(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)
श्रम के प्रति मेरा लगाव उन्हीं की देन है। प्रतिदिन चाय पीने के बाद बाबू पान मुंह में दबाए अपने दुआर से ब्रह्मदेव काका के दुआर तक खरहर ( अरहर की डंडी से बनी लम्बी झाड़ू , जिससे खड़े खड़े ही झाड़ू लगाया जाता है) से पूरी गली साफ करते थे। खेतों में मेहनत करने का तो कोई हिसाब ही नहीं कि उनके जैसा प्रेम से कोई उतनी मेहनत कर सकता है। खेती के प्रति एक जुनून था उनको। गांव में वे पहले किसान होते थे जो नये से नये बीज लाते थे और अपने हाथों से खेत में किनारे किनारे लगाकर अगले साल के लिए बीज तैयार करते थे। क्योंकि उनके पास इतना पैसा नहीं था कि पहले ही साल नया बीज खरीदकर ज्यादा खेती कर लें। अपने जीवन में उन्होंने बहुत संघर्ष किया। शौकीन बहुत थे लेकिन जिम्मेदारियों से दबे होने के कारण अपना मनमाफिक शौक न पूरा कर सके। खेती के दम पर उन्होंने एक भगिनी का गौना, अपने चारों बेटे की शादी, अपनी तीन बेटी और चाचा की तीन बेटियों की शादी, (जिसमें नकदी छोड़ सारा इंतजाम पिता जी ही करते थे) और एक पोते की शादी की। इसके अलावा बाबा, आजी और चाचा के मृत्योपरांत सारे क्रिया कर्म की जिम्मेदारी पूरी की। कभी कभार चाचा कुछ सहयोग कर देते थे। इतनी जिम्मेदारियों के बीच एक किसान की हालत आप सब समझ सकते हैैं।
फिर पूजा पाठ और पंडितों पर गुस्साते थे। जब किसी रिश्तेदारी में जाएं तो माताजी कुछ करा पाती थीं। उनका कहना था कि जिनको पंडित बनाकर पैर छूती हैं वो बाहर कौन कौन करम करता है आपको पता है। फिर जो पंडित आता उसे बहुत गलियाते थे। शादी व्याह के अलावा कभी मेरे यहां सत्यनारायण की कथा नहीं हो पाती थी।