समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-16

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

पढ़ाई


अब पढ़ाई की शुरुआत केजी-1 से होती है। केजी-2 के बाद तीसरे साल बच्चे कक्षा-1 में जाते हैं। हमारे समय में केजी-1, केजी-2 की जगह (मेरे यहां) गदहिया गोल और बड़ी गोल हुआ करती थी। लेकिन अंतर यह था कि एक ही साल में तीन महीने गदहिया गोल, फिर बड़ी गोल उसके बाद कक्षा-1 की पढ़ाई होती थी। अगले साल कक्षा-2 में चले जाते थे। गदहिया गोल में केवल अक्षर ज्ञान, 100 तक गिनती सिखाई जाती थी। बड़ी गोल में मात्रा ज्ञान और गिनती, पहाड़ा सिखाया जाता था। उसके बाद अक्षर मिलाना आदि। कक्षा एक दो और कक्षा-3 में 6 महीने तक पटरी-बोरिका ही चलता था। कक्षा-3 में 6 महीने के बाद कापी पेंसिल फिर कक्षा 6 से स्याही यानी पेन का प्रयोग करना होता था। पेन क्या निब से लिखते थे। हिन्दी की अलग निब होती और अंग्रेजी के लिए ‘जी मार’ निब अलग होती थी। किरिच की कलम बनाकर स्याही बोर कर लिखा जाता था‌। इसलिए कि इससे राइटिंग अच्छी बनती थी। नवीं कक्षा से स्याही भरने वाली पेन का प्रयोग होता था। लेकिन पढ़ाई की शुरुआत पटरी बोरिका से ही होती थी। अब पटरी किसकी ज्यादा चमकती है इसका कंपटीशन लगा रहता था। पटरी चमकाने के लिए रात में घर में जो ढिबरी जलाई जाती थी उसी की लौ के ऊपर घंटी या कोई दूसरी चीज ऐसे रख देते, जिससे उसमें कालिख इकट्ठा हो जाती थी। उस कालिख को गीले कपड़े में लगाकर पटरी पर लगाते थे, फिर सूख जाने पर किसी शीशी से पटरी चीकते (रगड़ते) थे। हालांकि इससे कालिख हाथ और कपड़े में लग ही जाती थी। पटरी साफ करने का दूसरा तरीका भी था, भँगरैया घास को पटरी पर रगड़कर लगाते थे और सूखने के बाद चीकते थे। कालिख से ज्यादा चमक इससे होती थी। उसके बाद ‘बोरिका’ जिसमें दूधिया (खड़िया ) घोले रहते थे उसमें एक धागा डालकर डुबोते थे और धागा निकाल कर उससे पटरी पर एक तरफ गिनती, पहाड़ा और दूसरी तरफ नकल और इमला लिखने के लिए लाइन खींचते थे। पटरी पर धागा सीधा रख कर धागे का दोनों सिरा दबाकर हाथ से धागे के बीच वाले हिस्से को उठाकर छोड़ने से लाइन खिंच जाती थी। लिखने के लिए कलम नरकट का रहता था। बोरिका में से दूधिया (खड़िया) बोर कर लिखना होता था। इतनी तैयारी के बाद स्कूल जाना होता था।

कक्षा-2 में थे, तभी से मेरे यहां एक बल्ब ब्रह्मदेव काका के घर से तार खींचकर रसोई घर के पास ठहरी पर (जहां बैठकर सब लोग खाना खाते थे) जलता था। दीदी लोग रात में यहां बैठकर बाबू के खाना खाने आने तक सिलाई, कढ़ाई करती थीं। अशोक भइया और मुन्ना भइया चाचा के यहां मुहम्मदाबाद रहते थे। शाम में आंगन में चारपाई पड़ जाती थी। मां लेटे लेटे मुझे जितने तक पहाड़ा याद रहता सुनती, और उसके आगे का पहाड़ा याद करवाती थी। यही नहीं, पौवा, अद्धा का भी पहाड़ा सिखाती थी। कक्षा-3 पास करते करते मां ने हमें 25 तक पहाड़ा के अलावा पौवा (1/4), अद्धा (1/2), पवन्ना ( 3/4 ), सवैया (1.25), ड्योढ़ा (1.5), अढ़ैया (2.5) का भी पहाड़ा सिखा दिया था। यह याद इसलिए है कि कक्षा में सबसे ज्यादा हमें ही पहाड़ा याद था।

