समकालीन जनमत
कविता

नेहा नरुका की कविताएँ समझ और साहस के संतुलन की अभिव्यक्ति हैं

मदन कश्यप


युवा कवि नेहा नरूका का यथार्थ को देखने का दृष्टिकोण इतना अलग और मौलिक है कि वह आकर्षित ही नहीं करता, बल्कि कई बार बेचैन कर देती है। एक संवेदनशील सजग स्त्री होने के नाते वे आसपास की घटनाओं, वस्तुओं और निर्मितियों के उन भयावह पक्षों को बड़ी सहजता से देख लेती हैं, जिन्हें प्रायः हम नहीं देख पाते, अथवा देखते हुए भी उसके विद्रूप को महसूस नहीं कर पाते। नयी सदी के दूसरे दशक के शुरुआती वर्षों में कविता में उनका पदार्पण हुआ। सबसे पहले वे शिव-पार्वती के मिथकीय बिम्ब पर एक स्त्री के नाते जरूरी सवाल उठाने के साथ चर्चा मैं आयी। तब उसमें चौंकाने के भाव अधिक प्रबल लग रहे थे, लेकिन पिछले वर्ष जब अचानक उनकी एक कविता ‘शोक गीत’ पढ़ने को मिली, तब उनकी काव्यदृष्टि समझ में आयी। इस कविता की महज तीन पंक्तियाँ देखिए:
”मैं उन बच्चियों को जानती हूँ
जिनकी माएँ जब मायके गयीं
तो वे भयभीत रहीं अपने पिताओं से भी…”

उस कविता पर मैं टिप्पणी कर चुका हूँ, उसे दुहराऊँगा नहीं। तथापि, उनकी 50 से अधिक कविताएँ जो मेरे सामने हैं, उनमें से अधिकांश कविताएँ, हमारे समय के सुपरिचित और सामान्य अथार्थ पर आधारित हैं। लेकिन, खास स्त्रीदृष्टि के साथ वे हर बार कुछ ऐसे पक्ष को सामने लाने में सफल होती हैं, जो बहुत भयावह होता है। इस तरह नेहा की प्रायः सभी कविताएँ, संवेदनशील पाठकों को गहरी बेचैनी से भर देती हैं।

पहली कविता कविता ‘हड्डी’ को पढ़िए। सैनिकों की साधारणता का बोध तो वीरेन डंगवाल ने अपनी आति लोकप्रिय कविता ‘राम सिंह’ में करा दी थी, लेकिन उन्हें युद्ध से प्राप्त निमर्म महानता को त्यागने की चुनौती नेहा ही दे पाती हैं। इसी तरह ‘अकाल’ कविता में व्यक्त यथार्थ बिल्कुल अलग है। इसमें अन्न बचाने की जुगत के माध्यम से दुख और करुणा का दुर्लभ चित्रण है।

साधारणता का असाधारय वर्णन नेहा की खास विशेषता है। ‘इत्रवाले’, ‘गुलाम’, ‘सफेद रंग की प्रेमिका’, ‘प्रकाश संश्लेषण’, ‘विविधता’ आदि जैसी कविताओं में वह जीवन के अत्यन्त साधारण प्रसंगों और सामान्य घटनाओं के माध्यम से बड़ी बातें कहने और हमारे समय के बड़े सवालों से टकराने में सफल होती है। विशेष रूप से गुलाम कविता पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पहले के आज़ाद जनों और गुलामी से मुक्त करार दिये गए लोगों के अन्तर को छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिए ऐसे दिखलाया है कि जिनके माध्यम से हमारे समाज की विद्रूपता सामने आ जाती है।

एक कविता है ‘एलीना कुरैशी’। इस समय चल रहे हिजाब विवाद को ध्यान में रखकर इस कविता को देखिए, इसमें समय और साहस का अद्भुत सन्तुलन है। यह सन्तुलन नेहा हमेशा बनाये रखती है, चाहे ‘पार्वती योनि’ और ‘मर्द बदलने वाली लड़की’ जैसी कविता हो अथवा ‘आखिरी रोटी’ जैसी मार्मिक रचना। आज की युवा कविता में साहस की कमी नहीं है, लेकिन साहस के घोड़े पर समझ की लगाम कसने की नेहा जैसी कुशलता बहुत कम कवियों के पास है।

