समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-13

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

सारी कठिनाइयों के बावजूद बच्चे, घर और स्कूल की जिम्मेदारियों को निभाते हुए जिंदगी चल रही थी। साइकिल की टोकरी में अंकुर को और पीछे समता को बैठाए मैं स्कूल, परिचितों के यहां और संगठन के धरना-प्रदर्शन में भी जाती रही। एक बार कंपनी गार्डेन के पास एक विदेशी महिला ने मुझे रोका और अंग्रेजी में कुछ पूछने लगी। नाम और क्या करती हूं , तक तो मैंने बता दिया पर उसके आगे मैं उनकी बात नहीं समझ पा रही थी ( क्योंकि अंग्रेजी मुझे न के बराबर आती थी) फिर मैंने हाथ से अंग्रेजी न आने का इशारा कर दिया जिसे वे समझ गईं और दोनों बच्चों सहित साइकिल पर बैठे हुए मेरी एक फोटो खीचीं और हंसते हुए टाटा करते चली गईं।

इस बीच मुझे बी.ए.करने का मन हुआ। चूंकि नौकरी करते रिगुलर करने का आप्शन था नहीं और प्राइवेट करने में भी प्रबंधक की अनुमति जरुरी थी। इस संबंध में मैंने प्रबन्धक से बात की तो उन्होंने लिखित अनुमति दे दी। मैंने बी.ए.( प्राइवेट ) का फार्म कानपुर यूनिवर्सीटी से भर दिया। पढ़ाई छोड़े 10-15 साल हो गया था। लेकिन मेरी इच्छा बहुत थी कि आगे की पढ़ाई पूरी करूं। परीक्षा जून जुलाई में होनी थी।

समता अब अंकुर को पूरी तरह संभाल लेती थी। स्कूल बंद होने के बाद दोनों को मां के यहां छोड़कर मैं परीक्षा की तैयारी में लग गई। इतने दिन बाद पढ़ाई शुरु करने से बहुत डर लग रहा था कि पास होऊँगी कि नहीं। 12-14 घंटे मैंने रोज पढ़ाई की। पहले साल 56% नंबर आए। गर्मी बहुत थी।  एक कूलर भी मिल गया था लेकिन जुगाड़ से उसे कूलर बनाना पड़ा। कूलर का बाक्स था पर उसमें पंखा नदारत। तो उसे स्टैंड पर रख उसमें टेबल फैन रख देते थे। कूलर के ऊपरी हिस्से में बनी टंकी में दो बाल्टी पानी आता था। कूलर के स्टैंड के नीचे बाल्टी रख दी जाती थी। उसी में पानी इकट्ठा होता था। बाल्टी भर जाने पर पानी फिर कूलर में पलट दिया जाता था। रोज पानी खतम हो जाता। आगे बहुत रुकावटें आईं लेकिन मैंने ठान लिया था कि अबकी बी.ए.कर ही लेना है। इस बार ब्रेक हुआ तो फिर कभी न कर पाऊंगी। और इस तरह सारी परेशानियों के साथ मैंने बी.ए. का त्रिवर्षीय कोर्स 1990 में कंप्लीट कर लिया लेकिन नम्बर 52% ही रहा। बी.ए. कंप्लीट होने के बाद उत्साह बढ़ गया। आगे दो वर्ष और पढ़ाई जारी रखते हुए एम.ए. भी करने का निर्णय किया और 1992 में मैने एम.ए. भी कंप्लीट कर लिया।

1988 तक शिवकुमार, उदय और हम लोग साथ ही रहते थे। जन संस्कृति मंच का दूसरा राज्य सम्मेलन शायद नवम्बर -1988 में गोरखपुर में हुआ था  जिसमें अशोक चौधरी, अरविन्द तिवारी और उनके छोटे भाई पंकज तिवारी गोरखपुर से आयोजक की मुख्य भूमिका में रहे। वहां से लौटी तो शिव कुमार मिश्र ससामान आफिस पर शिफ्ट कर चुके थे। इसके महीने भर बाद ही दु:ख का पहाड़ टूटा। 29.01.89 को गोरख पाण्डेय के सुसाइड कर लेने की खबर मिली। इस खबर से सभी लोग कुछ टूट से गए। समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा उन्होंने क्यों किया ?