जिस दिन रिजल्ट बताया जाता था उस दिन सभी बच्चों को एक रुपया क्लास टीचर के पास जमा करना होता था। इसे पास कराई कहा जाता था। जो नहीं देता उसे पास नहीं करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि शिवमुनी नाम का लड़का, जो हरिजन जाति का था, को कक्षा तीन में इसी कारण फेल किया गया था। तब यह समझ नहीं थी कि उसका भी पैसा किसी तरह दे दिए होते तो शिवमुनी आगे भी पढ़ता। अब याद नहीं कि वह आगे पढ़ा या नहीं। एक बार भूषण और शिवमूरत (दोनों हरिजन थे) को मुरलीधर राय मास्टर अपने खेत में पानी देने या कुछ करने भेजे थे। वे दोनों लड़के स्कूल में छुट्टी होने के कुछ पहले आए लेकिन मुरलीधर मास्टर साहब उन दोनों को कुछ भी नहीं बोले। इससे मन में खटका कि बात क्या है। बाद में पता चला कि उन दोनों को तो उन्होंने ही अपना निजी काम करने के लिए भेजा था। नहीं तो वे अक्सर हरिजन बच्चों को खूब मारते थे और मारते समय यह भी कहते थे कि -‘तुम सब भी पढ़ लोगे तो हरवा कौन जोतेगा।’
एक बार भूषण के चूतड़ पर फोड़ा हुआ था, और मुरलीधर मास्टर उसे फिर किसी अपने निजी काम के लिए भेज रहे थे। उसने कहा कि फोड़ा निकला है, नहीं जा पाऊंगा। उसके बाद तो उसको छड़ी से बहुत मार मारे। यहां तक कि उसके फोड़े पर भी मारे। उसके फोड़े से खून निकलने लगा। उसके बाद उसने पढा़ई छोड़ ही दी। बाद के दिनों में वह बस स्टैंड पर रहता था। गांव के लोग बस से उतरते तो उनका सामान उनके घर पहुंचाकर कुछ पा जाता था। बाद को वो मेंटली डिस्टर्ब हो गया और लोग उसको काफी छेड़ते और मजे लेते।

इसी साल (1965) में आशा दी की शादी तय हुई और छोटे भाई नन्हें का आगमन। नवम्बर का महीना था। चाचा आशा दी की शादी तय करके आए थे। ठहरी पर बैठे खाना खा रहे थे। कोठरी घर में मां लेबर पेन में थी और नन्हें पैदा हुआ। चाचा पूछे कि क्या हुआ जल्दी बताओ। बुआ की लड़की शोभा दी बताईं कि बेटा हुआ है। चाचा कहने लगे कि मेरा तो कौर ही मुंह में अटका था कि आज ही एक की शादी तय करके आ रहे हैं, तब तक एक और लक्ष्मी आ गईं क्या? लड़कियों की शादी तय करने का काम चाचा ही करते थे। अपने बजट में शादी तय करने का कष्ट तो शादी तय करने वाले अभिभावक ही समझ सकते हैं।

शायद सितम्बर अक्टूबर का समय था। बाढ़ के कारण स्कूल बंद चल रहा था। पोखरा भरा था। सत्ती माई के सामने ही हम मां के साथ नहा रहे थे। वहां और बच्चे भी नहा रहे थे। तब तक केशव पंडी जी दिख गए। वे कक्षा-4 के क्लास टीचर थे। बोले कि तुम लोग स्कूल आओ। हम लोग घर गए। कई दिन बाद स्कूल खुला था। मैंने न कंघी किया न कुछ। बस बस्ता उठाई और स्कूल चली आई। स्कूल आने पर केवल कक्षा-5 वाला हाल साफ हुआ और उसी में प्रार्थना होना तय हुआ। प्रार्थना की घंटी बजी। 25-30 बच्चे 2-3 लाइन में खड़े हुए। मेरे पीछे रेखा श्रीवास्तव नाम का लड़का खड़ा था। प्रार्थना खत्म होते ही पंडी जी ने रेखा को एक छड़ी जमाई कि प्रार्थना में भी सीधे नहीं खड़े हो सकते? उसने कहा कि – ‘मिनवा क बरवा में कीरा (सांप) बा, एही से हम पीछे हट गइली हं’। यह सुनकर मैं रोने लगी तो पंडी जी बोले- चुपचाप खड़ी रहो, डरो मत, कुछ नहीं होगा। और छड़ी से ही उन्होंने सांप को नीचे गिराया और उसे मार दिया। सांप था तो पतला लेकिन दो बित्ते का था।