नेहा नरूका की कविताओं में यथार्थ का सपाट वर्णन नहीं है, बल्कि कईबार और कई जगह गहरा अन्वेषण है। लेकिन, उल्लेखनीय यह कि यह अन्वेषण हमेशा की अनुभवमूलक है। इसीलिए, उनमें ज्ञान मीमांसात्मक विभ्रम नहीं है, जो नयी सदी के दूसरे दशक में सामने आयी युवा पीढ़ी में प्रायः दिख जाती है। रजा फाउंडेशन ने युवा और स्त्री कविता को दिशाहीन बनाने का जो उपक्रम रच रखा है, नेहा उससे अबतक अछूती है। हालाँकि, वह भाषा और शिल्प को लेकर भी उतनी ही सजग है, जितनी यथार्थ के नये पक्षों की खोज को लेकर। वह अनुभूति की जटिलता को बचाये रखते हुए अभिव्यक्ति को यथासम्भव सरल बनाये रखने का प्रयत्न करती है। राजेश जोशी की कविता पर लिखते हुए मैंने भाषा की जिस कलात्मक पारदर्शिता की बात की है, उसे नेहा में भी विकसित होते देखा जा सकता है। ये नये आस्वाद की कविताएँ हैं, हालाँकि ऐसा करना एक तरह का सरलीकरण है और यह अन्य स्त्री कवियों के बारे में भी कहा जा सकता है। फिर भी, यह एक सच्चाई है। मेरे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि नेहा नरुका अपनी कविताओं के माध्यम से ज्ञान और सत्ता के अन्तरविरोध को बढ़ाने में योगदान देती है। ऐसे कठिन समय में, जबकि ज्ञान सत्ता के सामने समर्पित हो रहा है, यह स्वागत योग्य है।

 

नेहा नरुका की कविताएँ

1. हड्डियाँ

हड्डियाँ तो देखी होंगी तुमने
अरे तुम तो युद्धस्थल से लौटे हो घायल सिपाही!
तुमने तो मरते हुए दोस्त
और सड़ते हुए दुश्मन देखे होंगे
मैंने तो सिर्फ़ गाय, कुत्ते और बकरी की हड्डी देखी है

हड्डी देखकर मन कैसा व्याकुल हो उठता है
बार-बार एक ही ख़याल आता है :
काश इस हड्डी पर मांस चढ़ जाए!
मैं देखना चाहती हूँ मांस चढ़ने के बाद वो हड्डी फिर कैसी दिखती होगी…
कैसे बनता होगा जीव…
चलता-बोलता जीव
सिपाही हड्डियाँ तो सभी एक जैसी दिखती हैं!

तुम अपने घावों को देखो
जिनसे बह रहा है रक्त
और मेरे अश्कों से इनकी तुलना करो

अपने प्रिय को हड्डी में बदलते देखना कितना कष्टदायक है घायल सिपाही!
कोई ये बात उससे पूछे जिसने अपने प्रिय को चिता की आग में जलाया हो
फिर उसकी हड्डियों को बीनकर गंगा में बहाया हो…

नदियाँ हड्डियों को पवित्र नहीं करतीं
न कोई आत्मा होती है हड्डियों में बदलने के बाद
चौरासी लाख योनियों में भटकने के लिए
फिर भी गंगा मैया ढो रही है हड्डियों को

घायल सिपाही तुम न कौरव हो, न पांडव हो
जिसे हस्तिनापुर का सिंहासन मिलने वाला है
तुम तो एक मज़दूर के बेटे हो
तुम्हें तो मज़दूरी के लिए भी सिर फोड़कर रक्त बहाना पड़ता है

तुम त्याग दो युद्ध से प्राप्त हुई इस निर्मम महानता को
हड्डियों से भी डरावनी होती हैं ऐसी महानता की शक्लें…

 

2. अकाल

जिसने अकाल देखा हो वह थोड़ा-सा गेहूँ हमेशा बचाकर रखता है
बेशक उस गेहूँ में घुन लग गया हो पर फिर भी
अकाल देख चुका व्यक्ति उस गेहूँ को फेंकता नहीं
वह अपना ज़रूरी समय घुन बीनने में गँवाता है
वह इंतज़ार करता है खिलकर आई धूप का
उछल-उछलकर बहते पानी का
वह धोता है गेहूँ, सुखाता है, परेवा उड़ाता है, फटकता है, बीनता है,
एक पीपा भरकर अपने घर के कोने में रखता है
जिसने अकाल देखा हो…

अकाल को देखना ऐसा ही होता है
अकाल हमेशा रहता है उसके मन में
एक समय के बाद मन से सब उतरता जाता है
पर अकाल नहीं उतरता
नहीं मिटती पेट से उसकी स्मृतियाँ

कलकत्ता की सड़कों पर भूख से मर चुके मनुष्यों की लाशें बिछी हैं
भूख से व्याकुल क़ैदी औरतें खा रही हैं अपने शिशुओं को
ईश्वर ने स्वर्ग से भेजा है अपनी संतानों के लिए अकाल
राजा ने भेंट किया है अपनी प्रिय प्रजा को अकाल

ऐसी क्रूर कल्पनाएँ करती हैं पीछा अकाल देख चुकने के बाद

मगर जो अकाल के बाद आया है उसे आश्चर्य होता है :
कोई घुन लगे गेहूँ को भला खा सकता है क्या
कीड़े भी कोई खाता है क्या?

