रोकने के लिये सरकार द्वारा लगायी गयी पूर्णबन्दी के पहले तक भारत के गार्डेन सिटी (बंगलूरु) में प्रवासी मजदूर लोगों की नज़रों से ओझल थे। इस तेजी से विकसित होते शहर के घरों, बहुमंजिली इमारतों, कार्यस्थलों और दूसरी इमारतों के बनाने और उनमें काम करनेवाले मजदूर खुद को छुपाये हुये थे। वे टीन-टपरे जैसी संरचनाओं में रहते थे; इन बक्सों को बिल्डर इनके घर कहते थे।

सलमान रश्दी के ‘सैटानिक वर्सेज़’ में लन्दन के भारतीय समाज की तरह बंगलुरु के प्रवासी मजदूरों का यह शहर भी ‘‘सिटी विज़िबल बट अन्सीन’’ था। लेकिन पूर्णबन्दी लागू होते ही जब सारी आर्थिक गतिविधियाँ ठप हो गयीं तो अचानक सड़कों पर इन मजदूरों का सैलाब आ गया, उनकी एक ही माँग थी – ‘हमें घर जाने दो।’ कहीं भी आने-जाने का कोई साधन नहीं था, रोजगार खत्म हो गये थे, भूख हावी थी, तो अचानक लोगों ने वह करने की ठान ली जो सपने में भी सोचा नहीं जा सकता था- उत्तर-प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड में अपने गाँवों और कस्बों तक पैदल चले जायेंगे। अपनी आँखों के सामने यह मानवीय संकट देखते हुये मजदूरों को उनके घर तक पहुँचाने के लिये कर्नाटक सरकार ने श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की व्यवस्था की।

मई की शुरुआत से लेकर 24 जून तक लगभग 4.6 लाख प्रवासी मजदूरों को 284 श्रमिक स्पेश्ल ट्रेनों द्वारा कर्नाटक से रवाना किया गया.  इनमें अधिकांश बंगलूरु में काम करनेवाले थे। (इन आंकड़ों में उन मजदूरों की गिनती नहीं है जो फिर भी अपने जुगाड़ से या पैदल चले गये थे।)

बंगलूरु से पूर्णबन्दी हटा ली गयी है लेकिन बड़ी संख्या में मजदूर जा चुके हैं, शहर अपंग हो गया है। पूर्णबन्दी के दौरान अपार्टमेंट्स और रिहायिशी कालोनियों में घरेलू कामगारों को आने से मना कर दिया गया था। कुछ परिवारों ने अपने घरेलू कामगारों को उनका मासिक वेतन भी नहीं दिया था। अब, महामारी के जाने के आसार तो हैं नहीं, तो उनके लिये दरवाजे खोल दिये गये हैं पर आहिस्ता-आहिस्ता। बन्द- फाटक के भीतर के समुदायों के व्हाट्सएप्प  समूहों में घरेलू कामगारों की जरूरत के सन्देश भरे पड़े हैं।

एक अपार्टमेंट में रहनेवाली सपना गौड़ा कहती हैं, ‘‘हमारी बाई अपने घर पश्चिम बंगाल चली गयी है। वह लौटेगी या नहीं, क्या पता। अबतक कोई नई बाई भी नहीं मिली है।’’

असंगठित क्षेत्र में काम करनेवाली बंगलूरु आधारित एक संस्था ‘लेबरनेट’ की कार्यकारी अधिकारी गायत्री वासुदेवन बताती हैं, ‘‘पाबंदियों में थोड़ी ढील मिलते ही इस तरह के अनुरोधों की बाढ़ आ गयी है। हमें रोजाना कुशल और अकुशल दोनों तरह के कम से कम 1000 मजदूरों की माँग मिलती है। इसके पहले कभी भी नियोक्ताओं ने हमसे इस तरह सम्पर्क नहीं किया था।’’

