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कहानी-पाठ और परिचर्चा

कहानी-पाठ और परिचर्चा 

कहानी– अंतिम कक्षा

लेखक– अल्फोंस दोदे

रिपोर्ट– मोहम्मद उमर

रविवार, यानी 14 जून 2020 को महादेवी वर्मा स्मृति महिला पुस्तकालय, प्रयागराज की रविवारीय गोष्ठी में, अल्फोंस दोदे की कहानी ‘अंतिम कक्षा’ का पाठ एवं इस पर परिचर्चा आयोजित की गयी। यह ऑनलाइन गोष्ठी गूगल मीट एप्प पर हुई। कहानी का पाठ शोध छात्रा शिवानी ने किया।

कहानी पाठ के बाद उस पर विस्तृत चर्चा हुई। चर्चा की शुरुआत करते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यापक अंशुमान कुशवाहा ने कहा, कि कहानी का शीर्षक ‘अंतिम कक्षा’ अपने कथ्य और विचार के उपयुक्त है। कहानी अपने सामाजिक परिवेश को प्रामाणिक ढंग से पेश करती है। भाषा ही संस्कृति को सुरक्षित रखती है, जिसे कहानी में लेखक ने बड़ी ही सुंदरता से उकेरा है। जब यह पता होता है, कि फ्रांस में अब फ्रेंच को समाप्त कर दिया जाएगा और दूसरी भाषा यानी जर्मन भाषा लागू होने वाली है, तब भी मास्टर साहब पूरी तन्मयता से पढ़ाते हैं और लोग उससे जुड़ते हैं।

इस परिचर्चा में भाग लेते हुए मनोज कुमार जी ने बताया कि जर्मन भाषा किस तरह फ्रांस की भाषा को पददलित करके उसका स्थान लेती है। उन्होंने ग्राम्सी के सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के सिद्धांत से इस बात को स्पष्टपूर्वक समझाया। साथ ही साथ उन्होंने इस बात की तरफ भी इशारा किया, कि ‘पाली’, ‘अपभ्रंश’ जैसी भारतीय भाषाएं मृत हो गयीं; लेकिन हमने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यह सोचनीय है कि भारत में कई भाषाओं ने जन्म लिया और विलुप्त हो गयीं मनोज जी ने यह भी बताया कि किस प्रकार ‘पूँजीवाद’, ‘बाजारवाद’ भाषा और संस्कृति पर प्रभाव डालता है और अपने राजनीतिक वर्चस्व को कायम करता है।
परिचर्चा में जुड़ते हुए कवि गौड़ ने कहानी के परिवेश और वातावरण को स्पष्ट किया। वे बताते हैं, कि यह कहानी उस समय की है; जब जर्मनों ने फ्रांस को परास्त किया था। कहानी का परिवेश उसी समय के आसपास का है। प्रशा के सेंट हेलेना में नेपोलियन तृतीय पकड़ा जाता है और फ्रांस को जर्मनी के आगे नतमस्तक होना पड़ता है। अल्फोंस दोदे की यह कहानी हमें बहुत कुछ सीख प्रदान करती है, कि समय रहते न चेतने से हम अपनी भाषा और आजादी को खो देते हैं। क्योंकि, कहानी लेखक बताता है कि जब उसके पास मौका था तो उसने फ्रेंच नहीं सीखा लेकिन फ्रेंच व्याकरण की अंतिम कक्षा में वह तन्मयता से पढ़ता है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कार्यरत तथा आदिवासी भाषा और साहित्य के गहन अध्येता डाॅ. जनार्दन ने भी इस परिचर्चा में हिस्सा लिया। ‘अंतिम कक्षा’ कहानी के लेखक अल्फोंस दोदे के विषय में वे कहते हैं, कि उसे यदि युद्ध से उत्पन्न स्तिथियों का लेखक कहा जायतो गलत नहीं होगा। वह बताते हैं कि कहानी का परिवेश लिबास की तरह है। हमे कहानी के उस हिस्से की तरफ जाना होगा जहाँ कहानीकार बताता है पिछले दो वर्षों से जो बोर्ड है, वहाँ पर जो लिखा जाता है तो वहाँ का सारा समाज परेशान हो जाता है। जनार्दन जी इस सन्दर्भ को भारत की वर्तमान स्थितियों से जोड़ते हुए कहते हैं कि ठीक इसी प्रकार भारत में 8 बजे जब हुक्मरां बोलते हैं तो सम्पूर्ण भारत परेशान हो जाता है। और यहाँ बोर्ड की जगह भारतीय मीडिया ने ले ली है। जनार्दन जी आगे यह भी बताते हैं, कि आदमी की पहचान उसकी भाषा से होती है।

