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रामलीला : राजनीति के नागपाश में जकड़ी संस्कृति

रामलीला : राजनीति के नागपाश में जकड़ी संस्कृति

* अनिल शुक्ल

 

दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर इन दिनों सरयू नगरी से ‘अयोध्या की रामलीला’ का लाइव प्रसारण चल रहा है। 17 अक्टूबर से शुरू होकर 9 दिनों के लिए प्रसारित होने वाली इस ‘अयोध्या की रामलीला’ को एक दिन (अवधि 3 घंटा प्रतिदिन) भी बर्दाश्त कर पाना उन दर्शकों के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है जो दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों की पिछली रामलीलाओं को देख चुके हैं। करोड़ों रुपये की फीस के सरकारी भुगतान अदायगी और एक दर्जन से ज़्यादा टीवी कैमरा (‘मल्टी कैम’ यूनिट जिनके लगभग 30 से ज़्यादा टेक्नीशियनों और कर्मचारियों के टीए/डीए पर अतिरिक्त लाखों रुपये व्यय किये गए होंगे) के कुल खर्चों की सहायता से 27 घंटों का यह प्रसारण दूरदर्शन की सबसे घटिया, कमज़ोर और उबाऊ प्रस्तुतियों के रूप में दर्ज़ हो रहा है जिसकी झोली में विज्ञापन भी इक्का-दुक्का ही हैं।

भारतीय दर्शकों के लिए रामलीलाओं के मंचन को देखना नाटको की ‘मेलोड्रामा’ पद्धति का जम कर रसास्वादन करना रहा है। भारतीय इतिहास के उत्तर मध्यकाल में विकसित नाट्य प्रस्तुतियों की यह ‘पद्धति’ नाटक और कलाकारों के भाव और अभिव्यक्ति के अतिरेक का प्रतीक हैं और इस ‘मेलोड्रामा’ के चरम और सर्वश्रेष्ठ स्वरुप का प्रतिनिधित्व करती आई हैं रामलीलाएं। भड़कीला मेकअप, तड़क-भड़क वाली वेशभूषा, अनोखे और विशाल मुकुट और दूसरे आभूषण,  चेहरे की लाऊड भंगिमाएं, लंबे-लंबे डग भरते अभिनेता,  दूर-दूर तक जाते हाथों से बिम्ब, अत्यधिक ऊंचे स्वर में संवाद अदायगी! गाँवों से लेकर छोटे शहरों और महानगरों तक सर्वत्र होने वाली रामलीलाओं के ये सब आवश्यक नाटकीय निवेश हैं,  उत्तर भारतीय दर्शक जिनकी अपेक्षा पीढ़ियों से करता चला आ रहा है।

मंच पर होने वाली अवश्यम्भावी भूलें और त्रुटियाँ, डायलॉग भूल जाना और सहयोगी अभिनेता द्वारा अपने साथी को ऐसे भौंडे संकेतों से इंगित करना कि ठेठ ग्रामीण दर्शक भी जान ले, सुनिशिश्चित ब्लॉकिंग (अभिनेताओं की गतियां) के अभाव में मंच पर मूवमेंट की अफ़रातफ़री और तब किसी सीनियर आर्टिस्ट (हनुमान) का जूनियर (राम) को डांट लगा देना और दर्शकों का मज़े लेना,  सीता हरण के समय रावण के साथ होने वाली धक्का- मुक्की में सीता जी के विग का उखड जाना और नीचे से गंजी चपत के साथ बाल अभिनेता का उदय,, दशरथ की मूंछों का हवा में उड़ना, अंगद के साथ हाथापाई में रावण की धोती या फैटन का खुल जाना,  जैसी घटनाएं ‘फेंटेसी’ के रूप में ‘लीला’ की उप लीला बनकर दर्शकों को युगों-युगों तक याद रहती हैं।