एक नस्लद्वेषी हँसता है :
चीनी साँप खा जाते हैं
चीनी चमगादड़ खा जाते हैं
चीनी जानवरों के लिंग खा जाते हैं…

अकाल में पैदा हुआ बच्चा सब खाता है
जंगल में बड़ा हुआ मनुष्य जानवरों की तरह बोलता है
रेगिस्तान में फँसा शुद्धतावादी अपना पेशाब पीकर प्यास बुझाता है

अकाल देख चुका व्यक्ति थोड़ा-सा गेहूँ बचाकर
अहिंसक परंपरा में अपना थोड़ा-सा योगदान देता है।

 

3. इत्रवाले

वे आए इस तरह कि फैल गई पूरे क़स्बे में सुगंध ही सुगंध
सबने पूछा कहाँ से आए हो,
वे बोले मथुरा से
सबने पूछा क्या लाए हो,
वे बोले इत्र :
गुलाब का इत्र,
चमेली का इत्र,
बेला का इत्र,
चंदन का इत्र,
राधा के अधरों का इत्र
जिसमें घुल गई कृष्ण के अधरों से निकली लार…

वे कपड़ों से सुगंध इस तरह चिपका जाते कि
कई-कई दिनों तक वे सुगंध उसी जगह बनी रहती
याद दिलाती रहती उनके बूढ़े बदन से आती सुगंध
वे पोंछ देते किसी स्त्री के दुपट्टे से चंदन की महक वाले हाथ

बहुत से लोग कहते कि ठग हैं वे
मीठी-मीठी बातें करके भोली-भाली औरतों और आदमियों से ऐंठ ले जाते हैं पैसे

इत्र बेचने वाले गद्गद होते हुए आते,
गद्गद होते हुए जाते
उनके कपड़े होते बेहद साधारण, बहुत मैले, उनके पास होता चमड़े का एक बैग
और छोटी-छोटी दो ग्राम, तीन ग्राम, पाँच ग्राम और दस ग्राम की काँच की शीशियाँ

उन शीशियों में रात के अँधेरे में घोला जाता इत्र
ठहर-ठहरकर ली जाती ख़ुशबू
और याद किए जाते बिछड़े प्रेमी और प्रेमिकाएँ
याद किए जाते वे पल जिनमें एक साधारण से मनुष्य ने
एक साधारण से मनुष्य के साथ रचाया था रास

जब दुबारा मिलन होता
तो भेंट किए जाते अपनी-अपनी पसंद के इत्र
इस इत्र से महबूब को नहलाया जाता
फिर गहरी-गहरी साँस लेकर बसाया जाता
उसे अपने ज़ेहन में हमेशा-हमेशा के लिए

वियोग के दिनों में वह सुगंध साथ देती
इस तरह जैसे वियोगी और वियोगिनी के सखी और सखा देते हैं साथ

नींद आ जाती
दुःख हल्के पड़ जाते
चेहरे चमक उठते
इत्र वाले सिर्फ़ इत्र कहाँ लाते थे,
लाते थे मथुरा से इत्र में चुपचाप घोलकर एहसास
ज़िंदगी को ख़ूबसूरत, मानीख़ेज़ बनाकर
क़स्बे की सबसे खटर्रा बस में बैठकर
लौट जाते किसी दूसरे शहर की यात्रा पर इत्रवाले

बड़े मौज़ू क़िस्म के लोग थे इत्रवाले
जहाँ जाते थे ख़ुशबू बिखेर देते थे।

 

4. ग़ुलाम

पहले वे ग़ुलाम थे
फिर वे ग़ुलाम नहीं रहे

राजा ने घोषणा की अब ग़ुलाम और आज़ाद के साथ बराबरी बरती जाएगी

राज्य की सबसे ऊँची दीवार पर रोटियाँ टाँग दी गईं
और कहा जिसे भूख हो दौड़कर ले ले
आज़ाद दौड़े और रोटियाँ खा लीं
ग़ुलाम भी पहली बार दौड़े पर रोटियों तक न पहुँच पाए

राज्य के वित्तमंत्री ने मुफ़्त कपड़ों की एक दुकान खोली
दुकान पर एक बोर्ड लगवाया :
‘कोई नंगा न रहे, सभी कपड़े पहन लें’
आज़ाद आए और सबसे सुंदर कपड़े छाँटकर पहन लिए
ग़ुलामों के भाग्य में फिर से वही बचे-कुचे ख़राब कपड़े आए

राज्य के सबसे बड़े व्यापारी ने मकान बनाकर सस्ती दरों पर बेचे
आज़ाद आए और सारे मकान ख़रीद लिए
ग़ुलाम आए और ख़ाली हाथ वापस लौट गए

राज्य में एक बैठक आयोजित की गई
उसमें ग़ुलामों की क्षमताओं पर संदेह व्यक्त किया गया
निष्कर्ष निकाला गया कि मुफ़्त और सस्ते संसाधनों को बाँटने का कोई अर्थ नहीं,
राज्य के विकास के लिए संसाधनों को महँगा कर दिया जाए

ग़ुलामों ने हाय-हाय की
राज्य के सेनापति ने सबको उठाकर जेल में डाल दिया
ग़ुलाम जेल में पानी की दाल खाकर इंक़लाब की बातें करने लगे
जेल अधिकारी को बड़ी चिंता हुई
उसने राजा को पत्र लिख दिया :
‘महाराज, ग़ुलामी की प्रथा फिर से शुरू करें।’

राजा ने जवाब में लिखा :
‘तीर कमान से निकल चुका है,
अब मुझे पूरा ध्यान बस गद्दी बचाने पर लगाना है।’

राज्य के कवियों ने दरबार में जाकर विरुदावली गाई
सभी कवियों की रचनाओं के नायक आज़ाद थे
ग़ुलाम को किसी कवि ने नायक नहीं बनाया

ग़ुलाम को नायक मानने वाले कवि भी जेल में बंद कर दिए गए थे
क्योंकि उन्होंने अपनी कविताओं में लिखा था :
‘ग़ुलाम को बराबरी के साथ थोड़े ज़्यादा दुलार की
थोड़ी ज़्यादा देखभाल की
थोड़े ज़्यादा प्यार की ज़रूरत है’

आज़ाद बुदबुदाए :
‘आरक्षण मांग रहे हैं साले!’