समकालीन जनमत के प्रधान सम्पादक रामजी राय ने परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि इस कहानी को हम अपनी परिस्थितियों से जोड़ कर देखें तो बात आजादी की लड़ाई से शुरू करनी होगी। हिन्दी भाषा तो उसी लड़ाई में व्यापक हुई और जनचेतना का औजार बनी। वे भारतेंदु हरिश्चंद्र की पंक्तियों को दोहराते हैं कि-‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।’ रामजी राय आगे कहते हैं, कि लेकिन आज उसी हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं पर जबरन थोपने को देखें, तो यह कहानी हमारे अपने देश-काल से जुड़ जाएगी।
रामजी राय, रामविलास शर्मा और शमशेर के बीच हिंदी-उर्दू भाषा और लिपि से जुड़े संवाद का प्रसंग याद करते हैं। रामविलास जी कहते थे कि उर्दू को देवनागरी लिपि में लिखा जाय, इसपर शमशेर जी बहुत व्यथित हुए। शमशेर जी उर्दू भाषा को उसकी लिपि के साथ बनाये रखने के हिमायती थे। वे कहते हैं कि कहानी में भी देखिये तो फ्रेंच व्याकरण की कक्षा है। व्याकरण का सम्बन्ध लिखने से होता है, लिपि से होता है। शमशेर जी भी कहते थे, कि जब मृत हो चुकी लिपियों को संरक्षित करने की पहल पूरी दुनिया में हो रही है, हम एक जिन्दा लिपि, जिसमें उर्दू लिखी जाती है, उसे खत्म करने की बात कर रहे हैं।
आगे वह कहानी के केंद्रीय भाव की तरफ जाते हैं, कि ‘अंतिम कक्षा’ कहानी में शिक्षक को किस प्रकार अपने देश और भाषा पर आत्मगौरव है। वह लिखता है…फ्रांस जिंदाबाद! बच्चा भी बेंच की लकड़ियों में फ्रांसीसी झंडे को फहरते हुए देखता है। बच्चा किस प्रकार सोचता है, कि क्या गुटरगूँ कर रहे कबूतरों को भी जर्मन सिखाया जाएगा? लेकिन नहीं! उन्हें नहीं बाध्य कर सकते। वह आगे भाषाई लड़ाई के विषय पर बोलते हुए कहते हैं कि हमें वर्चवस्वाद का विरोध करना चाहिए, न कि किसी भाषा का।

शोध छात्रा दीप्ति मिश्रा कहती हैं, कि कहानी में अपनी भाषा की रक्षा करने का भाव है। बच्चों को लगता है, कि उनकी भाषा का व्याकरण कठिन है, लेकिन फ्रेंच की अंतिम कक्षा में सिर्फ बच्चे ही नहीं, बल्कि बड़े-बूढ़े भी पूरी लगन से पढ़ते हैं; कि इसके बाद उनकी भाषा को समाप्त कर दिया जायेगा। अनीता त्रिपाठी ने कहानी पर अपनी बात रखते हुए कहा, कि कहानी में अपनी भाषा को बचाने की चिंता दीख पड़ती है। वे परेशान होते हैं, कि उन पर नयी भाषा थोपी जायेगी।
कार्यक्रम का संचालन दुर्गा सिंह ने किया। इस लाइव कार्यक्रम में डाॅ. जनार्दन, मीना राय, अनीता त्रिपाठी, रामजी राय, डाॅ.अंशुमान कुशवाहा, दीप्ति मिश्रा, मनोज कुमार मौर्य, कवि गौड़, शिवानी जायसवाल, सचिन गुप्ता आदि ने हिस्सा लिया।

(फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार)

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अंतिम कक्षा- अल्फोंस दोदे

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