लेकिन ‘अयोध्या की रामलीला’ की बात अलग है। वहां न छोटी फेंटेसी की गुंजायश है न बड़ी की। दूरदर्शन के अपने मूल विचार में ही (जबकि कोविड महामारी का दूर-दूर तक कोई ज़िक्र नहीं था) इसे एक ‘वर्चुअल’ प्रस्तुति के रूप में परिकल्पित किया था। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी सहित 14 भारतीय भाषाओँ में अनूदित होकर दूरदर्शन, यूट्यूब और केबिल सहित अन्य डिजिटल प्लेटफार्मों के जरिये प्रदर्शित की जाने वाली इस ‘अंतर्राष्ट्रीय’ मत्वाकाँक्षी परियोजना को लेकर जो सपने संजोये गए थे, प्रस्तुति को देखते हुए वे मुंगेरीलाल के हसीन सपनों से ज़्यादा कुछ नहीं साबित हो सके। इसकी कलात्मक श्रेष्ठता की बात तो छोड़ ही दी जाय, यह तो शहरों में होने वाली रामलीलाओं का वीडिओ प्रसारण मात्र बन कर रह गई है।

दिल्ली की मॉडल टाउन में 4 वर्ष पहले अस्तित्व में आई रामलीला का आयोजन करने वाली ‘मां फाउंडेशन’ को ‘अयोध्या की रामलीला’ का ठेका मिला। ‘मां फाउंडेशन’ के संचालक कोई सुभाष मलिक ‘बॉबी’ हैं।  मलिक का इससे पहले का रामलीला सञ्चालन के ज्ञात इतिहास की कोई जानकारी नहीं, यद्यपपि ‘लीला’ शुरू होने से सप्ताह भर पहले दिल्ली में की गयी प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनके ‘लीलाओं’ के 18 साल के अनुभवों का दावा किया गया था। ये अनुभव किस शहर, मोहल्ले या गाँव के हैं इसे बताने की न तो उन्होंने कोई ज़रुरत महसूस की और न  संवाददाताओं ने पूछने का कोई उपक्रम किया। ‘अयोध्या की रामलीला’ के दूसरी आयोजक ‘मेरी रामलीला’ नामक संस्था है। इस संस्था के रामलीला आयोजन सम्बन्धी अनुभवों की भी किसी को जानकारी नहीं,  अलबत्ता इतना ही पता है कि मुख्या संरक्षक के रूप में पश्चिमी दिल्ली के भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा इसके मुख्य कर्ताधर्ता हैं। श्री वर्मा की लोकसभा की बायोप्रोफाइल साइट ‘मेंटिनेंस’ के चलते बंद है और उनके बारे में प्राप्त अन्य स्रोतों से भी उनके ‘रामलीला’ के सञ्चालन या निर्देशन के अनुभव का कोई पता नहीं चलता।

‘अयोध्या की रामलीला’ के प्रसारण को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि  वे तमाम त्रुटियां इसमें भी मौजूद है जो किसी छोटे क़स्बे या शहर में होने वाली रामलीला में होती हैं। कुछेक अपवादों को छोड़ कर अधिकाँश अभिनेताओं के चेहरे भावहीन हैं। पुत्रों के जन्म पर उन्हें गोद में खिलाते दशरथ के भाव हीन चेहरा देखकर पुराने युग के फ़िल्मी हीरो राजेंद्र कुमार (जुबली कुमार) की बरबस याद आती है। अभिनेता और अभिनेत्रियों की ‘लेट एंट्री’ और बाक़ी अभिनेता गण कनमनिया आँखों से उनकी प्रतीक्षा करते हुए नज़र आते हैं। अगर संवाद रेकॉर्डेड हैं तो एक्शन और ‘लिपसिंक’ की गड़बड़ी है और यदि लाइव हैं तो अभिनेताओं का भूलना साफ़ परिलक्षित होता है। स्थान-स्थान पर होने वाले हवन में जलती डिजिटल अग्नि का रंग चाहे जो भी हो लेकिन लाल या नारंगी नहीं है। नाटकीय परंपरा में अभिनेता रहित मंच का खाली दिखना सबसे अक्षम्य त्रुटि मानी जाती है। अयोध्या की रामलीला में हर दिन यह कई-कई बार होता है।