करते करते मैं पांचवीं कक्षा में चली गई। उस समय हम लोगों को स्कूल में खाने की छुट्टी में दूध मिलता था। बोरी में पाउडर वाला दूध आता था और उसे कड़ाहे में तैयार किया जाता था। दूध पीकर हम लोग घर खाना खाने आते थे। बगल की मौसी का लड़का ब्रजभूषण भी मेरे साथ पढ़ता था। बहुत शरारती था। इंटरवल में हम लोग घर खाना खाने आते थे। वह रोज मौसी को परेशान करता। कोई न कोई कारण बनाकर रोने लगता था। जमीन में लोटने लगता, हाथ पैर पीटता और चिल्ला चिल्ला कर रोता। थोड़ी देर बाद उसे स्कूल की याद आती तो मौसी से कहता कि मीना को बुलाओ तब खाएंगे, नहीं तो वो स्कूल चली जाएगी और मैं देर से गया तो स्कूल में मार पड़ेगी। अक्सर यही काम करता था। एक दिन ज्यादा देर हो गई, लगा कि मैं भी पिट जाऊंगी तो मैंने मास्टर साहब से सब बता दिया। उस दिन उसे मार पड़ी और मुझे वार्निंग मिली कि आगे से देर से मत आना। फिर मौसी को मैंने बताया भी। तब से वह खाना खाए चाहे न खाए, स्कूल टाइम से आ जाता था। पढ़ने में मेरा मन खूब लगता था। सारा काम मैं स्कूल में ही पूरा कर लेती थी। घर पढ़ने की जरुरत ही नहीं पड़ती थी। पिताजी को भी पढ़ाई से कोई मतलब नहीं था।

एक दिन मैं स्कूल में थी। घर से कोई बुलाने आया कि पंडी जी मीना को छुट्टी दे दीजिए, उसको नाना के यहां जाना है। यह सुनकर मैं इतना खुश हुई कि क्या कहूं। ननिहाल के अलावा कहीं जाना नहीं होता था। अचानक जाने का कारण ये था कि मुहल्ले में चंदन बाबा की मृत्यु हो गई थी और घंट बंधने के बाद नहीं जाया जा सकता था, सो तुरंत निकलना था। वैसे तो 10 दिन बाद जाने की तैयारी थी। इस तरह गाजीपुर से पटना और फिर पटना से स्टीमर से मुजफ्फरपुर नाना के यहां।

कक्षा-5 के बाद ही पिताजी आगे पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि बस चिट्ठी पत्री भर ही लड़कियों को पढ़ना चाहिए। माता जी बहुत चिरउरी मिनती कीं कि सबसे छोटी लड़की है, इसको आठ तक पढ़ने दीजिए। पता नहीं कैसे वो मान गए। फिर 6 में एडमिशन हो गया। मां के साथ दिलदारनगर जाकर कापी किताब ले आई। स्कूल जाने लगी। उस समय कक्षा-6 से ही अंग्रेजी और संस्कृत की पढ़ाई शुरू होती थी। घर में कोई पढ़ाने वाला था ही नहीं। पिताजी के सामने पढ़ाई संबंधी कोई बात ही नहीं करनी थी। उसी में मुझे हर साल टायफाइड भी पकड़ लेता था। अपने बल पर स्कूल की पढ़ाई से ही हम अच्छे नम्बरों से आठवीं तक निकल गए। आठवीं में मेरा जिले में कौन सा स्थान आया था, याद नहीं आ रहा। एक परीक्षा देनी थी, उसके बाद मुझे वजीफा मिलता। परीक्षा तो मां लड़ झगड़ कर दिलवा दी। पास भी हो गई। लेकिन पिताजी किसी शर्त पर आगे पढ़ाने को तैयार ही नहीं थे। सो वजीफा भी हाथ से निकल गया। मां ने भी बोल दिया कि अब मैं कुछ नहीं कर सकती। पढ़ना हो तो घर में पढ़ो, उनके सामने मत पढ़ना। प्राइवेट इम्तहान दे देना।

