समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

गांव-शहर को रहने लायक बनाने वाले सफाई देवताओं पर कुछ विचार

ऐ, दिल मुझे ऐसी जगह ले चल, जहाँ कोई ना हो
ऐ, दिल मुझे ऐसी जगह ले चल, जहाँ कोई ना हो
चलना है सब से दूर-दूर अब कारवाँ कोई ना हो
अपना-पराया, मेहरबाँ-नामेहरबाँ कोई ना हो
ऐ, दिल मुझे ऐसी जगह ले चल…
सुमनलता भारद्वाज तलत महमूद को सुनते हुए आउटर रिंग रोड से गुजर रही है। काम – धाम करते – करते कैसे रात निकल गई पता ही नहीं चला। जब आँखें जलने लगीं, तो घर की याद आई, सो गाड़ी निकालते ही म्युजिक सिस्टम ऑन कर दिया। तलत महमूद की आवाज तैरने लगी। रिंग रोड के किनारे लगे अखरोट के पेड़ झूम रहे थे, जैसे वे भी तलत साहब को सुन रहे हों। थोड़ी दूर चलने पर सुमनलता भारद्वाज ने कार की खिड़की को खोल दिया। साफ हवाएं झम्म से अंदर कूद पड़ीं। बाहर कुछ मर्द और औरतें सिक्स लेन सड़क पर झाड़ू लगा रही थीं। महाकाय सर्पिलाकार सड़कें सूरज की रौशनी पड़ने से घंटे भर पहले ही साफ – सुथरी कर दी जाती हैं। क्योंकि इन्हीं सड़कों से राज्य के मुख्यमंत्री, मंत्री, आला अधिकारी, उद्योगपति, फिल्मों में काम करने वाले हीरो और नाजुक और बेशुमार हुश्न से लदी हीरोइनें काम पर जाने के लिए गुजरती हैं।

सड़क की सफाई के दौरान पीले कवचधारी मर्दों और औरतों को कई तरह के काम करने पड़ते हैं। जैसे दिन भर खेलने से या काम करने से मजदूर के कपड़े गंदे हो जाते हैं, वैसे दिन पर की भीड़ के गुजरने से सड़कें भीं गंदी हो जाती हैं। कई लोग आदतवश सड़कों पर थूक देते हैं। कुछ लोग नजर बचा कर सड़क के किनारे, ऐन अखरोट, जामुन और शागौन की नीचे मूत्र विसर्जन और कभी – कभी मल त्याग तक कर डालते हैं। दिन भर में सड़कें आदमी से लेकर पशुओं तक से गंदी होती जाती हैं। इसलिए पीले कवचधारी स्त्री – पुरुष मंदिर के पुजारी की रामधुन सुनते ही झाड़ू, तसला, फिनायल और खुशबूदार पानी लेकर सड़कों पर ऐसे फैल जाते हैं, जैसे शत्रु सेना को योद्धा अपने नियंत्रण में ले लेते हैं। फुर्ती से काम करते हुए बड़ी मस्जिद की अजान खत्म होते – होते पूरे शहर के बाहर और शहर के अंदर नस की तरह फैली सड़कों को ऐसे चमका देते हैं, जैसे कोई बैद रोगी की मरहमपट्टी करके उसे निरोगित बना देता है।

आइए सोचें कि ये औरत–मर्द कौन हैं और हम इन्हें कितना जानते–समझते हैं ? देश को निरोगित रखने में इनकी क्या भूमिका है? और खुद ये कितने निरोगित रह पाते हैं ?