आसरानी, रज़ा मुराद, मनोज तिवारी और रविकिशन जैसे मुंबई और भोजपुरी फिल्मों के अभिनेताओं को शोकेसी भूमिका में रखकर हिंदी और आंचलिक सिनेमा के ‘बी’ या ‘सी’ श्रेणी के अभिनेता और अभिनेत्रियों को ‘लीला’ में ठंसा कर इसे बॉलीवुड ग्लेमर का रंगत देने की नाकाम कोशिश की गयी है। गीत और भजनों के अधिकांश गायक बेसुरे हैं उठान के समय से ही कानों को खलते हैं। अनूप जलोटा, पंकज उधास और जगजीत सिंह के हिट भजनों के चुराए गए संगीत ‘कम्पोज़िशन’ का कर्णप्रिय होना स्वाभाविक है। एकल या सामूहिक गीतों पर होने वाले नृत्य न तो किसी शास्त्रीय नृत्यों की श्रेणी में आते हैं, न लोकनृत्यों की श्रेणी में और न ये बॉलीवुड जैसे नयनाभिराम नृत्य हैं। ये वस्तुतः किसी क़स्बाई ‘प्राथमिक कन्या विद्यालय’ की लड़कियों के डांस की याद ताज़ा कर देते हैं। सोचकर आश्चर्य होता है कि ‘अंतर्राष्ट्रीय संरचना’ की प्रस्तुति के दावों के बरअक्स संगीत गायन और नृत्य ही ठीक ठाक हो जाता तो दर्शक अभिनय की प्रबल खामियों के दर्द पर इनका मलहम लगा लेता।

25 x 17 फ़ीट का मंच (पृष्ठभूमि ‘वर्चुअल’ होने के बावजूद) बड़े बेतरबीब विन्यासों और अभिनेताओं के मूवमेंट से अटा पड़ा है। इनसे उपजे दृश्यबंध अजीब घालमेल पैदा करते हैं। मसलन राक्षसों के नरसंहार के लिए जंगल से चलकर विश्वामित्र की कुटिया तक पहुँचने के लिए राम-लक्ष्मण को दशरथ दरबार के बीच से होकर गुज़ारना पड़ता है। ऐसा एक नहीं, अनेक स्थानों पर होता है और तब लगता है कि ‘लीला’ के निर्देशक और कला निर्देशक के बीच कोई तालमेल नहीं।

 ‘रामलीला’ को यूपी के पर्यटन विभाग ने 4 करोड़ रुपये का भुगतान किया है। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय से मिलने वाला अनुदान इससे अलग है और साथ ही इसके प्रसारण की रॉयलिटी के रूप में दूरदर्शन, यूट्यूब और दूसरी डिजिटल एजेंसियां इनका अलग से भुगतान करेंगी। अनुमान किया जा रहा है कि लगभग 1 करोड़ रुपये की प्रतिदिन कमाई करने वाली इस दो कौड़ी की रामलीला के आयोजकों के अच्छे दिन आए हैं।

तो क्या यह मना जाए कि दूरदर्शन की थाली में हिन्दू धर्म परोसने की परंपरा की ‘शेफ़’ भाजपा है? पब्लिक ब्रॉडकास्टर के रूप में भारत जैसे लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में किसी धर्म विशेष का प्रचार प्रसार करने का दूरदर्शन का सिलसिला ताज़ा नहीं है। ‘प्रसारभारती’ के पूर्व प्रमुख कार्यकारी जवाहर सरकार ने बीते अगस्त ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा “एक विदेशी प्रसारण से जुड़े पत्रकार ने मुझसे पूछा- प्रसार भारती के पूर्व प्रमुख की हैसियत से आपको दूरदर्शन के अयोध्या में राममंदिर शिलान्यास के लाइव प्रसारण की तैयारियों की बाबत सुनकर कैसा लगा? मैंने टालमटोल सा जवाब दे दिया, प्रशासनिक नौकरी ने मुझे जिसका अभ्यस्त बना दिया था, लेकिन सचमुच एक निष्पक्ष और धर्मनिरपेक्ष पब्लिक ब्रॉडकास्टर के लिए धर्म  का महिमामंडन करने वाली घटना की कवरेज सचमुच चिड़चिड़ा बना देती है।”

श्री सरकार आगे लिखते हैं कि “गणतंत्र दिवस परेड में 50 कैमरों की मल्टी कैम कवरेज से दूरदर्शन हुनरबंदी का अपना सिक्का गाड़ चुका है। आकाशवाणी और दूरदर्शन के स्थानीय स्टेशन बहुत से ऐसे धार्मिक उत्सवों की लाइव कवरेज शानदार तरीके से कर डालते हैं जिनमें से कई राष्ट्रीय महत्व के हैं। जनादेश के चलते दूरदर्शन हमेशा से बहुत सजग रहा है, उसी सजगता के चलते वह पुरी की जगन्नाथ रथ यात्रा और अनेक कुम्भ मेलों जैसे लाइव कार्यक्रम विशाल मानवीय समागम के रूप में करता आया है न कि किसी धार्मिक पागलपन की नियत से। तब हमें ये सोचना होगा कि क्यों यही दूरदर्शन अनजाने में या जानबूझ कर, अयोध्या की जंग को हरी झंडी दिखाता है।“