पिता जी की ये बात समझ में नहीं आती थी कि मुझे खेत पर, बगीचे में भेजने से उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती थी, लेकिन स्कूल भेजने में क्यों दिक्कत हो रही थी? स्कूल खुल चुका था। मैं भी रोकर थक चुकी थी। पिताजी के पोस्टमास्टर होने के कारण स्कूल के टीचरों की भी मुलाकात उनसे हो ही जाती थी। उन लोगों ने भी मेरी पढ़ाई के बारे में बात की कि पढ़ने में अच्छी है, उसको आगे की पढ़ाई आपको करवानी चाहिए। जुलाई का दूसरा हफ्ता रहा होगा। टेका वाली बारी में मजदूर से आम तुड़वाने को बाबू मुझे भेजे थे। एक दो घंटे बाद खुद भी आ गए थे। उसी समय स्कूल की छुट्टी हुई थी। लड़के, लड़कियों को देखकर मेरे आंसू बहुत कोशिश के बावजूद भी रुक नहीं पाए। मुझे रोते देखकर बोले क्या हुआ? आम का चोंप पड़ गया क्या? कितनी बार बताए कि जब आम टूटे तो दूर रहा करो। मैंने रोते हुए हिम्मत जुटाकर स्कूल से आ रहे बच्चों की तरफ हाथ दिखाते हुए बाबू से कहा कि- ‘चोप नइखे पड़ल बाबू ,सब केहू स्कूले जात बा, हमहूं पढ़ब, हमके पढ़े द।’ थोड़ी देर तक तो वे कुछ नहीं बोले। हम रोते रोते आम खोंची से निकालकर रखते रहे। थोड़ी देर बाद बाबू बोले- ‘जा पढ़, लेकिन जहिया कवनो ऊंच नीच सुनाइल, हाथ पैर तोड़ के घरे बइठा देइब, इ याद रखीह’। हम बोले- ठीक बा बाबू । उस दिन लग रहा था कब घरे जाईं आ माई के बताईं। दोपहर बाद घर पहुंचकर मां को बताए। मां से कहे कि कापी किताब के लिए पिताजी से पैसा न मांगना। मैं कल स्कूल जाऊंगी तो देखती हूं किसी से पुरानी किताब मिल जाए, नहीं तो मांग कर काम चला लूंगी, बस तुम कापी खरीदवा दो। पिताजी से पैसा मांगने पर भड़क गए तो फिर मना कर देंगे।