पीले रंग का कवच पहने औरत–मर्द हर सुबह सड़क पर झाड़ू लगाते दिख जाते हैं। सफाई करते वक्त उनकी निगाहें सड़क पर झुकी रहती, मानों अपने भाग्य को पढ़ रहे हों। बहरहाल वे ऐसा इसलिए करते हैं, ताकि सड़कें सुंदर और चलने लायक बनी रहें। बाबू लोगों को सड़क से गुजरते हुए किसी तरह की गंदगी या बदबू का सामना न करना पड़े। बाबू और बबुवाइन लोग भी बल खाती सड़कों की सुंदरता पर रीझते हुए तलत महमूद या किसी दूसरे की गजल को सुनते हुए सर्र-सर्र निकल जाते है। लोगों के पास समय नहीं है कि वे दो पल ठहर कर सफाई करने वाले हाथों को देखें और सोचें कि आखिर इन हाथों ने कौन सा गुनाह किया है, जिसके कारण इन्हें अल्लसुबह कूड़ा-करकट, थूक – बलगम से लेकर मल-मूत्र की सफाई करनी पड़ती है। वे यह भी नहीं सोच पाते कि जूता-चप्पल, लोहा-लकड़ी और सोने–चांदी की दूकानें जातीय पहचान खो रही हैं, मगर ऐसा क्यों है कि आज भी तन से पैदा मल की सफाई अपनी जातीय पहचान बनाए हुए है। दो जगह जातीय पहचान बनी हुई है। पहला मंदिर और दूसरा शौचालय। जिस तरह हर मंदिर का पुजारी ब्राह्मण जाति का होता है, उसी तरह हर सुलभ शौचालय की देख-रेख हेला या मेहतर जाति का व्यक्ति करता है। दोनों जगह जाति की जो घेराबंदी है, उसे टूटना चाहिए। समतामूलक समाज के लिए यह जरूरी है।

साहित्य से लेकर समाज विज्ञान तक के विभिन्न विद्याशाखाओं में जाति और लैंगिक असमानता के प्रश्न पर खूब परिचर्चाएं तथा पर्चे लिखे-पढ़े जाते हैं (होनी भी चाहिए)। परंतु पूरी दुनिया को रहने लायक बनाने वाला मेहतर, हेला या भंगी समाज हर तरह की चर्चा से दूर क्यों है। हम देखते हैं कि शहरों को साफ सुथरा रखने वाला मेहतर समाज शहर के बाहर गंदी बस्तियों में या सड़क के किनारे प्लास्टिक के तंबुओं में तमाम वंचनाओं के साथ क्यों गुजर–बसर करने को मजबूर है।
इनकी स्थिति में सुधार करने की जगह इनको लेकर कई प्रकार के अभिप्राय गढ़े जा रहे हैं (जाते रहे हैं)। सफाई करने वाली जातियों की उत्पत्ति और विकास के बहाने सांप्रदायिकता को हवा दी जा रही है। कई लोग यह स्थापित करने में पसीना बहा रहे हैं कि मेहतर और भंगी जातियों का जन्म मुगलकाल में मुगलों की सत्ता स्वीकार न करने वाली उच्चवर्णीय हिंदू जातियों से हुआ है। (हालांकि मुगलकाल में हिंदू नीची जातियों को कहा जाता था)। इन्हीं लोगों से मुगलिया महलों से मल सफाई का काम कराया जाता था। कई इतिहासकार कड़ी मसक्कत करके यह बताने में लगे हुए हैं कि शाहजहाँ के महल में शौचालय नहीं हुए करते थे। बहादुर क्षत्रीय जनों, जिन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं किया था, उनसे महल शौच तसला में भरवाकर बाहर फेंकवाया जाता था। यही लोग बाद में भंगी या मेहतर कहलाए। गंदगी साफ करने का कारण ये लोग शेष समाज के लिए अछूत हो गए। बताया जाता है कि मुगलों के आगमन के पहले ये जातियॉ बड़ी खुशहाल थीं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है, “मुसलमान आगमन के पूर्वकाल में डोम-हाडी या हलखोर इत्यादि जातियाँ काफी संपन्न और शक्तिशाली थीं।”1 हमारे देश में गप्प को इतिहास के रूप में प्रस्तुत करने की बीमारी बहुत पुरानी है। इस प्रवृत्ति के कारण इतिहास लेखन के क्षेत्र में दुनिया के इतिहासकारों के सामने हमारी छीछालेदर होती रहती है।
इस अभिप्राय में दो संदेह हैं –
क– मुगलों की सत्ता न स्वीकार करने वाली जातियॉ इतनी आसानी उनका मल साफ करना स्वीकार कर लीं। यह तथ्य विश्वास से परे है।
ख– यदि ऐसा है भी तो, उच्चवर्णीय हिंदू जातियॉ अपने बिछुड़े भाई-बहनों का सजातीय आत्मसातीकरण क्यों नहीं कर लेतीं। उनसे रोटी–बेटी का संबंध क्यों नहीं स्थापित करतीं।
इन सबसे अलग इतिहासकार अलबरनी दूसरी बात कहता है। वह कहता है कि ये लोग भारत की धरती पर पहले से ही उपस्थित थे। प्राचीनकाल में इन्हें डोम, चंडाल और बधाथु कहा जाता था। बरनी की बात सही जान पड़ती है। कालू डोम के हाथों राजा हरिश्चंद्र की कथा हम सब जानते हैं। हालांकि राजा हरिश्चंद्र और कालू डोम, दोनों पौराणिक पात्र है, इनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है, फिर भी यह तथ्य स्थापित हो जाता है कि डोम जाति उतना ही प्राचीन है, जितना ब्रह्मा के मुंह से पैदा हुई जातियां। इस संदर्भ में बहुत सारे प्रमाण प्राचीन साहित्य में भरे पड़े हैं। विषयांतर से बचने के लिए वैदिक साहित्य की चर्चा अनावश्यक जान पड़ता है। हम इस बात पर अवश्य ध्यान दें कि नगरीकरण से मेहतर, भंगी अथवा हेला समाज का कैसा संबंध था ?