 जवाहर सरकार का कथन तथ्यपूर्ण होने के साथ दूरदर्शन के इतिहास की यात्रा की कलई भी खोल कर रख देता है। हम में से बहुतों को याद नहीं कि 31 अक्टूबर 1984 को हुई श्रीमती गाँधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस को ज़बरदस्त जीत दिलाने वाला यही पब्लिक ब्रॉडकास्टर दूरदर्शन था जिसने श्रीमती गाँधी की अंतिम यात्रा के ह्रदय विदारक दृश्यों को जम कर प्रसारित किया था। सन 86 के अंत में, जबकि बोफोर्स तोपों की ख़रीद में राजीव गाँधी की बड़ी थुक्का फ़ज़ीहत हुई थी, तब उनके सूचना-प्रसारण मंत्री अजित पांजा के टेलीविज़न पर धर्म की सवारी गांठने को जुट गए थे। यद्यपि बाहरी आवरण में यह धर्मनिरपेक्ष सरकार थी लेकिन 25 जनवरी 1987 को दूरदर्शन ने रामायण धारावाहिक का प्रसारण इसी ने शुरू किया था। यह ठन्डे बस्ते में पड़े हिन्दू धर्म को सिंहासन पर आरूढ़ कराने के युग की शुरुआत थी।  31 जुलाई 1988 को जब रामायण के 78 एपिसोड समाप्त हुए और देश में धर्म की तेज़ बयार बहनी शुरू हो गयी थी, तब धर्मनिरपेक्षता की तराजू को हाथ में लेकर चलने वाली कांग्रेस ने  2 अक्टूबर 1988 से दूरदर्शन पर बीआर चोपड़ा को ‘महाभारत’ पेश करने का न्यौता दे दिया बिना यह सोचे विचारे, कि उसके हाथों  जन्मी आंधी बाहर कैसे अंधड़ में तब्दील हो चुकी है।“

आश्चर्य की बात यह है कि जैसे-जैसे दूरदर्शन पर धार्मिक खंडकाव्यों के प्रसारण ने ज़ोर पकड़ा, शहरों और क़स्बों की रामलीला के सांस्कृतिक कलेवर को नोच कर उसके ऊपर साम्प्रदायिकता की कुत्सित राजनीति की कलई की जाने लगी।  रामलीला के जन्म से लेकर इसके समूचे विकास की सम्पूर्ण यात्रा का अध्ययन हमारे समक्ष एक दिलचस्प गाथा के रूप में उभरता है। साथ ही यह गाथा इस बात का बखान भी करती है कि कैसे बीते 30 वर्षों का रामलीला युग का सांस्कृतिक परचम साम्प्रदायिक तनाव के अंधड़ में उलझते-उलझते कुत्सित राजनीति की ध्वजा में परिवर्तित होता चला गया जिसकी चरम परिणति अयोध्या की फूहड़ रामलीला है।

कोरोना से उपजे एहतियात के चलते दिल्ली, अयोध्या के अपवाद को छोड़कर समूचा देश इस बार रामलीलाओं का आनंद उठाने से चूक जाएगा। हिंदी कैलेण्डर के अश्विन मास के दौरान देश के उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक के अधिकांश भागों में रामलीलाएं सैकड़ों सालों से एक शानदार, विराट, अभूतपूर्व और मनोरंजक सांस्कृतिक परिघटना होती रही है। विश्व की सबसे विराट लीला- रामलीला आज़ादी  मिलने से पहले और बाद के भारत के गहरे सामुदायिक और जनपक्षीय मूल्यों के सचेत रखवाले के रूप में हमारी अनेक पीढ़ियों को सुशिक्षित करती आई है। शताब्दियों से यह मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के बहुजातीय और बहुनस्लीय विराट चिंतन का प्रतिनिधित्व करती आई है। आज भी इनकी अंतरात्मा लोकपक्षीय बनी रहने के बावजूद आख़िर इनके आँचल पर संकुचित विचारों का भारी भरकम रंग कैसे चढ़ गया है, यह सोचने की बात है।

