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स्मृति

‘ कदम ’ पत्रिका के संपादक और कथाकार कैलाश चंद चौहान नहीं रहे 

‘ कदम ‘ पत्रिका के संपादक और प्रकाशक दलित साहि‘त्य के बड़े कथाकार कैलाश चंद चौहान का 15 जून को दोपहर 12 बजे निधन हो गया। उनका जन्म 1 जनवरी 1973 को हुआ था। वे कुछ दिनों से लीवर और पथरी की बीमारी से संघर्ष कर रहे थे।

कैलाश चंद चौहान की ख्याति उनकी कहानियों और उपन्यास के कारण तो थी ही वे साहित्य और जीवन को अभिन्न मानते हुए साहित्य की भावना को जमीनी हकीकत में भी बदलने में लगे रहते थे। वे बच्चों के लिए ट्यूशन का संचालन भी करते थे। इस तरह वे बच्चों के माध्यम से साहित्य और समाज के भविष्य के प्रति सचेत थे। उनका ‘ सुबह के लिए’, ‘भंवर’ और ‘विद्रोह’ उपन्यास और  ‘संजीव का ढाबा’ कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ था. वे लगभग सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लिखते रहे.

दलित साहित्य को दलित पाठकों के बाहर इस तरह रूढ़िबद्ध कर दिया गया कि वह सिर्फ दलितों द्वारा दलितों के लिए दलित विषय पर लिखा गया साहित्य है जिसमें सिर्फ ब्राह्मणवाद और जाति प्रथा का विरोध भर है। यह धारणा कुछ लोगों ने तो बिना दलित साहित्य पढ़े ही बना लिया है लेकिन कैलाश चंद चौहान एक ऐसे लेखक थे जिनका कथा साहित्य जीवन के व्यापक पहलुओं को अपना विषय बनाता है.

दलित साहित्य के बारे में ऐसी धारणा है कि स्त्री प्रश्न पर या तो बहुत कम लिखा गया है या लिखा भी गया है तो अपेक्षित केंद्रीकरण के साथ नहीं  लेकिन कैलाश चंद चौहान के लगभग संपूर्ण कथा साहित्य में स्त्री अपने सशक्त किरदार के साथ उपस्थित है. दलित साहित्य में प्रेम जैसा विषय नैतिकतावादी सेंसरशिप के कारण उपेक्षित रहा लेकिन कैलाश चंद चौहान ने उसको अपने कथा साहित्य का हिस्सा बनाकर इस सेंसरशिप को न केवल तोडा बल्कि उसके माध्यम से प्रेम और पितृसत्ता के विडंबनात्मक अन्तर्सबंध को भावनात्मक गहराई के साथ चित्रित किया.

उन्होंने दलित समाज के भीतर गहरे धंसी पितृसत्ता की जड़ों को अनावृत्त कर दिया. कैलाश चंद चौहान का जाना हम सभी के लिए गहरी पीड़ा और रिक्तता का सबब है.

आइये उनकी एक लघुकथा ‘प्रेम’ के माध्यम से हम उनकी ऊर्जा और सृजनात्मक दृष्टि को महसूस करें।

प्रेम (एक लघुकथा)

आज तो तुम पकडे गये दीपू भैया!’’ अंजु चहकते हुए बोली।
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘तुम्हें क्यों बताऊँ!’’
‘‘क्या बात है अंजु? दीपक को क्यों तंग रही है?’’
‘‘मम्मी, दीपू ने एक लडकी पसन्द की है, बडी खूबसूरत है। आज मैंने पिकनिक हट में इन दोनों को देखा था।’’ क्या नाम है भैया उसका? जरा बताना तो मम्मी को………’’
‘‘अंजू…….!’’ दीपक झेंपा।
‘‘क्यों उसे बोलने से रोक रहा है, अच्छा तू ही बता वह कहां रहती है? हम उसके मां-बाप से उसकी शादी तेरे साथ करने की बात करेंगे।’’
‘‘सच मम्मी?’’ दीपक को जैसे विश्वास न हुआ।
‘‘हाँ बेट।’’
‘‘तुम कितनी अच्छी हो मम्मी!’’
कुछ दिन बीते.
‘‘लो, सम्हालो अपनी लाडली बेटी को मम्मी।’’
‘‘क्यों, क्या हुआ? क्यों लाया है तू इसे मारते हुए?’’ दीपक की मां ने अंजू को उठाते हुए पूछा।
‘‘पूछो अपनी लाडली बेटी से। प्रेम करने लगी है। अपने प्रेमी से पार्क में बतिया रही थी।’’
दीपक की मम्मी ने अंजू की चुटिया खींचते हुए दो-तीन चांटे उसके गाल पर मारे और कहा, ‘‘क्या कहा तूने! ऐ री कलमुंही! तू ऐसे ही अपने मां-बाप का नाम रोशन करेगी? अगर कोई देख देता तो लोग क्या कहते। तू हमारी नाक ही कटवाकर रहेगी? ’’

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