पूंजी जब इतना वितान तानती है तो कई नई चीजें जन्म लेती हैं। हाट-बाजार से लेकर ठठेरा, लोहार, कोहार, सोनार राजमिस्त्री और हलुवाई जैसी जातियॉ शहरों की आर्थिक सक्रियता को गति देती हैं, क्योंकि जिस तरह किसान और मजदूर गाँवों को अपने खून-पसीने से सींचते हैं, उसी तरह ये जातियां शहरों को शहर बनाती हैं। परंतु जितना यह सत्य है पूंजी निर्माण में श्रमजीवी जातियों का योगदान सबसे ज्यादा होता है। उतना ही सच यह भी है कि पूंजी पर अधिकार हमेशा ही ब्रह्मा के मुंह से पैदा हुई जातियों का ही होता रहा है।
भारत में शहरों का प्राचीन नमूना हड़प्पा की सभ्यता से प्राप्त होता है। वहां के घरों में शौचालय के प्रमाण प्राप्त होते हैं। जल निकासी की उन्नत व्यवस्था इस संस्कृति की खास विशेषता है। निश्चित ही हड़प्पा काल में सामुदायिक साफ-सफाई के लिए कर्मचारी या सफाईकर्मी नियुक्त होते रहे होंगे। परंतु यह व्यवस्था जातिगत थी अथवा श्रम पर आधारित मात्र नौकरी थी, जिसमें किसी की जाति (समुदाय) के व्यक्ति की नियुक्ति हो सकती थी। इस प्रश्न के उत्तर में कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इतनी उन्नत व्यवस्था के लोगों के विषय में बहुत कम जानकारी प्राप्त हो पाई है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस सभ्यता में जाति व्यवस्था थी भी या नहीं। नौकरियां जाति पर आधारित थीं अथवा श्रम–विभाजन व्यवस्था पर आधारित थीं, प्रमाण सहित कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
सिंधु सभ्यता के बाद विकसित हुई आर्य सभ्यता पशुपालक-ग्रामीण सभ्यता थी। कृषि और पशुधन इस सभ्यता के प्रमुख आर्थिक आधार थे, जिन पर धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष जैसे सारे पुरुषार्थ आधारित थे। ऐसी स्थिति में अर्थात शहरों के अभाव की स्थिति में शूद्र वर्ग के लोगों से साफ-सफाई उस तरह नहीं कराई जा सकती थी, जैसा शहरों के विकास होने के बाद हुआ। हाँ, इनका उपयोग दूसरे तरह की साफ-सफाई वाले कामों में जरूर किया जाता था। प्राचीनकाल में शरीर की सफाई से लेकर घर- आंगन गांव-गिरांव से लेकर पशुओं तक को स्वच्छ करने वाले कुछ छ: प्रकार के कार्यों का उल्लेख प्राप्त होता है –
1 – शरीर की सफाई – इस कार्य में कुल तीन तरह के स्वच्छता संबंधी कार्य शामिल थे –
क– बाल काटना
ख- शरीर की सफाई
ग- शरीर की मालिश
इस तरह का काम करने वाले शूद्रों को जाति के चौखट्टे में फिट्ट करने के साथ ही इन्हें स्वच्छता से जुड़ी दूसरी जातियों से थोड़ा ऊपर रखा गया। इन्हें नाई कहा गया। इनके घर गांव में ही हुआ करते थे, क्योंकि इनकी (नाऊन) गर्भ के समय प्रसव कराने में काम आती थीं। इसीलिए इस जाति को छूआछूत से अलग रखा गया। नाऊ और नाऊन की जरूरत जन्म से लेकर मरण तक होती थी (है)।
2- कपड़े की साफ-सफाई–विजेता जातियां पराजित जातियों के कत्ल करने से बचे लोगों का इस्तेमाल श्रमपूर्ण कार्यों में करती हैं, जिसमें खेती से लेकर व्यक्तिगत सेवा टहल के काम शामिल होते हैं। विजेता जातियों की यही मानसिक प्रवृत्तियॉ बाद में नस्लवाद और गुलामी व बेगारी प्रथा में परिवर्तित हो जाती हैं। दुनियॉ के अलग-अलग हिस्सों में गुलामी, नस्लवाद और जातिवाद का जन्म इसी तरह हुआ है। दुनियां के दूसरे हिस्सों में गुलामों की देखभाल का नैतिक दबाव हमेशा विजेता गौरांग प्रभुओं पर बना रहा। हमारे देश की विजेता जातियां (आर्य) बड़ी चालाक थीं। उन्होंने जाति का विभेदीकरण करके शुल्कहीन गुलामों की वंश परंपरा का निर्माण किया। जाति निर्माण गुलामी का स्थाईकरण है। स्थायीकरण के कारण कोई भी तोड़ नहीं सकता। विदेशों में गुलामों के बाजार सजते थे। भारत शूद्र जाति का व्यक्ति सेवादार के रूप में ही जन्म लेता था (है)।
