समकालीन जनमत
जनमत

लॉकडाउन और बच्चों की मौत

नित्यानन्द गायेन

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के चलते हाल ही में एक खबर आयी कि तीन दिन में 100 किमी चलने के कारण तेलंगाना में 12 साल की एक बच्ची की मौत हो गयी है. ख़बर के अनुसार, बच्ची 3 दिन पैदल चलते हुए तेलंगाना से गांव के मजदूरों के साथ पहुंची थी. छत्तीसगढ़ से तेलंगाना कमाने के लिए गए कई मजदूर तीन दिन का पैदल सफर कर बीजापुर पहुंचे. इनमें 12 साल की बच्ची भी थी.100 किमी का जंगली रास्तों का सफर तय कर बच्ची अपने गांव पहुंचती इससे पहले ही उसने दम तोड़ दिया. बच्ची की जहां मौत हुई वहां से उसका घर 14 किलोमीटर दूर था. 12 साल की जमलो मड़कम अपने परिवार का पेट भरने के लिए बीजापुर के आदेड गांव से रोजगार की तलाश में तेलंगाना के पेरूर गांव गयी हुई थी.

यह कोई पहली घटना नहीं है. इससे पहले भी लॉकडाउन के कारण देश के अन्य हिस्सों में भी बच्चों की मौत की ख़बरें आती रही है. बीते मार्च में बिहार के आरा जिले में एक बच्चे की भूख से मौत हो गयी थी. लॉकडाउन के चलते काम बंद होने से राजधानी पटना से महज 60 किलोमीटर दूर भोजपुर जिले के आरा शहर के जवाहर टोले की मलिन बस्ती में रहने वाले 8 वर्षीय राकेश की कथित तौर पर भूख से मौत हो गई.

राकेश की मौत 26 मार्च को हो गई थी. लॉकडाउन के चलते उसके पिता का मजदूरी का काम बंद था, जिसके चलते 24 मार्च के बाद उनके घर खाना नहीं बना था.

एक और घटना में लॉकडाउन के दौरान बिहार के एक सरकारी अस्पताल में एंबुलेंस न मिल पाने के कारण तीन साल के बच्चे की मौत का मामला सामने आया था.

ये कुछ आंकडें हैं जो मीडिया या सोशल मीडिया पर आने के कारण हमें जानकारी है. इसके बाहर कितनी मौतें हुई कोई जानकारी नहीं है.

मूल सवाल है कि क्या इन मौतों की जिम्मेदारी सरकार पर नहीं है ? जिस कल्याणकारी राज्य का प्रधान ‘लोक कल्याण मार्ग’पर आलिशान बंगले में तमाम सुविधाओं के साथ निवास करता है उन पर इन मौतों की जवाबदेही क्यों न हों ?

क्या केवल लॉकडाउन की आपात घोषणा कर देने से उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है ? यह एक बड़ा सवाल है.

दूसरा सवाल उन संस्थानों और विभागों से है जो बाल कल्याण के नाम पर बने हुए हैं और तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान और पुरस्कार से नवाजे गये हैं.

क्या इन संस्थानों और इनके आकाओं ने बच्चों की इस दर्दनाक मौतों पर कोई चिंता व्यक्त की है? कोई कदम उठाया है?

क्या इस संस्थाओं और सम्मानित व्यक्तियों ने सरकार से कोई सवाल किया है? सरकार को इन मौतों के लिए जिम्मेदार माना है ?

किन्तु यही संस्था और लोग सरकार की तारीफ और प्रचार के काम में दिन रात पूरी निष्ठा से लगे हुए हैं.
तेलंगाना में 100 किलोमीटर चलने के बाद मरी बच्ची के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्‍मानित विश्व प्रसिद्ध बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी ने ट्वीट कर लिखा है कि एक समाज के रूप में यह हमारी सामूहिक विफलता है.

सरकार की विफलता पर उन्होंने कुछ नहीं कहा अपने इस ट्वीट पर. इसी तरह कई और संगठन यहां बच्चों के लिए काम करते हैं. लॉकडाउन के कारण बच्चों की मौत पर उन सभी ने सरकार से क्या सवाल जवाब किया है इसकी जानकारी मेरे पास नहीं है. आपको कहीं दिख जाये तो बताइएगा.