कुछ दिन बाद शिव कुमार वकालत करने बांदा चले गए और उदय बगल में ही कमरा ले लिए और प्रेस चलाने लगे।

अंकुर के स्कूल से 12 बजे आने के बाद घर में किसी के न होने से चार बजे तक अकेले ही घर के बाहर रहने की समस्या तो भारी थी। बारह बजे के बाद दिमाग अंकुर पर ही लगा रहता था। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। कई स्कूलों का समय पता किए। अंत में मम्फोर्डगंज में शिशु मंदिर का समय मेरी जरुरत के हिसाब से गर्मी में 7 बजे से 11.30 बजे तक और जाड़े में 10 बजे से 3.30 बजे तक का मिला। बिना देर किए मैंने अंकुर का एडमिशन वहां करा दिया। रिक्शा वाला गर्मी में अंकुर को 6.15 बजे ले जाता और 12.15 बजे छोड़ता था और जाड़े में 9.15 बजे ले जाता और 4.15 बजे तक छोड़ता था। इस तरह मेरे घर में रहते अंकुर स्कूल चला जाता और मेरे स्कूल से आने के बाद आता। शिशु मंदिर में एडमिशन कराने से बहुत लोग नाराज़ भी थे, मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मेरी मजबूरी थी। वहां किसी मुस्लिम बच्चे का एडमिशन नहीं होता था। उदय अंकुर को चिढ़ाते थे कि जब आचार्य जी पूछें कि खाना क्या खाए हो, तो बोल देना अंडा खाकर आए हैं।

इसी बीच वी.एन.राय एस.एस.पी. इलाहाबाद बन कर आए। एस.एस.पी. का बंगला घर से थोड़ी दूर कचहरी के पास ही था। अक्सर शाम को उनके बच्चे ( तनु, मनु और शाश्वत) गाड़ी भेजकर अंकुर और समता को बुलवा लेते थे और रात में घर छुड़वा भी देते थे। कभी-कभी हम भी चले जाते थे। एक बार सभी लोग ड्राइंगरुम में बैठे थे। सभी बच्चों को बारी-बारी से गाना गाना था। जब अंकुर का नम्बर आया तो उसने गाया कि- ”वहीं बनेगा मन्दिर फिर से, मूर्ति बिराजे राम की, जय बोलो श्रीराम की, जय बोलो हनुमान की”। वी. एन. राय कहने लगे- आप कहां रामजी के बेटे का ऐडमिशन करा दी हैं! हटाइए वहां से इसको। मैंने कहा कि- पिछली बार जब आप ‘माघ मेला’ के एस.एस.पी. बनकर आए थे तभी पद्मा जी से बताया था कि-स्कूल के समय को देखते हुए मैंने इसका नाम शिशु मंदिर में लिखवाया है, थोड़ा बड़ा हो जाएगा तो वहां से हटा लूंगी। और आपने कहा था कि- अगले सत्र में इसका ऐडमिशन सेन्ट-जोसफ में करा दिया जाय। मैंने पद्मा जी से कहा कि- संभव हो तो सेन्ट्रल स्कूल में इसका ऐडमिशन करा दीजिए, सेन्ट जोसफ स्कूल में नहीं। क्योंकि एक तो सेन्ट जोसफ स्कूल की फीस बहुत ज्यादा है मैं नहीं वहन कर पाऊंगी, दूसरे वहां टोटल इंग्लिश मीडियम में पढ़ाई होती है और मुझे इंग्लिश न के बराबर आती है और ट्यूटर भी मंहगा मिलता है। सेन्ट्रल स्कूल में फीस भी कम है और साइंस, मैथ ही केवल इंग्लिश मीडियम में पढ़ाई जाती है बाकी विषय हिन्दी मीडियम में। उसके बाद सेन्ट्रल स्कूल में एडमिशन कराने की बात पक्की हो गई। तब तक आप का यहां से ट्रांसफर हो गया। अब आप आ गए हैं तो अप्रैल में इसका एडमिशन सेन्ट्रल स्कूल में करा दीजिए। अप्रैल से ही सत्र शुरु था लेकिन 30 जुलाई तक एडमिशन नहीं हो पाया था। मैंने पद्मा जी से पूछा कि क्या करुं ? शिशु मंदिर की फीस कल न जमा करने पर नाम कट जाएगा। उन्होंने कहा कि फीस कल दोपहर तक जमा करिएगा। मैं आठ बजे रात उनके यहां से घर आई। रात 9 बजे उनके यहां से एक आदमी लिस्ट लेकर आया कि इसके निर्देशानुसार कल न्यू कैंट में अंकुर के एडमिशन के लिए जाना है। शायद सेन्ट्रल स्कूल में ऐसा नियम था कि 31 जुलाई को यदि सोमवार पड़ गया तो बगैर टेस्ट के एडमिशन होता है। और इस साल भी 31जुलाई को सोमवार ही था सो अंकुर का एडमिशन कक्षा-1 में हो गया‌।