बहरहाल कपड़ा धोने और उसकी तह लगाने के लिए एक जाति विशेष की जरूरत को देखते हुए विशाल शूद्र जनसंख्या में से एक जाति का निर्माण किया गया, जिसे धोबी कहा गया। हर दिन साफ धुले कपड़ों की जरूरत को देखते हुए धोबी जाति को भी गांव लाया गया। कपड़ों की सफाई को शरीर की सफाई से निम्न मानते हुए धोबी को नाई से नीचे रखा गया। यद्यपि धोबी जाति को अस्पृृृश नहीं माना गया फिर भी इनका छुआ दाना-पानी ग्रहण नहीं किया जाता है। यही कारण है कि आज भी गॉवों में नाई और धोबी के बीच छत्तीस का आँकड़ा रहता है।

3- घर को साफ–सुथरा रखना– उत्तर प्रदेश और बिहार में मुसहर जाति पाई जाती है। इस जाति के लोग खेतों में फसल खराब करने वाले जानवरों (चूहे) का शिकार करते थे, ताकि फसल की बर्बादी न हो। ये लोग तथाकथित उच्च जातियों और खेतिहर किसानों के लिए महुआ या सेखुआ के पत्तों से पत्तल और दोना बनाते थे (हैं), जो शादी विवाह में काम आते थे (हैं)। इन लोगों के हॉथों से बने दोना और पत्तलों का उपयोग तो किया जाता है, मगर इन्हें भी अछूत माना जाता है। यह जाति कहीं पिछड़ी जाति में तो कहीं अनुसूचित जनजाति में शुमार होती है। सच्चाई यह है कि यह जाति दलितों में भी दलित है।
मुसहर जाति के लोग घर के अंदर नहीं आ सकते थे। घर के अंदर ऑगन और कमरों की सफाई से लेकर जूठे बर्तनों मांजने-धोने के लिए कुछ दूसरी जातियों की जरूरत पड़ी। इसलिए विजेता जातियों नें शूद्रों में से दो नई जातियों का निर्माण किया। यह जातियॉ थीं – यादव और राउत।
ये दोनों जातियॉ बड़ी चमत्कारिक हैं। ये जातियां शूद्र तो हैं परंतु अछूत नहीं हैं।

4- पशुओं की देख-रेख और पशुओं की सफाई – जैसा ऊपर इंगित किया गया है कि आर्यों का मुख्य व्यवसाय खेती और पशुपालन था। उनके लिए पशुओं का होना समृद्धि का होना था। इसलिए उन्होंने पशुधन की साफ-सफाई और देख-रेख के लिए शूद्रों से काटकर एक नई जाति गड़ेरी का निर्माण किया। यह जाति गर्मी और सूखे के दिनों में आर्यों के पशुओं को जंगल में चराती थी। खेती के समय आने तक पशुओं को लेकर वे लोग मालिक के घर पर उपस्थित हो जाते थे। इस तरह उन्होंने (आर्यों ने) अपने पशुओं के लिए एक उपयुर्क्त मोबाइल जाति का निर्माण किया।
5- रास्तों, नालियों और सार्वजनिक स्थानों की सफाई – प्राचीनकाल में शहरों के निर्माण में धर्म का बहुत योगदान रहा। हम जानते हैं कि जैसे – जैसे शहरों का निर्माण होता है वैसे – वैसे सार्वजनिक स्थानों की साफ – साफ सफाई की जरूरत महसूस होने लगती है। गुप्तकाल में मंदिर नगरों की स्थापना होने से सार्वजनिक नहान घरों, शौचालयों एवं पूजा-पाठ से एकत्र हुए अपमार्जन की सफाई और पुरोहितों, नगर सेट्ठियों, राजन्य वर्ग महापुरोहित और नगरवधुओं के आवासों के कारण धर्म नगरों में भीड़-भाड़ बढ़ने लगी। धर्माधिकारियों और नगरपालों के सामने नगरों की साफ-सफाई का प्रश्न उपस्थित हो गया। अब तक उन्होंने अपनी साफ-सफाई तथा देखभाल के लिए जितनी जातियों का निर्माण किया था, यह काम उन सभी जातियों की क्षमता से बाहर का था। अब एक ऐसी जाति के निर्माण की जरूरत आन पड़ी थी, जो धर्म-नगर के आवसों, सड़कों, नालियों और गलियों की गंदगी तथा मल-मूत्र की साफ सफाई करे एवं नगर की अर्थलाभ में किसी तरह की दावेदारी न पेश करे। एक बार फिर शूद्रों में एक जाति का निर्माण किया गया, जिसे भंगी कहा गया। मल-मूत्र साफ करने वाली जाति भंगी को अछूत घोषित किया गया ताकि इनके साथ दूसरी शूद्र जातियों का कोई रिश्ता न पनप सके। इस तरह शूद्रों में एक ऐसी जाति अस्तित्व में आई जो जन्मना भंगी होने लगी, जिसे पूरी जिंदगी बिना कोई सवाल किए केवल मल-मूत्र काछते, उठाते और ढोते-ढोते इस दुनिया से विदा होना था।