राज्य के विद्वानों ने कहा :
‘न भाषा, न शिल्प; ये कवि नहीं हो सकते,
ये कुंठा अभिव्यक्त करने वाले ग़ुलाम हैं, ख़ारिज करो इन्हें…’

ग़ुलामों ने जेल में एक सुर में नारे लगाए, गीत गाए, कविताएँ सुनाईं, बहसें कीं…
राज्य कुछ नहीं कर सका
क्योंकि वह जानता था
मौत से बदतर ज़िंदगी जीने वाला ग़ुलाम मौत से नहीं डरता!

 

5. शोकगीत

मैं उन बच्चियों को जानती हूँ
जिनकी माँए जब मायके गईं
तो वे भयभीत रहीं अपने पिताओं से भी

दिनभर बक-बक करने वाली ये बच्चियां
माँ के कदम रेल या बस में पड़ते ही
परिपक्व औरत में बदल गईं
वे रसोईघर में आतीं
और चुपचाप अपने जूठे बर्तन माँजकर छत पर पढ़ने लगतीं
वे स्नानघर में नहातीं
तो दरवाज़े की कुंदी अच्छे से ऊपर चढ़ातीं
और चुपचाप बस्ता लेकर स्कूल निकल जातीं

वे चाँद से न आने की प्राथनाएं करतीं
वे पूरे वक़्त किसी सहेली की तरह सूरज का साथ चाहतीं
उन्हें तारों वाली बाल कविताएँ भद्दी लगतीं

उनकी रात यह सोचते हुए गुजरती कि आखिर पिता भी तो पुरुष है
पिता भी तो रखते हैं अपनी आध्यात्मिक क़िताबों के बीच
सेक्स कथाओं की रंगीन-सी क़िताब
जिसके कवर पर लगभग नंगी-सी एक औरत खड़ी है
वे अच्छी तरह जानती थीं वे बिलकुल इस औरत की तरह नहीँ
दिखतीं
मगर फिर भी वे उस कवर पर ख़ुद को खड़ा पातीं
और ख़ौफ़ से भर जातीं

इन बच्चियों के ‘बचपन’ मेरे भीतर दफ़्न हैं
मेरा शरीर अब शरीर नहीँ है, एक उदास क़ब्र है
उनमें से एक बच्ची ने (जो मुझे प्रेम करने का दावा करती थी) सालों पहले इस क़ब्र पर कुछ शोकगीत लिखे थे और एक सफ़ेद फूल रखा था
वह फूल तो सूख गया…
मगर वे गीत अब भी नहीँ मिटे…

इन बच्चियों की ‘जवानी’ को मारकर बहा दिया गया
उस नदी में जिसका पानी नीला नहीँ लाल है
मेरे घर के नल से यही पानी आता है, मैं यही पानी पीती हूँ
मैं नहाती हूँ इसी पानी से…
मुझे देखो ज़रा गौर से,
मैं आहिस्ता-आहिस्ता ख़ून जैसी दिखने लगी हूँ

इसलिए जब कोई अनजान औरत कहती है
कि एक ‘बड़े आदमी’ ने मुझे नोंचा-फाड़ा और लील कर उगल दिया
तो मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीँ होता
क्योंकि मैं जानती हूँ ‘पुरुष बनना’ इस सभ्यता की सबसे ख़तरनाक प्रकिया है

दुनिया के वे पिता जिनके वीर्य से बच्चियां बनीं
काश खुद को ‘पुरुष बनने’ से बचा लेते !
तो ये बच्चियां कम से कम अपने आंगन में तो फुदक लेतीं
काश ये बच्चियां कुछ बरस ही चिड़िया बनकर जी लेतीं।

 

6. प्रकाश-संश्लेषण

महीनों से एक हवाबंद डिब्बे में रखी पुरानी मूंग को जिस तरह मिला पानी, मिली वायु, मिला प्रकाश, मिला समय ठीक उसी तरह तुम मुझे मिले…

मगर ठहरो इस कविता में तुम्हारे अतरिक्त एक ‘अन्य’ भी है
और वह इस अँकुरित मूँग को खा जाना चाहता है, जबकि उसे ज़रा-सी भी भूख नहीं…
दरअसल उसे खाने का बहुत शौक़ है, वह दिन-रात खाया करता है और कंठ तक आत्मविश्वास से भरा हुआ है

‘भूख न होने पर भी खाना’ हिंसा है’, यह ज्ञान मैंने शेर से लिया है, हालांकि मैं शेर से सिर्फ़ चिड़ियाघर में मिली हूँ

इस समय जिस शहर में बैठकर मैं लिख रही हूँ, उस शहर में भूखमरी फैली है और
वह कह रहा है: भूख ख़राब चीज़ है!