अंकुर की कापी – किताब, ड्रेस, बैग वगैरह सब आ गया। अभी तो मेरे स्कूल का समय 7 बजे से 12.30 बजे तक और अंकुर का 7 बजे से एक बजे तक था तो कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। अंकुर को न्यू कैंट छोड़ते हुए मैं स्कूल निकल जाती थी और लौटते समय उसे ले लेती थी। जाड़े में अंकुर के स्कूल का समय 8 बजे से 2 बजे का हो गया और मेरा 10 से 3.30 बजे तक का हो गया। फिर वही समय की समस्या। न्यू कैंट से कोई साधन भी नहीं मिलता था। रिक्शे का पता कर ही रहे थे तो एक रिक्शा वाला बोला कि एक मैडम कचहरी से अकेले आती हैं उनसे आप बात कर लीजिए, वो तैयार हो जाएं तो 100/- में ही आप के बच्चे का भी आना जाना हो जाएगा। उस अध्यापिका से बात हो गई। वो तैयार भी हो गईं। अंकुर उनके साथ आने जाने लगा।

किसी कारण से एक दिन मेरी जल्दी छुट्टी हो गई तो मैं अंकुर के स्कूल की तरफ से आ गई कि उसको ले लूंगी। उसकी छुट्टी हो चुकी थी। वह जा चुका था। मैं उसी रास्ते आने लगी जिधर से वो आता था। थोड़ी दूर आने पर उसका रिक्शा वाला दिख गया। मैंने रिक्शा रुकवाया कि अंकुर को ले लूं तो अंकुर रिक्शे पर था ही नहीं, दो मैडम बैठी थीं। मैंने पूछा- अंकुर कहां है? रिक्शा वाला बोला कि- रेडियो स्टेशन तक अंकुर पैदल आता है। ये मैडम रेडियो स्टेशन उतर जाती हैं तब अंकुर बैठते हैं। उसके बाद मैं पीछे लौटी तो रास्ते में अंकुर दौड़ता हुआ आ रहा था। मैं अंकुर को लेकर आगे रेडियो स्टेशन पर रुक गई। अंकुर मना करने लगा मम्मी कुछ बोलना मत। मैडम लोग भी पहुंच गईं। जिस मैडम के साथ अंकुर आता था उनसे मैंने पूछा कि-यहां तक मेरा बच्चा पैदल क्यों आता है? मैडम बोलीं- इस मैडम को यहीं तक आना होता है तो ये मेरे साथ यहां तक आतीं हैं। उसमें छात्र को कैसे बैठाते, और अंकुर से मैंने पूछ लिया था कि तुमको रेडियो स्टेशन तक पैदल आने में कोई दिक्कत तो नहीं है। उसने कहा -कोई दिक्कत नहीं है। मैंने कहा कि- वाह! मैडम वाह! रोज मेरा बच्चा दौड़ता हुआ एक कि.मी. आता था। वो भी इसलिए दौड़ता था कि मैडम को मेरा इंतजार न करना पड़े। और आप लोगों को किसी छात्र को साथ बैठाने में शर्म लग रही थी तो पैर के पास नीचे बैठा लेतीं। आप दोनों के बच्चे नहीं हैं क्या? गुस्सा तो बहुत लगी थी लेकिन अंकुर मेरा बार-बार हाथ दबा रहा था। फिर मैंने रिक्शे वाले को मना कर दिया कि कल से अंकुर आपके रिक्शे से नहीं जाएगा। उसके बाद मैं खुद उसे छोड़ती थी और 2 बजे छु्ट्टी के बाद अंकुर 4 बजे तक स्कूल में ही रहता था। अपने स्कूल से लौटते समय मैं उसे ले लेती थी। छुट्टी के बाद सभी बच्चों के निकलते निकलते आधा पौना घंटा तो लग ही जाता था। बाकी समय वहीं खेलता रहता था।