गुप्तकाल मंदिरपुरम के निर्माण के लिए जाना जाता है। समृद्धि के जुड़ते जाने से मंदिरों की क्रमश: बढ़ती चली गई। इसीलिए मंदिरों की वास्तुकला का गुप्तकाल में खूब विकास हुआ। “गुप्तकालीन मंदिरों में तकनीकी व निर्माण-संबंधी अनेक विशेषताएं हैं। इन मंदिरों का प्रारंभ गर्भगृह के साथ हुआ, जिसमें देवमूर्ति की स्थापना की जाती थी। यहां तक पहुंचने के लिए एक दालान होता था, जिसमें एक सभाभवन से होकर प्रवेश किया जाता था। सभाभवन का द्वार ड्योढ़ी में निकलता था। इस भवन के चारों ओर एक प्राचीर युक्त प्रांगण होता था जिसमें बाद में और अधिक पूजा स्थलों की स्थापना होने लगी।”2 आगे बढ़ने से पहले एक बात का जिक्र कर दिया जाए कि मंदिरों के निर्माण के साथ ही शूद्रों के घरों की कन्याओं का इस्तेमाल देवता की सेवाकार्य में किया जाने लगा। इनका काम पत्थर के देवता की सेवा करना, उनका श्रृंगार करना, नाच गाकर उनको खुश करने का था। पत्थर के देवता को खुश करने के साथ इन्हें देवतातुल्य नरों को भी प्रसन्न करना होता था। इस प्रकार देवदासी प्रथा का जन्म हुआ। देवदासियों ने तमाम मंदिर नृत्यों (भारतनाट्यम, कचीपुंड़ी और कत्थक आदि) एवं लावण्यपूर्ण भाव-भंगिमाओं का आविष्कार किया। थोड़े ही समय बाद मंदिर नगरों में नगरवधुओं के आवास भी होने लगे।

6 – मरे पशुओं को उठाने और फेंकने का कार्य – ऊपर की पंक्तियों में दर्शाया गया है कि आर्यों का मूल पेशा पशुपालन और खेती करना था। खेती-किसानी में पशुओं का उपयोग होता था। गाय किसानी के लिए सबसे उपयुक्त पशु थी, जो खाने-पीने के लिए दूध, खेती के लिए बैल और जूता और वाद्य यंत्र बनाने के लिए चाम देती थी। गायों और पशुओं की देख रेख के लिए पहले ही दो जातियों के निर्माण का कार्य संपन्न हो चुका था। पशुओं की देखरेख करने वाले शूद्र तो थे परंतु अछूत नहीं थे। अब एक ऐसी जाति के निर्माण की जरूरत थी, जो शूद्र और अछूत दोनों एक साथ हो। चूंकि इस जाति को मरे जानवर को उठाना था इसलिए इसकी परछाईं से भी परहेज किया गया। इस जाति को चमार कहा गया। इनकी परछाईं का पड़ना तक अशुभ था, इसलिए इन्हें गॉव के बाहर दक्षिण दिशा में बसाया गया। आज भी चमारों की बस्तियां प्राय: दक्षिण में दिखाई पड़ती हैं।

सफाई करने वाली इन सभी जातियों के अतिरिक्त एक दूसरी जाति, जिसे डोम कहा गया, का भी उल्लेख मिलता है। भक्तमाल के रचियता नाभादासजी भी डोम थे। कुछ विचारक डोमों को भंगियों से उच्च बताते हैं। इसके लिए वे पौराणिक आख्यानों का सहारा लेते हैं। किंतु इस बात में कोई सच्चाई नहीं नज़र आती। जिस तरह से भंगियों का काम गांव-घर और शहर की नरक सफाई करना है (था), उसी तरह डोमों का काम मरे हुए आदमी को जलाना है (था)। कहने को लोग डोम को डोम राजा जरूर कहते हैं, मगर उसकी माली हालत नौकरों या मजदूरों से भी गई बीती होती है। उसे इतना अस्पृश्य माना जाता है कि कोई उसे दूसरा काम नहीं देता। यह जाति अभी भी पौराणिक आख्यानों में दर्शाए जीवन जीने को अभिशप्त है। इनको लेकर आम धारणा इतनी बिगड़ी हुई है कि ये शव जलाने के अतिरिक्त कोई दूसरा रोजगार कर ही नहीं सकते। आज भी इनका जीना लोगों के मरने पर निर्भर करता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अलग–अलग सफाई के कामों के लिए शूद्रों में से अलग–अलग जातियों