इसतरह औरों की भूख उसके ज़ेहन में वस्तु की तरह निवास कर चुकी है

भूख की ख़राब आदत से लोगों को बचाने के लिए उसने दुकानें खोली हैं, अस्पताल खोले हैं, खोले हैं धार्मिक स्थल
वहां भूख का व्यापार हो रहा है, भुखमरों को भूख रोकने की टेबलेट बाँटी जा रही है, लम्बे-लम्बे वक्तव्य दिए जा रहे हैं, मंत्रजाप हो रहे हैं…

मूँग को वह खा चुका है!
और अब मेरे शहर को वह खा रहा है-

तुम इस शहर को भी थोड़ा पानी दो!
तुम इस शहर को भी थोड़ी वायु दो!
तुम इस शहर को भी थोड़ा प्रकाश दो!
तुम इस शहर को भी थोड़ा समय दो!

मैं चाहती हूँ मेरा शहर वनस्पतियों की तरह प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न करे
मेरा शहर आत्मनिर्भर बने
और स्वयं को उस ‘अन्य’ से बचा ले, जिसने इस कविता को ‘प्रेम कविता’ बनने के सुख से वंचित कर दिया।

 

7. विविधता

तुम पीपल का पेड़ हो
और मैं आम
न तुम मुझे पीपल बनने की कहना
न मैं तुम्हें आम

एक तरफ़ बाग में तुम खड़े होगे
और एक तरफ़ मैं

मेरे फल तुम्हारे पत्ते चूमा करेंगे
और तुम्हारे फल मेरे पत्तों को आलिंगन में भरे लेंगे

जब बारिश आएगी
हम साथ-साथ भीगेंगे

जब पतझड़ आएगा
हमारे पत्ते साथ-साथ झरेंगे

धूप में देंगे हम राहगीरों को छाँव
अपनी शाखाओं की ओट में छिपा लेंगे हम
प्रेम करने वाले जोड़ों की आकृतियां

हम साथ-साथ बूढ़े होंगे
हम अपने-अपने बीज लेकर साथ-साथ मिलेंगे मिट्टी में

हम साथ-साथ उगेंगे फिर से
मैं बाग के इस तरफ़, तुम बाग के उस तरफ़
न मैं तुम्हें अपने जैसा बनाऊँगी
न तुम मुझे अपने जैसा बनाना

अगर हम एक जैसा होना भी चाहें तो यह सम्भव नहीं
क्योंकि इस संसार में एक जैसा कुछ भी नहीं होता
एक माता के पेट में रहने वाले दो भ्रूण भी एक जैसे कहां होते हैं…

फिर हम-तुम तो दो अलग-अलग वृक्ष हैं, जो अपनी-अपनी ज़मीन में गहरे तक धंसे हैं

हम किसी बालकनी के गमले में उगाए गए सजावटी पौधे नहीं
जिसे तयशुदा सूरज मिला, तयशुदा पानी मिला और नाप कर कर हवा मिली

हम आम और पीपल हैं!

 

8. तिलिस्म

मैं आज तक ऐसे बाप से नहीँ मिली जो अपने बेटे को किसान बनाना चाहता हो
न मिली हूँ ऐसी माँ से जो बेटे को भारत माता का सिपाही बनाकर जंग पर भेजने की ख़्वाहिश रखती हो।

मुझे ताज़्जुब होता है
जब कोई प्रसिद्ध मंचीय कवि वीर रस की कविता सुनाने के बाद चिल्लाकर कहता है
‘जय जवान, जय किसान’
और वहां बैठे श्रोताओं की आँखें ताली बजाते-बजाते गर्व से भर जाती हैं।

मैंने कभी उन गर्व से भरी आँखों में
ख़ून के आँसू नहीँ देखे
मैंने कभी उन गर्व से भरी आँखों में
पसीने के आँसू भी नहीँ देखे।

मैं ऐसी बहुत-सी माँओं, बीवियों और बहनों से मिली हूँ
जिनके बेटे सियाचीन की ठंड में सिकुड़ कर मर गए
जिनके शौहर राजस्थान के रेत में झुलसकर जवानी में ही जर्जर, पुराने और मैले हो गए
जिनके भाई बस्तर के जंगलों में भटकते-भटकते अफ़सरों के हाथों की कठपुतली होते गए।

ये सब के सब किसी ‘विजय’ के लिए नहीँ
‘रोज़गार’ के लिए भर्ती हुए थे फ़ौज में
जैसे बाक़ी बचे हुए डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, चपरासी, सफ़ाईकर्मी इत्यादि बन गए वैसे ही ये फ़ौजी बन गए थे।

जो ये भी नहीँ बन पाए और जिनके पास खेत थे
वे किसान बन गए
जिनके पास खेत भी नहीँ थे
वे दूसरोँ के खेतों में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर बन गए।

जब पानी की कमी से फसलें सूखी तो ये रोये
जब बारिश और ओले इनकी फसलों पर गिरे
तो ये फिर रोये
ये बार-बार रोये और कुछ तो ख़ुदकुशी करके मर भी गए।