मिलीट्री एरिया में स्कूल होने के कारण कोई डर तो नहीं था लेकिन एक दिन उसको लेने गए तो अंकुर वहां नहीं मिला। गार्ड से पूछे तो बताया कि उसको चोट लग गई है, मैडम अस्पताल लेकर गई हैं। मैं अस्पताल गई तो अंकुर को टांका लग रहा था। एक घंटे बाद मैं उसको लेकर घर आई। उस दिन रात भर उसके टांके में दर्द रहा। सुबह मेरा एम.ए.का लास्ट पेपर था। लौटकर डाक्टर से बताकर दूसरी दवा ले आई लेकिन उससे भी कोई आराम नहीं मिला। तीसरे दिन उसके टांके पके जैसे दिखने लगे तो उसे अस्पताल ले गए। डाक्टर देखने के बाद बोले- टांका पक गया है सफाई करके दुबारा टांका लगाना पड़ेगा। दुबारा टांका लग गया। दस दिन लग गया उसे ठीक होने में। कभी समता कभी हम छुट्टी लेकर इसको संभाले। उस चोट का निशान उसके आंख के ऊपर आज भी है।

अंकुर का स्कूल न्यू कैंट में ऐसी जगह पर था कि वहां व्यक्तिगत साधन से ही आ जा सकते थे। ओल्ड कैंट में ट्रांसफर करा लेने पर स्कूल नजदीक भी हो जाता और स्कूल के गेट से ही घर के पास तक का टैम्पो मिल जाता। छोड़ने, लेने की चिंता से मुक्त हो जाते। ट्रांसफर कराने में दिक्कत ये आ रही थी कि कारण क्या दिखाया जाय। चूंकि एडमिशन वी. एन.राय के जरिए हुआ था इसलिए साधन और दूरी कारण नहीं बता सकते थे। वी.एन.राय के ट्रांसफर के बाद ही मैं अंकुर का ट्रांसफर ओल्ड कैंट में करा पाई।

अब अंकुर तीसरी कक्षा में जा चुका था। वह लक्ष्मी चौराहे से टैम्पू से स्कूल जाता था और टैम्पू से आ जाता था। अब घर में अकेले भी रह लेता था। मैं सुबह पूरा खाना बनाकर जाती थी। अपना और समता, अंकुर का टिफिन एवं अंकुर के लिए दोपहर का खाना रख कर जाती थी। शुरु से ही मेरे यहां पी.एस.ओ.और दस्ता नाट्य मंच के लड़के आते ही रहते थे। अक्सर अंकुर का खाना सब खा जाते थे जिसमें सबसे ज्यादा पंकज श्रीवास्तव ये काम करते थे। एक बार पंकज को हड़काए कि तुम बच्चे का खाना क्यों खा जाते हो, तो बोला कि- मैंने अंकुर से पूछा था कि खाना खा चुके हो तो अंकुर ने कहा- हां खा चुके हैं तो हम खा लिए। अंकुर का स्वभाव ही ऐसा था। वह हमें और ,समता को छोड़ किसी से खाना नहीं मांग सकता था। दूसरे के पूछने पर अगर उसे लग गया कि पूछने वाला भूखा है तो कह देगा कि मैंने खाना खा लिया है। मेरे न रहने पर जो मिल गया खा लेगा मांगेगा नहीं। इसीलिए मैं उसको छोड़कर जल्दी कहीं नहीं जाती थी कि उसका पेट नहीं भरेगा। समता रहती थी तो मैं निश्चिंत रहती थी। स्कूल से आने के बाद चाय अंकुर ही बनाता था। चाय पीने के थोड़ी देर बाद मैं बाज़ार से सब्जी वगैरह लाती फिर अंकुर का होमवर्क करवाने बैठती। कभी-कभी अंकुर उस समय कहता मम्मी एक पराठा बना दो भूख लगी है। तुम पंकज चाचा पर गुस्साना नहीं, वो हमसे पूछकर खाए थे। सही में उस समय मुझे खाने का मन नहीं था। अब भूख लगी है। फिर उसको पराठा और चाय देते। खा कर होमवर्क करता।