का निर्माण किया गया। कुछ लोग कहते हैं कि मुगलों के आने के बाद भंगी जाति अस्तित्व में आई, जो निराधार है। प्रमाण मिलता है कि आज से ढाई हजार साल पहले गौतम बुद्ध द्वारा एक सफाईकर्मी को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी गई थी। इस संदर्भ में कई उदाहरण ऊपर की पंक्तियों में भी दिए जा चुके हैं। हां, यह जरूर है मुगलों के आने पर भारत की आर्थिक गतिविधियां बढ़ीं। बाजार खड़े हुए। शिल्प कलाओं का विकास हुआ। निश्चित रूप से शहरों की रौनक ने नरक सफाई के कार्यों का विभेदीकरण किया, जिससे कुछ लोगों की जिंदगी जो पहले से अंधेरे में थी, वह गहन अंधेरे में समा गई। मुगलों के आने के बाद भंगियों को मेहतर जरूर कहा गया किंतु बेहतर कुछ भी न हुआ। अंग्रेजों के बाद भी मेहतरों का कोई भला नहीं हुआ। अंग्रेजों के जाने के बाद अर्थात आजादी आने के बाद भी यह जाति मैला ढोने से आजाद नही हो सकी है।
हम ऊपर देख चुके हैं कि भक्ति साहित्य का सबसे पहला ऐतिहासिक दस्तवेज नाभादासजी ने तैयार किया, जो जाति से डोम थे। जिस तरह भंगी समाज के संत नाभादासजी हिंदी साहित्य इतिहास निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया उसी तरह बाबू राम हाड़ी की शहादत आज तक अंडमान निकोबार के सेलुलर जेक की दीवारों पर अंकित है। बाबू राम हाड़ी को अंग्रेजों की खिलाफत करने के कारण काले पानी की सजा सुनाई गई थी। इस लेख का उद्देश्य आजादी की लड़ाई में प्राण गवाने वाले भंगी समाज के शहीदों की विवेचना करना नही है। लेख का उद्देश्य इन नरक देवताओं की जिंदगी का जायजा लेना है और सत्य को प्रकट करते हुए यह दर्शाना है कि कैसे सभ्य समाज सीवर और मल-मूत्रों को अपने हाथों से ढोने वाले एवं शहर को रहने लायक बनाने वालों के प्रति निष्ठुर है, जो इनकी मृत्यु पर बड़ी आसानी  से आँख मूदकर आगे बढ़ जाता है।
एनसीएसके (राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग) के ऑकड़े हैं कि सीवर सफाई के दौरान सबसे अधिक मृत्यु तमिलनाडु में और उसके बाद गुजरात में हुई है। गौरतलब है कि ये दोनों राष्ट्रीय आय और प्रगति की दृष्टि से भारत के दूसरे राज्यों से काफी बेहतर हैं। दोनों राज्यों में सीवर सफाई के दौरान सफाईकर्मियों की मृत्यु को देखते हुए कहा जा सकता है कि जिस तरह राष्ट्रीय आय के ऑकड़ों तथा राष्ट्रीय समृद्धि से गरीबों के जीवन का कोई कोई संबंध नहीं है, उसी तरह राज्यों की समृद्धि से गूह-मूत सफाई करने वालों का कोई सामंजस्य नहीं है। चूंकि ऑकड़े वह संवेदना नही पैदा पाते, इसलिए बात करते हैं कुछ घटनाओं और मृत्यु क्रियाओं व कारकों की।
क – कब्रगाह बनते सीवर

गुजरात में वडोदरा से तीस किलोमीटर दूर डभोई तहसील के फरती कुई गांव में एक होटल के सीवर की सफाई के दौरान मेनहोल में उतरे सात लोगों की जहरीली गैस से दम घुटने के कारण मौत हो गई। मेनहोल में सर्वप्रथम अंदर जाने वाले महेश पाटनवाडिया के बाहर न निकलने पर उनकी स्थिति जानने के लिए एक के बाद एक सात के सात सहकर्मी मेनहोल से हलते चले गए और 15 मिनट में मेनहोल से सात लाशें बरामद हुईं। इनमें चार सफाई कर्मचारी और तीन उस होटल में साफ-सफाई करने वाले लोग थे।
देश में इस तरह की घटनाएं आए दिन घटित होती रहती हैं। जैसा ऊपर दर्शाया गया कि बहुत सतही संवेदना दर्शाते हुए इन मौतों से मुक्त हो लिया जाता है। मसलन सातों लोगों की मौत के सिलसिले में रस्मी तौर पर दोषियों की गिरफ्तारी होती है और सरकार की ओर से चार – पॉच लाख रूपए दे – दवाकर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है।