कैलाश सत्यार्थी ने एक और काम इस बीच किया है. कैलाश सत्यार्थी का कहना है कि यदि बाल श्रमिकों के जीवन को बचाना है तो अगले तीन महीने तक बालश्रम अधिनियम की अनदेखी करनी होगी. ऐसे में कैलाश सत्यार्थी की यह सलाह किसके पक्ष में जाता है?

अगले तीन महीने तक बालश्रम अधिनियम के विरुद्ध क्षमादान के पक्ष में कैलास सत्यार्थी के परामर्श को यदि क्रियान्वित किया जाता है तो दिशाहीन राज्य के साथ-साथ नियोक्ताओं में भी एक दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो सकती है क्योंकि इस अंतर्विरोधी प्रस्ताव में बाल श्रमिकों की वास्तविक सहायता के सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से कोई संकेत नहीं दिखाई पड़ता है.

साथ ही यदि उनकी इस सलाह को सरकार मान लें तो बाल तस्करों का हौसला भी मजबूत होगा और लॉकडाउन का फायदा उठाकर बच्चों की चोरी और तस्करी में इजाफ़ा नहीं होगा क्या? वहीं राज्य द्वारा बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन करने पर उनकी अनदेखी करने की बात कर रहे हैं सत्यार्थी.

मुजफ्फरपुर बालिका गृह काण्ड की कहानी को याद कीजिये. उस वक्त कितनी संस्थाओं और पुरस्कार प्राप्त व्यक्तियों ने उस अपराध के लिए सरकार को घेरा था ? सवाल किया था?

बच्चों के लिए काम करने वाले कथित कार्यकर्ताओं और संस्थाओं की पोल पहले भी खुली है और आगे भी खुलेगी.

देश में हर साल कुपोषण और भुखमरी से लाखों बच्चें मर जाते हैं, जबकि यहां अनाज से गोडाउन भरे पड़े हैं. ऐसे में भूख से किसी की मौत होने पर सरकार से सवाल क्यों न पूछे जाएं?

संयुक्त राष्ट्र ने वैश्विक मंदी के चलते दुनिया के 4.2 करोड़ से 6.6 करोड़ बच्चों को गरीबी के गर्त में गिरने का अनुमान जताया है. इनमें लाखों की मौत भी हो सकती है.

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना संक्रमण से फैली महामारी से बच्चे तीन तरह से प्रभावित होंगे। पहला, बच्चे अपने माता-पिता या परिजनों के संक्रमित होने का खामियाजा बुरी सेहत के तौर पर भुगतेंगे.

दूसरा, परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां उन्हें प्रभावित करेंगी. और तीसरे, विकास को लेकर निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति लंबे समय के लिए आगे बढ़ जाएगी, इसका असर वर्षों बाद दिखाई देगा.
अभी अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस बीता. बीते वर्षों में मोदी सरकार ने बचीखुची श्रम कानूनों को लगभग ख़त्म कर दिया है और सभी नये कानून आज उद्योगपतियों के पक्ष में हैं. ऐसे में मजदूरों का शोषण हर तरफ जारी है.

कोरोना के कारण बिना तैयारी देशव्यापी लॉकडाउन का सबसे बुरा असर मज़दूर वर्ग पर पड़ा है. इस लॉकडाउन के कारण देश के अलग-अलग शहरों में काम करने वाले लाखों प्रवासी मज़दूर अपने-अपने घर जाने के लिए एक साथ सड़क पर निकल गये.

यातायत सुविधा के न होने के कारण वे सभी अपने परिवार और बच्चों को साथ लेकर चिलचिलाती धूप में सैकड़ों किलोमीटर के सफ़र पर पैदल निकल पड़ें. इस यात्रा के दौरान कई मज़दूर सड़क दुर्घटना में मारे गये, कई भूख और प्यास से मर गये. कहां कितने मरे इसकी कोई सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है. केवल वहीं आंकड़े उपलब्ध है जिनकी ख़बर मीडिया में आयी है. सबसे गंभीर और चिंताजनक बात यह है कि इस दौरान केवल मज़दूर नहीं मरें, उनके बच्चे भी मारे गये हैं भूख और थकान से. कितने बच्चे मरे हैं.

Related posts

3 comments

Comments are closed.

Fearlessly expressing peoples opinion