पिछले कुछ दिनों में ‘लेबरनेट’ से जिस तरह सम्पर्क किया गया है उससे मजदूरों की कमी की एक झलक मिल जाती है। वासुदेवन ने आगे बताया कि ‘‘एक बेकरीवाले ने ओवन चलाने के लिये चार लोगों की माँग की है। इस शहर की बेकरियों में ओवेन चलानेवाले अधिकतर तमिलनाडु के है।

ए0पी0एम0सी0 (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) और शहर के दूसरे गोदामों में पल्लेदारों की भीषण कमी हो गयी है। अगर आप एक गीज़र खरीदते हैं तो उसे लगाने में एक हफ्ता लग जायेगा क्योंकि बिजली-मिस्त्री का मिलना बहुत मुश्किल है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि हम प्रवासी मजदूरों पर कितने निर्भर हैं।’’

चुभन का एहसास

इसकी चुभन सिर्फ वहाँ के निवासी ही नहीं बल्कि छोटे-बड़े उद्योग भी महसूस कर रहे हैं। इस संकट ने ढाँचागत परियोजनाओं जैसे केम्पेगौड़ा अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के दूसरे टर्मिनल का निर्माण, सड़क का काम और होटल-रेस्तरां उद्योग आदि पर भी अच्छा-खासा असर डाला है। कर्नाटक प्रदेश होटल एण्ड रेस्तरां संगठन के अध्यक्ष पी0 चन्द्रशेखर हेब्बार ने बताया कि, ‘‘शहर से लगभग 40 प्रतिशत मजदूर जा चुके हैं। इससे होटल उद्योग अपंग हो गया है।’’ जहाँ निर्माण-स्थलों पर काम शुरू हो चुका है वहीं उन्हें बहुत थोड़े से कर्मचारियों से काम चलाना पड़ रहा है। दूसरे शहरों का भी यही हाल है।

भारत में अभियांत्रिकी एवं निर्माण कार्यों में प्रमुख लार्सन एण्ड ट्यूब्रो का कहना है कि उसके आधे, लगभग एक लाख से अधिक मजदूर अपने कार्यस्थलों से जा चुके हैं, इसलिये उन्हें मजदूरों की भयानक कमी का सामना करना पड़ रहा है। लार्सन एण्ड ट्यूब्रो के प्रबन्ध निदेशक एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी एस0एन0 सुब्रह्मणियन ने ‘द हिन्दू’ से पहले कहा था कि, ‘‘कोविड-19 के पहले हमारे पास 2.25 लाख मजदूर थे; इस समय केवल 1.2 लाख बचे हैं। काम को फिर से शुरू करने के लिये हमें एक लाख मजदूरों की जरूरत है।’’ पूरे देश में लार्सन एण्ड ट्यूब्रो के एक हजार से अधिक कार्यस्थलों पर मजदूरों के लौट आने की प्रतीक्षा है।

पूर्णबन्दी में जीवन

कर्नाटक से अपने घरों तक का प्रवासी मजदूरों का सफ़र एक लम्बा एपीसोड था जिसमें अनिश्चितता, अव्यवस्था और विभ्रांति का बोलबाला रहा। न तो सरकार और न ही बिल्डर चाहते थे कि मजदूर अपने घरों को वापस जायें। मई की शुरुआत में मुख्यमंत्री के नेतृत्व में कई मंत्रियों ने मजदूरों से राज्य में ही रुक जाने का अनुरोध किया और उनको आश्वासन भी देते रहे कि जैसे ही आर्थिक गतिविधियाँ चालू होंगी, उन्हें काम मिल जायेगा। लेकिन नाउम्मीद मजदूर लौट जाने पर आमादा थे। इस पूर्णबन्दी में उन्हें जीवन के बहुत की कटु अनुभवों से गुज़रना पड़ा। कइयों का कहना था कि उन्हें वादे के मुताबिक़ भोजन या राशन नहीं मिल रहा था। दक्षिण-पूर्वी बंगलूरु के एक बड़े अपार्टमेंट की साइट पर काम करनेवाले रवीन्द्र राम ने एक 31-मंजिली इमारत की ओर संकेत करते हुये बताया कि उसने इसमें काम किया है। मई के पहले सप्ताह में उसने ‘द हिन्दू’ को बताया था कि ‘‘हमने बहुत सारे मकान बनाये हैं। अब क्या हम अपने घर नहीं जा सकते?’’