जब ये नए-नए जवान हुए थे तो शाहरूख खान और सचिन तेंदुलकर बनने के ख़्वाब देखते थे
मगर इनके ख़्वाब अठारह में ही टूट गए तब
जब इन्हें दुश्मन से लड़ने का अभ्यास कराने के दौरान पिट्ठू बांधकर मेढ़क की तरह दौड़ाया गया
जब इन्हें सूरज के सामने बिठाकर फसल काटने का आदेश दिया गया।

इन सैनिकों को नहीँ मालुम कि कितने वीर रस के कवि इनको विषय बनाकर पड़ोसी मुल्क की जीभ खींचने का अरमान पाल रहे हैं
इन किसानों को नहीँ मालूम कि यथार्थवादी कविताओं को इनकी कितनी ज़रूरत है।

ये अपनी किस्मत को कोसते हैं
इन्हें लगता है इनकी ज़िन्दगी में कुछ भी दिलचस्प नहीँ
अपने छोटे-छोटे हाकिमों के लिए गन्दी-गन्दी गालियां बुदबुदाते हुए
आधी रात को उठकर लाल चौक पर ड्यूटी करने जाने वाले ये जवान
सबेरे-सबेरे जल्दी उठकर सिघाड़े के लिए दलदल में उतरने वाले ये किसान

उस सबसे बड़े ‘हाकिम के तिलिस्म’ के बारे में जरा-सा भी नहीँ जानते
जिसने इन्हें ‘जिन’ में बदलकर अपनी ज़िंदगी खासी दिलचस्प और रंगीन बनाकर रखी है।

 

9. आखिरी रोटी

सुनती आ रही हूँ :

उसकी और मेरी माँएँ एक ही कुएँ में डूब कर मरी हैं

कटोरे भर चाय और बासी रोटी का नाश्ता मैंने भी किया था

इसकी वजह अभाव नहीं, लोभ था

स्टील के टिफ़िन में होती थीं कई नरम रोटियाँ

पर उसकी आख़िरी रोटी जो भाप से तर हो जाती,

मेरी ही थाली में सबसे नीचे रखी जाती

चाहे मैं सबसे पहले खाऊँ

मैं हमेशा तीन रोटी खाती थी

चौथी रोटी कब माँगी याद नहीं

ऐसा नहीं कि मिल नहीं सकती थी

घर की हवाओं में क्या मिला था

कुछ कहा नहीं जा सकता

पर हक़ीक़त यही थी कि मैं तीन रोटी खाती थी

मेरा घर रईसों और इज़्ज़तदारों में गिना जाता था

मेरे लिए रईस और इज़्ज़तदार दूल्हा ढूँढ़ा जाता था

और मैं थी कि रहती—

स्वादिष्ट सब्ज़ी और घी चुपड़ी रोटी के जुगाड़ में

उसकी कहानी मुझसे अलग थी

उसके पास रोटी के नाम पर कुछ जूठे टुकड़े होते

जो मेरे जैसे घरों से बासी होने पर हर शाम उसे मिलते

उसके पास भूख का तांडव था

उसके घर में तीनों समय अकाल पड़ता था

भुखमरी की घटनाएँ होती थीं

मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं थे

उसके पास कपड़े ही नहीं थे

कपड़ों के नाम पर थी कुछ उतरन

जो मेरे जैसे घरों से हर त्यौहार की सुबह उसे मिलती

मैं अपने दाँत सफ़ेद मंजन से माँजती,

मेरे पास ब्रश और पेस्ट नहीं था

वह अपने दाँत कोयले या राख से माँजती

उसके पास मंजन ही नहीं था

उसके दाँत पीले थे और हल्के भी

इसलिए शायद मेरा मांस सफ़ेद था और उसका काला

वह जाती जंगल, खेत, सड़क…

रोटी के जुगाड़ में

मुझे बाहर जाने की अनुमति नहीं थी

मेरे पुरखों को डर था

कि कहीं बाहर जाते ही मेरे सफ़ेद मांस पर दाग़ न पड़ जाए

मेरे पुरखों का मानना था कि सफ़ेद चीज़ें जल्दी गंदी होती हैं

इसलिए मैं भीतर ही रखी जाती

जल्द ही मेरा सफ़ेद मांस पीला पड़ गया

मेरे पीलेपन को मेरा गोरापन कहा जाता

मेरी गिनती सुंदर लड़कियों में की जाती

और उसकी बदसूरत लड़कियों में

मेरे घर के नैतिक पुरुष जंगल, खेत, सड़क… पर जाकर उसका बलात्कार करते

और रसोई, स्नानघर, छत… पर मेरा

उसका घर हर साल बाढ़ में बह जाता

और मेरा घर उसी जगह पर पहाड़ की तरह डटा रहता

मेरे घर के किवाड़ भारी थे, लोहा मिला था उनमें

और उसके घर के हल्के, इतने हल्के कि हवा से ही टूट जाते

न मैं उसके घर जा सकती थी, न वह मेरे घर आ सकती थी

वह सोचती थी मैं ख़ुश हूँ

और मैं सोचती थी कि वह तो मुझसे भी ज़्यादा दुखी है

बस एक ही समानता थी

कि हम अपने-अपने घरों की आख़िरी रोटी खाते थे

अगर हमारी माँएँ जीवित होतीं तो ये आख़िरी रोटियाँ वे खा रही होतीं।

 