अब समस्या ये कि आर्ट साइड पढ़ें कि साइंस साइड। हमको कोई बताने वाला ही नहीं था कि कौन सा विषय लेकर पढ़ें। जबकि मेरे लिए कोई विषय कठिन नहीं था। मेरा सबसे प्रिय विषय गणित था। फिर मैंने हिन्दी, गणित, अंग्रेजी, संस्कृत और भूगोल चुना। पढ़ाई शुरु हुई तो भारी समस्या आ गई। गणित और होमसाइंस में लड़कियों को होम साइंस ही लेना था क्योंकि सारे टीचर पुरुष थे और नवीं कक्षा में मेरे सहित केवल दो ही लड़कियां थीं। अकेली लड़की को होम साइंस के टीचर को पढ़ाने का परमीशन नहीं मिलेगा। इसलिए मुझे होम साइंस ही लेना पड़ेगा। पहले तो मैंने कहा कि वो भी गणित ही ले लें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पता नहीं क्यों लड़कियां गणित से भागती हैं जबकि ज़िन्दगी भर गणित ही करनी पड़ती है कि सब खुश रहें। हालांकि होमसाइंस भी काम आता है, लेकिन पढ़ने में भी क्यों।
बहरहाल, मजबूरन मुझे होमसाइंस लेना पड़ा। तिमाही परीक्षा से 15 दिन पहले ये आदेश आ गया कि 5 से कम लड़कियां होने पर होमसाइंस नहीं पढ़ाया जा सकता। मैं बहुत खुश हुई और मैंने गणित को और मजबूत बनाने के लिए अंग्रेजी छोड़कर जमेट्रिकल आर्ट ले लिया। (अब समझ में आता है कि अंग्रेजी छोड़कर मैंने गलती की। आज भी कंप्यूटर और मोबाइल में कई बार समझने में दिक्कत होती है तो अंग्रेजी की कमी अखरती है खैर…।) अब तक गणित के दो- तीन चैप्टर हो चुके थे। फिर भी मैंने मेहनत की और तिमाही परीक्षा में गणित में 69 नम्बर पाए। मुझे सुबह उठकर पढ़ने की आदत नहीं थी। पिता जी के सामने पढ़ना नहीं था। सामने कापी किताब दिख गया तो फाड़कर चूल्हे में फेंक देने की चेतावनी मिल चुकी थी। घर गृहस्थी का काम ही उनके सामने हो, वही काम आएगा, पढ़ाई नहीं। नवीं क्लास आसानी से निकल गए। दसवीं कक्षा में जाड़े के दिनों में लड़कों को स्कूल में ही रहना होता था। अपने सामने अध्यापक तैयारी करवाते थे। गणित का क्लास सुबह होता था, उसमें लड़कियां भी क्लास करने आ जाती थीं। मुझे भी पिताजी से क्लास करने का परमीशन मिल गया था। बोर्ड की परीक्षा का समय भी आ गया। लड़कों का सेंटर कहीं और था लेकिन लड़कियों का सेंटर अपने स्कूल में ही पड़ा था। सभी पेपर ठीक गए थे, लेकिन गणित के दोनों पेपर में एक एक प्रश्न फंस गया था। एक तो किताब के बाहर का प्रश्न था। निकलते ही एम एस सी सर ने पूछा- कितना नंबर आएगा। मैंने बोला – फर्स्ट पेपर में 44-45, सेकेंड में तो पूरा किए हैं लेकिन जमेट्री में पूरा नंबर देंगे नहीं तो भी 45 मिलना ही चाहिए। और यही मिला भी। पहले में 44 और दूसरे में 45। इस प्रकार 1973 में हम हाई स्कूल प्रथम श्रेणी में (69.2%) पास हुए। नीरजा भी प्रथम श्रेणी में ही पास हुई थी।

हम लोगों के प्रथम श्रेणी में पास होने पर मां ने हम लोगों को गाजीपुर ले जाकर पिक्चर दिखाने का वादा किया। मां ने मिठाई मंगवाई और बंटवाई कि दोनों बेटियां प्रथम श्रेणी में पास हुई हैं। उसी साल मुन्ना भइया का गौना हुआ था। मुन्ना भइया भी कम गुस्सैल नहीं थे। घर में उनकी तूती बोलती थी। सब लोग डरते थे उनसे। कहने लगे कि कोई कहीं नहीं जाएगा। फिर भाभी ने समझाया तो किसी तरह माने और मां से बोले कि जाइए, लेकिन रात में न रुकिएगा। मां ने कहा ठीक है। फिर मैं, नीरजा, सुषमा और मां गाजीपुर गए। मां पहले स्टीमर घाट चुन्नी लाल के यहां छोला खिलाई, फिर हम लोग मामा की लड़की बुच्ची दी के यहां आम घाट गए। वहां खाना खाकर 3 से 6 प्रकाश टाकीज में पिक्चर देखे। उसके बाद परमा भइया के यहां गए। फिर कुछ-कुछ बाजार हुआ। रात में फिर बुच्ची दी के यहां ही रुके। अगले दिन होटल में खाना खाकर हम लोग घर आए। घर आने पर मुन्ना भइया कहे कि कल ही लौटना था, क्या हुआ? मां ने कह दिया कि बाबू को बताकर गए थे कि रात में रुककर अगले दिन आएंगें। तुमसे बताते तो तुम जाने न देते। लड़कियों को भी घूमने का मन करता होगा कि नहीं ? फिर मैं तो साथ में थी। अब सोचने पर लगता है कि कैसे छोटी उम्र से ही लड़के औरतों पर, चाहे वह मां ही क्यों न हो, अनुशासन चलाने लगते थे।