6 मई को कर्नाटक सरकार ने उन सभी श्रमिक स्पेशल ट्रेनों को निरस्त करने का फैसला किया जिन से प्रवासी मजदूरों को वापस उनके घरों तक पहुँचाया जाना था। ऐसा कन्फेडरेशन आफ रीयल स्टेट डेवलपर्स एसोसियेशन के बंगलूरु चैप्टर की बैठक के बाद किया गया था, इसकी जानकारी हाने पर मजदूर संगठनों, कर्मचारी संघों और दूसरे कार्यकर्ताओं में रोष भर गया। सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा और 8 मई से इन ट्रेन को फिर से चलाया गया।

हजारों लोग इन ट्रेन में बैठकर चल दिये। लेकिन कुछ दूसरे लोगों ने ट्रेन सेवा को लेकर सरकार के फैसले के बदलने का इन्तज़ार नहीं किया और उ0प्र0, बिहार, झारखंड और दूसरे राज्यों में स्थित अपने घरों के हजारों किमी के सफ़र पर पैदल ही रवाना हो गये। अपनी जेबों में एक हजार रुपये से भी कम लेकर उन्होंने अपना सफ़र शुरू किया, हाइवे पर कई जगह ट्रक वालों ने उनकी मदद भी की। उ0प्र0 में अपने घर पैदल जा रहे अनीस खाँ ने 8 मई को बताया था, ‘‘हम किसी भी कीमत पर अपने घर पहुँचना चाहते हैं। हम तो इस शहर से भर पाये’’ बहुत से मजदूरों को उनके मकान मालिकों ने किराया न दे पाने पर जबरदस्ती निकाल दिया था, उन्होंने बताया कि पूर्णबन्दी ने उन्हें बेघर कर दिया। सरकार ने दुबारा ट्रेन चलवा दिया फिर भी बहुतों ने पैदल जाना पसन्द किया क्योंकि ट्रेन  में सीट पाने के लिये सेवासिन्धु पोर्टल पर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करवाने, उसके कन्फर्मेशन का एस0एम0एस0 पाने का झंझट था, यह सब अंग्रेजी में था इसलिये जिनके लिये इसे बनाया गया था उन्हीं को रास नहीं आ रहा था।

प्रवासियों को ट्रेनों में चढ़ाने के लिये पुलिस अधिकारियों को ही नोडल अधिकारी बनाया गया था. इसलिये हजारों लोगों ने कई कई दिनों तक थानों का घेराव किया। इस समय शहर के नागरिक संगठन एक ट्रांज़िट सेंटर चला रहे हैं जहाँ जो लोग अपने घर लौटना चाहते हैं उन्हें अपना रजिस्ट्रेशन करवा कर वहीं तबतक इन्तज़ार करना पड़ता है जबतक कि उन्हें अपने घर जाने वाली गाड़ी न मिल जाय। अब प्रतिदिन अपने घर वापस जानेवालों की संख्या घटकर कुछ सौ तक आ गयी है। पहले के उलट इस समय सरकार उनकी यात्रा का खर्च खुद उठा रही है।

वापसी का सवाल

पूर्णबन्दी उठा ली गयी है और आर्थिक गतिविधियाँ आहिस्ता-आहिस्ता और एहतियात से दुबारा चालू हो रही हैं, कन्फेडरेशन ऑफ़ रीयल स्टेट डेवलपर्स एसोसियेशन अपना काम शुरू करने के लिये उ0प्र0 और बिहार से मजदूरों को वापस बंगलूरु लाने के लिये चार्टर्ड ट्रेन चलाने की सोच रही है। इस एसोसियेशन के बंगलूरु के अध्यक्ष सुरेश हरि का कहना है कि, ‘‘हमें पक्का यकीन है कि वे वापस आ जायेेंगे। हम उनको वापस लाने के लिये चार्टर्ड ट्रेन चलाने को तैयार हैं।’’ लेकिन क्या मजदूर वापस आयेंगे ?