अंकुर का स्वभाव ऐसा था कि बगल के घर से कभी कोई सामान मांगने के लिए भेजा जाय तो बाहर निकलकर दरवाजे के पास ही खड़ा रहता था। थोड़ी देर बाद समता को भेजती तो देखती कि वो तो यहीं खड़ा है। फिर समता जाती और मांगकर लाती। एक बार तो गली में कुछ लड़के शोर मचा रहे थे। अंकुर बाहर गए और उन लड़कों से बोले कि तुम लोग क्या कर रहे हो? उनमें से एक लड़का अंकुर को मां की गाली देने लगा। अंकुर अंदर कमरे में भाग कर आया। और समता से बोला-समता दी, समता दी जुबेर मां की गाली दे रहा है। ज़ुबैर छोटा था अंकुर से। अंकुर को डांटते हुए समता बोली कि वो मां की गाली दे रहा है और तुम अंदर भाग आए डरपोक। समता अंकुर के साथ बाहर गई और ज़ुबैर को बुलाकर डांटी कि दुबारा ऐसा किए तो बड़ी मार मारुंगी। ज़ुबैर भी शर्माकर भाग गया।

समता का स्वभाव अंकुर के विपरीत था। उसको कहीं भी छोड़ दो भूखी नहीं रह सकती थी। कहीं से आई और घर में देखा कि खाना नहीं है तो बनाएगी नहीं, बगल में चली जाएगी-चाची कुछ खाने को है, सब्जी न हो तो अचार या नमक, तेल लगाकर खा लूंगी। घर में झाड़ू पोछा समता करने लगी थी। अंकुर चाय बनाते थे। चाय बनाने के लिए अंकुर किचेन के प्लेटफार्म पर चढ़ जाता और चाय बनाकर छानने के बाद कूदकर उतर आता और चाय का बर्तन धोने के बाद ही चाय लेकर कमरे में आता था। कोई आ जाय और अगर अंकुर घर में है तो अक्सर चाय वही बनाता था। समता इसका यूज बहुत करती थी। जब समता की दोस्त आएं तो वह कहती- अंकुर चाय बना दो मेरी दोस्त आई हैं न। अंकुर चाय बना कर लाता। जब अंकुर के दोस्त आते और अंकुर कहता कि समता दी चाय बना दो, तो समता कहती कि तुम्हारे दोस्त आएं हैं तुम चाय बनाओ, मैं क्यों बनाऊं। फिर अंकुर अपने दोस्तों के लिए भी खुद ही चाय बनाता।

समता और अंकुर की तरउपरिया वाली लड़ाई होती रहती थी। दोनों आपस में लड़ते थे तो जाहिर है समता भारी पड़ती थी। मुझसे अंकुर शिकायत करते नहीं थे। मैंने कह रखा था आपस में लड़ना मत और अगर लड़ना तो आपस में ही निपटना। मेरे पास जो शिकायत लेकर आएगा वही मार खाएगा। इसमें अंकुर पिस रहे थे। मैं इन दोनों की लड़ाई देख परेशान रहती थी कि ये दोनों की आपस में निभेगी कैसे। मैं रामजी राय से कहती तो वे कहते कि समता की शादी के बाद देखिएगा। और शादी के बाद क्या, विदाई के साथ ही उनके बीच की लड़ाई बंद ही नहीं हुई बल्कि एक दूसरे पर जान छिड़कने में बदल गई।

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