10. एलीना क़ुरैशी

एलीना क़ुरैशी आज तुम हिज़ाब पहन कर कॉलेज़ आईं
याद है वो दिन! जब तुम पहली बार आई थीं तो जींस-टॉप पहनकर आई थीं
तुमने कहा था, “मेम, मुझे आईपीएस बनना है।”

मुझे कितनी ख़ुशी हुई थी यह जानकर कि तुम्हारे पापा तुम्हें पढ़ाने में रुचि रखते हैं
मैंने तुम्हारी मम्मी से बात की थी एक बार फोन पर, और जाना वो तुम्हारी पढ़ाई को लेकर चिंतित रहती हैं

तुम तब भी हिज़ाब पहनने वाली लड़कियों के साथ आती थीं
पर सबमें सबसे अलग था तुम्हारा आत्मविश्वास, तुम्हारी चहकती जवानी , तुम्हारी चमकती आंखें
उन आंखों से झाँकते सपने, तुम्हारी गूँजती हुई हँसी
एलीना क़ुरैशी तुम सबसे सुंदर हँसती थीं!

मगर आज तुम बहुत गम्भीर थीं
लगा जैसे तुमने हँसना बन्द कर दिया है
लगा जैसे तुम ख़बरें पढ़ने लगी हो
लगा जैसे तुम टीवी देखने लगी हो
लगा जैसे तुमने फेसबुक पर कोई मज़हबी ग्रुप ज्वाइन कर लिया है
एलीना क़ुरैशी तुम भी हिज़ाब पहनने लगी हो!

एलीना क़ुरैशी मैं ‘अब्दुल्लाह हुसैन’ की किताब ‘उदास नस्लें’ पढ़ रही हूँ
मैं इस क़िताब को पढ़ते हुए बस तुम्हें देख रही हूँ
मेरे देखते ही देखते तुम असमय ही कितनी बूड़ी होती जा रही हो एलीना क़ुरैशी
न जाने कौन-सा कम्बख़्त वज़न है जो तुम्हारे होंठों से चिपक कर बैठ गया है
काश तुम इस सियाह हिज़ाब के बारे में कोई टिप्पणी करती एलीना क़ुरैशी!

हिंदू शिक्षक कह रहे हैं, “एलीना का हिज़ाब विवाद के बाद, हिज़ाब पहनना बताता है कि मुसलमान कितने कट्टर होते हैं।”
एलीना क़ुरैशी तुम्हें पता भी है कुछ
‘तुम्हें कट्टरपंथी घोषित किया गया है’
और यह वाक्य लिखते हुए मेरा ब्लड प्रेशर लॉ हो रहा है।

राजनीति बहुत क्रूर हो गई है
उसकी क्रूरता से बचने के लिए मैं भी पीछे की तरफ़ चल रही हूँ
तुम भी चल रही हो पीछे की तरफ़ एलीना क़ुरैशी

राजनीत के बचाव-दवाब-जवाब में और कितना पीछे की तरफ़ चलना है हम दोनों को
तुम्हें अरब जाकर रेत पर लेटना है और
क्या मुझे भगवा पहनकर हवन कुण्ड में बैठना है एलीना क़ुरैशी ?

तुम्हें पुलिस में जाने से पहले और मुझे कविता लिखने के अलावा और क्या-क्या करना है एलीना क़ुरैशी ?

 

11. पार्वती-योनि

ऐसा क्या-किया था शिव तुमने?

रची थी कौन-सी लीला?

जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग

माताएँ बेटों के यश, धन व पुत्रादि के लिए

पतिव्रताएँ पति की लंबी उम्र के लिए

अच्छे घर-वर के लिए कुवाँरियाँ

पूजती है तुम्हारे लिंग को

दूध-दही-गुड़-फल-मेवा वग़ैरह

अर्पित होता है तुम्हारे लिंग पर

रोली, चंदन, महावर से

आड़ी-तिरछी लकीरें काढ़कर,

सजाया जाता है उसे

फिर ढोक देकर बारम्बार

गाती हैं आरती

उच्चारती हैं एक सौ आठ नाम

तुम्हारे लिंग को दूध से धोकर

माथे पर लगाती हैं टीका

जीभ पर रखकर

बड़े स्वाद से स्वीकार करती हैं

लिंग पर चढ़े हुए प्रसाद को

वे नहीं जानतीं कि यह

पार्वती की योनि में स्थित

तुम्हारा लिंग है,

वे इसे भगवान समझती हैं,

अवतारी मानती हैं,

तुम्हारा लिंग गर्व से इठलाता

समाया रहता है पार्वती-योनि में,

और उससे बहता रहता है

दूध, दही और नैवेद्य…

जिसे लाँघना निषेध है

इसलिए वे औरतें

करतीं हैं आधी परिक्रमा

वे नहीं सोच पातीं

कि यदि लिंग का अर्थ

स्त्रीलिंग या पुल्लिंग दोनों है

तो इसका नाम पार्वती-लिंग क्यों नहीं?