   यद्यपि इस बात का कोई दस्तावेजी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है लेकिन यह एक आमफ़हम  मान्यता है कि सबसे पहली रामलीला 17वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य मेघा भगत ने चित्रकूट में खेली थी। बहरहाल इतिहास में भले ही यह विवाद हो लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उत्तर भारत की हिन्दी बोलियों और बाद की हिन्दुस्तानी ज़बान में खेले गए सभी आधुनिक लोक नाटकों की जनक रामलीला ही है और सभी प्रकार की रामलीलाओं का आधार गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस है।

जहां तक दस्तावेजों का सवाल है पहली रामलीला होने का उल्लेख वाराणसी के रामनगर में सन् 1830 में मिलता है। इसके प्रवर्तक तत्कालीन काशी नरेश महाराजा उदितनारायण सिंह थे। बनारस के मीलों लंबे इलाके को ‘लीला’ के प्रदर्शन स्थल के रूप में विकसित किया गया। अलग-अलग जगहों पर ‘अयोध्या’ ‘वनवास’ और ‘लंका’ कांड प्रदर्शित होते। ‘यूनेस्को‘ के मुताबिक बनारस के रामनगर की रामलीला अभी तक चलने वाला संसार का एक मात्र लोकनाट्य है, जहां प्रदर्शन स्थल अलग-अलग स्थानों पर होते हैं और दर्शक घूम-घूमकर इन प्रदर्शनों का लुत्फ उठाते हैं। इसके बाद के दशकों में समूचे उत्तर भारत में रामलीलाओं की बाढ़ आ गई। यद्यपि इस बात का कोई दस्तावेजी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है लेकिन यह एक आमफ़हम  मान्यता है कि सबसे पहली रामलीला 17वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य मेघा भगत ने चित्रकूट में खेली थी। बहरहाल इतिहास में भले ही यह विवाद हो लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उत्तर भारत की हिन्दी बोलियों और बाद की हिन्दुस्तानी ज़बान में खेले गए सभी आधुनिक लोक नाटकों की जनक रामलीला ही है और सभी प्रकार की रामलीलाओं का आधार गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस है।

जहां तक दस्तावेजों का सवाल है पहली रामलीला होने का उल्लेख वाराणसी के रामनगर में सन् 1830 में मिलता है। इसके प्रवर्तक तत्कालीन काशी नरेश महाराजा उदितनारायण सिंह थे। बनारस के मीलों लंबे इलाके को ‘लीला’ के प्रदर्शन स्थल के रूप में विकसित किया गया। अलग-अलग जगहों पर ‘अयोध्या’ ‘वनवास’ और ‘लंका’ कांड प्रदर्शित होते। ‘यूनेस्को‘ के मुताबिक बनारस के रामनगर की रामलीला अभी तक चलने वाला संसार का एक मात्र लोकनाट्य है, जहां प्रदर्शन स्थल अलग-अलग स्थानों पर होते हैं और दर्शक घूम-घूमकर इन प्रदर्शनों का लुत्फ उठाते हैं। इसके बाद के दशकों में समूचे उत्तर भारत में रामलीलाओं की बाढ़ आ गई। आगरा की रामलीला 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू की गई।  इसी दौरान अयोध्या, वृंदावन, अल्मोड़ा, सतना, मधुबनी आदि स्थानों पर लीलाओं का चलन शुरू हुआ। दिल्ली की प्रसिद्ध रामलीला की शुरूआत अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ के जमाने से हुई। बादशाह प्रायः इसकी प्रस्तुतियों का आनन्द उठाने पहुंच जाया करते थे।

इसे यद्यपि रामलीला कहकर नहीं पुकारा जाता लेकिन सन 1610 में ‘मैसूर दसारा’  नामक  जिस दशहरा उत्सव की शुरुआत मैसूर (कर्नाटक) में हुई थी, वह आज तक शानदार तरीके से मनाया जाता है। दक्षिण भारत के लोगों के समक्ष यह रामकथा के अनंत स्वरुप का विस्तार है। उत्तर भारत में जहां दशहरा रामलीला के समापन के रूप में अंतिम (एक) दिन मनाया जाता है, वही ‘मैसूर दसारा’ दस दिन चलने वाला एक विशाल समारोह है।  इस दिन यह उत्सव समूचे राजसी मैसूर को अपने आग़ोश में ले लेता है। शहर के ढेर से ऑडिटोरियम,  मैसूर पैलेस, प्रदर्शनी ग्राउंड,  महाराजा कॉलेज ग्राउंड और चामुंडी हिल पर यह समान रूप से मनाया जाता है।