अधिकतर ने तो वापस न आने की कसम खा रखी है, लेकिन वे ऐसा कर नहीं सकते। कर्नाटक के उत्तरी भागों से मजदूरों ने वापस बंगलूरु लौटना शुरू भी कर दिया है क्योंकि उन्हें काम देने का वादा किया गया है। उद्योग जगत उनकी वापसी को लेकर आशावादी है, कम से कम मानसून की बुवाई के बाद या कोविड-19 के ग्राफ के चपटा होने के बाद। इस बीच मजदूर संगठनों को आशा है कि इस संकट से सरकार, उद्योग और नागरिकों की आँखें खुल जायेंगी। वासुदेवन का कहना है कि ‘‘हम इसे मजदूरों के बेहतर जीवन और बेहतर सेवा शर्तें पाने के सुअवसर के रूप में देख रहे हैं। जिस संकट का सामना हमें आज करना पड़ रहा है वह इस कारण है कि यह क्षेत्र अनौपचारिक उप-ठेका पद्धति पर काम करता है। कम से कम इस समय तो नियोक्ता मजबूरी में यह सोच रहा है कि मजदूर उसकी बात मान ले। मैं समझता हूँ कि यह अस्थायी नहीं है और यह व्यवहारगत परिवर्तन में बदल जायेगा।’’

मुम्बई से पलायन

मजदूरों के घर वापस जाने की लालसा और उद्योग जगत की उनके लौट आने की प्रत्याशा मुम्बई में भी कुछ भिन्न नहीं है। पिछले माह के आखीर में जयराम रावत और 30 अन्य तपती दुपहरी में मुम्बई के हाजी अली के पास तट के किनारे-किनारे पैदल चले जा रहे थे। रावत ने बताया, ‘‘मजबूरी है इसलिये जा रहे हैं। जबतक मैं मुम्बई में रहा, मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि ऐसे हालात में और इस तरह एक दिन मुझे यह शहर छोड़ना पड़ेगा।’’ उसका और उसके साथियों का घर ओडिशा के गंजाम जिले में है। वे इमारतों का हुलिया बदलने का काम करते थे।

पेशे से पेन्टर रावत ने बताया कि जिस समय पूर्णबन्दी घोषित की गयी उस समय वे लोग केम्प्स काॅर्नर के पास एक बहुमंजिले अपार्टमेंट पर काम कर रहे थे। वर्ली में ऊँची-ऊँची इमारतों से घिरे बस-स्टाॅप पर जब वे लोग ठहरे थे तो रावत ने बताया कि ‘‘पिछले महीने (अप्रैल में) ठेकेदार ने हमलोगों को 2000-2000 रुपये दिये थे ताकि हम कुछ जरूरी सामान खरीद सकें। अब तो वे रुपये भी खत्म हो गये हैं।’’ कुछ थोड़ी सी गाड़ियाँ जो ओडिशा की ओर जा रही थीं उनका इन्तज़ार करते हुये रावत और उनके साथी थक गये तो उन्होंने ठाणे तक जानेवाले एक ट्रक की मदद ली।

ठाणे से आगे जाने के लिये जब कोई साधन नहीं मिला तो उन्होंने पैदल ही चलने का फैसला कर लिया। नेहरू तारामंडल के सामने की गगनचुम्बी इमारत की ओर संकेत करते हुये उसने बताया कि, ‘‘ऐसी ऊँची- ऊँची कई इमारतों में मैंने काम किया है।’’ मुम्बई में लगभग एक दशक से काम कर रहे एक ठेकेदार और सुपरवाइज़र सुनील राना ने बताया कि रावत जैसे कई मजदूरों के शहर छोड़कर चले जाने से निर्माण-क्षेत्र को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। उसने बताया कि, ‘‘नयी परियोजनाओं के शुरू होने के आसार बहुत ही कम हैं।’’ राना ने भी अपने घर झारखंड जाने के लिये मुम्बई छोड़ दिया था। उसने बताया कि, ‘‘कोई काम ही नहीं था। सबकुछ ठहर गया था। वहाँ रुकने का कोई मतलब नहीं था। जब काम दुबारा चालू होगा तो मुझे भी वापस आना पड़ेगा। यहाँ हमारे लिये कुछ भी नहीं है।’’