इस घटना में गुजरात सफाई कर्मचारी संघ की ओर से दो लाख रुपए की मदद का आश्वासन दिया गया। मनुष्य द्वारा हाथ से मैला सफाई का यह अमानवीय कारोबार इन सफाई कर्मियों और उनके परिवार के सदस्यों को अंदर से इतना कमजोर, हताश और पराजित बना देता है कि कोई आश्चर्य नहीं यदि इन मृतकों के परिजन भी मुआवजा मिलने को ही अपना परम सौभाग्य मान लें और दोषियों के साधन संपन्न सहयोगियों के समक्ष शरणागत हो जाएं। धीरे धीरे सब कुछ पुराने ढर्रे पर चल निकलेगा और इस तरह की घटनाओं की निर्लज्ज पुनरावृत्ति होती रहेगी।
आरक्षण पर हाय तौबा मचाने वाले मैला सफाई के इस कार्य में अपने लिए आरक्षण की मांग करते नहीं देखे जाते। भंगी और वाल्मीकि समुदाय के लोग तरल गूह-मूत से लेकर ठोस गूह को हॉथ से उठाने के लिए अभिशप्त हैं। गौरतलब है हर आदमी मल-मूत्र पैदा करता है। वह गूह-मूत वाली जगह एक सेकेंड नहीं ठहर सकता। मगर उसके पास उसके मल-मूत्रों को साफ करने वालों के प्रति न एक माइक्रो सेकेंड तक की न फुरसत है, न एक माइक्रोग्राम की संवेदना है, जबकि इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि एक सप्ताह तक सफाईकर्मी अपना काम बंद कर दें, तो शहर दर शहर सड़ने लगेंगे और लोग अपने ही मलमूत्रों की दूर्गंध से परेशान होकर दम तोड़ने लगेंगे।
सफाई देवताओं के प्रति आम आदमी ही नहीं सरकार भी बेरहम दिखती है। इनके प्रति प्रशासन तंत्र की उदासीनता चिंतित करने वाली है। स्थिति इतनी बदतर है कि सरकार ने अभी तक मैला सफाई करने वाले श्रमिकों की संख्या और उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति के संबंध में कोई भी सर्वेक्षण नहीं कराया है। लोकसभा में चार अगस्त 2015 को एक अतारांकित प्रश्न के उत्तर में सरकार द्वारा यह जानकारी दी गई कि सन् 2011 की जनगणना के आंकड़ों से यह ज्ञात होता है कि देश के ग्रामीण इलाकों में 180657 परिवार मैला सफाई का कार्य कर रहे हैं । इनमें से सर्वाधिक 63713 परिवार महाराष्ट्र में थे। इसके बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा तथा कर्नाटक का नंबर आता है। निश्चित ही यह संख्या इन परिवारों द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित है। सन 2011 की जनगणना के अनुसार देश में हाथ से मैला सफाई के 794000 मामले सामने आए हैं। सीवर लाइन सफाई के दौरान होने वाली मौतों के विषय में राज्य सरकारें केंद्र को कोई भी सूचना साझा नहीं करतीं । सन 2017 में 6 राज्यों ने केवल 268 मौतों की जानकारी केंद्र के साथ साझा की।
जिस तरह ऑकड़ों को तोड़-मरोड़ कर देश की असमृद्धि को समृद्धि में बदल दिया जाता है, उसी प्रकार सरकारें अक्सर यह दावा करती पाई जाती हैं कि अब इस देश में हॉथों से मैला नहीं काछा जाता है। 19 सितंबर 2018 के गार्जियन में छपी खबर की मानें तो सरकार ने यह दावा पेश किया कि अब किसी भी राज्य में हॉथ से मैला नहीं उठाया जाता है।
सरकारें सीवर में हुई मौतों को साझा करनें से परहेज करती हैं, जबकि नेशनल कमीशन फ़ॉर सफाई कर्मचारीज (एनसीएसके) ने यह बताया है कि सन् 2017 में हर पांचवें दिन कोई न कोई अभागा सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मौत का शिकार हुआ। हालांकि इन आंकड़ों में हाथ से मैला उठाने वाले वाल्मीकि समुदाय के स्त्री पुरुषों की विभिन्न रोगों के कारण हुई मृत्यु के आंकड़े सम्मिलित नहीं हैं। असुरक्षित ढंग से मैला और गंदगी उठाते उठाते इन्हें कितने ही संक्रामक रोग हो जाते हैं और इनकी औसत आयु चिंताजनक रूप से कम हो जाती है। इसका आकलन बड़ी आसानी से लगाया जा सकता है।