             उत्तर भारत में रामलीला की शुरूआत एक छोटे से धार्मिक अनुष्ठान के रूप में की गई थी। इसके दर्शक रामभक्त होते थे, और प्रस्तुति देने वाले कलाकार भी। 1857 के विद्रोह के बाद भारतीयों के तुष्टिकरण के तौर पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने जो अनेक सुधारात्मक कार्रवाईयां की थीं उनमे रामलीलाओं के लिए समुचित बड़े मैदान मुहैया कराना व इससे जुड़े दूसरे इंतजामों में सहयोग करना  शामिल है। देशभर में ज्यादातर रामलीला मैदानों के आवंटन 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में हुए हैं।

           अपनी शुरूआती समझ में अंग्रेज भी इसे हिन्दुओं के धार्मिक अनुष्ठान के रूप में देखते थे, लेकिन जैसे-जैसे इन लीलाओं के प्रदर्शन का इतिहास लंबा होना शुरू हुआ, इनके प्रदर्शन के लिए खुले और बड़े स्थान उपलब्ध होने लगे।  इनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ने और इनके धर्म से ऊपर उठकर एक बड़ी सांस्कृतिक परिघटना के रूप में परिवर्धित होते चले जाने की कथा क्रमवार है। 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध के चरम तक पहुंचते-पहुंचते देश के अनेक स्थानों पर दूसरे धर्मों के मतावलंबी भी इसमे शरीक होने लगे। यद्यपि 20 वीं सदी के शुरूआती दशकों तक उनका यह जुड़ाव महज दर्शक के रूप में था। जैसे-जैसे समय गुजरा लीलाओं में नाटकीयता बढ़ती गई।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ज़्यादातर स्थानों पर होने वाली इन लीलाओं में पारसी नाटक परम्परा बेतरह अपना असर डालने लगी थी। बेशक अधिकांश प्रदर्शनों का आधार गोस्वामी तुलसीदास की  चौपाईयां और दोहे हुआ करते थे लेकिन शुरुआती सपाट चेहरों वाले प्रस्तुतिकर्ताओं की तुलना में बाद के अभिनेताओं के ‘भाव‘अधिक परिपक्व होते चले गए। अब चेहरे उनके भावों के उतार-चढ़ाव का स्पष्ट प्रदर्शन करते और उनके शरीर,  गतियों और अभिनय से लबरेज़ होते थे। ऐसी नाटकीयता प्रधान लीलाओं ने विराट दर्शक वर्ग का मनोरंजन करना शुरू कर दिया। यही वजह है कि दोपहर बाद से सरेशाम तक चलने वाली इन प्रस्तुतियों में दर्शकों के रूप में हिन्दू भी होते, मुसलमान, पारसी, सिख, जैन, बौद्ध और ईसाई भी। अनेक प्रस्तुतियों में अंग्रेज अधिकारी भी अपने परिवारों के साथ दर्शक के रूप में मौजूद होते। पहली सहस्त्राब्दि के बाद के मध्यकाल में जिस तरह की गंगा-जमुनी तहज़ीब भारत में विकसित हुई, वहां देखते-देखते रामलीला सभी धर्म वालों का प्रधान मनोरंजन बन गई।

ब्राह्मण पुत्रों के अलावा आगे चलकर दूसरे सवर्ण और पिछड़ी जातियों के बच्चे भी लीलाओं में अभिनेता बनने लगे। कालांतर में अनेक स्थानों पर दूसरे धर्मावलंबी (सिख, मुसलमान, ईसाई आदि) भी लीला का हिस्सा बन गए। छोटे-छोटे गाँवों और क़स्बों से लेकर बड़े-बड़े शहरों वाले समूचे देश के अनेक स्थलों में यह सिलसिला अभी भी जारी है। इस तरह देखते-देखते 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रामलीलाएं धर्मनिरपेक्ष भारत का सजीव प्रतिनिधित्व करने लगीं।

