समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-1

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)
नवम्बर 1991 में प्रधानाध्यापिका का कार्यभार लेते समय 14  का स्टाफ था। उसमें से अप्रैल 2017 में विद्यालय में मात्र चार स्टाफ बचा था- प्रधानाध्यापिका, प्राइमरी की दो सहायक अध्यापिका और एक परिचारक।
मुझे कक्षा एक से 8 तक के बच्चों को पढ़ाना तथा आफिस का भी काम नियमित सभांलना था। पोस्ट मिलने के कोई आसार नहीं दिख रहे थे। वर्ष 2012 से विद्यालय में लिपिक का काम भी मैं ही कर रही थी।
ऐसी स्थिति में इन दोनों अध्यापिकाओं ने ‘हीरा- मोती’ बनकर हमारा सहयोग किया। कठिन से कठिन काम हम तीनों एकमत होकर पूरा किये, और मुश्किलों के बीच भी काम होता गया। वो हीरा-मोती कोई और नहीं रुचि और स्नेह थीं।

 

जहां से 31.03.2021 को सेवा निवृत्त हुई हूं, वहां जुलाई 1981 में प्राइमरी की सहायक अध्यापिका पद के लिए विज्ञापन निकला था। मैंने वहां अप्लाई कर दिया था। इन्टरव्यू दिलाने रामजी राय साइकिल से लेकर गये। रास्ते में नेहरू पार्क के पास पहुंचे तो बताने लगे कि वो.. गंगा पार वाले गांव में स्कूल है, लेकिन जब पार्क के कोने से नींवा की तरफ मुड़ने लगे तो मैंने कहा कि कहां जा रहे हैं, आप तो गंगापार वाले गांव में स्कूल बता रहे थे ,तो कहे कि इसलिए कह रहा था कि इस गांव में बताते तो आप को यही दूर लगता। हमलोग स्कूल पहुंच गये।

वहां एक कमरे में सभी अभ्यर्थियों के बैठने की व्यवस्था थी (उसी कमरे में मेरा विदाई समारोह भी 01.04.2021को संपन्न हुआ)। श्यामपट पर सभी अप्लाई करने वाले अभ्यर्थियों का नाम,पता, उनकी शैक्षिक योग्यता और विषय लिखा हुआ था। एक रजिस्टर पर भी यह सब लिखा था जिस पर उपस्थित अभ्यर्थियों से उनके नाम के सामने उनका हस्ताक्षर भी कराया जा रहा था। कुछ अभ्यर्थी नहीं भी आये थे। कुछ लोगों के लिए अलग से चाय, नास्ते की व्यवस्था भी थी।

बाद में पता चला कि अभ्यर्थियों में एक बीएसए का कन्डीडेट और एक मैनेजर का कन्डीडेट है। जबकि पोस्ट एक ही है। मैं तो निराश ही हो गई थी कि अब यहां तो होगा नहीं।

मैं बाथरूम गई तो आते समय यह पता लगा कि सोर्स तो तगड़ा है, बीएसए और मैनेजर के कन्डीडेट का लेकिन यहां गणित के टीचर की आवश्यकता है। जो गणित के कन्डिडेट होंगे उनका हो जाना चाहिए क्योंकि दो सोर्स टकराने से किसी तीसरे का ही होना है। सुनकर मेरी आस बंधी। मेरे ही साथ ट्रेनिंग की हुई माधुरी अग्रवाल का भी नाम अभ्यर्थियों में था, लेकिन वो अनुपस्थित थी। उसका इंटर तक गणित था। मेरा तो हाईस्कूल तक ही गणित था।

थोड़ी देर बाद श्री महावीर प्रसाद पाल कमरे में आये और उन्होंने अपना परिचय दिया कि वे इस विद्यालय के संस्थापक हैं और सभी अभ्यर्थियों का परिचय लिया। उसी समय उन्होंने मेरा नाम लेकर बुलाया कि मीना राय कौन हैं ? मैं खड़ी हो गई। उन्होंने कहा कि आप सन् 1973 में हाई स्कूल की हैं, अब तो गणित बहुत कठिन हो गई है । मैंने कहा कि सर, उस समय गणित साइंस साइड और आर्ट साइड की एक ही थी। अब तो मेरे खयाल से आसान हो गई है। उसके बाद उन्होंने एक टीचर को बुलाकर गणित की किताब इंटरव्यू कक्ष में भेजने को कहा। उस टीचर ने संस्थापक महोदय से धीरे से कहा कि किसी किसी को अंकगणित आती है, बीजगणित नहीं आती है । मैं दोनों किताब भिजवा देती हूं। वो टीचर प्रेमलता जी थीं।

इंटरव्यू की प्रक्रिया शुरू हुई । ऊपर वाले कमरे में एक एक करके इंटरव्यू के लिए अभ्यर्थियों को बुलाया जाने लगा। मेरा नाम बुलाया गया। मैं बरामदे से ऊपर जा रही थी तो रामजी राय ने दूर से ही कहा- “समर न जीते कोय “

इंटरव्यू कक्ष में बीएसए की प्रतिनिधि एआईजीएस श्रीमती प्रकाश रानी, प्रबन्धक श्री बसन्त लाल पाल, प्रधानाध्यापिका श्रीमती प्रकाश श्रीवास्तव और अभिलेखों की देख रेख कर रहे संस्थापक श्री महावीर प्रसाद पाल थे। मेरा इंटरव्यू आधा घंटा चला, जिसमें तीनों प्रतिनिधियों द्वारा जनरल नालेज के अलावा संस्कृत का रूप, भूगोल के नक्शे में शहरों का स्थान, गंगा कहां से निकलती है आदि आदि प्रश्न किया गया। बीजगणित से कई समीकरण हल करवाये गए और पाइथागोरस का प्रमेय भी सिद्ध करवाया गया। इन सबके बाद मेरी ट्रेनिंग की मार्कशीट और सर्टिफिकेट की मांग की गई। मैंने बताया कि सर, अभी केवल पेपर में रिजल्ट निकला है। जब स्कूल से दोनों चीजें मिल जाएगी तो जमा कर दूंगी।

इस संबन्ध में संस्थापक महोदय ने मुझसे एक प्रार्थना पत्र लिखवाया। उसके बाद संस्थापक महोदय ने कहा कि मान लीजिए आपकी नियुक्ति हो जाय तो आप इतनी दूर कैसे आएंगी ? मैंने सोचा कि बाकी सब तो ठीक ही जा रहा है, कहीं इसके लिए न मुझे छांट दें । मैंने पूरे विश्वास से कहा कि साइकिल से आऊंगी। फिर संस्थापक ने कहा कि आज क्यों नहीं साइकिल से आईं ? मैंने कहा कि सर, शादी से पहले साइकिल चलाती थी। मेरी लेडीज साइकिल थी। नौकरी लग जाएगी तो लेडीज साइकिल खरीद लूंगी। जबकि मैंने यह सरासर झूठ बोला था, साइकिल चलाना तो मुझे एकदम नहीं आता था। वो तो इसलिए झूठ बोला कि इसके लिए न मुझे रिजेक्ट कर दें। और जब मेरी नियुक्ति हो गई तो मैं रात में साइकिल चलाना सीखने लगी और मैंने सीख भी लिया।

तस्वीर उसी समय की है।

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