हाई स्कूल के बाद इंटर कैसे किया जाय। मेरा स्कूल इंटर तक तो था, लेकिन लड़कियों का केवल हाई स्कूल तक ही नाम लिखा जाता था। यही हाल खेल का भी था। पहले साल तो सारे खेल (लंबी कूद, डिस्कस, जबलिंग, गोला फेंकने तक) में लड़कियां हिस्सा लीं। उसके बाद लड़कियों को हिस्सा लेने से रोक दिया गया। पिछले साल किसी लड़की के साथ कोई घटना हुई थी। गांव वाले स्कूल के प्रबंधक के माध्यम से प्रिंसिपल पर दबाव डालकर इंटर में लड़कियों का प्रवेश रुकवा दिए थे, जैसा कि स्कूल में हम लोगों को बताया गया। जबकि बाद के दिनों में, जब लड़कियों की शादी तय करने में लड़कियों की मात्र हाई स्कूल तक की शिक्षा बाधक बनने लगी, तो इंटर में भी लड़कियों का प्रवेश होने लगा। क्योंकि ज्यादातर लोग लड़कियों को पढ़ने के लिए बाहर नहीं भेज पाते थे। इसलिए हाईस्कूल के बाद लड़कियां नहीं पढ़ पाती थीं।

इंटर में अगर मेरा ऐडमिशन हो जाता तो मुझे वजीफा भी मिलता। हाई स्कूल में तो देर से ऐडमिशन होने के कारण सूची जा चुकी थी। गांव के पास रेवतीपुर में इंटर कालेज था, लेकिन मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि बाबू से कहूं और हमें भी ठीक नहीं लग रहा था। बाबू से स्कूल के टीचरों ने कहा कि मीना पढ़ने में अच्छी है, उसका ऐडमिशन रेवतीपुर या सुहवल करा दीजिए। उन लोगों से बाबू कुछ नहीं बोले, घर आकर हमसे कहे कि अगर इंटर में यहां तुम्हारा ऐडमिशन होता तो मैं करा देता। रेवतीपुर और सुहवल मैं नहीं भेज सकता। बाबू का कहना स्वाभाविक था। इस बार मुझे बुरा नहीं लगा। बस वजीफा खटक रहा था। चाचा हर शनिवार को गांव आते ही थे। चाचा से बहुत डर लगता था। एक भाई सेर थे तो दूसरे सवा सेर। एक दिन चाचा को खाना खिलाते समय बहुत हिम्मत बांधे कि कहूं कि मेरा नाम अपने स्कूल में लिखवा दीजिएगा तो हमको वजीफा मिलेगा। मैं यहीं घर में पढ़कर इम्तहान वहां दे दूंगी। लेकिन इतना ही कह पाई कि मैं इंटर नहीं कर पाऊंगी। पता नहीं वे सुने कि नहीं, कुछ बोले नहीं।

बाद में पता चला कि चाचा मां से बोले थे कि मीना को भी मुहम्मदाबाद ले जाऊं, नीरजा के साथ यह भी इंटर कर लेगी। लेकिन मां ने चाचा को मना कर दिया था कि मीना को मुहम्मदाबाद नहीं भेज सकते। लड़की के बिना यहां मेरा काम नहीं चलेगा।
नौकरी करते समय यह अनुभव हुआ कि तब के समय में ऐसा संभव हो सकता था कि किसी स्कूल का टीचर अपने घर के बच्चों का नाम अपने यहां लिखा दे और रिगुलर छात्र के रुप में मात्र परीक्षा दिलवा दे। लेकिन लड़कियों के लिए कौन सोचता है। नहीं तो मां ही हमें मुहम्मदाबाद न भेज देती। आखिर भाई लोग तो वहीं पढ़ रहे थे न।
आज भी अगर शादी तय करने में लड़कियों की शिक्षा बाधा न बनती तो संभव है अधिकांश लोग लड़कियों को न पढ़ाते।

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