ख- कानून और बारूद से भी खतरनाक गैसों से दो चार होना –
ऐसा नहीं है कि इस संबंध में कानूनों की कोई कमी है। सन 1993 में 6 राज्यों ने केंद्र सरकार से मैला ढोने की प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कानून का निर्माण करने का अनुरोध किया। तब द एम्प्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट 1993 पारित किया गया। इस एक्ट के बनने के बाद सीवर में होने वाली मौतों पर अंकुश लग जाना चाहिए था। परंतु ऐसा नहीं हुआ। इस कानून के पास के बाद 1800 सफाई कर्मियों की सीवर में उतरने और जहरीली गैसों के कारण हुई है। इन मौतों का व्यौरा मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और सफाई कर्मचारी आंदोलन के समन्वयक बेजवाड़ा विल्सन और उनके साथियों के पास सूचीबद्ध हैं। विल्सन के अनुसार यह संख्या केवल उन मामलों की है जिनके विषय में दस्तावेजी सबूत मौजूद थे। वास्तविक संख्या तो इससे कई गुना अधिक है क्योंकि इस तरह की अधिकांश मौतों के मामलों को कुछ ले-देकर दबा दिया जाता है। हमारे देश में न्याय व्यवस्था न केवल धीमी और मंहगी है, बल्कि जातिवाद से भी ग्रसित है। ऐसी स्थिति में मृतक के परिजन न्याय की से उम्मीद न करते हुए अपने रोजमर्रा के काम में लग जाते हैं। अगर कोई थोड़ा बहुत कानूनी प्रयास करता भी है, तो मौत के सौदागर (ठेकेदार) और अधिकारी अपने रसूख के बल पर मामले को रफा दफा कर देते हैं। यह मौतें प्रायः सेप्टिक टैंक के भीतर मौजूद मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड आदि जहरीली गैसों के कारण होती हैं।
इन गैसों का स्वास्थ्य पर बहुत बूरा असर पड़ता है। डॉ. आशीष मित्तल (जो जाने माने कामगार स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं तथा इस विषय पर ‘होल टू हेल’ तथा ‘डाउन द ड्रेन’ जैसी चर्चित पुस्तकों के लेखक हैं, वे बताते हैं कि सीवर सफाई से जुड़े अस्सी प्रतिशत सफाई कर्मी रिटायरमेंट की आयु तक जीवित नहीं रह पाते और श्वसन तंत्र के गंभीर रोगों तथा अन्य संक्रमणों के कारण इनकी अकाल मृत्यु हो जाती है।
सस्ती जिंदगी से मौत की रजामंदी
सीवरों में उतरना मौत के मुंह में उतरने जैसी क्रिया है। नियमानुसार पहले तो किसी व्यक्ति का सीवर सफाई के लिए मेनहोल में उतरना ही प्रतिबंधित है। किंतु यदि आपात स्थिति में किसी व्यक्ति को सीवर में प्रवेश करना आवश्यक हो जाता है तो लगभग 25 प्रकार के सुरक्षा प्रबंधों की एक चेक लिस्ट होती है, जिसका पालन सुनिश्चित करना होता है। सर्वप्रथम तो यह जांच करनी होती है कि अंदर जहरीली गैसों का जमावड़ा तो नहीं है। एक विशेषज्ञ इंजीनियर की उपस्थिति अनिवार्य होती है। एम्बुलेंस की मौजूदगी और डॉक्टर की उपलब्धता आवश्यक होती है। सीवेज टैंक में उतरने वाले श्रमिक को गैस मास्क, हेलमेट, गम बूट, ग्लव्स, सेफ्टी बेल्ट आदि से सुसज्जित पोशाक उपलब्ध कराई जानी होती है। उसके बाद मौके पर उपस्थित किसी जिम्मेदार अधिकारी द्वारा यह प्रमाणित करने पर कि सभी सुरक्षा नियमों का शतप्रतिशत पालन कर लिया गया है, श्रमिक सीवर में उतर सकता है। मगर गरीबी और भूखमरी से जूझता सफाईकर्मी हर बार मौत से समझौता कर लेता है। इनका मरना इतना आम हो गया है कि आए दिन सीवर के पास लिटाई लाश दिखाई पड़ती हैं और लोग बिना जुंबिश किए तलत महमूद के तरानों में तैरते निकल जाते हैं !
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जनार्दन
सहायक प्राध्यापक
हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उ.प्र.

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