आगरा की रामबरात जो प्रयाग के कुंभ के बाद, एक शहर में, एक रात में होने वाली देश की सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना है, उसमे आज भी बड़ी संख्या में बारातियों से लेकर झांकियों का निर्माण करने और उन्हें लेकर चलने वालों में अनेक धर्मों के लोग होते हैं। विरासतों केअपने इतिहास में ‘यूनेस्को‘ ने भारत की रामलीलाओं को विश्व की सबसे बड़ी बहुजातीय, बहुधर्मी और बहुनस्लीय सांस्कृतिक विरासत की ‘ईवेंट’ माना है।श्रीराम वैदिक धर्म के सच्चे उपासक माने जाते हैं। उनका चिंतन लेकिन इतना विराट था कि अपनी सेना में उन्होंने न सिर्फ गैर हिन्दू बल्कि ग़ैर मानव नस्लों को भी तरजीह दी। रीछ और वानरों की उनकी विशाल फौजों ने न सिर्फ लंका का किला ध्वस्त किया बल्कि दुराचारी रावण और उसके सहयोगियों का संपूर्ण नाश  कर डाला। अपनी शुरूआत से लेकर आज तक देश भर की रामलीलाएं राम के इसी विराट चिंतन का प्रतिनिधित्व करती आईं हैं।

1980 के दशक में उपजे बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद के बाद से राम के व्यापक सांस्कृतिक व्यक्तित्व और कृतित्व को धर्म और साम्प्रदायिकता के संकुचित खांचे में ‘फ़िट’ करने की कोशिशें शुरू हुईं। जब उनकी गाथा से जुडी धरती का ही राजनीतिकरण कर दिया गया तो भला उनसे जुडी कथा, किंवदंती, साहित्य और सांस्कृतिक मूल्य कैसे बचते?  बस नहीं चला अन्यथा वाल्मीकि या तुलसीदास के भी ‘शाखा’ प्रचारक होने के सबूत पेश कर दिए गए होते। नतीजा यह हुआ कि रामलीलाओं को भी सांप्रदायिक रंगों में रंगने की कोशिशों का सिलसिला शुरू हुआ। दिल्ली की ऐतिहासिक रामलीलाओं में दशहरा या अन्य उत्सवों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे संवैधानिक पदों पर आसीन विभूतियों के जाने की परंपरा रही है लेकिन जब भाजपा प्रमुख या शीर्ष पदों पर विराजमान नेताओं के रूप में आडवाणी या अटलबिहारी वाजपेयी के पहुँचने और वहां धनुष उठाकर बाण छोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों को यह समझने में देर नहीं लगी कि सांस्कृतिक रामलीला को अब सांप्रदायिक रामलीला बनने से कोई नहीं रोक सकता।

सन 90 के बाद यह प्रक्रिया निरंतर तेज होती चली गई। उत्तर भारत की ज़्यादातर ‘रामलीला कमेटियों’ में ‘विश्व हिंदू परिषद’ के बहाने ‘संघ’ परिवार क़ाबिज़ होना शुरू हो गया। इन ‘कमेटियों’ में जो सेक्युलर विचारों वाले बुज़ुर्ग मेम्बर थे उनके ख़िलाफ़ ‘आयु सीमा’ के नाम पर ऐसा मोर्चा बनाया गया कि वे ख़ुद छोड़ कर चले जाएं। यूपी, एमपी, हरियाणा और हिमाचल में बड़ी तादाद में पुराने कांग्रेसी थे, उन्हें निकाल बाहर किया गया। इनके स्थान पर भाजपा ने अपने सांसद और विधायकों को बैठा दिया गया। राजस्थान में अलबत्ता वे पूरे तौर ऐसा कर पाने में क़ामयाब नहीं हो सके। इसके बाद ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष की शुरुआत के साथ ‘वीएचपी’ के बाक़ी एजेंडे की एंट्री करवाई गई। रामलीला मंच के बहुरंगी ‘विंग’ और पर्दों को नारंगी रंग में रंग दिया गया। श्रीराम आरती के नाम पर शहरों के भाजपा और ‘संघ’ परिवार के पदाधिकारियों को मंचों पर आमंत्रित किया जाने लगा। ये लोग आते और ‘आरती’ के बाद के अपने उद्बोधन में राम जन्मभूमि की स्थापना के महत्व पर लंबे-लंबे आख्यान देकर माहौल ‘गरमाते’।