काम के मौसमी स्वभाव के चलते इस पूर्णबन्दी में खासतौर पर निर्माण-क्षेत्र के मजदूरों का बहुत नुकसान हुआ है। मानसून आने पर शहर मंे सभी निर्माण-कार्य ठप पड़ जाते हैं। बरसात के चार महीनों में कोई निर्माण-कार्य हो ही नहीं सकता इसलिये बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और उ0प्र0 के मजदूर वापस अपने घर आ जाते हैं। आमतौर पर ये मजदूर दीवाली के बाद वापस आते हैं और अगले साल की मई तक काम करते हैं। लगभग दो दशकों से निर्माण-क्षेत्र में काम करनेवाले गोपाल दास बताते हैं, ‘‘इस पूर्णबन्दी में हमारे पूरे दो महीने का नुकसान हुआ है। हमारे ठेकेदारों ने भी अपने घर वापस जाना शुरू कर दिया क्योंकि उनकी भी आमदनी बन्द हो गयी थी।’’

ट्रेनों का इन्तज़ार करते हुये मजदूर और भी परेशान हो गये थे क्योंकि निकट भविष्य में आमदनी की कोई गुंजायश नहीं बची थी और न ही श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में उन्हें जगह मिल पा रही थी। बिहार के एक प्रवासी मजदूर नसीर हक़ की गाड़ी जब मध्यप्रदेश से गुज़र रही थी तो उन्होंने फोन पर बताया कि, ‘‘6 लगातार दिन मैं छत्रपति शिवाजी टर्मिनस इस उम्मीद में आता रहा कि आज गाड़ी मिल जायेगी। आखीरकार मैं कामयाब रहा।’’

जब नसीर वहाँ से चले उस समय वह चर्चगेट में एक इमारत की मरम्मत कर रहे थे, उन्होंने बताया कि उनका सारा सामान निर्माण-स्थल पर ही पड़ा है। उनका कहना था कि, ‘‘मुझे घर जाना है, सब कुछ ठीक-ठाक हो जाने पर दुबारा लौटूँगा।’’

राना को लगता है कि निर्माण-क्षेत्र में भी सबसे ज्यादा मार इमारत के बाहरी कामों पर पड़ी है। उसने बताया कि अन्दर की बनिस्बत बाहर के काम में ज्यादे मजदूरों की जरूरत होती है और मानसून के दौरान यह काम नहीं किया जा सकता। उसका कहना है कि, ‘‘बरसात में भी अन्दर का काम जारी रह सकता है परन्तु उसके लिये भी मजदूरों का जुगाड़ करना एक चुनौती है। लोग वापस तभी आयेंगे जब उन्हें यह लगेगा कि शहर में सब कुछ पटरी पर आ गया है। कोविड-19 का डर गाँवों में भी है। मेरी तरह बहुत सारे लोगों को घर वापस आने पर सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा है।’’

अधिकतर मजदूरों का कहना है कि उनके गाँव में भी उनके लिये कुछ नहीं है। आर्थिक गतिविधियाँ पटरी पर लौट आयें तो बेहतरी की उम्मीद में वे फिर वापस आयेंगे। रावत ने बताया कि ‘‘मजबूरी’’ सबके लिये है। उसका कहना है कि, ‘‘हमें पता है कि गाँवों में हमारे लिये कोई काम नहीं है। लेकिन कम से कम हम अपने परिवार में तो रहेंगे और संक्रमण से बचे भी रहेंगे।’’ यह पूछे जाने पर कि जिन ऊँची-ऊँची इमारतों पर आप लोग काम कर रहे थे उनके निवासियों से आप लोगों को कोई सहायता मिली, रावत हँस पड़े। उन्होंने कहा कि, ‘‘इस देश में गरीबों के बारे में कौन सोचता है?’’