और यदि लिंग केवल पुरुषांग है

तो फिर इसे पार्वती-योनि भी

क्यों न कहा जाए?

लिंगपूजकों ने

चूँकि नहीं पढ़ा ‘कुमारसंभव’

और पढ़ा तो ‘कामसूत्र’ भी नहीं होगा,

सच जानते ही कितना हैं?

हालाँकि पढ़े-लिखे हैं

कुछ ने पढ़ी है केवल ‘स्त्री-सुबोधिनी’

वे अगर पढ़ते और जान पाते

कि कैसे धर्म, समाज और सत्ता

मिलकर दमन करते हैं योनि का

अगर कहीं वेद-पुराण और इतिहास के

महान मोटे ग्रंथों की सच्चाई!

औरत समझ जाए

तो फिर वह पूछ सकती है

संभोग के इस शास्त्रीय प्रतीक के—

स्त्री-पुरुष के समरस होने की मुद्रा के—

दो नाम नहीं हो सकते थे क्या?

वे पढ़ लेंगी

तो निश्चित ही पूछेंगी,

कि इस दृश्य को गढ़ने वाले

कलाकारों की जीभ

क्या पितृसमर्पित सम्राटों ने कटवा दी थी

क्या बदले में भेंट कर दी गई थीं

लाखों अशर्फ़ियाँ,

कि गूँगे हो गए शिल्पकार

और बता नहीं पाए

कि संभोग के इस प्रतीक में

एक और सहयोगी है

जिसे पार्वती-योनि कहते हैं।

 

12. मर्द बदलनेवाली लड़की

मैं उन लड़कियों में से नहीं

जो अपने जीवन की शुरूआत

किसी एक मर्द से करती है

और उस मर्द के छोड़ जाने को

जीवन का अंत समझ लेती हैं

मैं उन तमाम सती-सावित्रीनुमा

लड़कियों में से तो बिल्कुल नहीं हूं

मैंने अपने यौवन के शुरूआत से ही

उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर

अलग-अलग मानसिकता के

पुरुष मित्र बनाए हैं

हरेक के  साथ

बड़ी शिद्दत से निभाई है दोस्ती

यहां तक कि कोई मुझे उन क्षणों में देखता

तो समझ सकता था

राधा, अनारकली या हीर-सी कोई रूमानी प्रेमिका

इस बात को स्वीकार करने में मुझे

न तो किसी तरह की लाज है

न झिझक

बेशक कोई कह दे मुझे

छिनाल, त्रिया चरित्र या कुलटा वगैरह-वगैरह

चूंकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूं

इसलिए ‘सभ्य’ समाज के खांचे में

लगातार मिसफिट होती रही हूं

पतिव्रता टाइप लड़कियां या पत्नीव्रता लड़के

दोनों ही मान लेते हैं मुझे ‘आउटसाइडर’

पर मुझे इन सब की जरा भी परवाह नहीं

क्योंकि मैं उन लड़कियों में से नहीं

आलोचना और उलहाने सुनते ही

जिनके हाथ-पैर कांपने लगते हैं

बहने लगते हैं हजारों मन टेसूए

जो क्रोध को पी जाती हैं

प्रताड़ना को सह लेती हैं

और फिर भटकती हैं इधर-उधर

अबला बनकर धरती पर

चूंकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूं

इसलिए मैंने वह सब देखा है

जो सिर्फ लड़कियों को सहेली बनाकर

कभी नहीं देख-जान पाती

मैंने औरतों और मर्दों दोनों से दोस्ती की

इस बात पर थोड़ा गुमान भी है

गाहे-बगाहे मैं खुद ही ढिंढोरा पिटवा लेती हूं

कि यह है ‘मर्द बदलने वाली लड़की’

यह वाक्य

अब मेरा उपनाम-सा हो गया है

 

 

कवयित्री नेहा नरूका
जन्मतिथि- 7 दिसम्बर 1987
जन्मस्थान-उदोतगढ़, तहसील-अटेर, जिला-भिंड, मध्यप्रदेश
वर्तमान निवास- कोलारस, जिला-शिवपुरी, मध्य प्रदेश
शिक्षा-हिंदी (एम.ए.), नेट, पीएचडी ( ‘हिंदी की महिला कथाकारों की आत्मकथाओं का अनुशीलन’ विषय पर शोधकार्य)
सम्प्रति-शासकीय श्रीमंत महाराज माधवराव सिंधिया महाविद्यालय कोलारस में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (हिंदी) पद पर कार्यरत
प्रकाशन-‘सातवाँ युवा द्वादश’ में कविताएँ संग्रहीत एवं कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन और सोशल मीडिया पर सक्रीय भागीदारी एवं चर्चित ब्लॉग्स पर कविताओं का प्रकाशन।
सम्पर्क-nehadora72@gmail.com

 

टिप्पणीकार मदन कश्यप ‘गूलर के फूल नहीं खिलते’ (1990), ‘लेकिन उदास है पृथ्वी’ (1993), नीम रोशनी में (2000) के कवि, समकालीन हिंदी कविता के चर्चित और सम्मानित कवि।

सम्पर्क: madankashyap0@gmail.com

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