         आगे चलकर बहुत सारी जगहों पर रामलीलाओं को ‘सेंसर’ किया गया। पीढ़ियों से इनमें अभिनय करने वाले ग़ैर सवर्ण और ग़ैर हिंदू कलाकारों को, जो अभिनय में पारंगत और अपनी भूमिकाओं में धुरंधर हो चुके थे, हटा दिया गया और उनकी जगह ‘हिंदू’ और ‘ब्राह्मण’ पुत्रों को लाया गया। रंगमंचीय दृष्टि से इनमें अधिकांश अज्ञानी और कूढ़मग़ज़ थे।  स्वभावतः ऐसा करने से इन ‘लीलाओं’ का रंगमंचीय और कलात्मक स्तर नीचे गिरता चला गया। सैकड़ों सालों की शानदार रंगमंचीय परिपाटी और ऐतिहासिक रामकथा को सांप्रदायिकता के घृणित पिंजरे में क़ैद कर डालने को आतुर राजनेताओं को इसके कलात्मक स्वरुप से क्या लेना-देना था? जहाँ रामलीला के परंपरागत कलाकारों और शहर के प्रबुद्ध लोगों ने इसका प्रबल विरोध किया, वहां प्रशासन और पुलिस के डंडे से इस विरोध को कुचलने में मदद ली गई।

चूंकि यह सैकड़ों सालों की स्थापित सांस्कृतिक परिपाटी थी लिहाज़ा अनेक स्थानों पर इनका जम कर विरोध हुआ। इन कोशिशों का ऐसे लोगों ने भी विरोध किया जो बिलानागा सुबह सवेरे घर में या कम्युनिटी स्थलों पर जाकर ‘मानस‘ का पाठ किया करते थे। ‘खांटी हिंदू’ या ‘सनातनी’ होने के बावजूद गंगा-जमुनी तहज़ीब उनके भीतर का एक स्वाभाविक सांस्कृतिक बोध थी इसलिए वे विरोध को  निकल पड़े। साम्प्रदायिकता की आंधी इतनी प्रबल और आक्रामक थी कि विरोध के उनके स्वर ज़्यादा टिक नहीं सके। उनसे समपर्पण करवा लिया गया। ऐसे दौर में जबकि समूचा देश कोविड19 की चपेट में बेतरह त्रस्त है, अखिल भारतीय स्तर पर इनकी  प्रस्तुतियों को रद्द करने का निर्णय लिया गया। यह एक सही निर्णय था। तब सवाल उठता है कि अयोध्या और दिल्ली में इन्हें प्रस्तुत किये जाने की अनुमति क्यों दी गई?  रामलीलाओं में राजनीति किस क़दर हावी है, इसका अंदाज़ा इस बार की इनकी इन्हीं 2 प्रस्तुतियों के निर्णय से लगाया जा सकता है।

 साहित्य, कला, सांस्कृतिकता और मनोरंजन की दहलीज़ से चलकर रामलीला कैसे साम्प्रदायिकता की दीवार पर रेंगती  कुत्सित राजनीति के शिखर तक पहुंची है, इसे देखना तो दुखद है ही, यह हमारी परंपरा और मूल्यों के विनाश का भी द्योतक है। जिस तरह की सांस्कृतिक साझा विरासत देश भर की रामलीलाएं परोसती आई हैं, ज़रूरत उन्हें सहेज कर रखने  की है। नवरात्रों के उपवासों में तमाम संकल्पों के साथ हम यदि इस साझा विरासत को सुदृढ़ करने का संकल्प भी लेते हैं तो यह राम और विजयदशमी- दोनों के प्रति हमारे सच्चे विश्वास का प्रतीक सिद्ध होगा।

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(अनिल शुक्ल : हिंदी पत्रकारिता में 4 दशकों की जीवंत पारी। ‘रविवार’ (आनंदबाजार पत्रिका प्रकाशन समूह), ‘संडे मेल’ और ‘अमर उजाला’ में 80 और 90 के दशक में नौकरियाँ। दूरदर्शन के लिए ‘क़ामयाब’ और ग्रेट मास्टर्स, नाम से डॉक्युमेंटेशन की श्रंखलाओं का निर्माण और निर्देशन, दर्जन भर से ज़्यादा चर्चित डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों का निर्माण। स्वतंत्र पत्रकारिता के साथ-साथ इन दिनों आगरा में रहकर ब्रज की 400 वर्ष पुरानी लोक नाट्य कला ‘भगत’ के पुनरुद्धार को सक्रिय।)

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