प्रवासी मजदूरों का पलायन मई के अन्त में उस समय चोटी पर पहुँच गया जब श्रमिक स्पेशल गाड़ियों को लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और केन्द्रीय रेलमंत्री पीयूष गोयल में तू-तू मैं-मैं हो रही थी। देश के विभिन्न भागों, खासतौर पर बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से 25 और 26 मई को सेन्ट्रल रेलवे ने सबसे ज्यादा श्रमिकों की ढुलाई की, उन दिनों 75 स्पेशल गाड़ियों में से प्रत्येक में लगभग 1400 यात्री भरकर लाये गये। मजदूरों की कमी हो जाने के कारण अनेकों मेट्रो काॅरीडोर सहित कई ढांचागत परियोजनाओं पर काम करनेवाले मुम्बई महानगर क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण (एम0एम0आर0डी0ए0) ने अपने ठेकेदारों की ओर से रोजगार का इश्तिहार निकाला। एम0एम0आर0डी0ए0 के एक प्रवक्ता ने बताया कि लगभग 12,000 मजदूरों में से 6000 शहर छोड़कर चले गये हैं, इसलिये परियोजनाओं का काम धीमा पड़ गया है।

एम0एम0आर0डी0ए0 के प्रवक्ता बी0जी0 पवार ने बताया कि, ‘‘बहुत सारे मजदूर जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन है वे मानसून के दिनों में चले जाते हैं। इस बार वे 15-20 दिन पहले निकले हैं। हमें उम्मीद है कि बरसात खत्म होते ही जब शहर के हालात ठीक हो जायेंगे तो वे वापस आ जायेंगे। होली के पहले जो मजदूर चले गये थे वे अब जत्थों में लौट रहे हैं।

शहर वापसी

भारतीय रेलवे ने जून में श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की संख्या घटा दी। रेलवे के अधिकारियों का कहना है कि जो गाड़ियाँ नियमित तौर पर चलायी जाती हैं उनसे पहली जून से शहर में आनेवाले यात्रियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सेन्ट्रल रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि, ‘‘हम देख रहे हैं कि कई यात्री दिहाड़ी मजदूर हैं। पिछले हफ्ते हमने देखा है कि इस शहर तक वापस आनेवाली सभी गाड़ियाँ सवारियों से भरी हैं। 24 जून तक 1.8 लाख यात्री इन गाड़ियों से मुम्बई आये हैं, उनमें से अधिकतर गोरखपुर, लखनऊ और वाराणसी से आनेवाले हैं। इस शहर में आनेवाले कुल यात्रियों के लगभग आधे इन तीन शहरों से ही आते हैं, और दूसरे महत्वपूर्ण केन्द्र हावड़ा और दरभंगा हैं।

महाराष्ट्र लौटनेवाले प्रवासी मजदूरों की जाँच के लिये राज्य सरकार ने एक विशेष अभियान चलाया है। उसके अनुमानों के अनुसार पूर्णबन्दी की बढ़ी हुयी अवधि में जो 13 लाख प्रवासी मजदूर राज्य छोड़कर चले गये हैं उनके जुलाई में लौट आने की उम्मीद है। महाराष्ट्र की पुलिस को सीमा-स्थित जाँच केन्द्रों पर थर्मल स्क्रीनिंग करने का निर्देश दिया गया है, वहाँ 15,000 लोग रोज आ रहे हैं। मुम्बई के आसमान पर बरसाती बादल मँडरा रहे हैं तो यह सवाल रह ही जाता है कि इस शहर ने जिन मजदूरों से मुँह मोड़ लिया था वे सारे मजदूर वापस कब आयेंगे?

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